अजित जिन विनती
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अजित जिन विनती हमारी मान जी, तुम लागे मेरे प्रान जी ।
तुम त्रिभुवन में कलप तरुवर, आस भरो भगवानजी ॥
वादि अनादि गयो भव भ्रमतै, भयो बहुत कुल कानजी ।
भाग संयोग मिले अब दीजे, मनवांछित वरदान जी ॥१॥
ना हम मांगे हाथी-घोड़ा, ना कछु संपति आनजी ।
'भूधर' के उर बसो जगत-गुरु, जबलौं पद निरवान जी ॥२॥