सुणिल्यो जीव सुजान, सीख सुगुरु हित की कही रुल्यौ अनन्ती बार, गति-गति साता ना लही ॥टेक॥कोइक पुन्य संजोग, श्रावक कल नरगति लही ।मिले देव निरदोष, वाणी भी जिनकी कही ॥१॥चरचा को परसग, अरु सरध्या मैं बैठिवो ।ऐसा अवसर फेरि, कोटिं- जनम नहिं भेंटिवों ॥२॥झूठी आशा छोड़ि, तत्त्वारथ रुचि धारिल्यो ।या में कछू न बिगार, आपो आप सुधारिल्यो ॥३॥तन को आतम मानि, भोग विषय कारज करो । यों ही करत अकाज, भव भव क्यों कूवे परो ॥४॥कोटि ग्रन्थ कौ सार, जो भाई 'बुधजन' करौ ।राग-दोष परिहार, याही भव सौं उद्धरो ॥५॥