अब घर आये चेतनराज, सजनी खेलौंगी मैं होरी ॥टेक॥आरस सोच कानि कुल हरिकै, धरि धीरज वरजोरी ॥1॥बुरी कुमति की बात न बूझै, चितवत है मो ओरी ।वा गुरुजन की बलि ले जाऊं, दूरि करी मति भोरी ॥2॥निज सुभाव जल हौज भराऊं, घोरूं निजरँग रोरी ।निज ल्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी ॥3॥गाय रिझाय आप वश करिकै, जावन द्यौं नहि पोरी ।'बुधजन' रचि पचि रहूं निरंतर, शक्ति अपूरव मोरी ॥4॥
अर्थ : हे सखी, चेतन राजा घर आ गये हैं, मैं होली खेलूंगी। दुःख शोक, शर्म, लाज सब छोड़कर धैर्य धारण करूंगी।
मेरे पति अब कुमति की बात नहीं मानते हैं और मेरी ही ओर देखते हैं। मैं अपने गुरुदेव की आभारी हूँ कि उन्होंने उसकी अज्ञान बुद्धि दूर कर दी।
अब मैं अपने स्वभाव जल का कुंड भराऊंगी और उसमें आत्मरंग की रोली घोलूंगी। आत्मलगन की शुद्ध पिचकारी दौड़कर छिड़केंगी।
अब मैं उसे गाकर, रिझाकर अपने ही वश में रखूंगी, दूसरे के घर नहीं जाने दूँगी । बुधजन कवि कहते हैं कि सदा उसी में गहराई से लीन रहूँगी। मूझ में अपूर्व शक्ति है।