किंकर अरज करत जिन
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राग : प्रभाती
किंकर अरज करत जिन साहिब, मेरी ओर निहारो ॥टेक॥
पतितउधारक दीनदयानिधि, सुन्यौ तोहि उपगारो ।
मेरे औगुनपै मति जावो, अपनो सुजस विचारो ॥
किंकर अरज करत जिन साहिब, मेरी ओर निहारो ॥१॥
अब ज्ञानी दीसत हैं तिनमैं, पक्षपात उरझारो ।
नाहीं मिलत महाव्रतधारी, कैसें है निरवारो ॥
किंकर अरज करत जिन साहिब, मेरी ओर निहारो ॥2॥
छवी रावरी नैननि निरखी, आगम सुन्यौ तिहारो ।
जात नहीं भ्रम क्यौं अब मेरो, या दूषन को टारो ॥
किंकर अरज करत जिन साहिब, मेरी ओर निहारो ॥3॥
कोटि बात की बात कहत हूं, यो ही मतलब म्हारो ।
जौलौं भव तोलौं 'बुधजन' को, दीज्ये सरन सहारो ॥
किंकर अरज करत जिन साहिब, मेरी ओर निहारो ॥४॥