मोहि सुन-सुन आवे हाँसी, पानी में मीन पियासी ॥टेक॥ ज्यों मृग दौड़ा फिरे विपिन में, ढूँढे गन्ध बसे निजतन में । त्यों परमातम आतम में शठ, पर में करे तलासी ॥१॥कोई अँग भभूति लगावे, कोई शिर पर जटा बढ़ावे ।कोई पंचाग्नि तपे कोई रहता दिन रात उदासी ॥२॥कोई तीरथ वन्दन जावे, कोई गंगा जमुना न्हावे ।कोई गढ़ गिरनार द्वारिका, कोई मथुरा कोई काशी ॥३॥कोई वेद पुरान टटोले, मन्दिर मस्जिद गिरजा डोले ।ढूंढा सकल जहान न पाया, जो घट घट का वासी ॥४॥'मक्खन' क्यों तू इत उत भटके, निज आतमरस क्यों नहिं गटके ।जन्म-मरण दुख मिटे कटे, लख चौरासी की फाँसी ॥५॥