धर्म बिन कोई नहीं अपनासब सम्पत्ति धन थिर नहिं जग में, जिसा रैन सपना ॥टेक॥आगैं किया सो पाया भाई, याही है निरना ।अब जो करैगा सो पावैगा, तातैं धर्म करना ॥धर्म बिन कोई नहीं अपना ॥१॥ऐसै सब संसार कहत है, धर्म कियैं तिरना ।परपीड़ा बिसनादिक सेवैं, नरकविषैं परना ॥धर्म बिन कोई नहीं अपना ॥२॥नृपके घर सारी सामग्री, ताकैं ज्वर तपना ।अरु दारिद्रीकैं हू ज्वर है, पाप उदय थपना ॥धर्म बिन कोई नहीं अपना ॥३॥नाती तो स्वारथ के साथी, तोहि विपत भरना ।वन गिरि सरिता अगनि युद्धमैं, धर्महि का सरना ॥धर्म बिन कोई नहीं अपना ॥४॥चित 'बुधजन' सन्तोष धारना, पर चिन्ता हरना ।विपति पड़ै तो समता रखना, परमातम जपना ॥धर्म बिन कोई नहीं अपना ॥५॥
अर्थ : धर्म के बिना अपना कोई नहीं है ।
जिसको हम अपनी समपत्ति मानते हैं, वह इस जगत में स्थिर नहीं रहती । रात को देखे स्वप्नवत् नष्ट हो जाती है ।
पहले जैसा किया उन्ही कर्मों का फल आज भोग रहे हैं, यह स्पष्ट है । आज जो करेंगे उसका फल आगे भोगेंगे । इसलिए धर्म करना । धर्म के बिना अपना कोई नहीं है ।
समस्त संसार इस बात का समर्थन करता है कि यह जीव धर्म के द्वारा ही संसार सागर से पार होता है । इसके विपरीत जो दूसरों को कष्ट पहुंचाता है या व्यसन आदि का सेवन करता है, उसका फल नरक है । धर्म के बिना अपना कोई नहीं है ।
राजा भी इस संसार में सुखी नहीं है और दरिद्र भी सुखी नहीं है । राजा तृष्णा के ज्वर से दुखी है और दरिद्र पाप के उदय के कारण अभाव में दुखी है । धर्म के बिना अपना कोई नहीं है ।
आत्मन्! तेरे जितने भी सम्बन्धीजन हैं, जिन्हें तू अपना बतलाता है, सब स्वार्थ के साथी हैं -- अपना काम निकल जाने पर तुम्हारा कोई भी साथ देनेवाला नहीं है। विपत्तियों का बोझ तुझे अकेले ही उठाना होगा। वन में, पहाड़ों पर, नदी और अग्निकाण्डों में तथा युद्ध-जैसे अवसरों पर केवल धर्म ही तुम्हारी शरण हो सकता है। जगत में धर्म के सिवाय कोई अपना नहीं है।
आत्मन्! चित्त में सदैव सन्तोष धारण करना, दूसरों को आकुलता को दूर करना, विपत्ति-काल में व्याकुल न होकर समता धारण करना और निरन्तर परमात्मा का पुण्य स्मरण करना-- यही धर्म है। जगत् में धर्म के सिवाय कोई अपना नहीं है।