बीरा! थारी बान परी रे, वरज्यो मानत नाहिं ॥टेक॥विषय-विनोद महा बुरे रे, दुख दाता सरवंग ।तू हटसौं ऐसै रमै रे, दीवे पड़त पतंग ॥बीरा! थारी बान परी रे, वरज्यो मानत नाहिं ॥१॥ये सुख है दिन दोयके रे, फिर दुख की सन्तान ।करै कुहाड़ी लेइकै रे, मति मारै पग जानि ॥बीरा! थारी बान परी रे, वरज्यो मानत नाहिं ॥2॥तनक न संकट सहि सकै रे! छिनमें होय अधीर ।नरक विपति बहु दोहली रे, कैसे भरि है वीर ॥बीरा! थारी बान परी रे, वरज्यो मानत नाहिं ॥3॥भव सुपना हो जायेगा रे, करनी रहेगी निदान ।'भूधर' फिर पछतायगा रे, अबही समुझि अजान ॥बीरा! थारी बान परी रे, वरज्यो मानत नाहिं ॥४॥
अर्थ : भाई! तेरी आदत बुरी हो गई हैं, तू मना करने पर भी मानता नहीं है। ये विषयों के खेल बहुत बुरे हैं, ये सब तरह से दुःख देनेवाले हैं और तू इनमें ऐसे मस्त हो गया है जैसे दीये (दीपक) को देखकर पतंगा मस्त हो जाता है और उसमें आकर पड़ जाता है, जल जाता है, मर जाता है। ये विषय-सुख दो दिन के हैं, फिर इनका जो परिणाम होगा वह दुःख ही होगा। जरा समझ और अपने ही हाथ में कुल्हाड़ी लेकर अपने पाँव पर ही मत मार। दु:ख, वेदना तो तू तनिक भी सहन नहीं कर पाता, क्षणभर में ही विचलित हो जाता है, धैर्यहीन हो जाता है। हे भाई! नरक के दु:ख अत्यन्त कठिन, दुःसाध्य, दुःखदायी हैं। उन्हें कैसे सहन करेगा? यह अवसर बीत जाने पर मनुष्य-जीवन एक स्वप्न के समान हो जायेगा और कुछ किए जाने की अभिलाषा ही शेष रह जायगी। भूधरदास कहते हैं कि अरे अज्ञानी, अब भी समझ अन्यथा तुझे पछताना पड़ेगा।