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Date : 17-Nov-2022
Index
!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
श्रीमद्-भगवत्योगींदुदेव-प्रणीत
श्री
अमृताशीति
मूल अपभ्रंश गाथा
आभार :
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-अमृताशीति नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-योगींदु-देव विरचितं ॥
॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
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विश्वप्रकाशिमहिमानममानमेकम्
ओमक्षराद्यखिलवाङमयहेतुभूतम् ।
यं शंकर सुगतमीशमनीशमाहु:
अर्हन्तमूर्जितमह तमहं नमामि ॥१॥
अन्वयार्थ : तीनों लोकों और तीनों कालों में रहने वाले समस्त पदार्थों को युगपत् प्रकाशित करने में समर्थ महिमा के धारी, अनन्त गुणों से युक्त होने से जिन्हे 'अपरिमित' ऐसा कहा गया है अखण्ड चैतन्यगुण की अपेक्षा से जो एक हैं 'ॐ' इस अक्षर सहित सम्पूर्ण वाङ्मय के कारणभूत है -- "अर्हन्त, अशरीरी , आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि-- इन पाँचो परमेष्ठियों के नामों के प्रथम अक्षरों से निष्पन्न ॐकार' पचपरमेष्ठी है", --इनकी स्वर-सन्धि से निमित्त ॐकार आदि सम्पूर्ण वाङ्मय का उपदेशकत्व होने से ॐकारादि सम्पूर्ण वाङ्मय के कारण है, ऐसे जो कोई सम्पूर्ण जीवों के लिए सुख के उपदेशक होने से 'शंकर' है, परमपद को प्राप्त होने से जो 'सुगत' है, परम उत्कृष्ट ऐश्वर्य से युक्त होने से जो 'ईश' है अपने से अधिक न होने से जो 'अनीश' हैं, अत्यन्त प्रकाशमान उन परमात्मा अर्हन्त भट्टारक को गणधरदेवादि 'योगीन्द्र' कहते है -- इस युग के प्रारम्भ में हुए उन सर्वज्ञ परमात्मा को मैं योगीन्दुदेव नमस्कार / वन्दना करता हूँ ।
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भ्रात: ! प्रभातसमये त्वरित किमर्थम्,
अर्थाय चेत् स च सुखाय ततः स सार्थ: ।
यद्येवमाशु कुरु पुण्यमतोऽर्थसिद्धि:,
पुण्यैर्विना न हि भवन्ति समीहितार्था: ॥2॥
अन्वयार्थ : हे भाई ! सुर्योदयकाल में शीघ्रगमन किस कारण से करते हो ? यदि अर्थ के कारण वह अर्थ विषयसुख का निमित्त है उस 'विषयसुख की प्राप्ति से स्व-अर्थ की सिद्धि होती है' - यदि ऐसा तुम्हारा चिन्तन है, तो शीघ्र पुण्यानुष्ठान करो । इस पुण्योपार्जन से तुम्हे इष्ट पदार्थ की सिद्धि होगी । विविध प्रकार के अभ्युदय के सुखों को देने वाले पुण्य के उदय के बिना वांछित पदार्थ प्राप्त नही होते हैं ।
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धर्मादयो हि हितहेतुतया प्रसिद्धा,
धर्मार्द्धनं धनत ईहितवस्तुसिद्धि ।
बुद्ध्वेति मुग्ध! हितकारि विधेहि पुण्यं,
पुण्यैर्विना न हि भवन्ति समीहितार्था ॥३॥
अन्वयार्थ : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - ये वास्तव में स्पष्टत: जीव के हित के निमित्तरूप से लोक में प्रसिद्ध है। अभ्युदय और नि:श्रेयस के कारणभूत धर्म से इन्द्रियसुख की प्राप्ति का कारणभूत धन प्राप्त होता है धन से वांछित वस्तु की प्राप्ति होती है -- ऐसा जानकर हे विवेकरहित हित के अनुष्ठान में रत जीव ! निर्दोष पुण्य का उपार्जन कर । विविध प्रकार के अभ्युदय सुख को देने वाले पुण्य के उदय के बिना भलीभाँति चाहे गये पदार्थ प्राप्त नहीं होते हैं ।
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वार्तादिभिर्यदि धनं नियत जनानाम्,
निस्व कथ भवति कोऽपि कृषीवलादि: ।
ज्ञात्वेति रे! मम वच चतुरास्स्व पुण्ये,
पुण्यैर्विना न हि भवन्ति समीहितार्था ॥4॥
अन्वयार्थ : धनोपार्जन के लिए अहेतुकर बातचीत आदि से लोगों के लिए यदि कही सोना-चांदी आदि पदार्थ नियम से प्राप्त होते हो, तो कृषक आदि कोई भी व्यक्ति धनरहित कैसे होता ? ऐसा मेरा कथन जानकर अरे विवेकयुक्त ! पुण्य के अनुष्ठान में स्थित रहो, पुण्योदय के बिना वांछित पदार्थ प्राप्त नही होते हैं ।
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प्रारभ्यते भुवि बुधेन धियाऽधिगम्य,
तत्कर्म येन जगतोऽपि सुखोदय स्यात् ।
कृष्यादिकं पुनरिद विदधासि यत्वम,
स्वस्यापि रे ! विपुल दु:खफल न किं तत् ॥5॥
अन्वयार्थ : निजनिरंजन परमात्मा के परिज्ञान के धनी पुरुष के द्वारा विवेकरूपी उपकरण से 'इससे अवश्य ही स्वर्ग व मोक्षरूप फल प्राप्त होगा' -- ऐसा जानकर लोक में प्रारम्भ किया जाता है। यह निजात्मा का अनुष्ठान से उत्पन्न, जिससे जगत् के जीवों के भी चार सौ गव्यूति तक सुभिक्षता का कारणरूप होने से सुख का उदय होता है। तुम फिर जो यह प्रत्यक्षीभूत कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि क्रिया-व्यापार को अत्यन्त आग्रह से 'करता हूँ' -- ऐसा कहते हो रे ! स्वयं भी अत्यन्त दुःखरूपी फल के अलावा भी कुछ होता है क्या ?
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एह्येहि याहि सर निस्सर वारितोऽसि,
मा मन्दिरं नरपतेर्विश रे विशंकम् ।
इत्यादि सेवनफलं प्रथमं लभन्ते,
लब्ध्वापि सा यदि चला सफला कथं श्री ॥6॥
अन्वयार्थ : आओ-आओ, कुछ आगे बढ़ो, समीप मत जाओ, तुम निवारित हो, मना किये गये हो न ! अरे ! राजा के महल के अन्दर शंकारहित होकर प्रवेश मत करो -- ऐसे बहुत प्रकार के राजदरबार में उपस्थित होने के फल को सर्वप्रथम प्राप्त करते हैं । यदि प्राप्त करने के बाद भी वह लक्ष्मी चंचलित होती है, तो वह सफल कैसे होगी ?
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वार्त्तापि किं न तव कर्णमुपागतेयम्,
पात्रे रतिं स्थिरतया न गता कदाचित् ।
चापल्यतोऽपि जितसरुव नितम्बिनि श्री,
तस्या कथ बत कृती विदधाति संगम् ॥7॥
अन्वयार्थ : चंचलता से जिसने जगत् की समस्त सुन्दर स्त्रियों को जीत लिया है, ऐसी लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल व सद्गुणों से युक्त पात्र व्यक्ति में, इतना होने पर भी, दृढ तन्मयता से सन्तुष्टि को प्राप्त नही हुई है -- यह कथन तुम्हारे कान में स्पृष्ट भी नही हुआ है क्या ? , उस लक्ष्मी के सहवास / सान्निध्य को मेरे जैसे विवेकीजन, अत्यन्त खेद है, कैसे सहन करते है ?
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रत्नार्थिनी यदि कथं जलधिं विमुंचेत्,
रूपार्थिनी च पंचशरं कथं वा ?
दिव्योपभोगनिरता यदि नैव शक्रम्,
कृष्णाश्रयादवगता न गुणार्थिनी श्री ॥8॥
अन्वयार्थ : यदि पद्मरागादि अमूल्य मणियों में निरत रहती रत्नाकर को क्यों छोडती ? सुन्दर रंग-रूप पर आसक्त मन वाली थी कामदेव को फिर क्यों छोडती ? कल्पवृक्ष से उत्पन्न दिव्य भोग-उपभोग में मग्न रहने का आग्रह था देवेन्द्र का साथ नही छोडना था । कृष्ण का आश्रय लेने से यह जान लिया गया है कि गुणों को चाहने वाली नहीं है ।
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सत्वाधिकोऽपि सुमहानपि शीतलोऽपि,
मुक्त श्रिया चपलया जलधिर्ययेह ।
तस्या कृते कथममी कृतिनोऽपि लोका,
क्लेशं ज्वलज्ज्वलनमाशु विशंति केचित् ॥9॥
अन्वयार्थ : शक्ति में अधिक होकर भी, अत्यन्त बडप्पनयुक्त होकर भी, ठंडे स्वभाव वाला होकर भी समुद्र के समान पुरुष, जिस चपला लक्ष्मी के द्वारा छोड दिया गया है, ऐसी लक्ष्मी के संयोग के लिए कैसे प्रत्यक्षरूप, विवेकयुक्त होकर भी प्रभाकर-भट्ट आदि ये पण्डितजन धन कमाने के प्रयत्नों से उत्पन्न दु:खरूपी अत्यधिक प्रज्वलित अग्नि में शीघ्रता से प्रविष्ट हो जाते हैं !
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सत्यं समस्ति सुखसल्पमिहेहितार्थै,
ईहापि तेन तव तेषु सदेति वेद्मि ।
तेषां यदर्जनवियोगज - दु:खजालम्,
तस्यथावधिं बहुधियापि न हन्त वेद्मि ॥10॥
अन्वयार्थ : चेष्टित पदार्थों से अल्पपरिमाण में सांसारिक सुख सत्य है, इन पदार्थों में तुम्हारी सदैव चेष्टा भी बनी रहती है यह भी मैं जानता हूँ, किन्तु उन इन्द्रिय-विषयों में संग्रह के वियोग से होने वाले दु:ख के समूह की सीमा को, विविध प्रकार की बुद्धि से समन्वित होकर भी, हे भाई, मैं नही जानता हूँ ।
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निर्बाधमाधिरहितं विधुताघसंघम्,
यद्यस्ति नापरमपारममारसौख्यम् ।
एवविधेऽपि मतिमानपि शर्मणीत्थम्,
बुद्धिं करोतु पुरुषो वद कोऽत्र दोषं ॥11॥
अन्वयार्थ : बाधारहित, मानसिक पीडावर्जित, निराकृतप्रतिपक्षभूतकर्मसमूह वाला, उत्कृष्ट, अनन्तरूप क्या निज-परमात्मा में नही होता है ? अस्थिर, अतृप्तिकर तथा बंध के कारणभूत ऐसे सांसारिक सुख में मतिमान् सत्युरुष भी बुद्धि करें -- कहो, क्या इसमें दोष है?
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आस्तां समस्तमुनिसंस्तुतमस्तमोहम्,
सौख्यं सखे ! विगतखेदमसंख्यमेतत् ।
निस्संगिनां प्रशमजं यदिहापि जातम्,
तस्यांशतोऽपि सदृशं स्मरजं न जातु ॥12॥
अन्वयार्थ : सकल मुनिगणों के द्वारा स्तूयमान, विनष्टमोहवाला, विरहजनितखेद से रहित, गणनातीतरूप यह परम-सुख, अरे प्रिय मित्र, उसकी चर्चा बन्द करो। सम्पूर्ण परिग्रह से निर्मुक्त व्यक्तियों का उपशमभाव से उत्पन्न होनेवाला जो सहजसुख है इस पंचम काल में भी उत्पन्न हुआ है। मनो जनित सुख इस स्वानुभूतिजन्य सुख के अनन्तवें हिस्से में रहनेवाली समानता को प्राप्त करनेवाला कभी भी नही हो सकता है ।
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अज्ञाननाम तिमिरप्रसरोऽयमन्त,
सन्दर्शितोऽखिलपदार्थ विपर्ययात्मा ।
मन्त्री स मोहनृपते स्फुरतीह यावत्,
तावत् कुतस्तव शिव तदुपायता वा ॥13॥
अन्वयार्थ : अज्ञानरूपी अन्धकार का प्रसार यह अन्तरंग में दिखलाया गया है। जीवादि सम्पूर्ण पदार्थों से विपरीत स्वरूपवाला बुद्धिसहायक वह, दर्शन व चारित्र मोहनीयरूप राजा का, ऐसा अज्ञान नामक अद्वितीय स्फुरायमान है यहाँ जबतक, तबतक तुम्हारे लिए परमसुख अथवा उस परमसुख के हेतुभूत भेदा-भेदात्मक रत्नत्रय की आराधना कहाँ ?
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किं चाशुचौ शुचि-सुगन्धि-रसादिवस्तु,
यस्सिन् गतं नरकृतां समुपैति सद्य ।
ररम्यते तदपि मोहवशाच्छरीरं,
सर्वैरहो विजयते महिमा परोऽस्य ॥14॥
अन्वयार्थ : पवित्र एवं सुगन्धित ऐसी रसादि वस्तु जिस किसी शरीर में डाली जाती है, कैसी अशुचिता है कि वह उसी समय नरकावस्था को प्राप्त हो जाती है। चारित्रमोह के वश होकर पुन: स्वयं अतिशयपूर्वक रमण किया जाता है। आश्चर्य है, इस मोह की उत्कृष्ट महिमा हर तरह से विजयी हो रही है !
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अज्ञान-घोरसरिदम्बुनिपातमूर्ति,
दुर्मोच-मोहगुरुकर्दम-दूरमार्गम् ।
जन्मान्तकादिमकरैरुरुगृह्यमाणम्,
विश्वं निरीशमवश सहतेऽति-दु:खम् ॥15॥
अन्वयार्थ : विपरीतज्ञानरूपी गहरी नदी के जल में गिरायी गयी मूर्ति के समान ही छुडाने में असमर्थ दर्शन-चारित्र-मोहनीय रूपी अत्यधिक कीचड से पार को न प्राप्त कर सकनेवाला तथा उत्पत्ति-विनाश आदि क्रूर मगरमच्छों के द्वारा अच्छी तरह पकडा जाता हुआ सम्पूर्ण जीव-जगत् अनाथ व्यक्ति के समान वशरहित होकर अत्यन्त दु:ख सहन कर रहा है -- ऐसा साक्षात् देखो ।
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अज्ञानमोहमदिरा परिपीय मुग्धम्,
हा हन्त ! हन्ति परिवल्गति जल्पतीष्टम् ।
पश्येदृश जगदिदं पतितं पुरस्ते,
किं कूर्दसे त्वमपि बालिश ! तादृशोऽपि ॥16॥
अन्वयार्थ : हेय और उपादेय के भेदज्ञान से रहित व्यक्ति की तरह विपरीत ज्ञान से उन्मत्तपने को प्राप्त होकर दर्शन व चारित्रमोहनीय नामक मदिरा का आकण्ठ पान करके, कष्ट है, अरे अज्ञानी ! निश्चयनय की अपेक्षा सत्त्व के परिज्ञानरूप चैतन्य आदि निजजीवगत भावप्राणों का तथा व्यवहार से अन्य जीवों का घात करता है, गम्य-अगम्य आदि विषयक्षेत्रों मे भटकता रहता है, न बोलने योग्य-ऐसी बातों को पसन्द करता है। अपने सामने दुर्दशा को प्राप्त इस ऐसे जग को देखो । क्यो इठला रहे हो ? तुम भी अज्ञानियों के समान अत्यन्त बालबुद्धि ।
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बैरी ममायमहमस्य कृतोपकार:,
इत्यादि दुःखघनपावकपच्यमानम् ।
लोक विलोक्य न मनागपि कंपसे त्वम्,
क्रन्दं कुरुस्व बत तादृश कूर्दसे किम् ? ॥17॥
अन्वयार्थ : 'यह मेरा शत्रु है मैं इसके द्वारा किये गये उपकार को मानता हूँ' -- इत्यादि रूप संकल्पजन्य दुख की अत्यन्त भयंकर आग से जलने वाले अज्ञानी जगत् को देखकर किंचित् मात्र भी नही काँपते हो ? तुम भय से क्रन्दन करो । हाय! अज्ञानी जनों की भाँति अपने आप को भूलकर क्यों नाच रहे हो ?
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नो जीयते जगति केनचिदेष मोह,
इत्याकुल किपसि सम्प्रति रे ! वयस्य ।
एकोऽपि कोऽपि पुरत स्थितशत्रु सैन्यम्,
सत्त्वाधिको जयति, शोचसि किं मुधा त्वम् ॥18॥
अन्वयार्थ : 'नही जीता जायेगा लोक में किसी के भी द्वारा यह मोहनीय कर्म' इस प्रकार से आकुलित चित्त वाले क्यों हुए हो? अभी यहाँ तो अरे प्रिय मित्र! अधिक बलशाली अकेला भी कोई व्यक्ति सामने खड़ी हुई शत्रु की सेना को जीत लेगा । तुम व्यर्थ क्यों दु:खी हो रहे हो ?
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मुक्त्वाऽलसत्वमधिसत्त्वं-बलोपपन्न,
स्मृत्वा परा च समतां कुलदेवतां त्वम् ।
सज्ज्ञानचक्रमिदमग ! गृहाण तूर्णम्,
अज्ञानमंत्रियुतमोहरिपूपमर्दि ॥19॥
अन्वयार्थ : आलस्य भाव को छोडकर निज परमात्म-तत्त्व के ज्ञान रूपी सेना से युक्त होकर समता रूपी कुलदेवता का स्मरण करके विपरीत ज्ञान रूपी मंत्री के साथ-साथ मोहनीय जैसे शत्रु को भी पीडित कर सकते हो । हे पुत्र ! सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र-रत्न को तुम शीघ्रता से ग्रहण करो ।
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सत्त्व हि केवलमलं फलतीष्टसिद्धि,
युक्तं तया समतया यदि क परस्ते ?
एतद्-द्वयेन सहितं यदि बोधरत्नम्,
एकस्त्वमेव पतिरग चराचराणाम् ।१20॥
अन्वयार्थ : सत्त्व वस्तुत: अकेला ही इष्टसिद्धि पर्याप्त है। यदि उस पूर्वोक्त समता से युक्त है तो तुमसे श्रेष्ठ कौन हो सकता है ? इन दोनों के साथ यदि ज्ञानरत्न हो हे पुत्र ! तुम अकेले ही सम्पूर्ण चराचर रूप संसारी जीवों के समूह के स्वामी होवोगे ।
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कालत्रयेऽपि भुवनत्रयवर्तमान-
सत्त्वप्रमाथि-मदनादिमहारयोऽमी ।
पश्याशु नाशमुपयान्ति दृशैव यस्या,
सा सम्मता ननु सतां समतैव देवी ॥21॥
अन्वयार्थ : अतीत, अनागत और वर्तमान नामक तीनों कालों में, और तीनों लोकों में 'गति' नामकर्म के उदय से परिवर्तमान समस्त प्राणयुक्त जीवतत्त्वों को अत्यधिक मथ डालने के स्वभाव वाले कामविकार आदि भयंकर शत्रुरूपी ये समूह, ऐसी जिस देवी के देखने मात्र से शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होते हैं; देखो वह देवी समता-भावना ही सज्जनों के लिए अभीष्ट होगी ।
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मल्लो न यस्य भुवनेपि समोऽस्ति सोऽयम्,
काम करोति विकृतिं तव तावदेव ।
यावन्न यासि शरणं समतां समान्तात्
सोपानतामुपगता शिवसौधभूमे ॥22॥
अन्वयार्थ : मोक्षरूपी महल के लिए सर्वतोभावेन सीढीपने को प्राप्त समता की जब तक शरण में नहीं जाते हो, ऐसा वीरशिरोमणि जिसका तीनों लोकों में भी नहीं है, वह यह कामदेव तुम्हारे लिए तब तक ही विकार को कराता है ।
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वाञ्छा सुखे यदि सखे ! तदवैमि नाहम्,
धर्मादृते भवति सोऽपि न यावदेते ।
रागादयस्तदशनं समतात एव,
तस्माद् विधेहि हृदि तां सततं सुखाय ॥23॥
अन्वयार्थ : अरे मित्र ! सुख में यदि इच्छा हुई है रत्नत्रयात्मक धर्म के बिना प्राप्त नहीं हो मैं यह जानता हूँ । जबतक वे रागादिक समाप्त नहीं होते, तबतक । इन रागादिकों का विनाश समता से ही होगा । इस कारण से निरन्तर इस समता को मन में घारण करो ।
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ज्वालायमान-मदनानल-पुंजमध्ये,
विश्व कथं क्वथति कोऽपि कुतूहलेन ।
तस्मिन्नपीह समसौख्यमयीं हिमानीम्,
अध्यासते यतिवरा समता-प्रसादात् ॥24॥
अन्वयार्थ : जलकर भुनते हुए कामरूपी अग्नि के समूह के बीच सम्पूर्ण लोक को यह मोह नामक बैरी विनोदपूर्वक किस प्रकार उबाल रहा है! ऐसी पूर्वोक्त उदयागत जलती हुई कामाग्नि के पुंज के बीच में इस कलिकलित लोक में समता-भावना से समुद्भूत सुखमयी गंगा में समता-भावना की कृपा से सभी तपस्वीगण शीतलता में रहते हैं ।
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मैत्री-कृपा-प्रमुदिता-शुभगागनानाम्,
शुभ्राभ्रसन्निभमन सदने निवासम् ।
त्वं देहि ता हि समताभिमता सखीत्वात्,
एवं न कोऽपि भुवनेऽपि तवास्ति शत्रु ॥25॥
अन्वयार्थ : मैत्री, कृपा, प्रमोदभावरूपी सौभाग्यशालिनी स्त्रियों के लिए श्रेष्ठ निर्मल आकाश के समान अपने मनरूपी मकान में रहनेयोग्य स्थान तुम दो । वे वस्तुत: अभिन्न सख्यभाव होने से समतारूपी सुन्दरी के लिए स्वीकृत हैं । ऐसा करने पर समस्त लोक में भी तुम्हारे लिए कोई भी शत्रु नहीं ।
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सत्साम्यभाव-गिरिगह्वर-मध्यमेत्य,
पद्मासनादिकमदोषमिद च बद्ध्वा ।
आत्मानमात्मनि सखे परमात्मरूपम्,
त्व ध्याय, वेत्सि ननु येन सुखं समाधे ॥26॥
अन्वयार्थ : हे आत्मीयजन ! तुम परमसमाधि सम्बन्धी अनन्त-सुख के बीजभूत परम आह्लाद को जिस कारण से जानना चाहते हो तो परमस्वास्थ्य-भावरूपी पर्वत की गुफा के बीच में जाकर दोषों से रहित इस पद्मासन आदि को बाँधकर निज निरंजन परमात्मा का निजात्मा में ध्यान करो जिससे समाधि के सुख को जान सको ।
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आराध्य धीर! चरणौ सतत गुरुणाम्,
लब्ध्वा तत दशम - मार्गवरोपदेशम् ।
तस्मिन् विधेहि मनस स्थिरतां प्रयत्नात्,
शोषं प्रयाति तव येन भवापगेयम् ॥27॥
अन्वयार्थ : परिषहों और उपसर्गों को जीतने वाले निरन्तर, वञ्चना रहित गुरुओं के चरणकमलों की भक्ति के प्रकर्ष से आराधना करो । आराधना के बाद में बालाग्र के आठवें भागप्रमाण तालुरन्ध्र प्रदेश नामक दसवें मार्ग का श्रेष्ठ उपदेश प्राप्त करके उस ब्रह्मरन्ध्र में अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक मन को अविचल करो, जिससे सुषुम्ना-नाडिगत मनोनिरोध से तुम्हारी यह द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव नामक संसार रूपी तरंगिणी सम्पूर्णत: शोष को प्राप्त करेगी ।
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नित्यं निरामयमनन्तमनादि-मध्यम्,
अर्हन्तमूर्जितमजं स्मरतो हृदीशम् ।
नाश न याति यदि जाति-जरादिकं ते,
तर्हि श्रम कथमय न मुधा मुनीनाम् ॥28॥
अन्वयार्थ : जो नित्य, सम्पूर्ण व्याधियों से रहित, आदि-मध्य और अन्त से भी रहित, प्रकाशरूप, उत्पत्ति-विरहित, परम ऐश्वर्य से युक्त, अर्हद् भट्टारक रूप अथवा शुद्ध स्फटिक मणिमय चन्द्रकला के आकार रूप अर्हद् नाम मय है, उसका मन में स्मरण करने से तुम्हारे जन्म-मृत्यु-बुढ़ापा आदि दोषों का समूह नाश को प्राप्त नही होता है -- यदि ऐसा हो जाये तो तपोधनों का श्रम क्या व्यर्थ नही होगा ?
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क्षीराम्बुराशिसदृशाशु यदीयरूपम्,
आराध्य सिद्धिमुपयान्ति तपोधनास्त्वम् ।
हहो ! स्वहसहरिविष्टर-सन्निविष्टम,
अर्हन्तमक्षरमिम स्मर कर्ममुक्त्यै ॥29॥
अन्वयार्थ : क्षीरसागर के समान किरण वाले ऐसे परमात्मा के निर्मल स्वरूप की आराधना करके तपस्विगण मोक्ष को प्राप्त करते हैं । हे प्रभाकर भट्ट ! तुम बीजाक्षरों से परिपूर्ण बारह दलों के बीच में निज शुद्धात्मारूपी सिंहासन पर बैठकर दु:खों और कर्मों की निर्मुक्ति के निमित्त 'अर्हद' नामवाले अक्षर का स्मरण करो ।
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यं निष्कलं सकलमक्षयकेवलं वा,
सन्त स्तुवन्ति सततं समभावभाज ।
वाच्यस्य तस्य वरवाचक-मंत्रयुक्त,
हे पान्थ ! शाश्वतपुरीं विश निर्विशक ॥30॥
अन्वयार्थ : सुख-दु ख, जीवन-मरण आदि में समभाव भाजन है, जो ऐसे सत्पुरुष निरन्तर कलातीत और कला-समन्वित, नित्य और असहाय जिस आत्मतत्त्व की स्तुति करते हैं, वाच्यरूप उस श्रेष्ठ तत्त्व के उत्तम वाचकमंत्र से युक्त होकर, हे मोक्षपुरी के पथ के पथिक ! शंकारहित होकर मोक्षपुरी में प्रवेश करो ।
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यन्न्यासत स्फुरति कोऽपि हृदि प्रकाश,
वाग्देवता च वदने पदमादधाति ।
लब्ध्वा तदक्षरवरं गुरुसेवया त्वम्,
मा मा कृथा कथमपीह विरामसस्मात् ॥31॥
अन्वयार्थ : जिस सकल-निष्कल अक्षर की स्थापना करने से मन में कोई विशेष प्रकार का प्रकाश प्रस्फुटित होगा और वाग्देवता भी मुखकमल में स्थान ग्रहण कर लेती हैं, परम-गुरु की उपासना से उस सकल-निष्कल अक्षर के श्रेष्ठ उपदेश को प्राप्त करके तुम इस परम उपदेश से किसी भी तरह इस लोक में इन्कार कभी भी मत करो, मत करो ।
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भ्रातस्तमस्ततिरिय सरतीह तावत्,
तावच्च रे ! चरप्ति ही रजसि त्वमेव ।
यावत् स्वशर्म-निकरामृतवारि वर्षन्,
अर्हन्-हिमांशुरुदय न करोति तेऽन्त ॥32॥
अन्वयार्थ : तुम्हारे मनरूपी आकाश के मध्य में जब तक निजानन्द की सन्तान रूपी अमृत-जल की वर्षा करता हुआ वाच्य-वाचक-रूप सहज अर्हद देव रूपी निर्मल बालचन्द्रमा प्रादुर्भूत नही होता है, तब तक हे भाई ! यह अज्ञान प्रवर्तित रहता है यहाँ, और तभी तक हे भाई ! तुम ही विवेकहीनता की धूल में, कष्ट है, रहोगे ।
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'र्हं'मंत्रसारमतिभास्वरधामपुजम,
सम्पूज्य पूजिततम जपसंयमस्थ ।
नित्याभिराममविरामसपारसारम्,
यद्यस्ति ते शिवसुख प्रति सप्रतीच्छा ॥33॥
अन्वयार्थ : निरन्तर शोभा-समन्वित, अवसान-रहित, अनंतसाररूपी सनातन आनंद की अपेक्षा से वर्तमान में वाञ्छा तुम्हे रहती यदि है तो सम्पूर्ण मंत्रों के सारभूत, अत्यन्त मनोहरी, सुन्दर प्रकाश की राशि, जगत् के समस्त आराध्यों से भी आराधित होने योग्य अर्हन्त-अक्षर के जप के अनुष्ठान को करके चिन्तन करो ।
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द्व्-येकाक्षरं निगदितं ननु पिण्डरूपम्,
तस्यापि मूलमपरं परमं रहस्यम् ।
वदयामि ते गुरुपरम्परया प्रयातम्,
यन्नाहतं ध्वयनति तत्तदनाहताख्यम् ॥34॥
अन्वयार्थ : अरे ! पिंडात्मक मंत्र दो और एक अक्षर वाला कहा गया है । उसका भी मूल अन्य है, उत्कृष्ट रहस्य है, जो कि गुरु-परंपरा से आया है, तुम्हारे लिए कहता हूँ । जो बिना आहत हुए ध्वनित होता है, इसलिए वह अनाहत नाम से प्रसिद्ध है ।
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अस्मिन्ननाहतबिले विलयेन मुक्ते,
नित्ये निरामयपदे स्वमनो निधाय ।
त्वं याहि योग-शयनीयतल सुखाय,
श्रान्तोऽसि चेत् भवपथभ्रमणेन गाढम् ॥35॥
अन्वयार्थ : [चेत्] यदि [भवपथभ्रमणेन] जन्मादि के मार्ग में होने वाले परिभ्रमण से [गाढम्] अत्यधिक [श्रान्तअसि] थके हुए हो , [विलयेन मुक्ते] विनाशरहित, [नित्ये] नित्य, [निरामयपदै] निरोगपद, [अस्मिन् अनाहतबिले] इस 'अनाहत' रन्ध्रप्रदेश में, [स्वमनो निधाय] अपने मन को लगाकर, [त्वम्] तुम [सुखाय] सुख-प्राप्ति-हेतु [योगशयनीयतलम्] योग रूप शय्या पर [याहि] चले जाओ ।
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लोकालोकविलोकननैकनयनं यद्वाङ्मयं तस्य या,
मूलं बालमृणालनालसदृशीम् मात्रां सदा तां सतीम् ।
स्मारस्मारममन्द ! मन्दमनसा, स्फारप्रभाभास्वराम्,
संसारार्णव-पारमेहि तरसा किं त्वं वृथा ताम्यसि ॥36॥
अन्वयार्थ : लोकालोक के देखने के लिए जो एकमात्र नेत्र है , जो वाङ्मय है, उसका जो मूलभूत उस विद्यमान बाल कमलनाल के समान मनोहारी प्रभा से प्रकाशमान मात्रा को सदैव अचल मन से बारम्बार स्मरण करते हुए हे बुद्धिमान प्राणी ! शीघ्र भवसागर के पार चले जाओ । तुम व्यर्थ ही क्यो खिन्न हो रहे हो ?
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जन्माम्बोधि-निपातभीतमनसां, शश्वत्सुखं वाञ्छताम्,
धर्मध्यानमवादि साक्षरमिव, किञ्चित् कथंचिन् मया ।
सूक्ष्मं किंचिदतस्तदेव विधिना, सालम्बनं कथ्यते,
भ्रू भंगादिकदेशसगतमृते, देशै परै किञ्चन ॥37॥
अन्वयार्थ : संसाररूपी सागर में पड़े होने से भयभीत मनवाले, अविनाशी सुख की इच्छा करते हैं, उनके लिए कुछ किसी प्रकार से अक्षरज्ञान युक्त यह धर्मध्यान मेरे द्वारा कहा गया है । उसी कुछ सूक्ष्म बात को विधिपूर्वक भ्रकुटि आदि प्रदेश के बिना उत्कृष्ट प्रदेशों द्वारा धर्म-ध्यान कुछ कहा जा रहा है।
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व्रजसि मनसि मोहं, चंचलं तावदेवम्,
बहुगुणगणगण्यम्, मन्यसेऽन्यञ्च देवम् ।
गुरुवचननियोगान्नेक्षसे यावदेवम्,
शशधरकरगौरं बिन्दुदेव स्फुरन्तम् ॥38॥
अन्वयार्थ : तभी तक मन में मोह को प्राप्त होते रहोगे जबतक ऐसे अस्थिर रहने वाले किसी अन्य देव को अनेक गुणों के समूह से युक्त मानते रहोगे और जबतक इसप्रकार गुरु के उपदेश के नियोग से चन्द्रकला के समान गौर वर्ण वाले प्रकाशमान बिन्दुभूतदेव का साक्षात्कार नही कर पाते हो ।
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झटिति करणयोगाद् वीक्ष्यते भ्रू युगान्ते,
व्रजति यदि मनस्ते बिन्दुदेव स्थिरत्वम् ।
त्रुटति निबिडबन्धो वश्यतामेति मुक्ति,
तदलममलतल्पे योगनिद्रां भजस्व ॥39॥
अन्वयार्थ : शीघ्रता से इन्द्रिय-योग से भ्रकुटी-युगल के मध्य में बिन्दुदेव को देखोगे यदि तुम्हारा मन स्थिरता को प्राप्त होता है अत्यन्त मजबूत बन्ध टूटता है मोक्ष आधीनता को प्राप्त होती है, तो पर्याप्त है। निर्मल शय्या पर योगनिद्रा को धारण करो ।
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सरलविमलनाली-द्वारमूले मनस्त्वम्,
कुरु सरति यतोऽय ब्रह्मरन्ध्रेण वायु ।
परिहृतपरनाली - युग्ममार्गप्रयाण,
बलितमलवलौध केवलज्ञानहेतु ॥40॥
अन्वयार्थ : तुम ऋजु एवं निर्मल नाडी का द्वार जहाँ है, उस प्रदेश में, मन को करो, ताकि सुषुम्ना नामक दसवी नाडी के द्वार से यह वायु अन्य दो नाडियों का मार्ग छोडता हुआ प्रयाण करे। समस्त दुरित मल को नाश करने वाला केवलज्ञान का साधन होता है ।
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विलसदलसतातस्तीव्रकर्मोदयाद् वा,
सरलविमलनाली-रन्ध्रमप्राप्य लोक ।
अहह कथमसह्यं दु:खजाल विशालम्,
सहति महति नैवाचार्यमज्ञस्तदर्थम् ॥41॥
अन्वयार्थ : अत्यधिक प्रमादयुक्त आचरण करने से अथवा का उदय होने से यह प्राणी सरल और निर्मल नाडी के छिद्र को प्राप्त न करके अत्यन्त खेद की बात है किस तरह से प्रचुर दु:खों के समूह को सहन करता है । उस प्राप्त करने के लिए आचार्य को अज्ञानी प्राणी महत्त्व नही देता है ।
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रस-रुधिर-पलास्थि-स्नायु-शुक्र-प्रमेद-
प्रचुरतरसमीर-श्लेष्म-पित्तादिपूर्णे
तन-नरक-कुटीरे वासतस्ते घृणा चेत्,
हृदयकमलगर्भे चिन्तय स्व परोऽसि ॥42॥
अन्वयार्थ : -- खून-माँस-हड्डी-नसें/नाडियां-वीर्य-चर्बी एवं अत्यधिक वायुविकार-कफ-पित्त इत्यादि से परिपूर्ण शरीररूपी नरक-भवन में रहने से यदि तुम्हे घृणा है , हृदय-कमल के अन्दर अपने को 'तुम अत्यन्त उत्कृष्ट हो' चिंतन करो ।
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अजममरममेयं ज्ञानदृग्वीर्यशर्मा-
स्पदमविपदमिष्टं स्वस्वरूपं यदि त्वम् ।
कुरु हृदयनभोऽन्त मानसं निर्विकल्पम्,
वपुषि विषमरोगे नश्वरे मा रमस्व ॥43॥
अन्वयार्थ : अजन्मा / अनादि, अनन्त, अमेय, ज्ञान-दर्शन-बल और सुख का स्थान, विपदा रहित, इष्ट, अपने स्वरूप को यदि तुम तो, हृदयाकाश के मध्य मन / उपयोग को विकल्प रहित करो । अत्यन्त भयंकर रोगों वाले नश्वर शरीर में रमण मत करो ।
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अपरमपि विधानं धामकासाधिकानाम्,
धुतविधुरविधानं धर्मतो लभ्यते यत् ।
तदहमिह समन्तादहसां मुक्तये ते,
हितपथ-पथिकेदं क्षिप्रमावेदयामि ॥44॥
अन्वयार्थ : धाम की अत्यधिक अभिलाषा वाले साधकों के लिए एक अन्य विधि-विधान को जो कि तुच्छ विधि-विधानों को प्रकम्पित करने वाला है, धर्मानुष्ठान द्वारा उपलब्ध होता है उसे भी मैं हे आत्म-हित-साधना के पथिक! तुम्हारे कर्मों की शीघ्र व समग्र रूप से मुक्ति के लिए प्रस्तुत संदर्भ में यह कथन करता हूँ ।
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श्रवणयुगलमुलाकाशमासाद्य सद्य,
स्वपिहि पिहितमुक्तस्वान्तसद्-द्वारसारे ।
विलसदमलयोगानल्पतल्पे ततस्त्वम्,
स्फुरितसकलतत्त्वं श्रोष्यसि स्वस्य नादम् ॥45॥
अन्वयार्थ : करणेंद्रिय-युगल के मूल आकाश को प्राप्त करके शीघ्र ही आवृत होते हुए भी अनावृत निज अन्त:करण के सारभूत द्वार में सुशोभित निर्मल योगरूपी विस्तीर्ण शय्या पर विश्राम करो उससे तुम तत्त्वों को स्फुरित करने वाले अपने नाद को सुन सकोगे ।
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शशधर-हुतभोजि-द्वादशार्द्ध-द्विषट्क-
प्रमितविदितमासै स्वस्वरूपप्रदर्शी ।
मदकल परपुष्टाम्भोद - नद्याम्बुराशि-
ध्वनिसदृश-रवत्वाज्जायतेऽसौ चतुर्धा ॥46॥
अन्वयार्थ : एक, तीन, छह और बारह संख्या वाले प्रसिद्ध महीनों में निज-आत्मस्वरूप का प्रदर्शक मदमत्त कोयल, बादल, नदी व समुद्र -- इनकी ध्वनियों से समानता रखने के कारण चार प्रकार का होता है ।एक महीने के अनुष्ठान से कोकिल-नाद होता है। तीन महीनों के अनुष्ठान से मेघसदृश नाद होता है। छह महीनों के अनुष्ठान से नदी-घोष होता है और बारह महीनों के अनुष्ठान से समुद्र-धोष उत्पन्न हो जायेगा -- ऐसा अभिप्राय है।
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श्रवणयुगलमध्ये मस्तके वक्षसि स्वे,
भवति भवनमेवां भाषितानां त्रयाणाम ।
विपुलफलमिहैवोत्पद्यते यच्च तेभ्य,
तदपि श्रृणु मया त्यं कथ्यमानं हि तथ्यम् ॥47॥
अन्वयार्थ : दोनों कानों के बीच में, मस्तक में, अपने वक्षस्थल में -- इन तीनों ध्वनियों का निवास है। उनसे ही जो विपुल फल भी प्राप्त होता है उसे भी तुम मेरे द्वारा कथ्यमान तथ्य के रूप में सुनो ।
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भ्रमरसदृशकेशं मस्तकं दूरदृष्टि,
वपुरजरमरोगं मूलनादप्रसिद्धे ।
अणु-लघु-महिमाद्या सिद्धय स्युर्द्वितीयात्,
सुर-नर-खचरेशां सम्पदश्चान्यभेदात् ॥48॥
अन्वयार्थ : नाद की उत्कृष्ट-सिद्धि प्राप्त होने से भौरों के समान बालों वाला हो जाता है । दूर तक देखने मे समर्थ आँखे हो जाती हैं, वृद्धावस्था-रहित रोग-रहित हो जाता है। द्वितीय से अणिमा-लघिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती है और अन्य भेद की सिद्धि से देव, मनुष्य व खेचरों के इन्द्रों की सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है ।
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कर-शिरसि नितम्बे नाभिबिम्बे च कर्णे,
प्रभवति घनघोषाम्भोनिधेर्घोषतुल्य ।
विघटयति कपाट-द्वन्द्वमद्वन्द्वसिद्धा-
स्पद-घटितमघौघ-ध्वंसकोऽयं चतुर्थ ॥49॥
अन्वयार्थ : यह चौथा हाथ के अग्रभाग में, नितम्ब स्थल में, नाभि-प्रदेश में और कानों में उत्पन्न होता है। महान् घोष वाले समुद्र की गर्जनात्मक ध्वनि से समानता रखने वाला होता है। पापों के समूह का विनाशक अद्वैत मुक्ति-धाम में लगे हुए दोनों द्वारों को उद्घाटित कर देता है।
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प्रकटित-निजरूपं घोषमाकर्ण्य रम्यम्,
परिहरतु नितान्तं विस्मयं हे यतीश !
कुरुत कुरुत यूयं योगयुक्तं स्वचित्तम्,
तृणजललवतुल्यै किं फलै क्षौद्रसिद्ध्यै ॥50॥
अन्वयार्थ : हे मुनीश्वर ! निजशुद्धात्मस्वरूप को प्रकट करने वाले रमणीय नाद को सुनकर अत्यधिक आश्चर्य करना छोड दो । तुम अपने को योग / समाधि की साधना में दत्तचित्त किये रहो, तृण जलबिन्दु के समान तुच्छ सिद्धि रूप फलों से क्या लाभ है ?
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सकलदृगयमेक: केवलज्ञानरूप,
विदधति पदमस्मिन् साधव सिद्धिसिद्ध्यै ।
तदलममुमनूनं नादमाराध्य सम्यक्,
त्वमपि भव शुभात्मा सिद्धि-सीमन्तिनीश: ॥51॥
अन्वयार्थ : यह एक सर्वदर्शी केवलज्ञान रूप साधुजन / साधकगण सिद्धि की प्राप्ति के लिए पदार्पण करते हैं । इसलिए छोडो, इस परिपूर्ण नाद की भलीभाँति आराधना करके तुम भी शुभात्मा होकर, सिद्धावस्थारूपी सुन्दरी के स्वामी हो जाओ।
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बहिरबहिरुदार-ज्योतिरुद्भासि-दीप:,
स्फुरति यदि तवायं नाभिपद्मे स्थितस्य ।
अपसरति तदानीं मोहघोरान्धकार,
चरणकरणदक्षो मोक्षलक्ष्मी-दिदृक्षो: ॥52॥
अन्वयार्थ : मुक्ति रूपी लक्ष्मी के दर्शनों का अभिलाषी नाभि-कमल में स्थित तुम्हारे यदि यह चरण रूप करण में समर्थ / निष्णात बाहर और अन्दर प्रकाशक दीपक व्यापक ज्योति प्रादुर्भूत होती है तब मोहरूपी घोर अन्धकार विनष्ट हो जाता है ।
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इति निगदितमेतद् देशमाश्रित्य किंचित्,
गुरुसमयनियोगात् प्रत्ययस्यापि हेतो: ।
परमपरमुदारज्ञानमानन्दतानम्,
विमलसकलमेकं सम्यगोक समस्ति ॥53॥
अन्वयार्थ : गुरुप्रदत्त उपदेश के कारण प्रतीति होने के कारण से भी उपदेश का आश्रय लेकर कुछ यह कहा गया है । एक अन्य निरूपण है, वह, परम उत्कृष्ट है आनन्द को बढाने वाला है, निर्मल व परिपूर्ण है, सम्यक्त्व का निवासस्थान है, अपार सम्यग्ज्ञान-स्वरूप समीचीन है ।
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प्रथममुदितमुक्तेनादिदेवेन दिव्यम्,
तदनु गणधराद्यै साधुभिर्यद् घृतञ्च ।
कथितमपि कथंचिन्नाधिगम्यं समोहै,
अधिगतमपि नश्यत्याशु सिद्-ध्या विनेह ॥54॥
अन्वयार्थ : जो सर्वप्रथम आदिनाथ के द्वारा जिनवाणी के रूप से दिव्यध्वनि के रूप में प्रादुर्भूत हुआ था और उनके पश्चात् गणधर देव आदि के द्वारा मुनिवरों / आचार्यों के द्वारा धारणा में रखा गया किसी तरह कहे जाने पर भी मोहयुक्त प्राणियों के द्वारा समझने योग्य नहीं हो पाता है, समझ में आ भी जाये इस कलिकाल में वांछित सिद्धि के बिना शीघ्र नष्ट होता जा रहा है ।
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स्वर-निकर-विसर्ग-व्यञ्जनाद्यक्षरैर्यद्,
रहितमहितहीनं शाश्वतं मुक्तसंख्यम् ।
अरस - तिमिररूप-स्पर्श-गन्धाम्बु-वायु-
क्षिति-पवनसखाणु-स्थूल-दिक्चक्रवालम् ॥55॥
ज्वर-जनन-जराणां वेदना यत्र नास्ति,
परिभवति न मृत्युर्नागतिर्नोगतिर्वा ।
तदतिविशदचित्तै लभ्यते-अंगेऽपि तत्त्वम्,
गुरुगुण-गुरुपादाम्भोज-सेवाप्रसादात् ॥56॥
अन्वयार्थ : जो अकारादि स्वरों के समूह, विसर्ग, 'क' आदि व्यजनाक्षरों आदि से रहित है, अहितकारी विभाव-परिणामों से रहित है, अविनाशी है, संख्यातीत है; रस, अन्धकार, रूप, स्पर्श, गन्ध, जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, अणुता , दिशाओं के समूह से जो रहित है, जहाँ ज्वर, जन्म, वृद्धावस्था की वेदना नहीं है, मृत्यु का प्रभाव नहीं है, गति-आगति -- दोनों का जहाँ अभाव है, उस तत्त्व को श्रेष्ठ गुणों वाले गुरुजनों के चरण-कमलों की सेवा के प्रसाद से अत्यन्त निर्मल मन वालों को शरीर में भी प्राप्त हो जाता है ।
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गिरि-गहनगुहाद्यारण्य-शून्यप्रदेश-
स्थितिकरणनिरोध-ध्यान-तीर्थोपसेवा-
प्रपठन-जप-होमैर्बह्मणो नास्ति सिद्धि,
मृगय तदपरं त्वं भो प्रकारं गुरुभ्य: ॥57॥
अन्वयार्थ : पर्वतों, उनकी गहन गुफाओ एवं जगल आदि के निर्जन प्रदेशों में कायोत्सर्ग , इन्द्रिय-निरोध, ध्यान , तीर्थों के सेवन, पठन, जप, होम -- इनसे ब्रह्म की सिद्धि नहीं होती है इसलिए हे शिष्य ! गुरुओं के पास से दूसरे तरीके की खोज करो ।
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दृगवगमनलक्ष्म स्वस्य तत्त्वं समन्ताद्,
गतमपि निजदेहे देहिभिर्नोपलक्ष्यम् ।
तदपि गृरुवचोभिर्बोध्यते तेन देव,
गुरुविगतत्त्वस्तत्त्वत: पूजनीय ॥58॥
अन्वयार्थ : दर्शन व ज्ञान चिह्न वाले निज परमात्म तत्त्व को अपने शरीर में समस्त अंशों में व्याप्त होने पर भी शरीरधारी प्राणियों द्वारा दृष्टिगोचर / अनुभूतिगम्य नहीं हो पाता है । वह भी सद्गुरु के उपदेशों से ज्ञात हो जाता है । इस कारण से तत्त्वज्ञानी सद्गुरुदेव यथार्थत: पूजनीय हैं ।
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अभिमतफलसिद्धेरभ्युपाय सुबोध,
प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् ।
इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धे:,
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥59॥
अन्वयार्थ : अभीष्टफल की सिद्धि का श्रेष्ठ उपाय सम्यग्ज्ञान है और वह शास्त्र से उत्पन्न होता है; और उस की आप्त से उत्पत्ति । इसलिए उस के प्रसाद / अनुग्रह से प्रबोध पाने वालों के लिए वह पूज्य है क्योंकि किया गया उपकार सत्पुरुष नहीं भूलते ।
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दृगवगमनवृत्त - स्वस्वरूपे प्रविष्ट:,
वृजति जलधिकल्पं ब्रह्म गम्भीरभावम् ।
त्वमपि सुनय ! मत्त्वा मद्वच सारमस्मिन्,
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिधाम ॥60॥
अन्वयार्थ : दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप निज स्वरूप में अंतरंग स्थिति प्राप्त कर अत्यन्त गम्भीर समुद्र के समान निर्विकल्प आत्मतत्त्व को प्राप्त करता है । हे नय के ज्ञानी! तुम भी मेरे वचनों के निष्कर्ष को समझकर हो जाओ भव भ्रमण का अन्त होने पर प्राप्त होनेवाले शाश्वत मुक्तिधाम के अधिपति हो जाओ ।
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यदि चलति कथञ्चिन्मानसं स्वस्वरूपाद्,
भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसंग: ।
तदनवरतमन्तर्मग्न संविग्निचित्त:,
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ॥61॥
अन्वयार्थ : अगर किसी कारणवश मन / उपयोग अपने निज स्वरूप से चलायमान हो जाता है, बाहर भटकता है अत: उक्त कारण से तुम्हारे सभी दोषों का प्रसंग आ जाता है । तो निरन्तर अन्तर्लीनता को प्राप्त संवेग-युक्त चित्त वाले हो जाओ, तुम संसार के विनाश से स्थिरता को प्राप्त धाम के स्वामी हो जाओगे ।
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अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्,
न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ।
ततस्तत्सिद्यर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयम्,
भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेशोपधिरत ॥62॥
अन्वयार्थ : प्राणियों की अहिंसा लोक में परम ब्रह्म जानी जाती है । जहाँ अणुमात्र भी आरम्भ विद्यमान है उस आश्रम-विधि में वह संभव नही है । इसलिए उस की सिद्धि के उद्देश्य से परम करुणा से युक्त आप ने ही दोनों परिग्रह को त्याग दिया था किन्तु विकृतवेशधारी तथा परिग्रह-धारी ने नहीं ।
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बहिरबहिरसारे दुःखभारे शरीरे,
क्षयिणि बत रमन्ते मोहिनोऽस्मिन् वराका ।
इति यदि तव बुद्धिर्निविकल्पस्वरूपे,
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ॥63॥
अन्वयार्थ : बाहर और भीतर सारहीन दुखों के भार विनाशशील इस शरीर में खेद की बात है कि बेचारे मोहग्रस्त प्राणी इस प्रकार की यदि तुम्हारी बुद्धि है तो निर्विकल्प निजस्वरूप में हो जाओ तुम भव-भ्रमण का नाश हो जाने से स्थायित्व को प्राप्त धाम के स्वामी हो जाओगे ।
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अजंगमं जंगमनेययन्त्रम्,
यथा तथा जीवधृतं शरीरम् ।
वीभत्सु - पूति - क्षयि - तापकञ्च,
स्नेहो वृथाऽत्रेति हितं त्वमाख्य ॥64॥
अन्वयार्थ : जीव द्वारा धारण किया हुआ शरीर उसी प्रकार का है जैसे कि जड़ यन्त्र हो, जो जंगम द्वारा ले जाया जाता है और घृणात्मक, दुर्गन्धित, नश्वर और सन्ताप है। इस में स्नेह करना व्यर्थ है ऐसा हितकारी आप ने कहा है ।
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इदमिदमतिरम्यं नेदमित्यादिभेदात्,
विदधति पदमेते राग-रोषोदयस्ते ।
तदलममलमेक निष्कलं निष्क्रिय सन्,
भज, भजसि समाधे सत्फलं येन नित्यम् ॥65॥
अन्वयार्थ : यह-यह अत्यन्त रमणीय है यह नही है इत्यादि भेदबुद्धि से ये राग-द्वेष आदिक तुम्हारे में प्रवेश करते हैं। इसलिए निवृत्त होओ क्रिया-रहित होते हुए निष्कलंक एक नि:शरीरी भजो जिससे कि तुम समाधि के अविनाशी श्रेष्ठ फल को भोग सकोगे / अनुभव करोगे ।
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तावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते, यावद्-द्वैत्स्य गोचरम् ।
अद्वये निष्कले प्राप्ते, निष्क्रियस्य कुत क्रिया ॥66॥
अन्वयार्थ : जब तक द्वैत सम्बन्धी अनुभव होता है तबतक शुभाशुभ संकल्प-विकल्पादि आभ्यन्तर तथा शारीरिक वाचिक आदि बाह्य) क्रियाएँ प्रवर्तित होती रहती हैं । अखण्ड प्राप्त होने पर निष्क्रिय या निर्विकल्प के क्रियाऐं कैसे हो सकतीं है ?
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अहमहमिह मोहाद् भावना यावदन्त,
भवति भवति बन्धस्तावदेषोऽपि नित्यम् ।
क्षणिकमिदमशेषं विश्वमालोक्य तस्माद्,
व्रज शरणममन्द शान्तये त्वं समाधे ॥67॥
अन्वयार्थ : जब तक मोह के उदय के कारण मैं-मैं इस प्रकार की भावना इस मन में होती रहती है तब तक यह बन्ध भी नित्य / निरन्तर होता रहता है । इस सम्पूर्ण विश्व को क्षणभंगुर जानकर तुम आलस्य-रहित शान्ति के लिए समाधि की शरण में जाओ ।
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साहंकारे मनसि न शमं याति जन्मप्रबन्धो,
नाहंकारश्चलति हृदयादात्मदृष्टौ च सत्याम् ।
अन्य शास्ता जगति भवतो नास्ति नैरात्म्यवादी,
नान्यस्तस्मादुपशमविधेस्त्वन्मतादस्ति मार्ग: ॥68॥
अन्वयार्थ : चूंकि मन में अहंकार का भाव जन्म की परम्परा शान्त नहीं होती है और आत्मदृष्टि होने पर हृदय से अहंकार गतिशील नहीं होता है और इसलोक में शून्यवादी कोई दूसरा उपदेशक नहीं है। इसलिए संसार-बन्ध के उपशम का तुम्हारे मत से भिन्न मार्ग नहीं है ।
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रविरयमयमिन्दुर्द्योतयन्तौ पदार्थान्,
विलसति सति यस्मिन् नासतीमौ तु भात ।
तदपि बत हतात्मा ज्ञानपुञ्जेऽपि तस्मिन,
व्रजति महति मोहं हेतुना केन कश्चित् ॥69॥
अन्वयार्थ : यह सूर्य और चन्द्र जिस के प्रकाशमान होने पर ही पदार्थों को प्रकाशित कर पाते हैं। किन्तु न होने पर दोनों प्रकाशक नहीं । इसलिए अत्यन्त खेद की बात है उस महान् ज्ञान के पुञ्ज में भी कोई हतभाग्य व्यक्ति क्या कारण है कि मोह को प्राप्त हो जाता है।
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यो लोक ज्वलयत्यनल्पमहिसा सोऽप्येष तेजोनिधि:,
यस्मिन् सत्यवभाति नासति पुनर्देवोंऽशुमाली स्वयम्।
तस्मिन् बोधमयप्रकाश - विशदे मोहान्धकारापहे,
येऽन्तर्यामिनि पूरुषेऽप्रतिहते सशेरते ते हता ॥70॥
अन्वयार्थ : अत्यधिक महिमाशाली जो लोक को जलाता है वह भी यह स्वयं ज्योति-पुंज सूर्यदेव भी जिसके रहने पर प्रकाशमान होता है न रहने पर नही उस ज्ञानात्मक प्रकाश से विस्तीर्ण मोह / अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर भगानेवाले अप्रतिहत / अबाधित सामर्थ्यवाले अन्तर में विद्यमान पुरुष के सम्बन्ध से जो सुप्त / प्रमाद-युक्त हैं वे हतभाग्य हैं विनाश को प्राप्त होते हैं ।
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करणजनितबुद्धिर्नेक्षते मूर्ति-मुक्तम्,
श्रुतजनितमतिर्याऽस्पष्टमेयावभासा ।
उभयमतिनिरोध - स्पष्टमत्यक्षमक्षम्,
स्वमधिवस निवासं शाश्वतं लप्स्यसे त्वम् ॥71॥
अन्वयार्थ : इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न या इन्द्रियाधीन ज्ञान अमूर्त तत्त्व को नहीं देख सकेगा । जो श्रुतावरणकर्म के क्षयोपशम जनित जो बुद्धि पूर्णस्पष्ट व निर्मल अवभासन नहीं करा पाती है। दोनों प्रकार की बुद्धियों का निरोध करने पर स्पष्टता को प्राप्त इन्द्रियातीत निजात्मतत्व में निवास करो तुम भी अविनाशी निवास को प्राप्त करोगे ।
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प्राणापानप्रयाण कफ-पवन-भवव्याधयस्तावदेते,
स्पन्दो दृष्टेश्च तावत् तव चपलतया न स्थिराणीन्द्रियाणि ।
भोगा एते चर भोक्ता त्वमपि भवसि हे हेलया यावदन्त:,
साधो साधूपदेशात् विशसि न परमब्रह्मणो निष्कलस्य ॥72॥
अन्वयार्थ : हे साधु ! समीचीन उपदेश से निष्कल परमब्रह्म के अन्दर क्रीडा मात्र से प्रविष्ट नहीं होते तब तक तुम्हारे उच्छवास-नि:श्वास का आवागमन कफ व वायु से होने वाली ये व्याधियां आँख का स्पन्दन भी चंचलता के कारण इन्द्रियाँ स्थिरता नहीं ये भोग भी रहेंगे और तुम भोक्ता भी बने रहोगे ।
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ब्रह्माण्डं यस्य मध्ये महदपि सदृश दृश्यते रेणुनेदम्,
तस्मिन्नाकाशरन्ध्रे निरवधिनि मनो दूरमायोज्य सम्यक् ।
तेजोराशौ परेऽस्मिन् परिहृत-सदसद्-वृत्तितो लब्धलक्ष्य,
हे दक्षाध्यक्षरूपे भव भवसि भवाम्बोधि-पारावलोकी ॥73॥
अन्वयार्थ : जिसके अन्दर यह विशाल ब्रह्माण्ड भी धूलिकण् के समान दिखाई देता है उस असीम आकाशरन्ध्र में अच्छी तरह से अन्तस्तल तक मन को संयुक्त करके, हे दक्ष ! इस तेज पुंज प्रत्यक्षरूप परम में सभी शुभाशुभवृत्तियों का त्याग करने के कारण लक्ष्य को प्राप्त करने वाले बन जाओ संसार-समुद्र के पार स्थित का साक्षात्कार करने वाले हो जाओ ।
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संसारासारकर्मप्रचुरतर-मरुत्प्रेरणाद् भ्राम्यताऽत्र,
भ्रातर्ब्रह्माण्डखण्डे नव-नव-कुवपुर्गृहणता मुञ्चता च ।
कः क: कौतस्कुत: क्व क्वचिदपि विषयो यो न भुक्तो न मुक्त,
जातेदानीं विरक्तिस्तव यदि विष रे ! ब्रह्म-गम्भीरसिन्धुम् ॥74॥
अन्वयार्थ : हे भाई ! इस संसार में नि:सार कर्मरूपी अधिक प्रवहमान वायु की प्रेरणा से भ्रमण करते हुए और ब्रह्माण्ड के भागों में नये-नये कुत्सित शरीरों को धारणा करते और छोड़ते हुए कौन-कौन-सा किस-किस प्रकार से और कहाँ-कहाँ विषय है जो न भोगा गया हो और न छोडा गया हो ? यदि तुम्हारे अब विरक्ति हुई हो हे भाई ! ब्रह्मरूपी गम्भीर समुद्र में प्रवेश कर जाओ ।
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पारावारोऽतिपार सुगिरिरुरुरयं रे! वरं तीर्थमेतत्,
रेवा रंगत्तरंगा सुरसरिदपरा रेवतीशो हरिर्वा ।
इत्युद्भ्रान्तान्तरात्मा भ्रमति बहुतरं तावदात्मात्ममुक्त्यै,
यावद्-देहऽपि देही हित-विहित-हित-ब्रह्म शुद्ध न पश्येत् ॥75॥
अन्वयार्थ : जब तक शरीरधारी होते हुए भी आत्मा अपनी मुक्ति के लिए शरीर में शुद्ध हित के हेतु हितरूपता को प्राप्त ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं करता तब तक 'यह अपार समुद्र ' ' विशाल श्रेष्ठ पर्वत ', बडी-बडी तरंगों वाली दूसरी देव नदी है', 'हे भाई ! यह श्रेष्ठ तीर्थ है', 'यह बलराम अथवा विष्णु हैं' इस प्रकार भ्रान्ति से युक्त अन्तरंगवाला आत्मा अत्यधिक भटकता रहता है ।
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विश्वे विश्वभरेशा शिरसि मम पादाम्भोजयुग्मं वदन्ते,
वश्या भावस्य लक्ष्मीर्वपुरपि निरघं विघ्नहेतु कुतो मे ।
इत्यादौ शर्म-हेतौ निपतति निखिले 'किं ततो' मुद्गरोऽयम्,
तस्मात्तद् ध्याय किंचित् स्थिरतरमनसा 'किं ततो' यत्र नास्ति ॥76॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण राजा-महाराजा मेरे दोनों चरणकमलों को मस्तक पर रखते है। लक्ष्मी वशीभूत है शरीर भी निरोग है, मेरे लिए किस प्रकार विघ्न पैदा करने वाला इत्यादि समस्त सुख के साधनों के होने पर 'तो या हुआ ?' यह मुद्गर गिरता है इसलिए स्थिरचित्त से उस अनिर्वचनीय का, ध्याय-ध्यान करो जिसमें 'तो क्या हुआ ?' नही होता है ।
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दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां तत: किम्,
जाता श्रिय: सकलकामदुधास्तत: किम् ।
सन्तर्पिता प्रणयिनो विभवैस्तत: किम्,
कल्पस्थितं तनुभृतां तनुभिस्तत किम् ॥77॥
अन्वयार्थ : शत्रुओं के सिर पर पाँव रखा तो क्या हुआ ? समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली लक्ष्मी भी हुई तो क्या हुआ ? वैभव से प्रेमी को सन्तृप्त किया तो क्या हुआ ? इस देह से पृथ्वी पर कल्पान्त तक स्थित रहा गया तो क्या हुआ ?
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तस्मादनन्तमजरं परम-प्रकाशम्,
तच्चित्त चिन्तय किमेभिरसद् -विकल्पै ।
यस्यानुषंगिण इमे भुवनाधिपत्य-
भोगादय कृपणजन्तुमता भवन्ति ॥78॥
अन्वयार्थ : इसलिए हे मन ! इन अप्रशस्त विकलपों से क्या लाभ ? उस अनन्त-अजर-परमज्योति स्वरूप का ध्यान करो। ये लोकाधिपति आदि के काम-भोग आदि जिस के आनुषंगिक हैं अज्ञानी जनों के लिए ही सम्मत होते हैं ।
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उपशमफलाद् विद्याबीजात्फलं वरमिच्छताम्,
भवति विपुलो यद्यायास्तदत्र किमद्भुतम् ।
न नियतफला सर्वे भावा फलान्तरमीशते,
जनयति खलु व्रीहेर्बीजं न जातु यवाङकुरम् ॥79॥
अन्वयार्थ : उपशम भावरूप फलवाले ज्ञानरूपी बीज से उत्कृष्ट फल को चाहने वालों का यदि अत्यधिक श्रम होता है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? निश्चित फल वाले समस्त पदार्थ भिन्न फल को समर्थ नहीं होते हैं । धान का बीज कभी भी जौ के अंकुर को उत्पन्न नहीं करता है ।
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चंचच्चन्द्रोरुरोची-रुचिरतरवच: क्षीरनीरप्रवाहे,
मज्जन्तोऽपि प्रमोदं परममरनरा संज्ञिनोऽगुर्यदीये ।
योगज्वालायमान-ज्वलदनलशिखा-क्लेशवल्ली-विहोता,
योगीन्द्रो व: सचन्द्रप्रभविभुरविभुर्मंगलं सर्वकालम् ॥80॥
अन्वयार्थ : जिसके सर्वत: प्रकाशमान चन्द्रमा की विस्तृत किरणों की प्रभा से भी अधिक मनोहर वाणी रूपी क्षीर की जलधारा में समनस्क देवगण तथा मनुष्य स्नान करते हुए भी अत्यधिक हर्ष को प्राप्त हुए हैं। योग-साधनारूपी प्रकाशमान प्रज्वलित अग्नि-शिखा में क्लेशों की लता का हवन करनेवाले योगियों के इन्द्र जिसका अन्य कोई स्वामी न हो चन्द्रप्रभ स्वामी सर्वदा हमारे लिए मंगलकारी हों ।
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वरसैद्धान्तिकचक्रेश्वर नयकीर्ति-व्रतीश-
सुतनखिलकला-धरनिषदं निजचिद्गुण-
परिणतनध्यात्मिबालचन्द्रमुनीन्द्रम् ॥1॥
अमृताशीतिगे टीकनुद्धरिसिदं-
कर्नाटदिंदात्मतत्त्वमनत्युत्तमबोध-
दृक्-सुखदमं चन्द्रप्रभार्यगे कूर्त्तु मन बोक्किरे -
पेल्वेनेम्ब बगेयिं श्री बालचन्द्र सदा-
विमलं श्री नयकीर्ति देवतनयं चारित्रचक्रेश्वरम् ॥2॥
॥ श्रीवीरनाथाय नम: ॥
॥ श्री पंचगुरुभ्यो नम: ॥
॥ श्रीवीतरागाय नम: ॥
अन्वयार्थ : सर्वदा शुद्ध चारित्रचक्रवर्ती श्री नयकीर्तिदेव के शिष्य श्री बालचन्द्र अत्यन्त श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन व सुख को देने वाले तथा आत्मतत्त्व को आत्मसात् कराने वाले अमृताशीति की कन्नड भाषा के द्वारा टीका को चन्द्रप्रभार्य के लिए प्रतिपादन करने की इच्छा से सम्बोधित करते हुए उद्धृत करते हैं ।
श्री महावीर स्वामी को नमस्कार हो । श्री पच्रपरमेष्ठियो को नमस्कार हो !! श्री वीतराग को नमस्कार हो !!!
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