ये आत्मा क्या रंग, दिखाता नये नये । बहुरूपिया ज्यों भेष, बनाता नये नये ॥टेक॥धरता है स्वांग देव का, स्वर्गों में जाय के ।करता किलोल देवियों के, सँग नये नये ॥१॥गर नर्क में गया तो, रूप नारकी धरा ।लखि मार पीट भूख प्यास, दुख नये नये ॥२॥. तिर्यञ्च में गज बाज वृषभ, महिष मृग अजा ।धारे अनेक भांति के, काबिल नये नये ॥३॥नर नारि नपुँसक बना, मानुष की योनि में ।फल पुन्य पाप के उदय, पाता नये नये ॥४॥'मक्खन' इसी प्रकार भेष, लाख चौरासी ।धारे बिगारे बार बार, फिर नये नये ॥५॥