कहा बानि परी पिय तोरी,कुमति संग खेलत है नित होरी ॥टेक॥कुमति कर कुबजा रंग राची, लाज शरम सब चोरी ।रागद्वेष भय धूल लगावे, नाचे ज्यों चकडोरी ॥कहा बानि परी पिय तोरी ॥1॥अक्ष विषय रंग भरि पिचकारी, कुमति कुत्रिय सरबोरी ।जा संग चिर दुखी भये, फिर प्रीति करत बरजोरी ॥कहा बानि परी पिय तोरी ॥2॥निजघर की पिय सुधि विसारि के परत पराई पोरी ।तीन लोक के ठाकुर कहियत सो विधि सबरी बोरी ॥कहा बानि परी पिय तोरी ॥3॥बरजि रही बरजो नहिं मानत ठानत हठ बर जोरी ।हठ तजि सुमति सीख भजि 'मानिक' तो विलसो शिवगोरी ॥कहा बानि परी पिय तोरी ॥4॥
अर्थ : सुमतिरूपी स्त्री अपने पति आत्मदेव से कहती है कि हे प्रियतम! यह तुम्हें कैसी बुरी आदत पड़ी है कि तुम अनादिकाल से आज तक हमेशा कुमति रूपी स्त्री के साथ होली खेलते हो !
हे प्रियतम! यह कुमति रूपी स्त्री क्रूर (निर्दयी) है, कुब्जा (शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ) है, और संसार के मिथ्या रंगों में रची-पची हुई है। इसने लाज- शर्म को पूरी तरह त्याग कर दिया है। यह सदैव राग-द्वेष रूपी धूल को लगाती है और चकडोरी की तरह नाचती रहती है।
हे प्रियतम! उस कुमति रूपी स्त्री ने अपनी पिचकारी में पंचेन्द्रिय-विषयों का रंग भर रखा है और उससे तुम्हें सराबोर भी कर दिया है। तुम इसके साथ ऐसी होली खेलकर अनादि काल से अब तक बहुत दुखी हो चुके हो, परन्तु अभी भी उसी से अत्यधिक प्रेम करते हो।
हे प्रियतम! मैं तुम्हें (कुमति रूपी स्त्री के साथ होली खेलने के सम्बन्ध में) बहुत मना कर रही हूँ, पर तुम मना करते-करते भी मान नहीं रहे हो और जबरदस्ती अपनी ही हठ चला रहे हो।
कविवर माणिक कहते हैं कि अब तुम अपनी बुरी हठ छोड़ो और अपनी सुमतिरूपी स्त्री की उक्त शिक्षा को ग्रहण करो, ताकि रूपी स्त्री के साथ आनन्द से रह सको। तुम मोक्ष रूपी स्त्री के साथ आनंद से रह सको ।