गुरु दयाल तेरा दुःख लखिकैं, सुनलै जो फरमावै है ॥टेक॥तो में तेरा जतन बताबै, लोभ कछु नहि चावै है ॥१॥पर स्वभाव को मोर्या चाहै, अपना उसा बनावै है ।सो कबहूं हुवा न होसी, नाहक रोग लगावै है ॥2॥खोटी खरी जस करी कमाई, तैसी तेरे आवै है ।चिन्ता आगि उठाय हिया मैं नाहक जान जलावै है ॥3॥पर अपनावै सो दुख पावै, 'बुधजन' ऐसे गावै है ।पर को त्यागि आप थिर तिष्ठै, सो अविचल सुख पावै है ॥4॥