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प्रवचनसार
























- कुन्दकुन्दाचार्य



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022

Index


अधिकार

ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार चरणानुयोग-चूलिका-अधिकार परिशिष्ट







Index


गाथा / सूत्रविषय
000_index) विषयानुक्रमणिका
000_मंगलाचरण) टीकाकार (अमृतचंद्रआचार्य और जयसेनाचार्य) द्वारा मंगलाचरण

ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार

001) तीर्थ-नायक को प्रणमन
002) पंच परमेष्ठी को नमस्कार
003) वर्तमान तीर्थंकरों को नमन
004-005) साम्य का आश्रय
006) सराग और वीतरागचारित्र में हेय-उपादेय
007) चारित्र का स्वरूप
008) आत्मा ही चारित्र है
009) जीव ही शुभ, अशुभ और शुद्ध
010) परिणाम वस्तु का स्वभाव
011) शुद्ध परिणाम के ग्रहण और शुभ परिणाम के त्याग के लिये उनका फल विचारते हैं
012) अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ परिणाम का फल विचारते हैं
013)  शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं
014) शुद्धोपयोग परिणत आत्मा का स्वरूप
015) शुद्धोपयोग द्वारा तत्काल ही होनेवाली शुद्ध आत्मस्वभाव प्राप्ति की प्रशंसा
016) शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष होने से अत्यन्त आत्माधीन
017) शुद्धात्म-स्वभाव के अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तता
018) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सर्व द्रव्यों के साधारण, शुद्ध आत्मा के भी
019) सर्वज्ञ को जो मानते हैं, वो सम्यग्दृष्टी
020) आत्मा के इन्द्रियों के बिना ज्ञान और आनन्द कैसे?
021) शुद्ध आत्मा के शारीरिक सुख दुःख नहीं
022) केवली भगवान के सब प्रत्यक्ष
023) भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं
024) आत्मा का ज्ञान प्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतपना
025-026) आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने में दोष
027) ज्ञान की भाँति आत्मा का भी सर्वगतत्व न्याय-सिद्ध
028) आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार
029) ज्ञान ज्ञेय के समीप नहीं जाता
030) ज्ञेय-पदार्थों में प्रविष्ट नहीं हुआ होने पर भी प्रविष्ट की भाँति ज्ञात होता है
031) उसी अर्थ को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं
032) पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं
033) ज्ञानी की ज्ञेय पदार्थों के साथ भिन्नता ही है
034) भाव-श्रुतज्ञान से भी आत्मा का परिज्ञान होता है
035) पदार्थों की जानकारी-रूप भावश्रुत ही ज्ञान है
036) भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता
037) आत्मा ज्ञान है और शेष ज्ञेय हैं
038) भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं
039) भूत-भावि पर्यायों की असद्भूत--अविद्यमान संज्ञा है
040) वर्तमान ज्ञान के असद्भूत पर्यायों का प्रत्यक्षपना दृढ़ करते हैं
041) भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को इन्द्रिय ज्ञान नहीं जानता है
042) अतीन्द्रिय ज्ञान भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को जानता है
043) जिसके कर्मबन्ध के कारणभूत हितकारी-अहितकारी विकल्परूप से, जानने योग्य विषयों में परिणमन है, उसके क्षायिकज्ञान नहीं है
044) ज्ञान और रागादि रहित कर्म का उदय बंध का कारण नहीं है
045) केवली के रागादि का अभाव होने से धर्मोपदेशादि भी बंध के कारण नहीं हैं
046) रागादि रहित कर्मोदय तथा विहारादि क्रिया बंध का कारण नहीं है
047) केवली-भगवान की भाँति समस्त जीवों के स्वभाव विघात का अभाव होने का निषेध
048) पुन: चालु विषय का अनुसरण करके अतीन्द्रिय ज्ञान को सर्वज्ञरूप से अभिनन्दन करते हैं
049) जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता
050) एक को न जानने वाला सबको नहीं जानता
051) क्रमश: प्रवर्तमान ज्ञान की सर्वगतता सिद्ध नहीं होती
052) युगपत् प्रवृत्ति के द्वारा ही ज्ञान का सर्वगतत्व
053) केवलज्ञानी के ज्ञप्तिक्रिया का सद्भाव होने पर भी उसके क्रिया के फलरूप बन्ध का निषेध
054) ज्ञान-प्रपंच व्याख्यान के बाद आधारभूत सर्वज्ञ को नमस्कार
055) ज्ञान और सुख की हेयोपादेयता
056) अतीन्द्रिय सुख का साधनभूत अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है
057) इन्द्रिय-सुख का साधनभूत इन्द्रिय-ज्ञान हेय है
058) इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होतीं, इसलिये इन्द्रियज्ञान हेय ही है
059) इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है
060) परोक्ष और प्रत्यक्ष के लक्षण बतलाते हैं
061) प्रत्यक्ष-ज्ञान पारमार्थिक सुख-रूप
062) ऐसे अभिप्राय का खंडन करते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा' खेद का सम्भव होने से केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख नहीं है
063) 'केवलज्ञान सुखस्वरूप है' ऐसा निरूपण करते हुए उपसंहार
064) केवलज्ञानियों को ही पारमार्थिक सुख होता है
065) परोक्षज्ञान वालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख
066) जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है
067) मुक्त आत्मा के सुख की प्रसिद्धि के लिये, शरीर सुख का साधन होने की बात का खंडन
068) इसी बात को दृढ़ करते हैं
069) जैसे निश्चय से शरीर सुख का साधन नहीं है, उसी प्रकार निश्चय से विषय भी सुख के करण नहीं
070) आत्मा के सुख-स्वभावता और ज्ञान-स्वभावता अन्य दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं
071) श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव पूर्वोक्त लक्षण अनन्त-सुख के आधारभूत सर्वज्ञ को वस्तुस्तवनरूप से नमस्कार करते हैं
072) उन्हीं भगवान को सिद्धावस्था सम्बन्धी गुणों के स्तवनरूप से नमस्कार
073) इन्द्रिय-सुख स्वरूप सम्बन्धी विचारों को लेकर, उसके साधन (शुभोपयोग) का स्वरूप
074) शुभोपयोग साधन है और उनका साध्य इन्द्रियसुख है
075) इसप्रकार इन्द्रिय-सुख की बात उठाकर अब इन्द्रिय-सुख को दुखपने में डालते हैं
076) इन्द्रिय-सुख के साधनभूत पुण्य को उत्पन्न करनेवाले शुभोपयोग की, दुःख के साधनभूत पाप को उत्पन्न करनेवाले अशुभोपयोग से अविशेषता
077) शुभोपयोग-जन्य फलवाला जो पुण्य है उसे विशेषत: दूषण देने के लिये उस पुण्य को (उसके अस्तित्व को) स्वीकार करके, उसकी (पुण्य की) बात का खंडन
078) इस प्रकार स्वीकार किये गये पुण्य दु:ख के बीज (तृष्णा) के कारण हैं
079) पुण्य में दुःख के बीज की विजय घोषित करते हैं
080) पुन: पुण्य-जन्य इन्द्रिय-सुख को अनेक पकार से दुःखरूप प्रकाशित करते हैं
081) पुण्य और पाप की अविशेषता का निश्चय करते हुए उपसंहार
082) इस प्रकार शुभ और अशुभ उपयोग की अविशेषता अवधारित करके, अशेष दुःख का क्षय करने का मन में दृढ़ निश्चय करके शुद्धोपयोग में निवास
083) शुद्धोपयोग के अभाव में शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है - व्यतिरेक रूप से दृढ करते हैं
084) शुद्धोपयोग का अभाव होने पर जैसे (जिन के समान) जिन सिद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं करता है
085) इस प्रकार के उन निर्दोषी परमात्मा की जो श्रद्धा करते हैं - उन्हे मानते हैं - वे अक्षय सुख को प्राप्त करते हैं, एसा प्रज्ञापन करते हैं - ज्ञान कराते हैं
086) 'मैं मोह की सेना को कैसे जीतूं' - ऐसा उपाय विचारता है
087) इसप्रकार मैने चिंतामणि-रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है, ऐसा विचार कर जागृत रहता है
088) यही एक, भगवन्तों ने स्वयं अनुभव करके प्रगट किया हुआ मोक्ष का पारमार्थिक पंथ है
090) शुद्धात्म-लाभ के परिपंथी (शत्रु) मोह का स्वभाव और उसमें प्रकारों को व्यक्त करते हैं
091) तीनों प्रकार के मोह को अनिष्ट कार्य का कारण कहकर उसका क्षय करने को सूत्र द्वारा कहते हैं
092) इस मोह-राग-द्वेष को इन चिन्हों के द्वारा पहिचान कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना चाहिये
093) मोह-क्षय करने का उपायान्तर (दूसरा उपाय) विचारते हैं
094) जिनेन्द्र के शब्द ब्रह्म में अर्थों की व्यवस्था (पदार्थों की स्थिति) किस प्रकार है सो विचार करते हैं
095) इस प्रकार मोहक्षय के उपायभूत जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर भी पुरुषार्थ अर्थक्रियाकारी है, इसलिये पुरुषार्थ करता है
096) स्व-पर के विवेक की सिद्धि से ही मोह का क्षय हो सकता है, इसलिये स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं
097) सब प्रकार से स्व-पर के विवेक की सिद्धि आगम से करने योग्य है, ऐसा उपसंहार करते हैं
098) न्याय-पूर्वक ऐसा विचार करते हैं कि- जिनेन्द्रोक्त अर्थों के श्रद्धान बिना धर्म-लाभ (शुद्धात्म-अनुभवरूप धर्म-प्राप्ति) नहीं होता
099) दूसरी पातनिका - सम्यक्त्व के अभाव में श्रमण (मुनि) नहीं है, उस श्रमण से धर्म भी नहीं है । तो कैसे श्रमण हैं? एसा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हुए ज्ञानाधिकार का उपसंहार करते हैं
100) ऐसे निश्चय रत्नत्रय परिणत महान तपोधन (मुनिराज) की जो वह भक्ति करता है, उसका फल दिखाते हैं
101) उस पुण्य से दूसरे भव में क्या फल होता है, यह प्रतिपादन करते हैं

ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार

102) अब सम्यक्त्व (अधिकार) कहते हैं -
103) ज्ञेयतत्त्व का प्रज्ञापन करते हैं अर्थात् ज्ञेयतत्त्व बतलाते हैं । उसमें (प्रथम) पदार्थ का सम्यक् (यथार्थ) द्रव्यगुणपर्यायस्वरूप वर्णन करते हैं
104) अनुषंगिक (पूर्व-गाथा के कथन के साथ सम्बन्ध वाली) ऐसी यह ही स्‍वसमय-परसमय की व्‍यवस्‍था (भेद) निश्‍च‍ित (उसका) उपसंहार करते हैं
105) द्रव्य का लक्षण बतलाते हैं
106) अनुक्रम से दो प्रकार का अस्तित्व कहते हैं । स्वरूप-अस्तित्व और सादृश्य अस्तित्व । इनमें से यह स्वरूपास्तित्व का कथन है
107) यह (नीचे अनुसार) सादृश्य-अस्तित्व का कथन है
108) द्रव्यों से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का और द्रव्य से सत्ता का अर्थान्तरत्व होने का खण्डन करते हैं ।
109) अब, यह बतलाते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर भी द्रव्य सत् है
110) अब, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का परस्पर अविनाभाव दृढ़ करते हैं
111) अब, उत्पादादि का द्रव्य से अर्थान्तरत्व को नष्ट करते हैं; (अर्थात् यह सिद्ध करते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य से पृथक् पदार्थ नहीं हैं)
112) अब, और भी दुसरी पद्धति से द्रव्य के साथ उत्पादि के अभेद का समर्थन करते हैं और समय भेद का निराकरण करते हैं -
113) अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को अनेक द्रव्यपर्याय के द्वारा विचार करते हैं
114) अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्य पर्याय द्वारा विचार करते हैं
115) अब, सत्ता और द्रव्य अर्थान्तर (भिन्न पदार्थ, अन्य पदार्थ) नहीं हैं, इस सम्बन्ध में युक्ति उपस्थित करते हैं
116) अब, पृथक्‍त्‍व और अन्यत्व का लक्षण स्पष्ट करते हैं
117) अब अतद्‌भाव को उदाहरण पूर्वक स्पष्ट बतलाते हैं
118) अब, सर्वथा अभाव अतद्‌भाव का लक्षण है, इसका निषेध करते हैं
119) अब, सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणि‍त्‍व सिद्ध करते हैं
120) अब गुण और गुणी के अनेकत्व का खण्डन करते हैं
121) अब, द्रव्य के सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद होने में अविरोध सिद्ध करते हैं
122) अब (सर्व पर्यायों में द्रव्‍य अन्‍वय है अर्थात् वह का वही है, इसलिये उसके सत्‌-उत्‍पाद है — इसप्रकार) सत्-उत्‍पाद को अनन्‍यत्‍व के द्वारा नि‍श्‍चि‍त करते हैं
123) अब, असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्‍चित करते हैं
124) अब, एक ही द्रव्य के अनन्यपना और अन्यपना होने में जो विरोध है, उसे दूर करते हैं --
125) अब, समस्त विरोधों को दूर करने वाली सप्तभंगी प्रगट करते हैं
126) अब, जिसका निर्धारण करना है, इसलिये जिसे उदाहरणरूप बनाया गया है ऐसे जीव की मनुष्यादि पर्यायें क्रिया का फल हैं इसलिये उनका अन्यत्व (अर्थात् वे पर्यायें बदलती रहती हैं, इस प्रकार) प्रकाशित करते हैं
127) अब, यह व्यक्त करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायें जीव को क्रिया के फल हैं
128) अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादिपर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है?
129) अब, जीव की द्रव्यरूप से अवस्थितता होने पर भी पर्यायों से अनवस्थितता (अनित्यता-अस्थिरता) प्रकाशते हैं
130) अब, जीव की अनवस्थितता का हेतु प्रगट करते हैं
131) अब परिणामात्मक संसार में किस कारण से पुद्‌गल का संबंध होता है—कि जिससे वह (संसार) मनुष्यादि पर्यायात्मक होता है? — इसका यहाँ समाधान करते हैं
132) अब, परमार्थ से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकर्तृत्व प्रकाशित करते हैं
133) अब, यह कहते हैं कि वह कौनसा स्वरूप है जिसरूप आत्मा परिणमित होता है?
134) अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप वर्णन करते हैं
135) अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल को आत्मारूप से निश्‍चित करते हैं
136) अब, इस प्रकार ज्ञेयपने को प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि (अनुभव, प्राप्ति) होती है; इस प्रकार उसका अभिनन्दन करते हुए (अर्थात् आत्मा की शुद्धता के निर्णय की प्रशंसा करते हुए धन्यवाद देते हुए), द्रव्यसामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हैं
137) अब, द्रव्यविशेष का प्रज्ञापन करते हैं (अर्थात् द्रव्यविशेषों को द्रव्य को भेदों को बतलाते हैं) । उसमें (प्रथम) द्रव्य के जीवाजीवपनेरूप विशेष को निश्‍चित करते हैं, (अर्थात् द्रव्य के जीव और अजीव-ऐसे दो भेद बतलाते हैं)
138) अब द्रव्य के लोकालोक स्वरूप-विशेष (भेद) निश्चित करते हैं
139) अब, ‘क्रिया’ रूप और ‘भाव’ रूप ऐसे जो द्रव्य के भाव हैं उनकी अपेक्षा से द्रव्य का भेद निश्‍चित करते हैं
140) अब, यह बतलाते हैं कि गुण विशेष से (गुणों के भेद से) द्रव्य विशेष (द्रव्यों का भेद) होता है
141) अब, मूर्त और अमूर्त गुणों के लक्षण तथा संबंध (अर्थात् उनका किन द्रव्यों के साथ संबंध है यह) कहते हैं
142) अब, मूर्त पुद्‌गल द्रव्य के गुण कहते हैं
143-144) अब, शेष अमूर्त द्रव्यों के गुण कहते हैं और द्रव्‍य का प्रदेशवत्‍व और अप्रदेशवत्‍वरूप विशेष (भेद) बतलाते हैं
145) अब, यह कहते हैं कि प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्व किस प्रकार से संभव है
146) अब उसी अर्थ को दृढ करते हैं
147) अब, यह बतलाते हैं की प्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्य कहाँ रहते हैं
148) अब, यह कहते हैं की प्रदेशवतत्त्व और अप्रदेशवतत्त्व किस प्रकार से संभव है
149) अब, 'कालाणु अप्रदेशी ही है' ऐसा नियम करते हैं (अर्थात दर्शाते हैं)
150) अब काल-पदार्थ के द्रव्य और पर्याय को बतलाते हैं
151) अब, आकाश के प्रदेश का लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं
152) अब, तिर्यकप्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय बतलाते हैं
153) अब, कालपदार्थ का ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय है, इस बात का खंडन करते हैं
154) अब, (जैसे एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला सिद्ध किया है उसी प्रकार) सर्व वृत्यंशों में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है यह सिद्ध करते हैं
155) अब, कालपदार्थ के अस्तित्व अन्यथा अनुपपत्ति होने से (अन्य प्रकार से) नहीं बन सकता; इसलिये उसका प्रदेशमात्रपना सिद्ध करते हैं
156) अब, इस प्रकार ज्ञेयतत्त्व कहकर, ज्ञान और ज्ञेय के विभाग द्वारा आत्मा को निश्‍चित करते हुए, आत्मा को अत्यन्त विभक्त (भिन्न) करने के लिये व्यवहारजीवत्व के हेतु का विचार करते हैं
157) अब, प्राण कौन-कौन से हैं, सो बतलाते हैं
158) अब, वे ही प्राण भेद-नय से दस प्रकार के होते हैं, ऐसा आवेदन करते हैं (मर्यादा पूर्वक ज्ञान कराते हैं) --
159) अब, व्युत्पत्ति से प्राणों को जीवत्व का हेतुपना और उनका पौद्‌गलिकपना सूत्र द्वारा कहते हैं
160) अब, प्राणों का पौद्‌गलिकपना सिद्ध करते हैं
161) अब, प्राणों के पौद्‌गलिक कर्म का कारणत्‍व प्रगट करते हैं
162) अब पौद्‌गलिक प्राणों की संतति की (प्रवाह-परम्परा) की प्रवृत्ति का अन्तरंग हेतु सूत्र द्वारा कहते हैं
163) अब पौद्‌गलिक प्राणों की संतति की निवृत्ति का अन्‍तरङ्ग हेतु समझाते है
164) अब फिर भी, आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये, व्यवहार जीवत्व के हेतु ऐसी जो गतिविशिष्ट (देव-मनुष्यादि) पर्यायों का स्वरूप कहते हैं
165) अब पर्याय के भेद बतलाते हैं
166) अब, आत्मा का अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तपना होने पर भी अर्थ निश्रायक अस्तित्व को स्व-पर विभाग के हेतु के रूप में समझाते हैं
167) अब, आत्मा को अत्यन्त विभक्त करने के लिये परद्रव्य के संयोग के कारण का स्वरूप कहते हैं
168) अब कहते हैं कि इनमें कौनसा उपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण है
169) अब शुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं
170) अब अशुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं
171) अब, परद्रव्य के संयोग का जो कारण (अशुद्धोपयोग) उसके विनाश का अभ्यास बतलाते हैं
172) अब शरीरादि परद्रव्य के प्रति भी मध्यस्थपना प्रगट करते हैं
173) अब, शरीर, वाणी और मन का परद्रव्यपना निश्‍चित करते हैं
174) अब आत्मा के परद्रव्यत्व का अभाव और परद्रव्य के कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करते हैं
175) अब इस संदेह को दूर करते हैं कि 'परमाणुद्रव्यों को पिण्डपर्यायरूप परिणति कैसे होती है?'
176) अब यह बतलाते हैं कि परमाणु के वह स्निग्ध-रूक्षत्व किस प्रकार का होता है
177) अब यह बतलाते हैं कि कैसे स्निग्धत्व-रूक्षत्व से पिण्डपना होता है
178) अब यह निश्‍चित करते हैं कि परमाणुओं के पिण्डत्‍व में यथोक्त (उपरोक्त) हेतु है
179) अब, आत्मा के पुद्‌गलों के पिण्ड के कर्तृत्व का अभाव निश्‍चित करते हैं
180) अब ऐसा निश्‍चित करते हैं कि आत्मा पुद्‌गलपिण्ड का लानेवाला नहीं है
181) अब ऐसा निश्‍चित करते हैं कि आत्मा पुद्‌गलपिण्डों को कर्मरूप नहीं करता
182) अब आत्‍मा के कर्मरूप परिणत पुद्‌गलद्रव्‍यात्‍मक शरीर के कर्तत्‍व का अभाव निश्‍चि‍त करते हैं (अर्थात् यह निश्‍च‍ित करते हैं कि कर्मरूपपरिणतपुद्‌गलद्रव्‍यस्‍वरूप शरीर का कर्ता आत्‍मा नहीं है)
183) अब आत्मा के शरीरपने का अभाव निश्‍चित करते हैं
184) तब फिर जीव का, शरीरादि सर्वपरद्रव्यों से विभाग का साधनभूत, असाधारण स्वलक्षण क्या है, सो कहते हैं
185) अब, अमूर्त ऐसे आत्मा के, स्निग्धरूक्षत्व का अभाव होने से बंध कैसे हो सकता है ? ऐसा पूर्व पक्ष उपस्थित करते हैं
186) अब ऐसा सिद्धान्त निश्‍चित करते हैं कि आत्मा अमूर्त होने पर भी उसको इस प्रकार बंध होता है
187) अब भावबंध का स्वरूप बतलाते हैं
188) भावबंध की युक्ति और द्रव्यबन्ध का स्वरूप
189) अब पुद्‌गलबंध, जीवबंध और उन दोनों के बंध का स्वरूप कहते हैं
190) अब, ऐसा बतलाते हैं कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है
191) अब, यह सिद्ध करते हैं कि—राग परिणाममात्र जो भावबंध है सो द्रव्यबन्ध का हेतु होने से वही निश्‍चयबन्ध है
192) अब, परिणाम का द्रव्यबन्ध के साधकतम राग से विशिष्टपना सविशेष प्रगट करते हैं (अर्थात् परिणाम द्रव्यबंध के उत्कृष्ट हेतुभूत राग से विशेषता वाला होता है ऐसा भेद सहित प्रगट करते हैं)
193) अब विशिष्ट परिणाम के भेद को तथा अविशिष्ट परिणाम को, कारण में कार्य का उपचार कार्यरूप से बतलाते हैं
194) अब, जीव की स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य से निवृत्ति की सिद्धि के लिये स्व-पर का विभाग बतलाते हैं
195) अब, यह निश्‍चित करते हैं कि—जीव को स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का ज्ञान है, और परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का अज्ञान है
196) अब, आत्मा का निश्चय से रागादि स्व-परिणाम ही कर्म है और द्रव्य-कर्म उसका कर्म नहीं है, ऐसा प्रारूपित करते हैं -- कथन करते हैं -
197) अब, पुद्‌गलपरिणाम आत्मा का कर्म क्यों नहीं है—ऐसे सन्देह को दूर करते हैं
198) पुद्गल-परिणाम आत्मा का कर्म नहीं
199) पुद्‌गल कर्मों की विचित्रता को कौन करता है?
200) अब, पहले (१९९वीं गाथा में) कही गई प्रकृतियों के, जघन्य अनुभाग और उत्कृष्ट अनुभाग का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
201) अकेला ही आत्मा बंध है
202) निश्चय और व्यवहार का अविरोध
203) अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति
204) शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति
205) शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य क्यों?
206) दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य क्यों नहीं?
207) शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है?
208) मोहग्रंथि टूटने से क्या होता है?
209) ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता
210) सकलज्ञानी क्या ध्याते हैं?
211) सकलज्ञानी परम सौख्य का ध्यान करता है
212) शुद्ध आत्मा की उपलब्धि मोक्ष का मार्ग
213) मैं (आचार्यदेव) स्वयं भी शुद्धात्मप्रवृत्ति करता हूँ
214) मध्य-मंगल

चरणानुयोग-चूलिका-अधिकार

215) श्रमणार्थी की भावना
216) श्रमणार्थी पहले क्या-क्या करता है?
217) दीक्षार्थी भव्य जैनाचार्य का आश्रय लेता है
218) गुरु द्वारा स्वीकृत श्रमणार्थी की अवस्था कैसी?
219-220) श्रमण-लिंग का स्वरूप
221) अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -
222-223) अब, जब विकल्प रहित सामायिक संयम से च्युत होता है, तब विकल्प सहित छेदोपस्थापन चारित्र को स्वीकार करता है, ऐसा कथन करते हैं -
224) अब इन मुनिराज के दीक्षा देनेवाले गुरु के समाननिर्यापक नामक दूसरे भी गुरु हैं इसप्रकार गुरु व्यवस्था का निरूपण करते हैं -
225-226)  अब पहले (२२४ वीं) गाथा में कहे गये दोनो प्रकार के छेदक का प्रायश्चित्त विधान कहते हैं -
227) अब विकार रहित श्रामण्य में छेद को उत्पन्न करनेवाले पर द्रव्यों के सम्बन्ध का निषेध करते हैं -
228) अब श्रमणता की परिपूर्ण कारणता होने से अपने शुद्धात्मद्रव्य में हमेशा स्थिति करना चाहिये, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं-
229)  अब, श्रमणता के छेद की कारणता होने से प्रासुक आहार आदि में भी ममत्व का निषेध करते हैं -
230) अब शुद्धोपयोगरूप भावना को रोकनेवाले छेद को कहते हैं -
231) अब अन्तरंग-बहिरंग हिंसारूप से दो प्रकार के छेद को प्रसिद्ध करते हैं
232-233) अब उसी अर्थ को दृष्टान्त और दार्ष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं -
234) अब, निश्चय हिंसारूप अन्तरंग छेद, पूर्णरूप से निषेध करने योग्य है; ऐसा उपदेश देते हैं-
235) अब बाह्य में जीव का घात होने पर बन्ध होता है, अथवा नहीं होता है; परन्तु परिग्रह होने पर नियम से बन्ध होता है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -
236) निरपेक्ष त्याग से ही कर्मक्षय
237-238-239) परिग्रह त्याग
240) सपरिग्रह के नियम से चित्त-शुद्धि नष्ट
241) अपवाद-संयम
242) उपकरण का स्वरूप
243) उपकरण अशक्य अनुष्ठान हैं
244) स्त्री पर्याय से मुक्ति का निराकरण
253) दीक्षाग्रहण में वर्ण व्यवस्था
254) निश्चयनय का अभिप्राय
255) उपकरण रूप अपवाद व्याख्यान का विशेष
256) युक्त आहार-विहार
257) प्रमाद
258) युक्ताहार-विहार
260) युक्ताहारत्व का विस्तार
261-262) मांस के दोष
263) हाथ में आया हुआ प्रासुक आहार भी देय नहीं
264) सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से चारित्र की रक्षा
265) उत्सर्ग और अपवाद में विरोध से असंयम
266) आगम के परिज्ञान से ही एकाग्रता
267) आगम के परिज्ञान से हीन के कर्मों का क्षय नहीं
268) अब मोक्षमार्ग चाहने वालों को आगम ही दृष्टि-आँख है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -
269) अब, आगमरूपी नेत्र से सभी दिखाई देता है, ऐसा विशेषरूप से ज्ञान कराते हैं -
270) दर्शन-रहित के संयतपना नहीं
271) अब आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व की युगपतता का अभाव होने पर मोक्ष नहीं है, ऐसी व्यवस्था बताते हैं -
272) आत्मज्ञानी ही मोक्षमार्गी
273) अब पहले (२७२ वीं) गाथा में कहे गये आत्मज्ञान से रहित जीव के, सम्पूर्ण आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता भी अकिंचित्कर है, ऐसा उपदेश देते है -
274) अब, द्रव्य-भाव संयम का स्वरूप कहते हैं -
275) आत्मज्ञानी संयत
276) आत्मज्ञानी संयत का लक्षण
277) युगपत आत्मज्ञान और संयत ही मोक्षमार्ग
278) एकाग्रता के अभाव से मोक्ष का अभाव
279) अब, जो वे अपने शुद्धात्मा में एकाग्र हैं उनका ही मोक्ष होता है; ऐसा उपदेश देते हैं -
280) लौकिक संसर्ग का निषेध
281) लौकिक का लक्षण
282) उत्तम संसर्ग का उपदेश
283) लौकिक संसर्ग कथंचित् अनिषिद्ध
284) शुभोपयोग मुनियों के गौण और श्रावकों को मुख्य
285) शुभोपयोगियों की श्रमणरूप में गौणता
286) शुभोपयोगी श्रमण
287) प्रवृत्ति शुभोपयोगियो के ही है
289) वैयावृत्ति संयम की विराधना-रहित होकर करें
290) प्रवृत्ति में विशेषता
291) अनुकम्पा का लक्षण
292) प्रवृत्ति का काल
293) पात्र-विशेष से वही शुभोपयोग में फल-विशेषता
294) कारण-विपरीतता से फल-विपरीतता
297) पात्रभूत मुनि का लक्षण
299) सामान्य विनय तथा उसके बाद विशेष विनय व्यवहार
301) श्रमणभासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध
302) शुभोपयोगियों की शुभप्रवृत्ति
303) श्रमणाभास
304) मोक्षमार्गी पर दोष लगाने में दोष
305) अधिक गुणवा्लों से विनय चाहने से गुणों का विनाश
306) हीन गुणवालों के साथ वर्तने से गुणों का विनाश
307) संसार-स्वरूप
308) मोक्ष का स्वरूप
309) मोक्ष का कारण
310) मोक्षमार्ग
311) शास्त्र का फल और समाप्ति

परिशिष्ट

312) परिशिष्ट



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव-प्रणीत

श्री
प्रवचनसार

मूल प्राकृत गाथा, श्री अमृतचंद्राचार्य विरचित 'तत्त्वदीपिका' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद, श्री जयसेनाचार्य विरचित 'तात्पर्य-वृत्ति' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद सहित

आभार : पं जयचंदजी छाबडा, पं हुकमचंद भारिल्ल

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥


अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलार्इ से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।


॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-प्रवचनसार नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-कुन्द-कुन्दाचार्य-देव विरचितं ॥

(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र प्रवचनसार नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )


॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


आर्हत भक्ति
पण्डित-जुगल-किशोर कृत
तुम चिरंतन, मैं लघुक्षण
लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

जागरण तुम, मैं सुषुप्ति, दिव्यतम आलोक हो प्रभु,
मैं तमिस्रा हूँ अमा की, क्षीण अन्तर, क्षीण तन-मन ।
लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

शोध तुम, प्रतिशोध रे ! मैं, क्षुद्र-बिन्दु विराट हो तुम,
अज्ञ मैं पामर अधमतम, सर्व जग के विज्ञ हो तुम,
देव ! मैं विक्षिप्त उन्मन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

चेतना के एक शाश्वत, मधु मंदिर उच्छ्वास ही हो
पूर्ण हो, पर अज्ञ को तो, एक लघु प्रतिभास ही हो
दिव्य कांचन, मैं अकिंचन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

व्याधि मैं, उपचार अनुपम, नाश मैं, अविनाश हो रे !
पार तुम, मँझधार हूँ मैं, नाव मैं, पतवार हो रे !
मैं समय, तुम सार अर्हन् !, लक्ष वंदन, कोटी वंदन

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+ विषयानुक्रमणिका -
वि ष या नु क्र म णि का

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+ टीकाकार (अमृतचंद्रआचार्य और जयसेनाचार्य) द्वारा मंगलाचरण -
सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने
स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नम: ॥1-अ॥

हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्यद:
प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं मह: ॥2-अ॥

परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भव्यानाम्‌
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम्‌ ॥3-अ॥

नम: परमचैतन्यस्वात्मोत्थसुख्सम्पदे
परमागमसाराय सिद्धाय परमेष्ठिने ॥1-ज॥

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ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार



+ तीर्थ-नायक को प्रणमन -
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं ।
पणमामि वड्‌ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥1॥

Meaning : I make obeisance to Shrī Vardhamāna Svāmi, the Ford-maker (Tīrthańkara) and the expounder of the own-nature (svabhāva) or 'dharma', who is worshipped by the lords of the heavenly devas (kalpavāsī devas), other devas (bhavanavāsī, vyantara and jyotishka devas) and humans, and has washed off the dirt of inimical (ghātī) karmas.

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+ पंच परमेष्ठी को नमस्कार -
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे ।
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ॥2॥

Meaning : Also, I make obeisance to the remaining (twenty-three) Tirthankara (the Arhat), all the Liberated Souls (the Siddha) who are established in their utterly pure nature, and the Saints (sramanaa) the Chief Preceptor (acarya), the Preceptor (upadhyaya), the Ascetic (sadhu) who practise five-fold observances in regard to faith (darsanacara), knowledge (gyaanacara), power (viryacara), conduct (caritracara) and austerities (tapacara).

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+ वर्तमान तीर्थंकरों को नमन -
ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं ।
वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ॥3॥

Meaning : Then, I (Aachaarya Kundakunda) make obeisance to all the Tirthankara (the Arhat) present in the human region collectively and individually.

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+ साम्य का आश्रय -
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं ।
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ॥4॥
तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज ।
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ॥5॥

Meaning : Having worshipped the Tirthankara (the Arhat), the Liberated Souls (the Siddha), the Chief Preceptors (āchārya), the Preceptors (upadhyaya) and the Ascetics (sādhu), I adopt the state of equanimity (sāmya), i.e., passionless conduct-without attachment (vitarāg chāritra).
I adopt this state of equanimity (sāmya), the source of attainment of liberation, from the five Supreme Beings who are the principal abode of pristine faith and knowledge.

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+ सराग और वीतरागचारित्र में हेय-उपादेय -
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं ।
जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥6॥

Meaning : The soul attains liberation (nirvana, moksha) by virtue of conduct (charitra), characterized by right faith (samyagdarsan) and right knowledge (samyagyaan). The path to liberation is accompanied by the glory of the lords of the heavenly devas (kalpavasi devas), other devas (bhavanavasi, vyantar and jyotishk devas), and humans.

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+ चारित्र का स्वरूप -
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥7॥

Meaning : For sure, to be stationed in own-nature (svabhāva) is conduct; this conduct is 'dharma'. The Omniscient Lord has expounded that the dharma, or conduct, is the disposition of equanimity (sāmya). And, equanimity is the soul's nature when it is rid of delusion (moha) and agitation (kshobha).

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+ आत्मा ही चारित्र है -
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं ।
तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ॥8॥

Meaning : Lord Jina has expounded that the particular state or modification of the substance is its nature (dharma) at that time. Therefore, the soul that is in the state of conduct-without attachment (vitaraga charitra) or equanimity (sāmya) is to be known as its nature (svabhāva or dharma).

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+ जीव ही शुभ, अशुभ और शुद्ध -
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो ।
सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ॥9॥

Meaning : When the soul entertains auspicious (shubha) or inauspicious (ashubha) dispositions, it becomes auspicious (shubha) or inauspicious (ashubha). When the soul entertains pure (shuddha) disposition conduct-without-attachment (vitaraga charitra) it turns into the pure (shuddha) soul. Thus, the soul, by nature (svabhāva), undergoes three kinds of modifications (parināma).

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+ परिणाम वस्तु का स्वभाव -
णत्थि विणा परिणामं अत्थो अत्थं विणेह परिणामो ।
दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो ॥10॥

Meaning : Substance (dravya) does not exist without the mode (paryaya). As a rule, at no time substance (dravya) can exist without its modification (parinama). Only in imagination can the substance exist without its modification, like a kharavishaana the 'horns of a hare'. Different modes of cow-produce (gorasa) like milk, curd, butter, cheese and buttermilk exist due to the presence of cow-produce; in the same way, modes (paryaya) exist only due to the presence of the substance (dravya). In addition, without the existence of the substance (dravya), modifications (parinama) cannot exist. It is because the substance (dravya) is the source or foundation of modifications (parinama); if there were no substance (dravya), on what would its modifications (parinama) subsist? If there were no cow-produce (gorasa), on what would milk, curd, butter, cheese and buttermilk subsist? The existence of an object can only be established with the existence of all three the substance (dravya), the quality (gun), and the mode (paryaya).

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+ शुद्ध परिणाम के ग्रहण और शुभ परिणाम के त्याग के लिये उनका फल विचारते हैं -
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ॥11॥

Meaning : The soul that is established in own nature (svabhava or dharma), when engaged in pure-cognition (shuddhopayoga), it attains the bliss of liberation (moksha). When engaged in auspicious-cognition (subhopayoga), it attains happiness appertaining to the celestial beings.

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+ अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ परिणाम का फल विचारते हैं -
असुहोदएण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो ।
दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिद्‌दुदो भमदि अच्चंतं ॥12॥

Meaning : Inauspicious-cognition (asubhopayoga) renders the soul wander in worldly existence (sansara) for a very long time. The soul wanders as low-grade human being, plant or animal, and infernal being, and is subject to thousands of severe miseries.

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+  शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं -
अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं ।
अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥13॥

Meaning : The souls engaged in pure-cognition (shuddhopayoga) enjoy supreme happiness engendered by the soul itself; this happiness is beyond the five senses atindriya unparalleled, infinite, and imperishable.

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+ शुद्धोपयोग परिणत आत्मा का स्वरूप -
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो ।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥14॥

Meaning : Lord Jina has expounded that the ascetic (muni, sramana) who has right knowledge of the soul and other substances, is well versed in the Scripture, observes self-restraint (sanyama) and austerity (tapa), is free from attachment (raga), and for whom happiness (sukha) and misery (dukha) are alike, represents pure-cognition (shuddhopayoga).

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+ शुद्धोपयोग द्वारा तत्काल ही होनेवाली शुद्ध आत्मस्वभाव प्राप्ति की प्रशंसा -
उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ ।
भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं ॥15॥

Meaning : The soul that has become pristine through pure-cognition (shuddhopayoga), and has washed away, by own effort, the dirt of the obscuring knowledge-obscuring (gyanavaraniya) and faithobscuring (darsanavaraniya) along with the obstructive (antaraya) and the deluding (mohaniya) karmas, comprehends fully all objects-of-knowledge (gyeya).

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+ शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष होने से अत्यन्त आत्माधीन -
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो ।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो ॥16॥

Meaning : Lord Jina has expounded that the soul that attains its pure ownnature (svabhava) knows all objects of the three worlds and the three times. It is all-knowing (sarvagya), worshipped by the lords of the three worlds, and self-dependent. Such soul is called 'svayambhu'.

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+ शुद्धात्म-स्वभाव के अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तता -
भंगविहूणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि ।
विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ ॥17॥

Meaning : The soul that has attained its own-nature (svabhava) through pure-cognition (shuddhopayoga) experiences origination (utpada) of its own-nature (svabhava) that is without destruction (vyaya or nasa), and destruction (vyaya or nasa) of the earlier impure state that is without origination (utpada). In addition, there is inseparable amalgamation of permanence (dhrauvya) of its own-nature (svabhava), origination (utpada) of the state of pure-cognition (suddhopayoga), and destruction (vyaya) of the earlier impure state.

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+ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सर्व द्रव्यों के साधारण, शुद्ध आत्मा के भी -
उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स ।
पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो ॥18॥

Meaning : All substances, from the standpoint-of-mode (paryayarthikanaya), are characterized by origination (utpada) and destruction (vyaya). Verily, all objects are characterized by existence (sat).

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+ सर्वज्ञ को जो मानते हैं, वो सम्यग्दृष्टी -
तं सव्वट्ठवरिट्ठं इट्ठं अमरासुरप्पहाणेहिं ।
ये सद्दहंति जीवा तेसिं दुक्खाणि खीयंति ॥19॥

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+ आत्मा के इन्द्रियों के बिना ज्ञान और आनन्द कैसे? -
पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अहियतेजो । (19)
जादो अदिंदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि ॥20॥

Meaning : On destruction of the four inimical (ghati) karmas, the self-dependent soul 'svayambhu' attains infinite knowledge (that illumines the self as well as all other objects) and indestructible happiness, both beyond the five senses (as such, termed atindriya). On destruction of the obstructive (antaraya) karma, it is endowed with infinite strength. Thus, as the four inimical (ghati) karmas are destroyed, the soul attains supreme lustre (teja) that is its own-nature (svabhava).

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+ शुद्ध आत्मा के शारीरिक सुख दुःख नहीं -
सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं । (20)
जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ॥21॥

Meaning : As the character of the Omniscient is beyond the five senses 'atīndriya' he does not experience happiness or misery dependent on the body; such is his knowledge-bliss (gyānānanda).

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+ केवली भगवान के सब प्रत्यक्ष -
परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया । (21)
सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं ॥22॥

Meaning : For sure, all substances (dravya) and their modes (paryāya) reflect directly (and simultaneously) in the perfect-knowledge (kevalagyāna) of the Omniscient. The Omniscient knows all substances and their modes directly and simultaneously as he does not rely on the sensory-knowledge that knows substances in stages - apprehension (avagraha) etc.

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+ भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं -
णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । (22)
अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥23॥

Meaning : The knowledge of the Omniscient Lord is direct and simultaneous, always beyond the senses. The space-points of his pristine soul are not only inclusive of the power of the senses but, more than that, reflect simultaneously all objects. Certainly, the Omniscient Lord, by own making, is the embodiment of perfectknowledge (kevalagyāna).

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+ आत्मा का ज्ञान प्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतपना -
आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं । (23)
णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥24॥

Meaning : The soul (ātmā) is coextensive with knowledge (gyāna). Lord Jina has expounded that knowledge (gyāna) is coextensive with the objects-of-knowledge (gyaeya). All objects of the universe (loka) and beyond (aloka) are the objects-of-knowledge (gyaeya). Therefore, knowledge is all-pervasive (sarvagata or sarvavyāpaka); it knows everything.

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+ आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने में दोष -
णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा । (24)
हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥25॥
हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि । (25)
अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥26॥

Meaning : The uninformed who does not admit that the soul (ātmā) is coextensive with knowledge (gyāna), must concede that the soul is either smaller or larger than knowledge. If the soul is smaller than knowledge, knowledge becomes insentient and loses its ability to know. If the soul is larger than knowledge, how will it know without knowledge?

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+ ज्ञान की भाँति आत्मा का भी सर्वगतत्व न्याय-सिद्ध -
सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा । (26)
णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ॥27॥

Meaning : The Omniscient has declared that Lord Jina - the chief of jin, having infinite knowledge - has all-pervasive (sarvagata) existence. All objects-of-knowledge (gyaeya) in the world - being knowables - reflect in his knowledge.

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+ आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार -
णाणं अप्प त्ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं । (27)
तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥28॥

Meaning : The Doctrine of Lord Jina proclaims that knowledge is the soul. Without the soul, there is no existence of knowledge. Therefore, knowledge is the soul, and the soul is knowledge, besides other qualities.

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+ ज्ञान ज्ञेय के समीप नहीं जाता -
णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स । (28)
रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वट्टंति ॥29॥

Meaning : Surely, the soul - gyāyaka - is of the nature of knowledge (gyāna) and all substances are the objects-of-knowledge (gyaeya). The soul - gyāyaka - does not inhere in the objects-of-knowledge (gyaeya), as the eye is able to see material objects without inhering in these.

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+ ज्ञेय-पदार्थों में प्रविष्ट नहीं हुआ होने पर भी प्रविष्ट की भाँति ज्ञात होता है -
ण पविट्ठो णाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू । (29)
जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ॥30॥

Meaning : The soul with infinite knowledge that is beyond the five senses - atīndriya gyāna - does not inhere in the objects-of-knowledge (gyaeya). In addition, it is not that it does not inhere in the objects-of-knowledge (gyaeya); empirically, it does inhere in the objects-of-knowledge (gyaeya). It knows and sees, as these are, all objects of the universe as the eye knows and sees material objects.

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+ उसी अर्थ को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं -
रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । (30)
अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमट्ठेसु ॥31॥

Meaning : As the sapphire immersed in milk imparts its blue lustre to the whole of milk, in the same way, empirically, sense-independent knowledge - atīndriya gyāna - inheres in the objects-of-knowledge (gyaeya).

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+ पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं -
जदि ते ण संति अट्ठा णाणे णाणं ण होदि सव्वगयं । (31)
सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा ॥32॥

Meaning : If not all objects-of-knowledge (gyaeya) inhere in omniscience (kevalagyaana), then omniscience cannot be all-pervasive (sarvagata). If omniscience is all-pervasive why would all objects-of-knowledge (gyaeya) not inhere in it?

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+ ज्ञानी की ज्ञेय पदार्थों के साथ भिन्नता ही है -
गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । (32)
पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥33॥

Meaning : From the transcendental-point-of-view (niscayanaya), the Omniscient Lord - the soul with kevalagyaana - neither accepts nor rejects the objects-of-knowledge (gyaeya), and the objects-of-knowledge (gyaeya) do not transform the soul. It sees and knows all objects-of-knowledge (gyeya), without exception.

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+ भाव-श्रुतज्ञान से भी आत्मा का परिज्ञान होता है -
जो हि सुदेण विजाणादि अप्पाणं जाणगं सहावेण । (33)
तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ॥34॥

Meaning : Lord Jina, the illuminator of the world, has expounded that, for sure, the one who, on the authority of his knowledge of the Scripture - bhavasrutagyaana - knows entirely, by his own soul, the all-knowing nature of the soul is the srutakevali.

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+ पदार्थों की जानकारी-रूप भावश्रुत ही ज्ञान है -
सुत्तं जिणोवदिट्ठं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं । (34)
तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ॥35॥

Meaning : Teachings of Lord Jina that reach us through his divine words - which are in form of physical matter (pudgala) - constitute the Scripture (sutra or dravyasruta). Essentially, the knowledge of the Scripture is scriptural-knowledge (bhavasruta). Empirically, the Scripture (sutra or dravyasruta) is also knowledge.

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+ भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता -
जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा । (35)
णाणं परिणमदि सयं अट्‌टा णाणट्ठिया सव्वे ॥36॥

Meaning : The one who knows - the soul - is the knowledge. The soul does not know through its quality of knowledge. The knowledge (gyaana), on its own, transforms and pervades in all objects-ofknowledge (gyaeya).

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+ आत्मा ज्ञान है और शेष ज्ञेय हैं -
तम्हा णाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं । (36)
दव्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्धं ॥37॥

Meaning : Thus, the soul (atma, jiva) is the knowledge (gyaana). The substance (dravya) is the object-of-knowledge (gyaeya). The object-of-knowledge (gyaeya) is expressed in any of these threeways - past, present and future modes (paryaya); origination (utpada), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya); substance (dravya), quality (gun) and mode (paryaya). Further, since the substances - the soul (jiva) and the non-soul (ajiva) - undergo modification, the above modes of expression are used.

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+ भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं -
तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं । (37)
वट्‌टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ॥38॥

Meaning : Certainly, all modes - present and not-present - of those types of substances (dravya) subsist in the (infinite) knowledge (kevalagyaana), as if in the present.

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+ भूत-भावि पर्यायों की असद्भूत--अविद्यमान संज्ञा है -
जे णेव हि संजाया जे खलु णट्‌ठा भवीय पज्जया । (38)
ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा ॥39॥

Meaning : Certainly, omniscience (kevalagyaana) sees directly those not present modes (paryaya), which are yet to originate, and which had originated in the past but destroyed, i.e., all modes of the future and the past, not existing in the present, of a substance (dravya).

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+ वर्तमान ज्ञान के असद्भूत पर्यायों का प्रत्यक्षपना दृढ़ करते हैं -
जदि पच्चक्खमजादं पज्जयं पलयिदं च णाणस्स । (39)
ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ॥40॥

Meaning : If those not-present modes (paryaya) - which are yet to originate, and which had originated in the past but destroyed - of the substance (dravya) were not reflected directly in the knowledge of the Omniscient - kevalagyaana - who will call that knowledge superlative, worthy of adoration?

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+ भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को इन्द्रिय ज्ञान नहीं जानता है -
अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति । (40)
तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥41॥

Meaning : The Omniscient Lord has declared that those who know substances through the sensory-knowledge (matigyaana), that operates in stages including speculation (iha), are not able to know the not-present modes (paryaya) of the substance.

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+ अतीन्द्रिय ज्ञान भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को जानता है -
अपदेसं सपदेसं मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । (41)
पलयं गदं च जाणदि तं णाणमदिंदियं भणियं ॥42॥

Meaning : The knowledge which knows objects that are without spacepoints - kalanu or anu, with space-points - pancastikaya, with form - pudgala, without form - jiva etc., the modes of the future that are yet to originate, and the modes of the past that have vanished, is the perfect-knowledge (omniscience or kevalagyaana), that is beyond the five senses - atindriya gyaana.

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+ जिसके कर्मबन्ध के कारणभूत हितकारी-अहितकारी विकल्परूप से, जानने योग्य विषयों में परिणमन है, उसके क्षायिकज्ञान नहीं है -
परिणमदि णेयमट्ठं णादा जदि णेव खाइगं तस्स । (42)
णाणं ति तं जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता ॥43॥

Meaning : If the knowledge-seeking soul is influenced by the knowable (gyaeya), that soul certainly does not attain permanent knowledge born out of the destruction of karmas (kshāyika gyaana); the Omniscient Lord calls such a soul the enjoyer of the fruits of the karmas.

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+ ज्ञान और रागादि रहित कर्म का उदय बंध का कारण नहीं है -
उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया । (43)
तेसु विमूढो रत्तो दुट्‌ठो वा बंधमणुभवदि ॥44॥

Meaning : The Supreme Lord Jina has expounded that certainly the karmas, on fruition, appear in form of their subdivisions. Surely, the soul with delusion (moha), attachment (raga) and aversion (dvesha), engenders four kinds of bondage on fruition of the karmas.

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+ केवली के रागादि का अभाव होने से धर्मोपदेशादि भी बंध के कारण नहीं हैं -
ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं । (44)
अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ॥45॥

Meaning : During the period of being the Omniscient Lord - the Arhat (Tirthankara, Kevali, Sarvagyaa) - bodily activities of standing, sitting and moving, and speech activity of delivering the divine discourse (divyadhvani), take place without effort on his part; these activities are natural to the Arhat, like deceitfulness to women.

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+ रागादि रहित कर्मोदय तथा विहारादि क्रिया बंध का कारण नहीं है -
पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया । (45)
मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥46॥

Meaning : Attainment of the status of the Omniscient Lord - the Arhat (Tirthankara, Kevali, Sarvagyaa) - is the fruit of the past meritorious karmas. In addition, the activities of the Arhat are certainly due to the fruition of auspicious karmas. The activities of the Arhat do not take place due to the dispositions of delusion (moha), attachment (raga) and aversion (dvesha). His activities take place on complete destruction (kshaya) of the inimical (ghati) karmas, including the deluding (mohaniya) karma.

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+ केवली-भगवान की भाँति समस्त जीवों के स्वभाव विघात का अभाव होने का निषेध -
जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण । (46)
संसारो वि ण विज्जदि सव्वेसिं जीवकायाणं ॥47॥

Meaning : The soul, by its nature, entertains auspicious- and inauspicioustransformations; if such transformations were not present in the soul, it would not have transmigratory existence.

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+ पुन: चालु विषय का अनुसरण करके अतीन्द्रिय ज्ञान को सर्वज्ञरूप से अभिनन्दन करते हैं -
जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । (47)
अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं ॥48॥

Meaning : The knowledge that knows completely and at the same time, i.e., simultaneously, all objects - variegated and dissimilar - with their present, past and future modes (paryaya), is the permanent knowledge born out of destruction of the karmas - kshāyika gyaana, atindriya gyaana.

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+ जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता -
जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । (48)
णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा ॥49॥

Meaning : He, who does not know simultaneously the objects of the three worlds with their modes of the past, the present and the future, cannot know even a single object with its infinite modes (paryaya).

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+ एक को न जानने वाला सबको नहीं जानता -
दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि । (49)
ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि ॥50॥

Meaning : If the knowledge-soul does not know completely the single substance (the soul) with its infinite modes, how can it know simultaneously the conglomeration of infinite classes of substances?

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+ क्रमश: प्रवर्तमान ज्ञान की सर्वगतता सिद्ध नहीं होती -
उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अट्ठे पडुच्च णाणिस्स । (50)
तं णेव हवदि णिच्चं ण खाइगं णेव सव्वगदं ॥51॥

Meaning : The knowledge (gyaana) that originates sequentially, having recourse to one object at a time, is not eternal (avinasi), is not born out of the destruction of karmas - kshāyika, and is not allpervasive (sarvagata).

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+ युगपत् प्रवृत्ति के द्वारा ही ज्ञान का सर्वगतत्व -
तिक्कालणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थसंभवं चित्तं । (51)
जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ॥52॥

Meaning : The perfect-knowledge (kevalagyaana) of the Omniscient knows simultaneously and eternally the whole range of objects of the three times, in the three worlds, having dissimilar and variegated nature. O worthy souls, this is truly the glory of the perfect-knowledge (kevalagyaana).

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+ केवलज्ञानी के ज्ञप्तिक्रिया का सद्भाव होने पर भी उसके क्रिया के फलरूप बन्ध का निषेध -
ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्टेसु । (52)
जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ॥53॥

Meaning : Because the pure soul (the Omniscient), while it knows all knowable (gyaeya), does not undergo transformation due to these objects, does not become the owner of these objects, and does not originate in form of these objects, therefore, it is free from karmic-bondage (karmabandha).

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+ ज्ञान-प्रपंच व्याख्यान के बाद आधारभूत सर्वज्ञ को नमस्कार -
तस्स णमाइं लोगो देवासुरमणुअरायसंबंधो ।
भत्तो करेदि णिच्चं उवजुत्तो तं तहा वि अहं ॥54॥

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+ ज्ञान और सुख की हेयोपादेयता -
अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिंदियं इंदियं च अत्थेसु । (53)
णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ॥55॥

Meaning : The knowledge of objects that is independent of the senses - atīndriya gyaana - is without form - amurtika. The knowledge of objects that is dependent on the senses - indriya gyaana - is with form - murtika. The same applies to happiness; the senseindependent happiness is without form, and the sense-dependent happiness is with form. One must know the commendable kinds of knowledge and happiness out of these divisions.

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+ अतीन्द्रिय सुख का साधनभूत अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है -
जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिंदियं च पच्छण्णं । (54)
सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ॥56॥

Meaning : The knowledge of the - seeing - soul that knows objects without form (amurta), objects with-form (murta), objects beyond-thesenses (atīndriya), objects hidden in terms of substance (dravya), place (kshetra), time (kala), and being (bhāva), the self, and the others, is the direct (pratyaksha) knowledge, dependent only on the soul.

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+ इन्द्रिय-सुख का साधनभूत इन्द्रिय-ज्ञान हेय है -
जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । (55)
ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तं ण जाणादि ॥57॥

Meaning : The soul, by own nature, is without-form (amurtika). From the standpoint of its bondage with karmas since beginningless time past, it is with-form (murtika). The soul with-form (murtika) knows, through the senses and in stages like apprehension (avagraha) and speculation (iha), the sense-perceptible objects. It may also not know these objects.

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+ इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होतीं, इसलिये इन्द्रियज्ञान हेय ही है -
फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पोग्गला होंति । (56)
अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हंति ॥58॥

Meaning : The objects that the senses (of touch, taste, smell, sight, and hearing) know are physical matter. Moreover, the senses are unable to apprehend these objects simultaneously.

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+ इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है -
परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा । (57)
उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि ॥59॥

Meaning : The soul has consciousness (chetana) as its nature; the senses do not have consciousness (chetana) and are physical matter (pudgala), entirely distinct from the soul. How can the sensory knowledge of the objects be direct (pratyaksha) knowledge for the soul?

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+ परोक्ष और प्रत्यक्ष के लक्षण बतलाते हैं -
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमट्‌ठेसु । (58)
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ॥60॥

Meaning : It has been expounded that the specific knowledge of objects obtained with the help of a foreign (other than the soul itself) agent is the indirect (paroksha) knowledge. However, the knowledge of objects obtained by the soul without the help of a foreign agent is certainly the direct (pratyaksha) knowledge.

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+ प्रत्यक्ष-ज्ञान पारमार्थिक सुख-रूप -
जादं सयं समंतं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । (59)
रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणिदं ॥61॥

Meaning : The Omniscient Lord has proclaimed that the knowledge that is self-born, perfect, spread over every object, stainless, and free from stages - including apprehension (avagraha) and speculation (iha) - is certainly the absolute (pure) happiness.

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+ ऐसे अभिप्राय का खंडन करते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा' खेद का सम्भव होने से केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख नहीं है -
जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । (60)
खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ॥62॥

Meaning : Perfect knowledge - omniscience (kevalagyaana) - is happiness without anxiety and this happiness is the consequence of knowing everything. There is no anxiety in omniscience (kevalagyaana) since it is the result of complete destruction of the four inimical (ghati) karmas.

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+ 'केवलज्ञान सुखस्वरूप है' ऐसा निरूपण करते हुए उपसंहार -
णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी । (61)
णट्ठमणिट्ठं सव्वं इट्ठं पुण जं तु तं लद्धं ॥63॥

Meaning : Perfect-knowledge - omniscience (kevalagyaana) - passes through all objects, and perfect-perception (kevaladarsana) extends over the universe (loka) and the non-universe (aloka). On destruction of ignorance, the cause of misery, must arise the knowledge, the cause of happiness.

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+ केवलज्ञानियों को ही पारमार्थिक सुख होता है -
न श्रद्दधति सौख्यं सुखेषु परममिति विगतघातिनाम्‌ । (62)
श्रुत्वा ते अभव्या भव्या वा तत्प्रतीच्छन्ति ॥64॥

Meaning : Those who do not accept as true the assertion that on destruction of the inimical (ghati) karmas the Omniscient enjoys unmatched and supreme happiness are abhavya - without the capacity of ever-attaining right faith, and those who accept this assertion as true are bhavya - with the capacity of attaining right faith.

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+ परोक्षज्ञान वालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख -
मणुआसुरामरिंदा अहिद्‌दुदा इन्दिएहिं सहजेहिं । (63)
असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ॥65॥

Meaning : Tormented by the illness caused by natural craving of the senses for gratification, and unable to bear the pain, the humans, asura (the lower deva) and Indra (lords of the kalpavasi deva) take delight in pursuing sensual-pleasures.

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+ जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है -
जेसिं विसएसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । (64)
जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥66॥

Meaning : Those having proclivity for the sensual-pleasures suffer naturally. If the senses, by nature, did not give rise to suffering, there would not have been this natural tendency toward enjoyment of the sensual-pleasures.

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+ मुक्त आत्मा के सुख की प्रसिद्धि के लिये, शरीर सुख का साधन होने की बात का खंडन -
पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । (65)
परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो ॥67॥

Meaning : On experiencing agreeable pleasures that depend on the senseorgans like touch, the soul, transformed into its impure nature, becomes of the nature of happiness that the sensual-pleasures provide; the body is not of the nature of happiness.

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+ इसी बात को दृढ़ करते हैं -
एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा । (66)
विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ॥68॥

Meaning : In fact, even in the heaven, the body is not the cause of happiness that the soul experiences. The soul transforms itself into the state of happiness or misery when it is under the influence of the sensual-pleasures.

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+ जैसे निश्चय से शरीर सुख का साधन नहीं है, उसी प्रकार निश्चय से विषय भी सुख के करण नहीं -
तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । (67)
तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥69॥

Meaning : If the vision-faculty of the man were to have the power to remove darkness, the lamp would have no role to play. Similarly, when the soul itself is of the nature of happiness, the sensualpleasures have no role to play.

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+ आत्मा के सुख-स्वभावता और ज्ञान-स्वभावता अन्य दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं -
सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि । (68)
सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो ॥70॥

Meaning : In the sky, the sun, on its own without external causes, is of the nature of brightness and heat, and a deity; similarly, in this world, the pure-soul (the Siddha), on its own, is of the nature of knowledge and happiness, and worthy of adoration.

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+ श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव पूर्वोक्त लक्षण अनन्त-सुख के आधारभूत सर्वज्ञ को वस्तुस्तवनरूप से नमस्कार करते हैं -
तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं ।
तिहुवणपहाणदैयं माहप्पं जस्स सो अरिहो ॥71॥

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+ उन्हीं भगवान को सिद्धावस्था सम्बन्धी गुणों के स्तवनरूप से नमस्कार -
तं गुणदो अधिगदरं अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं ।
अपुणब्भावणिबद्धं पणमामि पुणो पुणो सिद्धं ॥72॥

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+ इन्द्रिय-सुख स्वरूप सम्बन्धी विचारों को लेकर, उसके साधन (शुभोपयोग) का स्वरूप -
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु । (69)
उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥73॥

Meaning : The soul that performs the worship of these three - the stainless and all-knowing pure-soul (sarvagyaa-deva), the ascetic (yati), and the preceptor (guru), offers gifts (dana), observes the major as well as the supplementary vows (vrata), and follows austerities (tapa) like fasting (upavasa), is certainly engaged in auspicious-cognition (subhopayoga).

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+ शुभोपयोग साधन है और उनका साध्य इन्द्रियसुख है -
जुत्तो सुहेण आदा तिरिओ वा माणुसो व देवो वा । (70)
भूदो तावदि कालं लहदि सुहं इन्दियं विविहं ॥74॥

Meaning : The soul endowed with auspicious-cognition (shubhopayoga) is born as worthy sub-human (plant or animal), human, or celestial being, and, during such existence, obtains an assortment of sensual-pleasures.

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+ इसप्रकार इन्द्रिय-सुख की बात उठाकर अब इन्द्रिय-सुख को दुखपने में डालते हैं -
सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे । (71)
ते देहवेदणट्ठा रमंति विसएसु रम्मेसु ॥75॥

Meaning : The Doctrine expounds that even the celestial beings (devas) do not enjoy the sense-independent (atīndriya), natural happiness of the soul. Tormented by the bodily craving, they amuse themselves with agreeable sensual-pleasures.

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+ इन्द्रिय-सुख के साधनभूत पुण्य को उत्पन्न करनेवाले शुभोपयोग की, दुःख के साधनभूत पाप को उत्पन्न करनेवाले अशुभोपयोग से अविशेषता -
णरणारयतिरियसुरा भजन्ति जदि देहसंभवं दुक्खं । (72)
किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ॥76॥

Meaning : When the souls in all worldly states of existence - human (nara), infernal (naraka), plant and animal (tiryanch), and celestial (deva) - suffer from misery incidental to their bodies, how can their impure-cognition (ashuddhopayoga) be classified into the auspicious (shubha) or the inauspicious (ashubha) dispositions?

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+ शुभोपयोग-जन्य फलवाला जो पुण्य है उसे विशेषत: दूषण देने के लिये उस पुण्य को (उसके अस्तित्व को) स्वीकार करके, उसकी (पुण्य की) बात का खंडन -
कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं । (73)
देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥77॥

Meaning : The lords of the devas (Indra), the lords of the men (chakravarti), and the like, appear to be happy while indulging in the sensualpleasures attained as a result of their auspicious-cognition (shubhopayoga). They only feed their body etc. through such indulgence.

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+ इस प्रकार स्वीकार किये गये पुण्य दु:ख के बीज (तृष्णा) के कारण हैं -
जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि । (74)
जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं ॥78॥

Meaning : Certainly, the souls engaged in auspicious-cognition (shubhopayoga) earn various forms of merit (punya); however, such merit generates in the beings, up to the celestial beings, intense craving for the sensual-pleasures.

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+ पुण्य में दुःख के बीज की विजय घोषित करते हैं -
ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि । (75)
इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ॥79॥

Meaning : Intense craving for the pleasures of the senses causes anguish; in order to alleviate suffering from craving and consequent anguish, the worldly beings long for the pleasures of the senses, and indulge in these till they die.

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+ पुन: पुण्य-जन्य इन्द्रिय-सुख को अनेक पकार से दुःखरूप प्रकाशित करते हैं -
सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । (76)
जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥80॥

Meaning : The happiness brought about by the senses is misery in disguise as it is dependent, with impediments, transient, cause of bondage of karmas, and fluctuating.

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+ पुण्य और पाप की अविशेषता का निश्चय करते हुए उपसंहार -
ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । (77)
हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥81॥

Meaning : The man, enveloped by delusion (moha), who does not believe that there is no difference between merit (punya) and demerit (papa), continues to wander in this dreadful and endless world (sansara).

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+ इस प्रकार शुभ और अशुभ उपयोग की अविशेषता अवधारित करके, अशेष दुःख का क्षय करने का मन में दृढ़ निश्चय करके शुद्धोपयोग में निवास -
एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । (78)
उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं ॥82॥

Meaning : The man who knows this reality does not entertain dispositions of attachment (raga) and aversion (dvesha) toward external substances; his soul becomes pristine due to pure-cognition (shuddhopayoga) and annihilates miseries incidental to the body.

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+ शुद्धोपयोग के अभाव में शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है - व्यतिरेक रूप से दृढ करते हैं -
चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्मि । (79)
ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ॥83॥

Meaning : The man who turns himself away from worldly occupations that cause demerit (papa) and engages in auspicious-cognition (shubhopayoga), but entertains delusion (moha), attachment (raga) and aversion (dvesha), cannot attain his pure soul-nature.

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+ शुद्धोपयोग का अभाव होने पर जैसे (जिन के समान) जिन सिद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं करता है -
तवसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापवग्गमग्गकरो ।
अमरासुरिंदमहिदो देवो सो लोयसिहरत्थो ॥84॥

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+ इस प्रकार के उन निर्दोषी परमात्मा की जो श्रद्धा करते हैं - उन्हे मानते हैं - वे अक्षय सुख को प्राप्त करते हैं, एसा प्रज्ञापन करते हैं - ज्ञान कराते हैं -
तं देवदेवदेवं जदिवरवसहं गुरुं तिलोयस्स ।
पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ॥85॥

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+ 'मैं मोह की सेना को कैसे जीतूं' - ऐसा उपाय विचारता है -
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । (80)
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥86॥

Meaning : He, who knows the Omniscient Lord (the Arhat) with respect to substance (dravya), qualities (guna), and modes (paryāya), knows the nature of his soul (ātmā), and his delusion, for certain, disappears.

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+ इसप्रकार मैने चिंतामणि-रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है, ऐसा विचार कर जागृत रहता है -
जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । (81)
जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥87॥

Meaning : The man whose delusion (moha) has disappeared realizes the true nature of the soul and then if he gets rid of negligence (pramāda), which takes the form of attachment (rāga) and aversion (dvesha), attains the pure soul-nature.

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+ यही एक, भगवन्तों ने स्वयं अनुभव करके प्रगट किया हुआ मोक्ष का पारमार्थिक पंथ है -
सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा । (82)
किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं ॥88॥

Meaning : All the Tīrthankara (the Arhat) have destroyed the karmaparticles by adopting the above method and have attained liberation after preaching this path-to-liberation. I make obeisance to all the Tīrthankara (the Arhat).

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दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समग्गचरियत्था ।
पूजासक्काररिहा दाणस्स य हि ते णमो तेसिं ॥89॥

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+ शुद्धात्म-लाभ के परिपंथी (शत्रु) मोह का स्वभाव और उसमें प्रकारों को व्यक्त करते हैं -
दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति । (83)
खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा ॥90॥

Meaning : The contrary and ignorant view of the soul about substances - with respect to their substance (dravya), qualities (guna), and modes (paryāya) - is 'delusion' (moha). Enveloped by delusionof- perception (darshanmoha), the soul entertains dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesha), and suffers from anxiety (kshobha).

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+ तीनों प्रकार के मोह को अनिष्ट कार्य का कारण कहकर उसका क्षय करने को सूत्र द्वारा कहते हैं -
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । (84)
जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥91॥

Meaning : The dispositions of delusion (moha) or attachment (rāga) or aversion (dvesha) in the soul give rise to bondage of various kinds of karmas; therefore, the soul must root out all such dispositions.

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+ इस मोह-राग-द्वेष को इन चिन्हों के द्वारा पहिचान कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना चाहिये -
अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु । (85)
विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ॥92॥

Meaning : Not accepting the objects of the world as these really are, commiserating with animals and humans out of the 'sense-of-mine' for them, and getting involved with the objects of the senses, are the signs of delusion (moha).

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+ मोह-क्षय करने का उपायान्तर (दूसरा उपाय) विचारते हैं -
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा । (86)
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ॥93॥

Meaning : The man who acquires through the study of the Scripture expounded by the Omniscient Lord valid knowledge (pramāna) - direct (pratyaksha) and other - of the reality of substances destroys, as a rule, the heap of delusion (moha). It is imperative, therefore, to study the Scripture meticulously.

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+ जिनेन्द्र के शब्द ब्रह्म में अर्थों की व्यवस्था (पदार्थों की स्थिति) किस प्रकार है सो विचार करते हैं -
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया । (87)
तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो ॥94॥

Meaning : The substances (dravya), their qualities (guna - which exhibit association - anvaya), and modes (paryāya - which exhibit distinction or exclusion - vyatireka), are known as objects (artha). The Omniscient Lord has expounded that the substance (dravya) is the substratum of qualities (guna) and modes (paryāya).

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+ इस प्रकार मोहक्षय के उपायभूत जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर भी पुरुषार्थ अर्थक्रियाकारी है, इसलिये पुरुषार्थ करता है -
जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं । (88)
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥95॥

Meaning : The man who, having grasped the Words of the Omniscient Lord, destroys delusion (moha), attachment (rāga), and aversion (dvesha), gets rid of all miseries, in a short time.

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+ स्व-पर के विवेक की सिद्धि से ही मोह का क्षय हो सकता है, इसलिये स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं -
णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । (89)
जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि ॥96॥

Meaning : The man who knows, with certainty, that he (his soul) is a substance (dravya) established in own knowledge-nature, and all external substances are similarly established in their own nature, destroys delusion (moha).

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+ सब प्रकार से स्व-पर के विवेक की सिद्धि आगम से करने योग्य है, ऐसा उपसंहार करते हैं -
तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु । (90)
अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ॥97॥

Meaning : Therefore, the man who aspires to become delusion-free (nirmoha or vītarāga) should, through the study of the Scripture, understand the distinction between the self and the non-self, as per the qualities (guna) of the substances (dravya).

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+ न्याय-पूर्वक ऐसा विचार करते हैं कि- जिनेन्द्रोक्त अर्थों के श्रद्धान बिना धर्म-लाभ (शुद्धात्म-अनुभवरूप धर्म-प्राप्ति) नहीं होता -
सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे । (91)
सद्दहदि ण सो समणो सत्तो धम्मो ण संभवदि ॥98॥

Meaning : Certainly, the ascetic (muni, shramana) who does not have faith in the six substances in regard to their general (sāmānya), like existence (sattā), and specific (vishesha) qualities, cannot attain the stage of supreme conduct, i.e., pure-cognition (shuddhopayoga).

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+ दूसरी पातनिका - सम्यक्त्व के अभाव में श्रमण (मुनि) नहीं है, उस श्रमण से धर्म भी नहीं है । तो कैसे श्रमण हैं? एसा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हुए ज्ञानाधिकार का उपसंहार करते हैं -
जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । (92)
अब्भुट्ठिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो ॥99॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) who has destroyed the delusion-ofperception (darshanamoha), has grasped the Doctrine of Lord Jina, and is established in conduct that is rid of attachment (rāga), is 'dharma'. Such a profound ascetic is of the nature of supreme conduct (dharma).

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+ ऐसे निश्चय रत्नत्रय परिणत महान तपोधन (मुनिराज) की जो वह भक्ति करता है, उसका फल दिखाते हैं -
जो तं दिट्ठा तुट्ठो अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं ।
वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियदि ॥100॥

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+ उस पुण्य से दूसरे भव में क्या फल होता है, यह प्रतिपादन करते हैं -
तेण णरा व तिरिच्छा देविं वा माणुसिं गदिं पप्पा ।
विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति ॥101॥

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ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार



+ अब सम्यक्त्व (अधिकार) कहते हैं - -
तम्हा तस्स णमाईं किच्चा णिच्चं पि तम्मणो होज्ज ।
वोच्छामि संगहादो परमट्ठविणिच्छयाधिगमं ॥102॥

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+ ज्ञेयतत्त्व का प्रज्ञापन करते हैं अर्थात् ज्ञेयतत्त्व बतलाते हैं । उसमें (प्रथम) पदार्थ का सम्यक् (यथार्थ) द्रव्यगुणपर्यायस्वरूप वर्णन करते हैं -
अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । (93)
तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥103॥

Meaning : Certainly, all objects-of-knowledge (gyaeya) are substances (dravya) having existence as their general nature. All substances (dravya) have qualities (guna) and due to transformation in substance and qualities, modes (paryāya) exist; thus, modes (paryāya) are of two kinds: mode-of-substance (dravyaparyāya) and mode-of-qualities (gunaparyāya). Those who mistake the mode (paryāya) for the substance (dravya) are wrong-believers (mithyadrsti).

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+ अनुषंगिक (पूर्व-गाथा के कथन के साथ सम्बन्ध वाली) ऐसी यह ही स्‍वसमय-परसमय की व्‍यवस्‍था (भेद) निश्‍च‍ित (उसका) उपसंहार करते हैं -
जे पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा । (94)
आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥104॥

Meaning : Lord Jina has expounded that those who rely solely on the modes (paryāya), like the human being, are the wrong-believers (mithyādrshti); such souls are engaged in impure-soul nature (parasamaya). Those who rely on own soul-nature, like knowledge (gyāna) and perception (darshana), are the right-believers (samyagdrsti); such souls are engaged in pure-soul nature (svasamaya) and are worth knowing.

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+ द्रव्य का लक्षण बतलाते हैं -
अपरिच्चत्त-सहावेणुप्पा-दव्वयधुवत्त-संबद्धं । (95)
गुणवं च सपज्जयं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ॥105॥

Meaning : That which does not ever leave its own-nature (of existence), endowed with origination (utpāda), destruction (vyaya), and permanence (dhrauvya), and has qualities (guna) and modes (paryāya), is a substance (dravya).

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+ अनुक्रम से दो प्रकार का अस्तित्व कहते हैं । स्वरूप-अस्तित्व और सादृश्य अस्तित्व । इनमें से यह स्वरूपास्तित्व का कथन है -
सब्भावो हि सहावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं । (96)
दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं ॥106॥

Meaning : Existence in the three times with its qualities (guna), with its different modes (paryāya), and with origination (utpāda), destruction (vyaya), and permanence (dhrauvya), is certainly 'existence in own nature' - svarūpāstitva - of the substance (dravya).

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+ यह (नीचे अनुसार) सादृश्य-अस्तित्व का कथन है -
इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदित्ति सव्वगयं । (97)
उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ॥107॥

Meaning : The Supreme Omniscient Lord, the expounder of the nature of substances - dharma - has said that in this world though substances exist with their own distinctive marks (lakshana), still all substances are characterized by one common mark (lakshana), and that is 'existence-in-general' - sāmānyāstitva or sāddrishyāstitva. This mark is universal (sarvagata) to all substances.

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+ द्रव्यों से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का और द्रव्य से सत्ता का अर्थान्तरत्व होने का खण्डन करते हैं । -
दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा । (98)
सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो ही परसमओ ॥108॥

Meaning : The substance (dravya) - with its qualities (guna) and modes (paryāya) - rests in own nature (svabhāvasiddha). Lord Jina, the expounder of the Reality, has said that existence (sat) is the nature of the substance (dravya). He, who does not have faith in this Reality, is engaged in impure-soul nature (parasamaya); he is a wrong-believer (mithyadristi).

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+ अब, यह बतलाते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर भी द्रव्य सत् है -
सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । (99)
अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ॥109॥

Meaning : That which stays in its nature of existence (sat) is the substance (dravya). In reality, the transformation of the substance (dravya) in form of origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya) is the nature of the objects (artha).

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+ अब, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का परस्पर अविनाभाव दृढ़ करते हैं -
ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो । (100)
उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥110॥

Meaning : There is no origination (utpāda) without destruction (vyaya); similarly, there is no destruction (vyaya) without origination (utpāda). Origination (utpāda) and destruction (vyaya) do not take place without the object (artha) that has permanence (dhrauvya) of existence.

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+ अब, उत्पादादि का द्रव्य से अर्थान्तरत्व को नष्ट करते हैं; (अर्थात् यह सिद्ध करते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य से पृथक् पदार्थ नहीं हैं) -
उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया । (101)
दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥111॥

Meaning : Origination (utpāda), permanence (dhrauvya) and destruction (vyaya) take place in modes (paryāya); as a rule, modes exist in the substance (dravya), and, therefore, it is certain that all these - origination (utpāda), permanence (dhrauvya) and destruction (vyaya) - are the substance (dravya) only.

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+ अब, और भी दुसरी पद्धति से द्रव्य के साथ उत्पादि के अभेद का समर्थन करते हैं और समय भेद का निराकरण करते हैं - -
समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदट्ठेहिं । (102)
एक्कम्मि चेव समये तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं ॥112॥

Meaning : Certainly, the substance (dravya) amalgamates with origination (utpāda), permanence (dhrauvya) and destruction (vyaya), and evolves with these conditions at the same time. The substance (dravya), therefore, is certainly the substratum of these three - origination (utpāda), permanence (dhrauvya) and destruction (vyaya).

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+ अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को अनेक द्रव्यपर्याय के द्वारा विचार करते हैं -
पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो । (103)
दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणट्ठं ण उप्पण्णं ॥113॥

Meaning : In a substance (dravya), origination (utpāda) of one mode (paryāya) takes place while there is destruction (vyaya) of another mode (paryāya). There is no origination (utpāda) or destruction (vyaya) in the substance (dravya) itself; it has permanence (dhrauvya) in regard to own nature.

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+ अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्य पर्याय द्वारा विचार करते हैं -
परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सद्‌विसिट्ठं । (104)
तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति ॥114॥

Meaning : In the substance (dravya), which is established in own nature and whose differentia is existence, 'sattâ' or that which exists, undergoes transformation from one quality (guna) to another quality. Lord Jina has expounded that the modes-ofqualities (gunaparyāya) in the substance (dravya), therefore, are nothing but the substance (dravya).

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+ अब, सत्ता और द्रव्य अर्थान्तर (भिन्न पदार्थ, अन्य पदार्थ) नहीं हैं, इस सम्बन्ध में युक्ति उपस्थित करते हैं -
ण हवदि जदि सद्दव्वं असद्‌धुव्वं हवदि तं कहं दव्वं । (105)
हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥115॥

Meaning : If the substance (dravya) is not of the nature of existence - i.e., if it is not sat - then its permanence (dhruvatva) must become nonexistent - asat. How can something that is non-existent - asat - be a substance (dravya), or how can a substance (dravya) exist - remain as sat - without the nature of existence? Therefore, the substance (dravya) is of the nature of existence - it is sat.

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+ अब, पृथक्‍त्‍व और अन्यत्व का लक्षण स्पष्ट करते हैं -
पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स । (106)
अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं ॥116॥

Meaning : Lord Mahavira has expounded that the existence characterized by difference of space-points (predeshatva) is separateness (prathaktva). The existence characterized by difference of individual identity, without difference of space-points, is the self-identity (anyatva). How can that which maintains own identity be one with the other?

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+ अब अतद्‌भाव को उदाहरण पूर्वक स्पष्ट बतलाते हैं -
सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो । (107)
जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो ॥117॥

Meaning : The substance (dravya) is of the nature of the existence (sattā), the quality (gunaa) is of the nature of the existence (sattā), and the mode (paryāya) is of the nature of the existence (sattā). Such is the extent of the existence (sattā). And, that which is the cause of difference between the existence (sattā), the substance (dravya), the quality (gunaa) and the mode (paryāya), is, certainly, the self-identity (anyatva) of all of these.

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+ अब, सर्वथा अभाव अतद्‌भाव का लक्षण है, इसका निषेध करते हैं -
जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो । (108)
एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ॥118॥

Meaning : The substance (dravya) is not the quality (guna) and, certainly, the quality (guna), due to difference in respective nature, is not the substance (dravya); this difference *between the possessor-of-quality, dravya and the quality gun) is the difference of self-identity (anyatva). There is no absolute difference between the two. The Omniscient Lord has expounded thus.

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+ अब, सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणि‍त्‍व सिद्ध करते हैं -
जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो । (109)
सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति जिणोवदेसोयं ॥119॥

Meaning : The transformation (parinama) - in form of origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhruavya) - in own-nature (svabhāva) of the substance (dravya) is, certainly, the quality (guna) of existence (sattā). Because the substance (dravya) is established in this quality (guna) of existence (sattā), it is called 'satâ' - that which exists. This is the Doctrine of Lord Jina.

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+ अब गुण और गुणी के अनेकत्व का खण्डन करते हैं -
णत्थि गुणो त्ति व कोई पज्जाओ त्तीह वा विणा दव्वं । (110)
दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥120॥

Meaning : In this world, there is no existence of either the quality (guna) or the mode (paryāya) without the substance (dravya). And, the substance (dravya) has, as its own-nature (svabhāva), the attribute of existence (sattā). Therefore, the substance (dravya) is of the nature of existence (sattā).

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+ अब, द्रव्य के सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद होने में अविरोध सिद्ध करते हैं -
एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं । (111)
सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि ॥121॥

Meaning : This way, the substance (dravya), established in its nature, is ever endowed with origination of either the intrinsic-nature (sadbhāva-nibaddha) or the extraneous-nature (asadbhāva-nibaddha), depending on whether it is viewed from the standpoint-of-substance (dravyārthika naya) or from the standpoint-of-mode (paryāyārthika naya).

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+ अब (सर्व पर्यायों में द्रव्‍य अन्‍वय है अर्थात् वह का वही है, इसलिये उसके सत्‌-उत्‍पाद है — इसप्रकार) सत्-उत्‍पाद को अनन्‍यत्‍व के द्वारा नि‍श्‍चि‍त करते हैं -
जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो । (112)
किं दव्वत्तं पजहदि ण जहं अण्णो कहं होदि ॥122॥

Meaning : The soul, during the course of transmigration, adopts modes (paryāya) as the human being, the celestial being, and others - the infernal being, the plants and animals, and the Siddha. While adopting such modes (paryāya), does it leave its power of substantiveness (dravyatva)? If it does not leave its substantiveness (dravyatva), how can it adopt the nature of any other substance?

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+ अब, असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्‍चित करते हैं -
मणुवो ण होदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा । (113)
एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥123॥

Meaning : A man cannot be a deva and a deva cannot be a man or the Siddha; how can the substance (dravya) in all these different modes (paryāya) be the same?

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+ अब, एक ही द्रव्य के अनन्यपना और अन्यपना होने में जो विरोध है, उसे दूर करते हैं -- -
दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो । (114)
हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो ॥124॥

Meaning : From the standpoint-of-substance (dravyārthika naya), as the substance (dravya) remains the same, the object (vastu) is 'notother' (ananya) in different modes (paryāya). From the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), as the object takes the form of the mode (paryāya), it is said to be 'other' (anya) with each change of the mode (paryāya).

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+ अब, समस्त विरोधों को दूर करने वाली सप्तभंगी प्रगट करते हैं -
अत्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं । (115)
पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥125॥

Meaning : According as the substance (dravya) is viewed with regard to its different modes (paryāya), it may be described by the following propositions: 1) in a way it is (asti); 2) in a way it is not (nāsti); 3) in a way it is indescribable (avaktavya); 4) in a way it is and is not (asti-nāsti); and by the remaining three propositions: 5) in a way it is and is indescribable (asti-avaktavya); 6) in a way it is not and is indescribable (nāsti-avaktavya); and 7) in a way it is, is not and is indescribable (asti-nāsti-avaktavya).

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+ अब, जिसका निर्धारण करना है, इसलिये जिसे उदाहरणरूप बनाया गया है ऐसे जीव की मनुष्यादि पर्यायें क्रिया का फल हैं इसलिये उनका अन्यत्व (अर्थात् वे पर्यायें बदलती रहती हैं, इस प्रकार) प्रकाशित करते हैं -
एसो त्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । (116)
किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो ॥126॥

Meaning : Modes or states of existence, such as the human or the infernal being, are not permanent. It cannot be maintained that these modes are not due to the activity of the soul that is not in its natural-state (svabhāva). These definitely are due to the activity of the soul in its unnatural state (caused by its association with the matter). The activity with excellent conduct-without attachment (vītarāga) does not yield fruit of states of existence like the human or the infernal being, but, certainly, the activity with attachment (rāga) is not without fruit.

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+ अब, यह व्यक्त करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायें जीव को क्रिया के फल हैं -
कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण । (117)
अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥127॥

Meaning : Thereafter, the karma that has the designation of namedetermining or physique-making (nāmakarma), as per its nature, envelopes the own-nature (svabhāva) of the soul (jīva) and renders it states of existence as the human (manushya), the sub-human (tiryancha -plants and animals), the infernal being (nārak), and the celestial being (deva).

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+ अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादिपर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है? -
णरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिव्वत्ता । (118)
ण हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥128॥

Meaning : Certainly, the states of existence of the soul (jīva) as the human, the sub-human (plants and animals), the infernal being, and the celestial being are the fruits of its name-karma (nāmakarma). Because of this reason, the soul, while enjoying the fruits of its karmas, does not attain own-nature (svabhāva).

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+ अब, जीव की द्रव्यरूप से अवस्थितता होने पर भी पर्यायों से अनवस्थितता (अनित्यता-अस्थिरता) प्रकाशते हैं -
जायदि णेव ण णस्सदि खणभंगसमुब्भवे जणे कोई । (119)
जो हि भवो सो विलओ संभवविलय त्ति ते णाणा ॥129॥

Meaning : This world continually witnesses the phenomenon of destruction (vināsha, vyaya). Still, there is neither origination (utpāda) nor destruction (vināsha) of the substance (dravya). The substance (dravya) subsists through the origination (utpāda) as well as the destruction (vināsha). Moreover, the two phenomena - origination (utpāda) and destruction (vināsha) - are different [as there is the change of modes (paryāya)].

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+ अब, जीव की अनवस्थितता का हेतु प्रगट करते हैं -
तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे । (120)
संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स ॥130॥

Meaning : Due to the aforesaid reason, there is no object in this world that is permanently established in own nature (svabhāva). And, the transformation of the soul-substance (jīvadravya), in the four states of existence, characterizes worldly existence sansāra.

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+ अब परिणामात्मक संसार में किस कारण से पुद्‌गल का संबंध होता है—कि जिससे वह (संसार) मनुष्यादि पर्यायात्मक होता है? — इसका यहाँ समाधान करते हैं -
आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं । (121)
तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो ॥131॥

Meaning : Mired in karmic dirt and because of the influence of the karmas bound with it, the soul (jīva) undergoes impure transformations, like delusion (moha) and attachment (rāga). Due to such impure transformations, the particles of karmic matter fasten to the space-points (pradesha) of the soul (jīva). Hence, impure transformations (like attachment) of the soul - its bhāvakarma - are the cause of bondage of material-karmas (dravyakarma).

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+ अब, परमार्थ से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकर्तृत्व प्रकाशित करते हैं -
परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया । (122)
किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ॥132॥

Meaning : The transformation (parinama) of the soul (jīva) is nothing but the soul (jīva). Further, the activity (kriyā) of transformation of the soul (jīva) is of the nature of the soul - jīvamayī. The activity (kriyā) itself is the karma. Therefore, the soul (jīva) is not the doer (kartā) of the material-karma (dravyakarma).

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+ अब, यह कहते हैं कि वह कौनसा स्वरूप है जिसरूप आत्मा परिणमित होता है? -
परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा । (123)
सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥133॥

Meaning : The transformation (parināma) of the soul (jīva) manifests in the nature of consciousness (cetanā). Lord Jina has expounded that this transformation of the soul (jīva) is of three kinds: 1) knowledge-transformation (gyāna-parinati), 2) karma-transformation (karma-parinati), and 3) fruit-of-karma transformation (karma-phala-parinati).

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+ अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप वर्णन करते हैं -
णाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं । (124)
तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ॥134॥

Meaning : Lord Jina has said that the transformation of the soul (jīva) into dispositions (bhāva) of knowledge that makes distinction (vikalpa) between objects (artha), the self (jīva) and the non-self (ajīva), is knowledge-consciousness (gyānachetanā). The activity (karma) of the soul (jīva) in form of dispositions (bhāva) of various kinds is the karma-consciousness (karma-chetanā or bhāva-karma). And, the fruit of karmas in form of either happiness (sukha) or misery (dukha) is the fruit-of-karma-consciousness (karma-phala-chetanā).

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+ अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल को आत्मारूप से निश्‍चित करते हैं -
अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी । (125)
तम्हा णाणं कम्मं फलं च आदा मुणेदव्वो ॥135॥

Meaning : The soul (jīva) undergoes transformations and transformations are of the nature of knowledge-transformation (gyānaparinama), karma-transformation (karmaparinama), and fruitof- karma-transformation (karmaphalaparinama). These transformations, knowledge-transformation (gyānaparinama), karma-transformation (karmaparinama), and fruit-of-karmatransformation (karmaphalaparinama) should be understood as the nature of the soul (jīva).

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+ अब, इस प्रकार ज्ञेयपने को प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि (अनुभव, प्राप्ति) होती है; इस प्रकार उसका अभिनन्दन करते हुए (अर्थात् आत्मा की शुद्धता के निर्णय की प्रशंसा करते हुए धन्यवाद देते हुए), द्रव्यसामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हैं -
कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । (126)
परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥136॥

Meaning : The ascetic (shramanaa) who has ascertained that the doer (kartā), the instrument (karanaa), the activity (karma) and the fruit-ofkarma (karma-phala) are nothing but the soul (jīva) and does not evolve into anything that is other than the soul, attains the pure and stainless state of the self - shuddhātmā.

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+ अब, द्रव्यविशेष का प्रज्ञापन करते हैं (अर्थात् द्रव्यविशेषों को द्रव्य को भेदों को बतलाते हैं) । उसमें (प्रथम) द्रव्य के जीवाजीवपनेरूप विशेष को निश्‍चित करते हैं, (अर्थात् द्रव्य के जीव और अजीव-ऐसे दो भेद बतलाते हैं) -
दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवओगमओ । (127)
पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं ॥137॥

Meaning : The substances (dravya) are of two kinds, the soul (jīva) and the non-soul (ajīva). Further, the soul (jīva) is of the nature of consciousness (chetanā) that manifests in form of cognition (upayoga). Starting from the physical matter (pudgala), the other substances (dravya) are inanimate (acetana); these comprise the non-soul (ajīva) substances (dravya).

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+ अब द्रव्य के लोकालोक स्वरूप-विशेष (भेद) निश्चित करते हैं -
पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्‌ढो । (128)
वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु ॥138॥

Meaning : The space (ākash) is infinite (ananta) and gives room to the souls (jīva) and the matter (pudgala). The medium of motion (dharmāstikāya), the medium of rest (adharmāstikāya), and the time (kāla) permeate this universe-space (lokākāsha). This much of the space is the universe-space (lokākāsha), in the three times - the past, the present and the future.

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+ अब, ‘क्रिया’ रूप और ‘भाव’ रूप ऐसे जो द्रव्य के भाव हैं उनकी अपेक्षा से द्रव्य का भेद निश्‍चित करते हैं -
उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स । (129)
परिणामा जायंते संघादादो व भेदादो ॥139॥

Meaning : In the universe (loka) of the soul (jīva) and the matter (pudgala), the transformations (parināma) of origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya) take place either through union (fusion or sanghāta) or division (fission or bheda).

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+ अब, यह बतलाते हैं कि गुण विशेष से (गुणों के भेद से) द्रव्य विशेष (द्रव्यों का भेद) होता है -
लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । (130)
तेऽतब्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा णेया ॥140॥

Meaning : The marks (chihna, lakshanaa) are specific to the substances (dravya) - the soul (jīva) and the non-soul (ajīva) - and the substances are known through these marks. These marks are the corporeal (mūrtīka) and the non-corporeal (amūrtīka) qualities (guna) of the substances (dravya).

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+ अब, मूर्त और अमूर्त गुणों के लक्षण तथा संबंध (अर्थात् उनका किन द्रव्यों के साथ संबंध है यह) कहते हैं -
मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा । (131)
दव्वाणममुत्तणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ॥141॥

Meaning : The qualities (guna) that are corporeal (mūrtīka) are of many kinds and are recognized by the senses (indriya); the physical matter (pudgala) has these qualities (guna). The non-corporeal (amūrtīka) substances (dravya) have non-corporeal (amūrtīka) qualities (guna).

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+ अब, मूर्त पुद्‌गल द्रव्य के गुण कहते हैं -
वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो । (132)
पुढवीपरियंतस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो ॥142॥

Meaning : The substance (dravya) of matter (pudgala), from the minute atom (paramānau) to the gross earth (prithivī), have the qualities of colour (varnaa), taste (rasa), smell (gandha) and touch (sparsha). The sound (shabda), which is of many kinds, is the mode (paryāya) of the matter (pudgala).

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+ अब, शेष अमूर्त द्रव्यों के गुण कहते हैं और द्रव्‍य का प्रदेशवत्‍व और अप्रदेशवत्‍वरूप विशेष (भेद) बतलाते हैं -
आगासस्सवगाहो धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं । (133)
धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ॥143॥
कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो । (134)
णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं ॥144॥

Meaning : The specific quality of the substance of space (ākāsha dravya) is to provide room - avagāhana - to all substances at the same time. And, the specific quality of the substance of medium of motion (dharma dravya) is to render assistance in motion - gatihetutva - to the substances of soul (jīva) and matter (pudgala). Further, the specific quality of the substance of medium of rest (adharma dravya) is to render assistance in rest - sthitihetutva - to the substances of soul (jīva) and matter (pudgala). The specific quality of the substance of time (kāla dravya) is to render assistance to all substances in their continuity of being through gradual changes - vartanā - and in their modifications through time. Lord Jina has said that the specific quality of the substance of soul (jīva dravya) is consciousness (chetanā) that manifests in form of cognition (upayoga). In essence, each of the five noncorporeal (amūrtīka) substances (dravya) must be known to have the above mentioned specific qualities.

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+ अब, यह कहते हैं कि प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्व किस प्रकार से संभव है -
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं । (135)
सपदेसेहिं असंखा णत्थि पदेस त्ति कालस्स ॥145॥

Meaning : The substances of the soul (jīva dravya), the physical-matter (pudgalakāya), the medium of motion (dharma dravya), the medium of rest (adharma dravya) and the space (ākāsh dravya), each, has innumerable or infinite (asankhyāta or ananta) spacepoints (pradesha). The substance of time (kāla dravya) does not have multiple space-points (pradesha).

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+ अब उसी अर्थ को दृढ करते हैं -
एदाणि पंचदव्वाणि उज्झियकालं तु अत्थिकाय त्ति ।
भण्णंते काया पुण बहुप्पदेसाण पचयत्तं ॥146॥

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+ अब, यह बतलाते हैं की प्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्य कहाँ रहते हैं -
लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहिं आददो लोगो । (136)
सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥147॥

Meaning : The substance of space (ākāsha dravya) pervades the whole of the universe (loka) and the non-universe (aloka). The substances of medium of motion (dharma dravya) and the medium of rest (adharma dravya) pervade the universe-space (lokākāsha). Denoted by transformations in the soul (jīva) and the matter (pudgala), the substance of time (kāla dravya), together with the substances of the soul (jīva dravya) and the matter (pudgala dravya), are in the universe-space (lokākāsha).

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+ अब, यह कहते हैं की प्रदेशवतत्त्व और अप्रदेशवतत्त्व किस प्रकार से संभव है -
जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं । (137)
अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो ॥148॥

Meaning : The atom (paramānau) occupies one space-point (pradesha). With this unit of measurement, there are infinite space-points (pradesha) in the substance of space (ākāsha dravya). Similarly, the space-points of the remaining substances - the medium of motion (dharma dravya), the medium of rest (adharma dravya) and individual soul (jīva dravya) - are measured with this unit of measurement. The indivisible atom of matter (pudgalaparamānau) does not have two or more space-points (pradesha); it occupies just one space-point (pradesha). The atom (paramānau) is the source of space-points (pradesha).

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+ अब, 'कालाणु अप्रदेशी ही है' ऐसा नियम करते हैं (अर्थात दर्शाते हैं) -
समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स । (138)
वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ॥149॥

Meaning : And, the substance of time (kāla dravya) is without space-points (pradesha); it occupies just one space-point (pradesha). As the indivisible atom of matter (pudgala-paramānau) traverses slowly in the substance of space (ākāsha dravya) from one space-point to the other, the time-atom (kālānau) evolves into its mode (paryāya) of time (duration or samaya).

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+ अब काल-पदार्थ के द्रव्य और पर्याय को बतलाते हैं -
वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुव्वो । (139)
जो अत्थो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धंसी ॥150॥

Meaning : The time taken by the indivisible atom of matter (pudgalaparamānau) in traversing slowly one space-point (pradesha) of the space (ākāsha) is the mode (paryāya) of time (kāla), called the 'samaya' (the smallest, indivisible unit of time). The eternal substance (dravya) that continues to exist before and after the mode (paryāya), called the 'samaya', is the substance of time (kāla dravya). The mode (paryāya), i.e., the 'samaya', undergoes origination and destruction.

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+ अब, आकाश के प्रदेश का लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं -
आगासमणुणिविट्ठं आगासपदेससण्णया भणिदं । (140)
सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ॥151॥

Meaning : Lord Jina has expounded that the part of the substance of space (ākāsha dravya) that an indivisible atom (paramānau) occupies is known as the space-point (pradesha) of space (ākāsha). One spacepoint (pradesha) of space (ākāsha) has the power to accommodate the atoms (paramānau) of all the remaining substances including the infinite indivisible atoms and molecules of matter (pudgala-paramānau and pudgala-skandha).

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+ अब, तिर्यकप्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय बतलाते हैं -
एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य । (141)
दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ॥152॥

Meaning : The substances (dravya) (other than the time, kāla) have one, two, numerable, innumerable, and also infinite space-points (pradesha); however, the substance of time (kāla) certainly has just the mode 'samaya' - one space-point (pradesha).

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+ अब, कालपदार्थ का ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय है, इस बात का खंडन करते हैं -
उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि जस्स एगसमयम्हि । (142)
समयस्स सो वि समओ सभावसमवट्ठिदो हवदि ॥153॥

Meaning : The simultaneous origination (utpāda) and destruction (vyaya) in form of the 'samaya' takes place in the substance of time (kāla dravya); it also exhibits permanence (dhrauvya), being established in own-nature (svabhāva).

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+ अब, (जैसे एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला सिद्ध किया है उसी प्रकार) सर्व वृत्यंशों में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है यह सिद्ध करते हैं -
एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा । (143)
समयस्स सव्वकालं एष हि कालाणुसब्भावो ॥154॥

Meaning : The time-atom (kālānu) or the substance of time (kāla dravya) undergoes the origination (utpāda), the permanence (dhrauvya) and the destruction (vyaya) in each 'samaya', that is the mode of the substance of time (kāla dravya). The substance of time (kāla dravya) exists eternally with this characteristic (of the origination, utpāda, the permanence, dhrauvya and the destruction, vyaya).

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+ अब, कालपदार्थ के अस्तित्व अन्यथा अनुपपत्ति होने से (अन्य प्रकार से) नहीं बन सकता; इसलिये उसका प्रदेशमात्रपना सिद्ध करते हैं -
जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं व तच्चदो णादुं । (144)
सुण्णं जाण तमत्थं अत्थंतरभूदमत्थीदो ॥155॥

Meaning : Any substance (dravya) that has neither the indivisible, multiple space-points (pradesha) nor a single space-point (pradesha) that reveals its real nature, is a non-substance (avastu) since it is other than 'existence'.

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+ अब, इस प्रकार ज्ञेयतत्त्व कहकर, ज्ञान और ज्ञेय के विभाग द्वारा आत्मा को निश्‍चित करते हुए, आत्मा को अत्यन्त विभक्त (भिन्न) करने के लिये व्यवहारजीवत्व के हेतु का विचार करते हैं -
सपदेसेहिं समग्गो लोगो अट्ठेहिं णिट्ठिदो णिच्चो । (145)
जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्काभिसंबद्धो ॥156॥

Meaning : The universe (loka) is eternal (nitya) and fixed, and is filled with entities (artha) which are endowed with space-points (pradesha). That which knows this universe (loka) is the substance of soul (jīva), endowed with four life-essentials (prāna).

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+ अब, प्राण कौन-कौन से हैं, सो बतलाते हैं -
इंदियपाणो य तधा बलपाणो तह य आउपाणो य । (146)
आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होंति पाणा ते ॥157॥

Meaning : The life-essentials (prāna) of the substance of soul (jīva) are the (five) sense-life-essentials (indriya-prāna), the (three) strengthlife- essentials (bala-prāna), the age-life-essential (āyu-prāna), and the respiration-life-essential (svāsochhvāsa-prāna).

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+ अब, वे ही प्राण भेद-नय से दस प्रकार के होते हैं, ऐसा आवेदन करते हैं (मर्यादा पूर्वक ज्ञान कराते हैं) -- -
पंच वि इंदियपाणा मणवचिकाया य तिण्णि बलपाणा ।
आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होंति दसपाणा ॥158॥

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+ अब, व्युत्पत्ति से प्राणों को जीवत्व का हेतुपना और उनका पौद्‌गलिकपना सूत्र द्वारा कहते हैं -
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । (147)
सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता ॥159॥

Meaning : Certainly, the consciousness (ātmā) that lives presently, will live in the future and has lived in the past with the above-mentioned four life-essentials (prāna) is the substance of soul (jīva dravya). And, these life-essentials are fashioned by the substance of matter (pudgala dravya).

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+ अब, प्राणों का पौद्‌गलिकपना सिद्ध करते हैं -
जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहिं कम्मेहिं । (148)
उवभुंजं कम्मफलं बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं ॥160॥

Meaning : The soul (jīva) bound with karmas like delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dvesha) is endowed with (four) life-essentials (prāna) and, as it entertains dispositions on fruition of these karmas, it binds itself with new karmas (like the knowledge-obscuring - gyānāvaranaīya karma).

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+ अब, प्राणों के पौद्‌गलिक कर्म का कारणत्‍व प्रगट करते हैं -
पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं । (149)
जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मेहिं ॥161॥

Meaning : When the (worldly) soul (jīva), out of its dispositions of delusion (moha) and aversion (dvesha), causes injury to the life-essentials (prānaa) of souls (jīva) - self and others, then it certainly experiences bondage of (eight kinds of) karmas, like the knowledge-obscuring (gyānāvaranaīya) karma.

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+ अब पौद्‌गलिक प्राणों की संतति की (प्रवाह-परम्परा) की प्रवृत्ति का अन्तरंग हेतु सूत्र द्वारा कहते हैं -
आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे । (150)
ण चयदि जाव ममत्तिं देहपधाणेसु विसयेसु ॥162॥

Meaning : The soul (jīva) that is soiled, since infinite time past, with karmic dirt keeps on attaining new life-essentials (prāna) so long as it does not get rid of infatuation towards the objects of the senses, own body being the principal object of the senses.

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+ अब पौद्‌गलिक प्राणों की संतति की निवृत्ति का अन्‍तरङ्ग हेतु समझाते है -
जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । (151)
कम्मेहिं सो ण रज्जदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥163॥

Meaning : How can the material life-essentials (prāna) follow the soul (jīva) which, after subjugating infatuation towards the sense-objects, engages in meditation of only the pure soul-consciousness, and does not get attached to all kinds of karmas?

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+ अब फिर भी, आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये, व्यवहार जीवत्व के हेतु ऐसी जो गतिविशिष्ट (देव-मनुष्यादि) पर्यायों का स्वरूप कहते हैं -
अत्थित्तणिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्थंतरम्हि संभूदो । (152)
अत्थो पज्जाओ सो संठाणादिप्पभेदेहिं ॥164॥

Meaning : The substance of soul (jīva) exists in own immutable nature; however, due to union with other substances - matter (pudgala) - it gets transformed into unnatural-modes (vibhāva-paryāya) with particularities of bodily structure (sansthāna), joints (sanhanana) etc.

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+ अब पर्याय के भेद बतलाते हैं -
णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा । (153)
पज्जाया जीवाणं उदयादिहिं णामकम्मस्स ॥165॥

Meaning : The worldly souls (jīva) attain these unnatural-modes (vibhāva-paryāya) as human (nar), infernal (nāraka), plant and animal (tiryanch), and celestial (deva) on fruition of the name (nāma - physique-making) karmas comprising bodily structure (sansthāna), joints (sanhanana) etc.

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+ अब, आत्मा का अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तपना होने पर भी अर्थ निश्रायक अस्तित्व को स्व-पर विभाग के हेतु के रूप में समझाते हैं -
तं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं तिहा समक्खादं । (154)
जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि ॥166॥

Meaning : The soul (jīva) that knows well the nature of the substance (dravya) as existence-of-own-nature (svarūpāstitva) that has already been expounded as having three distinctions - substance (dravya), quality (gun), and mode (paryāya) or origination (utpāda), destruction (vyaya), and permanence (dhrauvya) - does not entertain delusion (moha) in respect of substances (dravya) that are different from the self.

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+ अब, आत्मा को अत्यन्त विभक्त करने के लिये परद्रव्य के संयोग के कारण का स्वरूप कहते हैं -
अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो । (155)
सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ॥167॥

Meaning : The soul-substance (jīva dravya) is marked by cognition (upayoga) that manifests in knowledge-cognition (gyānopayoga) and perception-cognition (darshanopayoga). Certainly, the two kinds of cognition (upayoga) of the soul (jīva) are in form of either auspicious-cognition (shubhopayoga) or inauspicious cognition (ashubhopayoga).

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+ अब कहते हैं कि इनमें कौनसा उपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण है -
उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । (156)
असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ॥168॥

Meaning : The soul-substance (jīva dravya) is marked by cognition (upayoga) that manifests in knowledge-cognition (gyānopayoga) and perception-cognition (darshanopayoga). Certainly, the two kinds of cognition (upayoga) of the soul (jīva) are in form of either auspicious-cognition (shubhopayoga) or inauspicious cognition (ashubhopayoga).

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+ अब शुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं -
जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । (157)
जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ॥169॥

Meaning : The soul (jīva) that knows the nature of the Tīrthankara (Lord Jina, the Arhat), perceives with knowledge-eyes the liberated souls (the Siddha), similarly, knows and perceives the saints (shramanaa, angāra) - the chief preceptor (āchrya), the preceptor (upādhyāya), the ascetic (sādhu) - and is compassionate towards all living beings, engenders auspicious-cognition (shubhopayoga).

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+ अब अशुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं -
विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो । (158)
उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ॥170॥

Meaning : The soul (jīva) whose cognition (upayoga) is strongly inclined towards sense-gratification and passions (kashāya) like anger, who listens to fallacious doctrines, contemplates on inauspicious dispositions, engages in destructive discussions, has cruel tendency, and holds false beliefs, engenders inauspiciouscognition (ashubhopayoga).

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+ अब, परद्रव्य के संयोग का जो कारण (अशुद्धोपयोग) उसके विनाश का अभ्यास बतलाते हैं -
असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि । (159)
होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए ॥171॥

Meaning : Rid of inauspicious-cognition (ashubhopayoga), also not having dispositions of auspicious-cognition (shubhopayoga), and with a sense of equanimity towards all other substances (dravya), I, with knowledge as my innate nature, meditate on the pure soulsubstance (jīvadravya, ātmā).

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+ अब शरीरादि परद्रव्य के प्रति भी मध्यस्थपना प्रगट करते हैं -
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । (160)
कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥172॥

Meaning : I - the pure soul (jīva) - am not of the nature of the body; I am not of the nature of the mind; and certainly, I am not of the nature of the speech. I am not the cause of their activities (of the body, the mind and the speech); I am not the doer, the administrator, or the approver of these activities.

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+ अब, शरीर, वाणी और मन का परद्रव्यपना निश्‍चित करते हैं -
देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिद्दिट्ठा । (161)
पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं ॥173॥

Meaning : Lord Jina has expounded that the body, the mind and the speech are the nature of the substance of matter (pudgala). Further, the substance of matter (pudgala) certainly is the molecular union of the infinitesimal atoms of matter.

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+ अब आत्मा के परद्रव्यत्व का अभाव और परद्रव्य के कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करते हैं -
णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं । (162)
तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्य देहस्य ॥174॥

Meaning : I (pure consciousness) am not of the nature of the substance of matter (pudgala); I have not caused the fusion into molecules (skandha) of the indivisible atoms of the substance of matter (pudgala). Therefore, I am certainly not the body; not even the 'doer' (kartā) of the body.

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+ अब इस संदेह को दूर करते हैं कि 'परमाणुद्रव्यों को पिण्डपर्यायरूप परिणति कैसे होती है?' -
अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो द समयसद्दो जो । (163)
णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुभवदि ॥175॥

Meaning : The indivisible atom (paramānu) of the substance of matter (pudgala) does not occupy multiple space-points (pradesha); it occupies just one space-point (pradesha). By itself, it does not have the quality of sound (shabda). The atoms, with qualities of greasiness (snigdha) and roughness (rūksha), combine together to form molecules having two or more space-points (pradesha).

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+ अब यह बतलाते हैं कि परमाणु के वह स्निग्ध-रूक्षत्व किस प्रकार का होता है -
एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं । (164)
परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि ॥176॥

Meaning : The degrees, from one to many, of greasiness (snigdha) and roughness (rūksha) in the indivisible atom (paramānau) are due to its power of transformation (parinaamana). There are infinite degrees of greasiness and roughness.

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+ अब यह बतलाते हैं कि कैसे स्निग्धत्व-रूक्षत्व से पिण्डपना होता है -
णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा । (165)
समदो दुराधिगा जदि बज्झन्ति हि आदिपरिहीणा ॥177॥

Meaning : With the exception of the lowest degree, wherever there is difference of two degrees in greasiness and roughness, whether even or odd, there is combination of similar or dissimilar types (greasiness with greasiness, roughness with roughness, and greasiness with roughness).

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+ अब यह निश्‍चित करते हैं कि परमाणुओं के पिण्डत्‍व में यथोक्त (उपरोक्त) हेतु है -
णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि । (166)
लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो ॥178॥

Meaning : The atom (paramānau) having two degrees of greasiness combines with the atom with four degrees of greasiness or roughness. The atom with three degrees (of greasiness or roughness) combines with the atom with five degrees (of greasiness or roughness).

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+ अब, आत्मा के पुद्‌गलों के पिण्ड के कर्तृत्व का अभाव निश्‍चित करते हैं -
दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा । (167)
पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ॥179॥

Meaning : The molecules (skandha - combination of atoms), starting from those occupying two space-points (pradesha) to infinity, are produced due to their own nature of transformation. And these fine (sūkshma) and gross (sthūla) molecules of matter in form of the earth (prithivī), the water (jala), the fire (agni) and the air (vāyu) have various shapes (sansthāna, ākāra).

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+ अब ऐसा निश्‍चित करते हैं कि आत्मा पुद्‌गलपिण्ड का लानेवाला नहीं है -
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । (168)
सुहुमेहिं बादरेहि य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ॥180॥

Meaning : The universe (loka, having innumerable space-points) is filled densely (without inter-space) in all directions with fine (sūkshma) and gross (sthūla) molecules of matter, with and without the power to turn into karmas that bond with the soul (ātmā).

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+ अब ऐसा निश्‍चित करते हैं कि आत्मा पुद्‌गलपिण्डों को कर्मरूप नहीं करता -
कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा । (169)
गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥181॥

Meaning : The molecules (skandha) of matter (pudgala) fit to turn into karmas - kārmānaa-varganā - when in association with the impure dispositions of the soul (jīva) transform themselves into (eight types of) karmas. The soul (jīva) is not the cause of this transformation of the molecules (skandha) of matter (pudgala) into karmas; the molecules of matter have inherent power to turn into karmas.

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+ अब आत्‍मा के कर्मरूप परिणत पुद्‌गलद्रव्‍यात्‍मक शरीर के कर्तत्‍व का अभाव निश्‍चि‍त करते हैं (अर्थात् यह निश्‍च‍ित करते हैं कि कर्मरूपपरिणतपुद्‌गलद्रव्‍यस्‍वरूप शरीर का कर्ता आत्‍मा नहीं है) -
ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । (170)
संजायंते देहा देहंतरसंकमं पप्पा ॥182॥

Meaning : The molecules (skandha) of matter (pudgala) bound earlier with the soul (jīva) in form of material-karmas (dravyakarma) certainly transform themselves into the body as the soul (jīva) adopts a new body on change of its mode (paryāya).

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+ अब आत्मा के शरीरपने का अभाव निश्‍चित करते हैं -
ओरालिओ य देहो देहो वेउव्विओ य तेजसिओ । (171)
आहारय कम्मइओ पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे ॥183॥

Meaning : The gross-body (audārika sharīra), the transformable-body (vaikriyika sharīra), the luminous-body (taijasa sharīra), the projectable- or assimilative-body (āhāraka sharīra) and the karmic-body (kārmāna sharīra), all are forms of the substance of matter (pudgala-dravya).

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+ तब फिर जीव का, शरीरादि सर्वपरद्रव्यों से विभाग का साधनभूत, असाधारण स्वलक्षण क्या है, सो कहते हैं -
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्‌दं । (172)
जाण अलिंग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥184॥

Meaning : O bhavya soul! Know that the (pure) soul (jīva) does not have the qualities of taste (rasa), colour (varna), smell (gandha), touch (sparsha), and sound (shabda), which is the mode (paryāya) of the matter (pudgala). It cannot be comprehended through any mark typical of the matter (pudgala) - alingagrahana. Its shape cannot be defined, and it has this quality of consciousness (chetanā).

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+ अब, अमूर्त ऐसे आत्मा के, स्निग्धरूक्षत्व का अभाव होने से बंध कैसे हो सकता है ? ऐसा पूर्व पक्ष उपस्थित करते हैं -
मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं । (173)
तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं ॥185॥

Meaning : The atoms (paramānu) or molecules (skandha), with qualities of taste (rasa), colour (varna), smell (gandha), and touch (sparsha), of the matter (pudgala), which is with form (mūrta), are able to combine due to their attributes of greasiness or roughness. How can the soul (jīva), which does not have these qualities, form bonds of karmas with the matter (pudgala)?

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+ अब ऐसा सिद्धान्त निश्‍चित करते हैं कि आत्मा अमूर्त होने पर भी उसको इस प्रकार बंध होता है -
रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । (174)
दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥186॥

Meaning : As the soul (jīva), itself without qualities like colour (varna), perceives and knows the substance of matter (pudgala-dravya) and its qualities like colour (varna), similarly, the substance of matter (pudgala-dravya) binds, in form of karmas, with such soul (jīva).

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+ अब भावबंध का स्वरूप बतलाते हैं -
उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । (175)
पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं सो बन्धो ॥187॥

Meaning : When the soul (jīva) having cognition (upayoga) - in form of knowledge (gyāna) and perception (darshana) - engenders dispositions of delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dvesha) for the objects of the senses, it again gets bound with those dispositions (of delusion, attachment and aversion).

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+ भावबंध की युक्ति और द्रव्यबन्ध का स्वरूप -
भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये । (176)
रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ॥188॥

Meaning : Lord Jina has expounded that as the soul (jīva) knows and sees the objects of the senses with dispositions of delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dvesha), it attains the form of those dispositions and gets into psychic-bondage (bhāvabandha); as a consequence, it is bound with (eight kinds of) material-karmas (dravyakarma).

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+ अब पुद्‌गलबंध, जीवबंध और उन दोनों के बंध का स्वरूप कहते हैं -
फासेहिं पोग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं । (177)
अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥189॥

Meaning : Due to their quality of touch (sparsha) - greasiness or roughness - the karmic molecules - kārmāna-varganā - form new bonds between themselves. Due to its dispositions of attachment (rāga) etc. the soul (jīva) forms psychic bonds - bhāvabandha. Due to the instrumentality of each other, the soul (jīva) and the karmic molecules - kārmāna-varganā - existing in the same space form bonds - jīva-pudgala-bandha or dravyabandha.

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+ अब, ऐसा बतलाते हैं कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है -
सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोग्गला काया । (178)
पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठंति हि जंति बज्झंति ॥190॥

Meaning : The soul (jīva, ātmā) has innumerable space-points (pradesha). The karmic molecules penetrate the space-points of the soul and make bonds when there is vibration in the space-points of the soul due to the activity of the mind, the speech and the body. These karmic molecules remain bound with the soul for certain duration and then separate on fruition.

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+ अब, यह सिद्ध करते हैं कि—राग परिणाममात्र जो भावबंध है सो द्रव्यबन्ध का हेतु होने से वही निश्‍चयबन्ध है -
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । (179)
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥191॥

Meaning : The soul (jīva) with attachment (rāga) toward the external objects makes bonds with karmas and the soul without attachment toward the external objects frees itself from bonds of karmas. Certainly, the impure-cognition (ashuddhopayoga) of the soul (jīva) is the cause of bondage; know this as the essence of bondage.

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+ अब, परिणाम का द्रव्यबन्ध के साधकतम राग से विशिष्टपना सविशेष प्रगट करते हैं (अर्थात् परिणाम द्रव्यबंध के उत्कृष्ट हेतुभूत राग से विशेषता वाला होता है ऐसा भेद सहित प्रगट करते हैं) -
परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । (180)
असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ॥192॥

Meaning : The transformation of the soul (jīva) into impure-cognition (ashuddhopayoga) is the cause of bondage (dravyabandha). This transformation of the soul (jīva) is due to dispositions of attachment (rāga), aversion (dvesha), and delusion (moha). Dispositions of delusion (moha) and aversion (dvesha) are inauspicious (ashubha). Disposition of attachment (rāga) is auspicious (shubha) as well as inauspicious (ashubha).

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+ अब विशिष्ट परिणाम के भेद को तथा अविशिष्ट परिणाम को, कारण में कार्य का उपचार कार्यरूप से बतलाते हैं -
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु । (181)
परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥193॥

Meaning : The transformation of the soul (jīva) in auspicious (shubha) dispositions, which are other than its innate nature, is merit (punya). The transformation of the soul (jīva) in inauspicious (ashubha) dispositions is demerit (pāpa). The Doctrine expounds that the transformation that does not delve into either dispositions is the cause of the destruction of misery (dukha).

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+ अब, जीव की स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य से निवृत्ति की सिद्धि के लिये स्व-पर का विभाग बतलाते हैं -
भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । (182)
अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो ॥194॥

Meaning : Then, the soul-bodies (jīvanikāya), which have been called immobile (sthāvara) - the earth-bodied (prathivīkāya) and the rest - and the mobile (trasa), are distinct from the substance of soul (jīvadravya) and the substance of soul (jīvadravya) too is distinct from these soul-bodies (jīvanikāya).

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+ अब, यह निश्‍चित करते हैं कि—जीव को स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का ज्ञान है, और परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का अज्ञान है -
जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज । (183)
कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो ॥195॥

Meaning : The soul (jīva) that does not differentiate between the soul and the non-soul according to their respective nature as stated above, is deluded and, as a result, carries misconceptions like, 'I am the body', and 'the body is mine'.

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+ अब, आत्मा का निश्चय से रागादि स्व-परिणाम ही कर्म है और द्रव्य-कर्म उसका कर्म नहीं है, ऐसा प्रारूपित करते हैं -- कथन करते हैं - -
कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स । (184)
पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्त्ता सव्वभावाणं ॥196॥

Meaning : The soul (jīva) is certainly the doer (kartā) of the dispositions (bhāva) that result due to its transformation in own nature. It is not the doer (kartā) of the transformation in material (pudgala) substances (dravya).

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+ अब, पुद्‌गलपरिणाम आत्मा का कर्म क्यों नहीं है—ऐसे सन्देह को दूर करते हैं -
गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । (185)
जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ॥197॥

Meaning : The soul (jīva), although existing eternally in midst of the matter (pudgala), it does not take in external substances like the material-karmas (dravyakarma), does not give these up, and certainly is not the doer (kartā) of these.

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+ पुद्गल-परिणाम आत्मा का कर्म नहीं -
स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स । (186)
आदीयदे कदाइं विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ॥198॥

Meaning : The soul (jīva), in its worldly state, becomes the doer (kartā) of the transformation of the soul-substance (ātmadravya) into impure dispositions. It is then taken in by the particles of material-karmas, and is also given up by these particles of material-karmas on fruition.

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+ पुद्‌गल कर्मों की विचित्रता को कौन करता है? -
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । (187)
तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ॥199॥

Meaning : When the soul (jīva) is engaged in dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesha) and thereby undertakes auspicious (shubha) or inauspicious (ashubha) activities, at the same time, the dust of karmic matter enters into the soul (jīva) in form of karmas, like the knowledge-obscuring (gyānāvaranaīya) karma.

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+ अब, पहले (१९९वीं गाथा में) कही गई प्रकृतियों के, जघन्य अनुभाग और उत्कृष्ट अनुभाग का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं -
सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसम्मि ।
विवरीदो दु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ॥200॥

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+ अकेला ही आत्मा बंध है -
सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं । (188)
कम्मरएहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ॥201॥

Meaning : Since the soul (jīva), having innumerable space-points (pradesha), is tinged with passions (kashāya) in form of delusion (moha), attachment (rāga), and aversion (dvesha) in its worldly state, it is bound with the dust of the karmic matter (like the knowledge-obscuring gyānāvaranaīya karma). This is called the bondage (bandha) in the Scripture.

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+ निश्चय और व्यवहार का अविरोध -
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो । (189)
अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥202॥

Meaning : Lord Jina (the Arhat) has discoursed for the ascetics that the transformation of the worldly soul (jīva) into the state of attachment (rāga) etc. in the aforesaid manner is, in essence, the real (nishchaya) bondage (bandha). The other kind of bondage (of the karmic matter with the soul) is the empirical (vyavahāra) bondage (bandha).

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+ अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति -
ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु । (190)
सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥203॥

Meaning : The one who does not discard infatuation for the body and other possessions and entertains dispositions of 'I am this' and 'this is mine' for such objects embraces the opposite path, departing from his status of the ascetic (shramana).

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+ शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति -
णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । (191)
इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥204॥

Meaning : 'I, the pure-soul (shuddhātmā), do not belong to the external objects (like the body) and the external objects do not belong to me. I am just one, of the nature of knowledge'. Only the one who meditates thus on the nature of the 'self' meditates on the pure soul (shuddhātmā).

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+ शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य क्यों? -
एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिंदियमहत्थं । (192)
धुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं ॥205॥

Meaning : This way, I consider my soul (ātmā) to be pure (shuddha), eternal (dhruva), of the nature of knowledge (gyāna) and perception (darshana), a super-substance beyond the senses - atīndriya, steady (acala), and independent (svādhīna).

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+ दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य क्यों नहीं? -
देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा । (193)
जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥206॥

Meaning : The body, the possessions, the happiness or the misery, and the friends or the foes do not have eternal association with the soul (ātmā); the pure soul, of the nature of knowledge (gyāna) and perception (darshana), is the only eternal substance.

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+ शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है? -
जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । (194)
सागारोऽणगारो खवेदि सो मोहदुग्गंठि ॥207॥

Meaning : The worthy householder (shrāvaka) or the ascetic (shramanaa) who, after knowing the aforesaid nature of the soul (ātmā), meditates on the pure-soul (paramātmā) destroys the intractable knot of delusion (moha) and attains the purity of his soul.

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+ मोहग्रंथि टूटने से क्या होता है? -
जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे । (195)
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि ॥208॥

Meaning : The ascetic (shramana) destroys the knot of delusion (moha), gets rid of attachment (rāga) and aversion (dvesha) and observes equanimity in pleasure and pain; he then attains the indestructible happiness (of liberation).

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+ ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता -
जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । (196)
समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥209॥

Meaning : The one who has destroyed the dirt of delusion (moha), has isolated himself from sense-pleasures, has controlled the wavering of his mind, and is established firmly in soul-nature, performs meditation on the pure-soul.

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+ सकलज्ञानी क्या ध्याते हैं? -
णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू । (197)
णेयंतगदो समणो झादि कमट्ठं असंदेहो ॥210॥

Meaning : What does the supreme-ascetic (the Omniscient Lord, the Kevalī) who has destroyed the most intractable inimical (ghātī) karmas, has attained the direct (pratyaksha) knowledge of all substances, has got the better of all objects of knowledge, and is free from doubt, meditate on?

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+ सकलज्ञानी परम सौख्य का ध्यान करता है -
सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्‌ढो । (198)
भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं ॥211॥

Meaning : With the attainment of the super-sensuous knowledge that is beyond the senses, rid of all obstructions due to the inimical (ghātī) karmas, and endowed with infinite bliss and infinite knowledge, the Omniscient Lord (the Kevalī) meditates on the supreme happiness (appertaining to the soul).

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+ शुद्ध आत्मा की उपलब्धि मोक्ष का मार्ग -
एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा । (199)
जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ॥212॥

Meaning : My salutation to the Omniscient Lords (the Kevalī), the Fordmakers (the Tīrthankara), and the Most Worthy Ascetics (shramana) treading the aforementioned path that leads to the status of the Liberated Soul (the Siddha), and also to the path to liberation (moksa, nirvāna).

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+ मैं (आचार्यदेव) स्वयं भी शुद्धात्मप्रवृत्ति करता हूँ -
तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । (200)
परिवज्जामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्हि ॥213॥

Meaning : Therefore, I, in the same manner, get established in my pure soul-nature. My soul is the knower of all objects of knowledge and is utterly distinct from all other objects. I cast away the sense-of-mine (mamakāra) for external objects and adopt complete non-attachment.

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+ मध्य-मंगल -
दंसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं ।
अव्वाबाधरदाणं णमो णमो सिद्धसाहूणं ॥214॥

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चरणानुयोग-चूलिका-अधिकार



+ श्रमणार्थी की भावना -
एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । (201)
पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥215॥

Meaning : After repeatedly making obeisance to the Supreme Lord Jina (the Arhat), the Liberated Souls (the Siddha) and the Saints (shramana), we suggest that if your soul too wishes to escape from misery, may it adopt the conduct - 'dharma' - of the ascetic.

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+ श्रमणार्थी पहले क्या-क्या करता है? -
आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । (202)
आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ॥216॥

Meaning : After obtaining consent of the family and then taking leave of the elders, wife and children, he accepts the fivefold observances (āchara) in regard to knowledge (gyāna), faith (darshana), conduct (chāritra), austerities (tapa) and strength (vīrya).

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+ दीक्षार्थी भव्य जैनाचार्य का आश्रय लेता है -
समणं गणिं गुणड्‌ढं कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं । (203)
समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो ॥217॥

Meaning : Then he goes to the worthy head (ācharya) of a congregation of ascetics, who himself practises the fivefold observances and guides his disciples, rich in virtues, superior in terms of nobility (kula), form (rūpa), and age (vaya), and highly adorable by the disciple ascetics. He bows down in reverence and pleads, 'O Lord! Please admit me.' He is favoured with admission (into the congregation).

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+ गुरु द्वारा स्वीकृत श्रमणार्थी की अवस्था कैसी? -
णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि । (204)
इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो ॥218॥

Meaning : I do not belong to the external objects; these external objects do not belong to me. Nothing in this world belongs to me. Ascertaining reality in this manner, the subjugator of the senses adopts the form (rūpa) that is natural-by-birth (nāgnya, yathājāta).

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+ श्रमण-लिंग का स्वरूप -
जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । (205)
रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं ॥219॥
मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं । (206)
लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं ॥220॥

Meaning : The external-marks (dravyalinga) of the ascetic are that he adopts the nude form that is natural-by-birth (nāgnya, yathājāta), pulls out his hair of the head and the face by hand, being pure, he is free from activities that cause injury, and does not attend to the body. The internal-marks (bhāvalinga) - the cause of cessation of births - of the ascetic are that he is free from infatuation for possessions, has purity of the cognition (upayoga) and the activities (yoga), and is free from dependence on everything external.

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+ अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं - -
आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता । (207)
सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदि सो समणो ॥221॥

Meaning : After obtaining the consent of the worthy head (ācārya), adopting the external-marks (dravyalinga) as well as the internal-marks (bhāvalinga) of the ascetic, bowing down in reverence to the head (āchārya), and taking note of the duties of the ascetic including the fivefold supreme vows (mahāvrata), he gets established, with equanimity, as an ascetic (muni, shramana).

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+ अब, जब विकल्प रहित सामायिक संयम से च्युत होता है, तब विकल्प सहित छेदोपस्थापन चारित्र को स्वीकार करता है, ऐसा कथन करते हैं - -
वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । (208)
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥222॥
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । (209)
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥223॥

Meaning : The Omniscient Lord has expounded that five supreme vows (mahāvrata), five regulations (samiti), fivefold control of the senses (panchendriya nirodha), pulling out the hair on the head and the face (kesh-loncha), six essential duties (āvashyaka), renouncing clothes (nāgnya, digambaratva), not taking bath (asnāna), sleeping on the ground (bhūmishayana), not cleansing the teeth (adantadhāvan), taking food in steady, standing posture (sthitibhojan), and taking food only once in a day (ekabhukti), are certainly the twenty-eight primary attributes (mūlagun) that make the ascetic (shramana) steady in his conduct. Negligence in the practise of these primary attributes calls for their reestablishment as per the rules.

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+ अब इन मुनिराज के दीक्षा देनेवाले गुरु के समाननिर्यापक नामक दूसरे भी गुरु हैं इसप्रकार गुरु व्यवस्था का निरूपण करते हैं - -
लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि । (210)
छेदेसूवट्ठवगा सेसा णिज्जवगा समणा ॥224॥

Meaning : The worthy head (āchārya) - guru - who grants initiation (dīkshā), with the external as well as the internal marks (linga), into the congregation is called the pravrajyādāyaka or the dīkshādāyaka or the dīkshāguru. Subsequently, as and when the ascetic fails to observe restraints as specified, the other worthy heads (āchārya) - guru - may reinitiate him in the right course of conduct; these worthy heads (āchārya) are called the niryāpakaguru.

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+  अब पहले (२२४ वीं) गाथा में कहे गये दोनो प्रकार के छेदक का प्रायश्चित्त विधान कहते हैं - -
पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि । (211)
जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ॥225॥
छेदुवजुत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । (212)
आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठं तेण कायव्वं ॥226॥

Meaning : If the breach of proper restraint has occurred due to the activities of the body, though performed carefully, the ascetic must, after confession of the fault, follow the course of expiation as prescribed in the Scripture. If the breach has occurred due to perversion of the cognition (upayoga), the ascetic must approach a worthy head (āchārya), make confession, and take on the chastisement as prescribed by the guru.

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+ अब विकार रहित श्रामण्य में छेद को उत्पन्न करनेवाले पर द्रव्यों के सम्बन्ध का निषेध करते हैं - -
अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे । (213)
समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि ॥227॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) may remain in the company of the worthy preceptor or without his company, but, in either case, renouncing association with all external objects, he should be ever vigilant not to breach proper restraint.

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+ अब श्रमणता की परिपूर्ण कारणता होने से अपने शुद्धात्मद्रव्य में हमेशा स्थिति करना चाहिये, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं- -
चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्हि दंसणमुहम्हि । (214)
पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ॥228॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) who is ever established in own 'self', characterized by perception (darshana) and knowledge (gyāna), and vigilant in observance of the primary attributes (mūlagun), follows asceticism to perfection.

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+  अब, श्रमणता के छेद की कारणता होने से प्रासुक आहार आदि में भी ममत्व का निषेध करते हैं - -
भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा । (215)
उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥229॥

Meaning : The worthy ascetic (muni, shramana) does not entertain sense of attachment for the food (āhāra), or for fasting (anashana), or for the dwelling (āvāsa), or for roaming (vihāra), or for the body (sharīra), or for other ascetics (shramana), or for loquacious discussions (vikathā).

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+ अब शुद्धोपयोगरूप भावना को रोकनेवाले छेद को कहते हैं - -
अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु । (216)
समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति मदा ॥230॥

Meaning : Alternatively, the Lord has propounded that negligent activity of the ascetic (muni, shramana) while sleeping, sitting, standing, and walking is the cause of injury (hinsā) to living beings, continuously, and at all times.

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+ अब अन्तरंग-बहिरंग हिंसारूप से दो प्रकार के छेद को प्रसिद्ध करते हैं -
मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । (217)
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥231॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) whose activities are without proper diligence certainly causes injury (hinsā) to the living beings, whether they die or not. The ascetic who observes diligently the fivefold regulation of activities (samiti) does not cause bondage even if he has caused injury to the living beings.

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+ अब उसी अर्थ को दृष्टान्त और दार्ष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं - -
उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए ।
आबाधेज्ज कुलिंगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ॥232॥
ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये ।
मुच्छा परिग्गहो च्चिय अजझप्पपमाणदो दिट्ठो ॥233॥

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+ अब, निश्चय हिंसारूप अन्तरंग छेद, पूर्णरूप से निषेध करने योग्य है; ऐसा उपदेश देते हैं- -
अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो । (218)
चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ॥234॥

Meaning : The Doctrine expounds that the ascetic (muni, shramana) whose activities are without due diligence certainly engenders bondage of karmas as he causes injury (hinsā) to six classes of embodied beings. The ascetic who incessantly observes diligence in his activities does not engender bondage of karmas; he remains unblemished as the lotus-flower remains untouched by the water though it grows in the water.

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+ अब बाह्य में जीव का घात होने पर बन्ध होता है, अथवा नहीं होता है; परन्तु परिग्रह होने पर नियम से बन्ध होता है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं - -
हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेट्ठम्हि । (219)
बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ॥235॥

Meaning : Bodily activities of the ascetic (muni, shramana) which cause injury (hinsā) to the living beings may or may not engender bondage of karmas. However, if the ascetic (muni, shramana) has attachment to possessions (parigraha), he certainly engenders bondage of karmas; knowling this, the supreme ascetics leave all possessions in the first place.

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+ निरपेक्ष त्याग से ही कर्मक्षय -
ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । (220)
अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ॥236॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) who has not set himself completely free of attachment to possessions (parigraha) cannot have purity of mind and without purity in his dispositions, how can he get rid of all karmas?

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+ परिग्रह त्याग -
गेण्हदि व चेलखंडं भायणमत्थि त्ति भणिदमिह सुत्ते ।
जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ॥237॥
वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमण्णं च गेण्हदि णियदं ।
विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि ॥238॥
गेण्हइ विधुणइ धोवइ सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता ।
पत्तं व चेलखंडं बिभेदि परदो य पालयदि ॥239॥

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+ सपरिग्रह के नियम से चित्त-शुद्धि नष्ट -
किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स । (221)
तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥240॥

Meaning : Since attachment to possessions (parigraha) must result in infatuation (mūrcchā) and initiation (ārambha) of activity, how will it not result in non-restraint (asanyama) in the ascetic (muni, shramana)? Also, how can the ascetic (muni, shramana) who gets attached to things external due to attachment to possessions (parigraha) meditate on the pure-soul?

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+ अपवाद-संयम -
छेदो येन न विद्यते ग्रहणविसर्गेषु सेवमानस्य । (222)
समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ॥241॥

Meaning : There is no inappropriateness if the ascetic (muni, shramana) makes use of, as per the requirement of the time and the place, a possession (parigraha) whose acceptance or rejection does not result in the breach of his restraint (samyama).

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+ उपकरण का स्वरूप -
अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । (223)
मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ॥242॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) who has to follow the exception path (apavāda mārga) accepts a little of external possessions (parigraha) which do not result in bondage of karmas, are not suitable for adoption by those without restraint, and do not cause faults like infatuation (mūrcchā).

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+ उपकरण अशक्य अनुष्ठान हैं -
किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि । (224)
संग त्ति जिणवरिंदा अप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥243॥

Meaning : Knowing that for the ascetic (muni, shramana) aiming for cessation of rebirth - liberation - even the body (sharīra) is an external possession (parigraha), Lord Jina has expounded renunciation of all bodily activities that cause infatuation (mūrcchā). The argument is, can such an ascetic (muni, shramana) have external possessions?

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+ स्त्री पर्याय से मुक्ति का निराकरण -
पेच्छदि ण हि इह लोगं परं च समणिंददेसिदो धम्मो ।
धम्मम्हि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ॥244॥

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णिच्छयदो इत्थीणं सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा ।
तम्हा तप्पडिरूवं वियप्पियं लिंगमित्थीणं ॥245॥

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पइडीपमादमइया एदासिं वित्ति भासिया पमदा ।
तम्हा ताओ पमदा पमादबहुला त्ति णिद्दिट्ठा ॥246॥

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संति धुवं पमदाणं मोहपदोसा भयं दुगुंछा य ।
चित्ते चित्ता माया तम्हा तासिं ण णिव्वाणं ॥247॥

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ण विणा वट्टदि णारी एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि ।
ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ॥248॥

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चित्तस्सावो तासिं सित्थिल्लं अत्तवं च पक्खलणं ।
विज्जदि सहसा तासु अ उप्पादो सुहममणुआणं ॥249॥

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लिंगम्हि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खपदेसेसु ।
भणिदो सुहुमुप्पादो तासिं कह संजमो होदि ॥250॥

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जदि दंसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता ।
घोरं चरदि व चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा ॥251॥

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तम्हा तं पडिरूवं लिंगं तासिं जिणेहिं णिद्दिट्ठं ।
कुलरूववओजुत्ता समणीओ तस्समाचारा ॥252॥

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+ दीक्षाग्रहण में वर्ण व्यवस्था -
वण्णेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा ।
सुमुहो कुच्छारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो ॥253॥

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+ निश्चयनय का अभिप्राय -
जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहिं णिद्दिट्ठो ।
सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणा अरिहो ॥254॥

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+ उपकरण रूप अपवाद व्याख्यान का विशेष -
उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । (225)
गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तचझयणं च णिद्दिट्ठं ॥255॥

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+ युक्त आहार-विहार -
इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्हि लोयम्हि । (226)
जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥256॥

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+ प्रमाद -
कोहादिएहिं चउहिं वि विकहाहिं तहिंदियाणमत्थेहिं ।
समणो हवदि पमत्तो उवजुत्तो णेहणिद्दाहिं ॥257॥

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+ युक्ताहार-विहार -
जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा । (227)
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥258॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) whose soul (ātmā), by nature, does not partake of external substances like food, remains 'nirāhārī' - without food. To attain this 'nirāhārī' nature of the soul is certainly the internal austerity (tapa). The worthy-ascetic (mahāmuni) partakes of food and performs the activity of roaming with a view to seek this 'nirāhārī' nature of his soul. Therefore, such an ascetic does not partake of food; he is 'nirāhārī'.

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केवलदेहो समणो देहे ण ममत्ति रहिदपरिकम्मो । (228)
आजुत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्तिं ॥259॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) whose only possession (parigraha) is his body (sharīra), does not carry the sense-of-ownership with itand, therefore, does not perform activities of partaking of food(āhāra) and roaming (vihāra) inappropriately. He employs hisbody for austerity (tapa), without concealing his strength.

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+ युक्ताहारत्व का विस्तार -
एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । (229)
चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥260॥

Meaning : The appropriate food, certainly, is accepted only once (in a day),is taken less than the fill and in the form it is obtained. Further,it is accepted as gift while wandering about, in daytime only,without consideration of taste, and it should not contain honeyand flesh.

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+ मांस के दोष -
पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु ।
संतत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥261॥ ।
जो पक्कमपक्कं वा पेसीं मंसस्स खादि फासदि वा ।
सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमणेगकोडीणं ॥262॥

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+ हाथ में आया हुआ प्रासुक आहार भी देय नहीं -
अप्पडिकुट्ठं पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स ।
दत्ता भोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो ॥263॥

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+ सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से चारित्र की रक्षा -
बालो वा वुड्‌ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । (230)
चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ॥264॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana), who is adolecent (bāla), old(vrddha), suffering from fatigue (kheda) or disease (roga),should, as per his strength, observe conduct that does not result in the breach of his primary restraint (sanyama).

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+ उत्सर्ग और अपवाद में विरोध से असंयम -
आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधिं । (231)
जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥265॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) who conducts his activities of partaking of food (āhāra) and roaming (vihāra) after properly understanding the nature of the place (ksetra), the time (kāla), exertion (shrama), strength (shakti), and bodily hazards (upadhi), incurs very little bondage.

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+ आगम के परिज्ञान से ही एकाग्रता -
एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । (232)
णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ॥266॥

Meaning : He, who has attained concentration (ekāgratā) (of knowldege, perception and conduct), is called the ascetic (muni, shramana). Concentration is attained by him who has right knowledge of the objects. Right knowledge is obtained from the Scripture, the Doctrine of Lord Jina. Therefore, it is important for the ascetic to study the Scripture.

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+ आगम के परिज्ञान से हीन के कर्मों का क्षय नहीं -
आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि । (233)
अविजाणंतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ॥267॥

Meaning : Certainly, the ascetic (muni, shramana) who is rid of the knowledge of the Doctrine knows neither the own soul (ātmā) nor the other substances. Not knowing the objects-ofknowledge, how can he attain the destruction of karmas?

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+ अब मोक्षमार्ग चाहने वालों को आगम ही दृष्टि-आँख है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं - -
आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । (234)
देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ॥268॥

Meaning : The ascetics (muni, shramana) have the Scripture, the Doctrine of Lord Jina, as their eyes, the worldly souls have the senses (indriya) as their eyes, the celestial beings (deva) have clairvoyance (avadhigyāna) as their eyes, and the Liberated Souls (the Siddha) have omnipresent eyes.

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+ अब, आगमरूपी नेत्र से सभी दिखाई देता है, ऐसा विशेषरूप से ज्ञान कराते हैं - -
सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं । (235)
जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ॥269॥

Meaning : All objects-of-knowledge (gyaeya), with their infinite qualities (gunaa) and modes (paryāya), are well-established in the Scripture. Certainly, the ascetics (muni, shramana) acquire knowledge about these objects-of-knowledge (gyaeya) through their eyes of the Scripture.

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+ दर्शन-रहित के संयतपना नहीं -
आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स । (236)
णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो ॥270॥

Meaning : The Doctrine expounds that in this world, he, whose perception (drishti) is not based on the tenets contained in the Scripture, cannot observe proper restraint (sanyama). So, how can the one without restraint (sanyama) be an ascetic (muni, shramana)?

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+ अब आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व की युगपतता का अभाव होने पर मोक्ष नहीं है, ऐसी व्यवस्था बताते हैं - -
ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु । (237)
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥271॥

Meaning : The ascetic (muni, shramama) cannot attain liberation even after acquiring the knowledge of the tenets as contained in the Scripture if he does not have the right faith (samyagdarshana) in the objects of reality. Also, even after acquiring the faith (darshana), if he remains incontinent, he cannot attain liberation .

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+ आत्मज्ञानी ही मोक्षमार्गी -
जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । (238)
तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥272॥

Meaning : The karmas that an ignorant man sheds in one trillion incarnations, the knowledgeable man, established in own-self, after controlling well the threefold activities of the mind, the speech and the body, sheds in just one breath.

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+ अब पहले (२७२ वीं) गाथा में कहे गये आत्मज्ञान से रहित जीव के, सम्पूर्ण आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता भी अकिंचित्कर है, ऐसा उपदेश देते है - -
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । (239)
विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि ॥273॥

Meaning : The man with even infinitesimal infatuation (mūrcchā) for external objects like the body (sharīra) does not attain liberation, although he may have studied all the Scriptures.

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+ अब, द्रव्य-भाव संयम का स्वरूप कहते हैं - -
चागो य अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं ।
सो संजमो त्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण ॥274॥

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+ आत्मज्ञानी संयत -
पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ । (240)
दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ॥275॥

Meaning : The worthy ascetic (muni, shramana) who observes regulation - samiti - of the fivefold activity, control - gupti - of the threefold yoga, curbs the five senses - panchendriya-nirodha, subdues the passions (kashāya), and is endowed with faith (darshan) and knowledge (gyān), is said to have self-restraint (samyama).

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+ आत्मज्ञानी संयत का लक्षण -
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो । (241)
समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥276॥

Meaning : For the worthy ascetic (muni, shramana), enemy and kinsfolk, happiness and misery, praise and censure, iron and gold, and life and death, are alike (he maintains equanimity).

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+ युगपत आत्मज्ञान और संयत ही मोक्षमार्ग -
दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु । (242)
एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ॥277॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana), who is well-established in the trio of right faith (samyagdarshan), right knowledge (samyaggyān) and right conduct (samyakcharitra), simultaneously, is said to have attained concentration (ekāgratā). And, only such an ascetic follows perfect asceticism.

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+ एकाग्रता के अभाव से मोक्ष का अभाव -
मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज । (243)
जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ॥278॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) without soul-knowledge (ātmagyāna) accepts substances other than the soul and engenders dispositions of delusion (moha) or attachment (rāga) or aversion (dvesha). As a result, he is bound with various kinds of karmas.

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+ अब, जो वे अपने शुद्धात्मा में एकाग्र हैं उनका ही मोक्ष होता है; ऐसा उपदेश देते हैं - -
अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । (244)
समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥279॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) with soul-knowledge (ātmagyāna) does not engender dispositions of delusion (moha) or attachment (rāga) or aversion (dvesa) in external substances. With resultant concentration (ekāgratā), he certainly sheds various kinds of karmas.

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+ लौकिक संसर्ग का निषेध -
णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि । (268)
लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि ॥280॥

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+ लौकिक का लक्षण -
णिग्गंथं पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहिं कम्मेहिं । (269)
सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥281॥

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+ उत्तम संसर्ग का उपदेश -
तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं । (270)
अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥282॥

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+ लौकिक संसर्ग कथंचित् अनिषिद्ध -
वेज्जवच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्‌ढसमणाणं । (253)
लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोवजुदा ॥283॥

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+ शुभोपयोग मुनियों के गौण और श्रावकों को मुख्य -
एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । (254)
चरिया परे त्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥284॥

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+ शुभोपयोगियों की श्रमणरूप में गौणता -
समणा सुद्धुवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि । (245)
तेसु वि सुद्धुवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥285॥

Meaning : As per the Doctrine, the ascetics (muni, shramana) are of two kinds, those engaged in pure-cognition (shuddhopayoga) and those engaged in auspicious-cognition (shubhopayoga). The ascetics engaged in pure-cognition (shuddhopayoga) are rid of the influx (āsrava) of karmas and the rest, engaged in auspiciouscognition (shubhopayoga), are with the influx of karmas.

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+ शुभोपयोगी श्रमण -
अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । (246)
विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥286॥

Meaning : The course of conduct for the ascetic (muni, shramana) engaged in auspicious-cognition (subhopayoga) consists in devotion (bhakti) to the Arhat etc. (the five Supreme Beings), and fervent affection (vātsalya) - similar to the tender love of the cow for her calf - for the preceptors of the Doctrine.

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+ प्रवृत्ति शुभोपयोगियो के ही है -
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं । (248)
चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य ॥287॥

Meaning : Certainly, the activities of the ascetic (muni, shramana) engaged in conduct-with-attachment (sarāga charitra) - auspicious-cognition (shubhopayoga) - include preaching about right faith (samyagdarshana) and right knowledge (samyaggyāna), making disciples and nurturing them, and imparting instructions on the worship of Lord Jina.

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उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स (249)
कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ॥288॥

Meaning : Certainly, the ascetic (muni, shramana) who always assists the fourfold community of ascetics through service, without causing injury (hinsā) to living beings having six kinds of bodies - satkāya, too, exhibits primarily the conduct-with-attachment (sarāga charitra), i.e., auspicious-cognition (shubhopayoga).

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+ वैयावृत्ति संयम की विराधना-रहित होकर करें -
जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो । (250)
ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥289॥

Meaning : If the ascetic (muni, shramana) causes injury (hinsā) to living beings having six kinds of bodies - shatkāya - while providing service to the fourfold community of ascetics then he does not remain an ascetic; he becomes a householder since such service is prescribed for the householder.

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+ प्रवृत्ति में विशेषता -
जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । (251)
अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ॥290॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) can, with disposition of compassion and without expecting anything in return, perform activity of service to all true followers - the householders as well as the ascetics - of the path promulgated by Lord Jina, although such service causes a little bondage of (auspicious) karmas.

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+ अनुकम्पा का लक्षण -
तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो हि दुहिदमणो ।
पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥291॥

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+ प्रवृत्ति का काल -
रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । (252)
दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आदसत्तीए ॥292॥

Meaning : The ascetic (muni, shramana) engaged in auspicious-cognition (shubhopayoga) should, to the best of his ability, render service to a co-ascetic if he sees him diseased, or suffering from hunger, thirst or other afflictions (parīsaha). This is the right time for rendering service.

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+ पात्र-विशेष से वही शुभोपयोग में फल-विशेषता -
रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । (255)
णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥293॥

Meaning : The auspicious kind of attachment (rāga), depending on the objects of attachment, yields opposing results, just as the seeds sown in different kinds of soils yield opposing results.

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+ कारण-विपरीतता से फल-विपरीतता -
छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो । (256)
ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि ॥294॥

Meaning : The person who is engaged in activities of observing vows, regulations, study, meditation, and giving of gifts, but with concocted faith based on the teachings of a non-omniscient preceptor in objects like deva, guru and dharma, does not attain liberation but attains birth in pleasurable conditions.

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अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु । (257)
जुट्ठं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ॥295॥

Meaning : Performance of activities, in form of adoration, fond service, and giving of gifts, in respect of persons who do not know the Doctrine of the Omniscient Lord Jina, and abound in sense-pleasures (vishaya) and passions (kashāya), gives fruit as birth among lowly devas or human beings.

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जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु । (258)
किह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होंति ॥296॥

Meaning : The Doctrine of Lord Jina expounds that imperfections like giving in to sense-pleasures (visaya) and passions (kashāya) causes demerit (pāpa); how can those who themselves are sullied by such imperfections help others cross the ocean of worldly existence?

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+ पात्रभूत मुनि का लक्षण -
उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु । (259)
गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ॥297॥

Meaning : The man - ascetic (muni, shramana) - who is rid of demerit (pāpa) that accrues due to indulgence in sense-pleasures (visaya) and passions (kashāya), has an attitude of equanimity (sāmya) toward different attributes (dharma) of substances, and in whom many virtues inhere, treads the laudable path to liberation.

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असुभोवयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा । (260)
णित्थारयंति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्तो ॥298॥

Meaning : The ascetics (muni, shramana) who are rid of the dispositions due to inauspicious-cognition (ashubhopayoga) and are engaged in pure-cognition (shuddhopayoga) or auspicious-cognition (shubhopayoga) help the worthy souls cross the ocean of worldly existence. The one who is devoted to these two kinds of ascetics attains excellent status.

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+ सामान्य विनय तथा उसके बाद विशेष विनय व्यवहार -
दिट्ठा पगदं वत्थु अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं । (261)
वट्ठदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो ॥299॥

Meaning : Therefore, admirable men, on seeing the most worthy recipient (pātra), must perform worthwhile activities, the foremost being standing up in reverence. Lord Jina has preached that they being endowed with excellent virtues deserve special reverence.

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अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं । (262)
अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि ॥300॥

Meaning : In this world, the most worthy recipients (pātra) - the ascetics (muni, shramana) abound in attributes like knowledge - should be accorded such reverence as greeting them on their arrival by standing up, welcoming them with words, attending on them, supporting them, providing for their advancement, extolling their virtues, saluting them with folded hands, and bowing down.

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+ श्रमणभासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध -
अब्भुट्ठेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया । (263)
संजमतवणाणड्‌ढा पणिवदणीया हि समणेहिं ॥301॥

Meaning : Certainly, those worthy ascetics (muni, shramana) who are adept in interpretation of the Scripture and abound in virtues like restraint (samyama), austerities (tapa), and knowledge (gyāna), deserve reverence in form of greeting them on their arrival by standing up, attending on them, and bowing down.

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+ शुभोपयोगियों की शुभप्रवृत्ति -
वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती । (247)
समणेसु समावणओ ण णिंदिदा रागचरियम्हि ॥302॥

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+ श्रमणाभास -
ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि । (264)
जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ॥303॥

Meaning : It is proclaimed that the ascetic who although adept in restraint (samyama), austerities (tapa) and interpretation of the Scripture but does not have faith in the reality of substances, the soul (ātmā) being the primary one, as expounded by the Omniscient Lord Jina, is not a genuine ascetic.

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+ मोक्षमार्गी पर दोष लगाने में दोष -
अववददि सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि । (265)
किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो ॥304॥

Meaning : The ascetic who, on seeing a genuine ascetic following the tenets of the Scripture, derides him out of malice, finds faults in him and does not take delight in performance of his reverential duties certainly ruins own conduct (charitra).

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+ अधिक गुणवा्लों से विनय चाहने से गुणों का विनाश -
गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति । (266)
होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ॥305॥

Meaning : The ascetic who lacks merit but due to his vain of being an ascetic expects reverence from another ascetic who is more merited than him, wanders in worldly existence for infinity.

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+ हीन गुणवालों के साथ वर्तने से गुणों का विनाश -
अधिगगुणा सामण्णे वट्टंति गुणाधरेहिं किरियासु । (267)
जदि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पब्भट्ठचारित्ता ॥306॥

Meaning : If worthy ascetic, endowed with great merit, gets involved in activities of veneration etc. in company of ascetics who lack merit then even such worthy ascetic adopts false beliefs and ruins his conduct (charitra).

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+ संसार-स्वरूप -
जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये । (271)
अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ॥307॥

Meaning : The men who adopt the form (rūpa) that is natural-by-birth (nāgnya, yathājāta) - nirgrantha - of the ascetic but have wrongly grasped the nature of substances and insist on their wrong comprehension, wander infinitely long, experiencing the fruits of their karmas, in worldly existence.

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+ मोक्ष का स्वरूप -
अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा । (272)
अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥308॥

Meaning : The ascetic who is free from false conduct, has ascertained the nature of substances as these actually are, tranquil [rid of attachment (rāga) and aversion (dvesa)] and follows true asceticism, does not wander long in the fruitless worldly existence (sansāra).

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+ मोक्ष का कारण -
सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं । (273)
विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्धा त्ति णिदिट्ठा ॥309॥

Meaning : The souls (jīva), which know the reality of all substances, have renounced external and internal attachments (parigraha) and do not indulge in the objects-of-the-senses, such stainless souls are called the Pure Ones (shuddha) - the reality of the means of attaining liberation - moksha-tattva-shradhana.

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+ मोक्षमार्ग -
सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । (274)
सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ॥310॥

Meaning : The Pure-Soul (shuddhātmā) possesses true asceticism (shrāmanya); it is endowed with infinite perception (darshana) and knowledge (gyāna), and attains the supreme state of liberation (nirvāna, moksha). True asceticism (shrāmanya), with ineffable and permanent bliss, is really the liberated-soul (the Siddha). With extreme devotion, I bow to the Siddha.

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+ शास्त्र का फल और समाप्ति -
बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो । (275)
जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि ॥311॥

Meaning : The man, engaged in the duties of the ascetic (muni, shramana) or the householder (shrāvaka), who comprehends the tenets described in this Scripture, realizes, within a short time, the essence of his pure-soul-nature.

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परिशिष्ट



+ परिशिष्ट -
परिशिष्ट

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