तज कपट महा दुखकारी, भज आर्जव वृष हितकारी ॥टेक॥तूने उत्तम नरभव पाया, श्रावक कुल में आया ।नहिं कछ भी धर्म कमाया, बन करके मायाचारी ॥१॥क्यों मायाजाल बिछाता, तू भोले जीव फंसाता ।क्यो बगुला भक्ति दिखाता, तेरी मति गई है मारी ॥२॥माया की भगिया छानी, नहीं बोले सांची बानी ।भावे मिथ्या वच सानी, जो दुरगति की सहचारी ॥३॥छिप करके पाप कमाता, बाहर से धर्म दिखाता ।कोई विश्वास न लाता, सब कहते ढोंगाचारी ॥४॥ इससे अब जागो जागो, माया को त्यागो त्यागो ।वृष आर्जव मे चित पागो, तज कपटभाव से यारी ॥५॥तज भाव करोंत समान, अरु बगुला भक्ति महान ।यह भाव महा दख दान, भज सरल भाव सुखकारी ॥६॥जहा किंचित कपट न पायो, वह आर्जव धर्म कहायो ।यह छंद 'प्रेम' ने गायो, निष्कपट बनो नर-नारी ॥७॥