भगवंत भजन क्यों भूला रे ।यह संसार रैन का सुपना, तन धन वारि बबूला रे ॥टेक॥इस जीवन का कौन भरोसा, पावक में तृण पूला रे ।काल कुदार लिए सिर ठाड़ा, क्या समुझै मन फूला रे ॥भगवंत भजन क्यों भूला रे ॥१॥स्वारथ साधै पांच पांव तू , परमारथ को लूला रे ।कहूं कैसे सुख पावे प्राणी, काम करे दुख मूला रे ॥भगवंत भजन क्यों भूला रे ॥२॥मोह-पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर-कंधवसूला रे ।भज श्री राजमतीवर 'भूधर', दो दुर्मति सिर धूला रे ॥भगवंत भजन क्यों भूला रे ॥३॥
अर्थ : हे जीव! भगवान के भजन गाना, गुणगान-स्मरण करना क्यों भूल गया रे?
यह संसार रात्रि के स्वप्न की भांति (अस्थिर) है, और तन व धन पानी में उठे बबूले की भाँति (क्षणिक) हैं। इस जीवन का क्या भरोसा है, इसका अस्तित्व अग्नि में पड़े तिनकों के ढेर के समान है। मृत्यु सदैव मस्तक ऊँचा किए सम्मुख खड़ी हुई है। (ऐसे में) तू क्या समझकर अपने मन ही मन में फूल रहा है?
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए तू पाँच पाँव चलता है अर्थात् उद्यम करता है। किन्तु परमार्थ (स्वभाव-चिंतन) के लिए अपने को असमर्थ / पंगु मान रहा है । हे प्राणी! तू काम तो दु:ख उपजाने के करता है तो तुझे सुख की प्राप्ति कैसे हो?
मोहरूपी पिशाच कंधे पर वसूला (बढ़ई का एक औजार) रखकर तेरी मति भ्रष्ट कर रहा है, तुझे छल रहा है अर्थात् तू मोहवश पथभ्रष्ट हो रहा है। भूधरदास ! तू राजुल के पति भगवान श्री नेमिनाथ का स्मरण कर, उनका भजन कर और दुर्मति के सिर पर धूल मार अर्थात् अविवेकी मति को छोड़।