हम बैठे अपनी मौन सौं ॥टेक॥दिन दस के मेहमान जगत जन, बोलि बिगारै कौन सौं ॥१॥गये विलाय भरम के बादर, परमारथ-पथ-पौन सौं ।अब अन्तर गति भई हमारी, परचे राधा रौन सौं ॥हम बैठे अपनी मौन सौं ॥२॥प्रगटी सुधापान की महिमा, मन नहिं लागै बौन सौं ।छिन न सुहाय और रस फीके, रुचि साहिब के लौन सौं ॥हम बैठे अपनी मौन सौं ॥३॥रहे अघाय पाय सुख संपति, को निकसै निज भौन सौं ।सहज भाव सद्गुरु की संगति, सुरझै आवागौन सौं ॥हम बैठे अपनी मौन सौं ॥४॥
अर्थ : हम तो मौन से बैठे हैं-- हमारा सबके प्रति मैत्रीभाव है। जगत् के हम सब जन दस दिन के मेहमान हैं-न मालूम किसे कब यहाँ से चल देना है। इसलिए हम अप्रिय बोली से किसी का मन क्यों दुखावें!
इस समय हम परमार्थ-पथ के अनुसारी हैं और इस परमार्थरूपी पवन से हमारे समस्त भ्रम के बादल विलीन हो गये हैं। हमारा स्वानुभवरूपी राधारमण से परिचय हो गया है और हमारी प्रवृत्ति भी एकदम अन्तर्मुख हो गयी है। हम तो मौन बैठे हैं--हमारा सबके प्रति मैत्रीभाव है।
हमारे अन्तस् में अमृत पीने की महिमा जागृत हो उठी है और हमारा मन वमन-सेवन से बिलकुल उचट गया है। अब हमें क्षणभर के लिए भी अन्य रस अच्छे नहीं मालूम दे रहे हैं। वे सब फीके हो गये हैं और अब हमारी रुचि केवल आत्माराम के लावण्य पर ही अटकी हुई है।
हमने जो अक्षय सुख-सम्पत्ति प्राप्त की है, उससे हमारा मन अघा गया है -- भर गया है, अब हमें किसी भी वस्तु के लिए अपने घर से बाहर जाने की जरूरत नहीं है। हमें अपना सहज आत्मिक भावरूपी गुरु मिल गया है और हम संसार के आवागमन से विमुक्त हो चुके हैं।