देखा आतमरामा, मैंने देखा आतमरामा ॥टेक॥रूप फरस रस गंध तें न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा ।नित्य निरंजन जाकै नाहीं, क्रोध लोभ मद कामा ॥देखा आतमरामा, मैंने देखा आतमरामा ॥१॥भूख प्यास सुख दुःख नहिं जाकै, नाहि बन पुर गामा ।नहिं साहब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ॥देखा आतमरामा, मैंने देखा आतमरामा ॥२॥भूलि अनादि थकी जग भटकत, लै पुद्गल का जामा ।'बुधजन' संगति जिनगुरु की तैं, मैं पाया मुझ ठामा ॥देखा आतमरामा, मैंने देखा आतमरामा ॥३॥
अर्थ : ज्ञानी जीव ऐसा कहते है कि मैंने आतमराम को देख लिया अर्थात् उसका अनुभव कर लिया है।
कैसा है वह आत्मा - स्पर्श, रस, गंध और वर्ण से रहित दर्शन, ज्ञान आदि गुणों का धाम हैं और क्रोध, लोभ, मान और माया आदि कषाय परिणामों की कालिमा से रहित होने से सदा पवित्र ही है ।
और जिसको भूख-प्यास, सुख-दुःख आदि की व्याधि नहीं है तथा न ही उसके पास वन, नगर और गाँव रूपी परिग्रह हैं। मेरी आत्मा का कोई स्वामी नहीं, कोई नौकर नहीं और न ही पिता या मामा जैसे कोई सम्बन्धी हैं।
बुधजन कवि कहते हैं कि अनादि काल से इस पुद्गल द्रव्य की प्रीति के कारण संसार में भटकते हुये अब मैं थक गया हूँ। अत: अब, जब मैंने वीतरागी भगवन्तों और श्री मुनिगज की संगति की तो मुझे मेरा आत्मा अर्थात् मेरा निज स्थान मिल गया।