त्रिभुवनगुरु स्वामी जी, करुणानिधि नामी जी ।सुनि अंतरजामी, मेरी वीनतीजी ॥१॥मैं दास तुम्हारा जी, दुखिया बहु भारा जी ।दुख मेटनहारा, तुम जादोंपती जी॥२॥भरम्यो संसारा जी, चिर विपति-भंडारा जी ।कहिं सार न सारे, चहुँगति डोलियो जी ॥३॥दुख मेरु समाना जी, सुख सरसों दाना जी ।अब जान धरि ज्ञान, तराजू तोलिया जी ॥४॥थावर तन पाया जी, त्रस नाम धराया जी ।कृमि कुंथु कहाया, मरि भँवरा हुवा जी ॥५॥पशुकाया सारी जी, नाना विधि धारी जी ।जलचारी थलचारी, उड़न पखेरु हुवा जी ॥६॥नरकनके माहीं जी, दुख ओर न काहीं जी ।अति घोर जहाँ है, सरिता खार की जी ॥७॥पुनि असुर संघारै जी, निज वैर विचारैं जी ।मिलि बांधैं अर मारैं, निरदय नारकी जी ॥८॥मानुष अवतारै जी, रह्यो गरभमँझारै जी ।रटि रोयो जैनमत, वारैं मैं घनों जी ॥९॥जोवन तन रोगी जी, कै विरह वियोगी जी ।फिर भोगी बहुविधि, विरधपनाकी वेदना जी ॥१०॥सुरपदवी पाई जी, रंभा उर लाई जी ।तहाँ देखि पराई, संपति झूरियो जी ॥११॥माला मुरझानी जी, तब आरति ठानी जी ।तिथि पूरन जानी, मरत विसूरियो जी ॥१२॥यों दुख भवकेरा जी, भुगतो बहुतेरा जी ।प्रभु! मेरे कहतै, पार न है कहीं जी ॥१३॥मिथ्यामदमाता जी, चाही नित साता जी ।सुखदाता जगत्राता, तुम जाने नहीं जी ॥१४॥प्रभु भागनि पाये जी, गुन श्रवन सुहाये जी ।तकि आयो अब सेवक की, विपदा हरो जी ॥१५॥भववास बसेरा जी, फिरि होय न मेरा जी ।सुख पावै जन तेरा, स्वामी! सो करो जी ॥१६॥तुम शरनसहाई जी, तुम सज्जनभाई जी ।तुम माई तुम्हीं बाप, दया मुझ लीजिये जी ॥१७॥'भूधर' कर जोरे जी, ठाड़ो प्रभु ओरै जी ।निजदास निहारो, निरभय कीजिये जी ॥१८॥