चेतन उलटी चाल चले ।जड संगत तैं जडता व्यापी निज गुन सकल टले ॥टेक॥हित सों विरचि ठगनि सों रचि, मोह पिशाच छले ।हंसि हंसि फंद सवारि आप ही, मेलत आप गले ॥चेतन उलटी चाल चले ॥१॥आये निकसि निगोद सिंधु तें, फिर तिह पंथ चले ।कैसे परगट होय आग जो, दबी पहार तले ॥चेतन उलटी चाल चले ॥२॥भूले भव भ्रम बीचि, 'बनारसी' तुम सुरज्ञान भले ।धर शुभ ध्यान ज्ञान नौका चढ़ि, बैठें तें निकले ॥चेतन उलटी चाल चले ॥३॥
अर्थ : मानव, तुमने बिलकुल विपरीत दिशा में प्रयाण किया ।
जड़वस्तु-कर्म-समूह की संगति से तुम्हारे अन्दर भी जड़ता समा गई और तुम्हारे सहज गुण न मालुम कहाँ विलीन हो गये ।
आत्मन्, तुम अपनी विपरीत परिणति तो देखो ! तुम अपने हितकर भावों से तो उदास रहे और जो तुम्हारे अहितकर राग-द्वेष आदि वंचक भाव थे उनसे तुमने नेह किया। इतना ही नहीं, मोह-पिशाच ने तुम्हें खूब छला और तुमने बन्धन की रस्सी को खूब संभाल-संभालकर खुशी-खशी अपने हाथों ही अपने गले में फंसाया ।
आत्मन्, तुमने बिलकुल विपरीत दिशा में प्रयाण किया ।
आत्मन्, तुमने निगोद-सागर से निकलकर तो यह दुर्लभ नर-तन पाया और अब अपनी करनी से फिर उसी मार्ग पर जा रहे हो । भला, सोचो तो जो भाग पहाड़ के नीचे दबी हुई है वह क्या आसानी से बाहर आ सकती है । उसके लिये तो पहाड़ फोड़कर ही बाहर लाना होगा । इसी प्रकार जो आत्म-शक्ति चिरकाल से कर्म-बन्धन से निस्तेज पड़ी है उसे जाग्रत और सतेज बनाने के लिए भी महान् प्रयत्न वाञ्छनीय है ।
आत्मन्, तुमने बिलकुल विपरीत दिशा में प्रयाण किया ।
आत्मन्, तुम संसार में भ्रमवश दिव्य ज्ञान भूल रहे हो । इस संसार-सागर से वे ही पार हुए हैं जो शुभ ध्यान का संकल्प लेकर ज्ञान रूपी नौका पर आरूढ़ हुए ।
आत्मन्, तुमने बिलकुल विपरीत दिशा में प्रयाण किया ।