निरखि जिनचन्द री माई ॥प्रभु-दुति देख मन्द भयो निशिपति, आन सुपग लिपटाई ।प्रभु सुचन्द वह मन्द होत है, जिन लख सूर छिपाई ।सीत अदभुत सो बताई ॥1॥अम्बर शुभ्र निरन्तर दीसै, तत्त्व मित्र सरसाई ।फैल रही जग धर्म-जुन्हाई, चारन चार लखाई ।गिरा अमृत सो गनाई ॥2॥भये प्रफुल्लित भव्य कुमुद मन, मिथ्या तम सो नसाई ।दूर भये भव-ताप सबनि के, बुध-अम्बुधि सो बढ़ाई। मदन-चकवे की जुदाई ॥3॥ श्री जिनचन्द वन्द अब 'दौलत', चितकर चन्द लगाई ॥कर्मबन्ध निर्बन्ध होत हैं, नाग सु दमनि लसाई ।होत निर्विष सरपाई ॥4॥