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श्री
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मेरे चारौं शरन सहाई
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तर्ज : आज मैं परम पदारथ

मेरे चारौं शरन सहाई ॥टेक॥
जैसे जलधि परत वायसकौं, बोहिथ एक उपाई ॥टेक॥

प्रथम शरन अरहन्त चरनकी, सुरनर पूजत पाई ।
दुतिय शरन श्रीसिद्धनकेरी, लोक-तिलक-पुर राई ॥
मेरे चारौं शरन सहाई ॥१॥

तीजे सरन सर्व साधुनिकी, नगन दिगम्बर-काई ।
चौथे धर्म, अहिंसा रूपी, सुरग मुकति सुखदाई ॥
मेरे चारौं शरन सहाई ॥२॥

दुरगति परत सुजन परिजनपै, जीव न राख्यो जाई ।
'भूधर' सत्य भरोसो इनको, ये ही लेहिं बचाई ॥
मेरे चारौं शरन सहाई ॥३॥



अर्थ : चार ही मेरे सहायक हैं, उपकारी हैं, मुझे इनकी ही शरण है। जैसे समुद्र के मध्य उड़ते हुए पक्षी के लिए जहाज के अतिरिक्त कोई आश्रय नहीं होता, वैसे ही इस संसार-समुद्र में इन चारों के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई सहायक नहीं है जिनकी मैं शरण जा सकूँ ।
पहली शरण मुझे अरहंत के चरणों में है, जिनकी पूजा देव व मनुष्य करते हैं। दूसरी शरण मुझे सिद्ध प्रभु की है, जो लोक के उन्नत भाल पर (लोकाग्र में तिलक के समान) स्थित सिद्धशिला पर राजा को भांति आसीन हैं।
तीसरी शरण मुझे उन सर्व साधुजनों की है, जो नग्न-दिगम्बररूप में सशोभित हैं। चौथी शरण मझे उस अहिंसा-धर्म की है जो स्वर्ग व मुक्ति के सुख का दाता हैं ।
दुर्गति / कष्ट आ पड़ने पर स्वजन- परिजन कोई भी जीव को नहीं रखता। उस समय ये चारों ही उसके लिए शरण होते हैं।
भूधरदास कहते हैं कि सचमुच ऐसे क्षणों में मुझे इन्हीं चारों का भरोसा है। ये ही मुझे इस भवसागर से बचाने में समर्थ हैं।
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