काहेको सोचत अति भारी, रे मन!पूरब करमन की थित बाँधी, सो तो टरत न टारी ॥टेक॥सब दरवनिकी तीन कालकी, विधि न्यारीकी न्यारी ।केवलज्ञान विषैं प्रतिभासी, सो सो ह्वै है सारी ॥काहे १॥सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख ख्वारी ।चिंता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी ॥काहे २॥रोग सोग उपजत चिंतातैं, कहौ कौन गुनवारी ।'द्यानत' अनुभव करि शिव पहुँचे, जिन चिंता सब जारी ॥काहे ३॥