कैसे होरी खेलूँ होरी खेल न आवै ॥टेक॥प्रथम पाप हिंसा जा मांही, दूजे झूठ जु पावै ॥1॥तीजे चोर कलाविद जामैं, नैक न रस चुप जावै ॥2॥चोथो परनारी सौं परचैं, शील वरत मल लावै ।तृष्णा पाप पाचऊं जामैं, छिन छिन अधिक बढ़ावै ॥3॥सब विधि अशुभ रूप जे कारिज, करत ही चित चपलावै ।अक्षर ब्रह्म खेल अति नीको, खेलत हिये हुलसावै ॥4॥'जगतराम' सोही खेल खेल खेलिये, जो जिन धर्म बढावै ॥5॥
अर्थ : मैं होली कैसे खेलूँ? खेला ही नहीं जाता। प्रथम तो उसमें हिंसा का महापाप लगता है, दूसरे झूठ का भी उसमें पाप लगता है, तीसरे चोरी का भी पाप उसमें लगता है, चौथा परनारी का सम्पर्क होने से शीलव्रत में भी मलिनता आती है और पाँचवें तृष्णा भी हर क्षण बढ़ती रहती है।
अतः जो सभी प्रकार से अशुभ हो- ऐसी इस होली को मैं कैसे मैं खेलूँ? इससे तो चित्त में अत्यधिक चंचलता उत्पन्न हो जाती है।
कवि जगतराम कहते हैं कि अक्षरब्रह्म का खेल ही वस्तुत: श्रेष्ठ है, खेलने योग्य है, उसे खेलने से चित्त में सच्ची प्रसन्नता उत्पन्न होती है। हमें वही खेल खेलना चाहिए, जिससे जिनधर्म की वृद्धि हो ।