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Date : 17-Nov-2022
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!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
श्रीमद्-देवसेनाचार्य विरचित
श्री
तत्त्वसार
मूल प्राकृत गाथा, पद्य : पं द्यानतराय
आभार :
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-तत्त्वसार नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य श्रीदेवसेनाचार्य विरचितं ॥
॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
सुध्यान में लवलीन हो जब, घातिया चारों हने ।
सर्वज्ञ बोध विरागता को, पा लिया तब आपने ॥
उपदेश दे हितकर अनेकों, भव्य निज सम कर लिये ।
रविज्ञान किरण प्रकाश डालो, वीर! मेरे भी हिये ॥
स्याद्वाद, नय, षट् द्रव्य, गुण, पर्याय और प्रमाण का ।
जड़कर्म चेतन बंध का, अरु कर्म के अवसान का ॥
कहकर स्वरूप यथार्थ जग का, जो किया उपकार है ।
उसके लिये जिनवाणी माँ को, वंदना शत बार है ॥
नि:संग हैं जो वायुसम, निर्लेप हैं आकाश से ।
निज आत्म में ही विहरते, जीवन न पर की आस से ॥
जिनके निकट सिंहादि पशु भी, भूल जाते क्रूरता ।
उन दिव्य गुरुओं की अहो! कैसी अलौकिक शूरता ॥
आदिसुखी अन्त:सुखी, शुद्ध सिद्ध भगवान् ।
निज प्रताप परताप बिन, जगदर्पन जग आन ॥1॥
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प्रथम पर्व
झाणग्गिदड्ढकम्मे णिम्मलसुविसुद्धलद्धसब्भावे ।
णमिऊण परमसिद्धे सुतच्चसारं पवोच्छामि ॥1॥
ध्यान दहन विधि-काठ दहि, अमल सुद्ध लहि भाव ।
परम जोतिपद वंदिकै, कहूँ तत्त्वकौ राव ॥1॥
अन्वयार्थ : [झाणग्गिदड्ढकम्मे] आत्मध्यानरूप अग्नि से ज्ञानावरणादि कर्मों को दग्ध करनेवाले, [णिम्मलसुविसुद्धलद्धसब्भावे] निर्मल और परम विशुद्ध आत्मस्वभाव को प्राप्त करनेवाले [परमसिद्ध] परम सिद्ध परमात्माओं को [णमिऊण] नमस्कार करके [सुतच्चसारं] श्रेष्ठ तत्त्वसार को [मैं देवसेन] [पवोच्छामि] कहूँगा।
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तच्चं बहु-भेय-गयं पुव्वायरिएहिं अक्खियं लोए।
धम्मस्स वत्तणट्ठं भवियाण पबोहणट्ठं च ॥2॥
तत्त्व कहे नाना परकार, आचारज इस लोकमँझार ।
भविक जीव प्रतिबोधन काज, धर्मप्रवर्तन श्रीजिनराज ॥2॥
अन्वयार्थ : [लोए] इस लोक में [पुव्वायरिएहिं] पूर्वाचार्यों ने [धम्मस्स वत्तणटुं] धर्म का प्रवर्तन करने के लिए [च] तथा [भवियाण पबोहणटुं] भव्यजीवों को समझाने के लिए [तच्चं] तत्त्व को [बहुभेयगयं] अनेक भेदरूप [अक्खियं] कहा है।
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एगं सगयं तच्चं अण्णं तह परगयं पुणो भणियं ।
सगयं णिय-अप्पाणं इयरं पंचावि परमेट्ठी ॥3॥
आतमतत्त्व कह्यौ गणधार, स्वपरभेदतैं दोइ प्रकार ।
अपनौ जीव स्वतत्त्व बखानि, पर अरहंत आदि जिय जानि ॥3॥
अन्वयार्थ : [एग] एक [सगयं] स्वगत [तच्च] स्वतत्त्व है [तह] तथा [पुणो] फिर [अण्णं] दूसरा [परगयं] परतत्त्व [भणिय] कहा गया है। [सगयं] स्वगत तत्त्व [णिय] निज [अप्पाणं] आत्मा है; [इयर] दूसरा [पंचावि परमेट्ठी] पांचों ही परमेष्ठी हैं ।
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तेसिं अक्खर-रूवं भविय-मणुस्साण झायमाणाणं ।
बज्झइ पुण्णं बहुसो परंपराए हवे मोक्खो ॥4॥
अरहंतादिक अच्छर जेह, अरथ सहित ध्यावै धरि नेह ।
विविध प्रकार पुन्य उपजाय, परंपराय होय सिवराय ॥4॥
अन्वयार्थ : [तेसि] उन पंच परमेष्ठियों के [अक्खरख्व] वाचक अक्षररूप मंत्रों को [झायमाणाणं] ध्यान करनेवाले [भवियमणुस्साण] भव्यजनों के [बहुसो] बहुत-सा [पुण्णं] पुण्य [बज्झइ] बंधता है; [परंपराए] और परम्परा से [मोक्खो] मोक्ष [हवे] प्राप्त होता है।
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जं पुणु सगयं तच्चं सवियप्पं हवइ तह य अवियप्पं ।
सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगय-संकप्पं ॥5॥
आतमतत्त्वने द्वै भेद, निरविकलप सविकलप निवेद ।
निरविकलप संवर को मूल, विकलप आस्रव यह जिय भूल ॥5॥
अन्वयार्थ : [पुणु] पुनः [ज] जो [सगयं तच्चं] स्वगत तत्त्व है वह [सवियप्पं] सविकल्प [तह य] तथा [अवियप्पं] अविकल्प रूप से दो प्रकार का [हवइ] है। [सवियप्पं] सविकल्प स्वतत्व [सासवयं] आस्रव सहित है। और [विगयसंकप्प] संकल्प-रहित निर्विकल्प स्वतत्त्व [णिरासवं] आस्रव-रहित है।
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इंदिय-विसय-विरामे मणस्स णिल्लूरणं हवे जइया ।
तइया तं अवियप्पं ससरूवे अप्पणो तं तु ॥6॥
जहां न व्यापै विषय विकार, ह्वै मन अचल चपलता डार ।
सो अविकल्प कहावै तत्त, सोई आपरूप है सत्त ॥6॥
अन्वयार्थ : [जइया] जब [इंदिय विसयविरामे] इन्द्रियों के विषयों का विराम [इच्छानिरोध] हो जाता है [तइया] तब [मणस्स] मन का [पिल्लूरणं] निर्मूलन [हवे] होता है, और तभी [तं] वह [अवियप्पं] निर्विकल्पक स्वगत तत्त्व प्रकट होता है । [तं तु] और वह [अप्पणो] आत्मा का [ससरूवे] अपने स्वरूप में अवस्थान होता है।
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समणे णिच्चल-भूए णट्ठे सव्वे वियप्प-संदोहे ।
थक्को सुद्ध-सहावो अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो ॥7॥
मन थिर होत विकल्पसमूह, नास होत न रहै कछु रूह ।
सुद्ध स्वभावविषै ह्वै लीन, सो अविकल्प अचल परवीन ॥7॥
अन्वयार्थ : [समणे] अपने मन के [णिच्चलभूए] निश्चलीभूत होने पर [सव्वे] सर्व [वियप्पसंदोहे] विकल्प-समूह के [णट्ठे] नष्ट होने पर [अवियप्पो] विकल्प-रहित निर्विकल्प [णिच्चलो] निश्चल [णिच्चो] नित्य [सुद्धसहावो] शुद्ध स्वभाव [थक्को] स्थिर हो जाता है ।
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जो खलु सुद्धो भावो सो अप्पा तं च दंसणं णाणं ।
चरणं पि तं च भणियं सा सुद्धा चेयणा अहवा ॥8॥
सुद्धभाव आतम दृग ज्ञान, चारित सुद्ध चेतनावान ।
इन्हैं आदि एकारथ वाच, इनमैं मगन होइकै राच ॥8॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [खलु] निश्चय से [सुद्धोभावो] शुद्धभाव है [सो] वह [अप्पा] आत्मा है। [तं च] और वह आत्मा [दसणं] दर्शनरूप [णाणं] ज्ञानरूप [चरणंपि] और चारित्ररूप [भणियं] कहा गया है; [अहवा] अथवा [सा] वह [सुद्धा] शुद्ध [चेयणा] चेतनारूप है।
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द्वीतीय पर्व
जं अवियप्पं तच्चं तं सारं मोक्ख-कारणं तं च ।
तं णाऊण विसुद्धं झायहु होऊण णिग्गंथा ॥9॥
परिग्रह त्याग होय निरग्रन्थ, भजि अविकल्प तत्त्व सिवपंथ ।
सार यही है और न कोय, जानै सुद्ध सुद्ध सो होय ॥9॥
अन्वयार्थ : [ज] जो [अवियप्पं] निर्विकल्प [तच्च] तत्त्व है, [तं] वही [सारं] सार[प्रयोजभूत] है [तं च] और वही [मोक्ख कारणं] मोक्ष का कारण है । [तं] उस [विशुद्ध] विशुद्ध तत्त्व को [णाऊण] जानकर [णिगंथो] निर्ग्रन्थ [होऊण] होकर [झायहु] ध्यान करो।
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बहिरब्भन्तर-गंथा मुक्का जेणेह तिविह-जोएण ।
सो णिग्गंथो भणिओ जिणलिंग-समासिओ समणो ॥10॥
अन्तर बाहिर परिग्रह जेह, मनवच तनसौं छांड़े नेह ।
सुद्धभाव धारक जब होय, यथा ज्ञान मुनिपद है सोय ॥10॥
अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [जेण] जिसने [तिविहजोएण] मन, वचन, काय इन तीन प्रकार के योगों से [बहिरभंतरगंथा] बाहिरी और भीतरी परिग्रहों को [मुक्का] त्याग दिया है, [सो] वह [जिलिंगसमासिओ] जिनेन्द्रदेव के लिंग का आश्रय करने वाला [समणो] श्रमण [णिग्गंथो] निर्ग्रन्थ [भणिओ] कहा गया है।
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लाहालाहे सरिसो सुह-दुक्खे तह य जीविए मरणे ।
बंधु-अरि-यण-समाणो झाण-समत्थो हु सो जोई ॥11॥
जीवन मरन लाभ अरु हान, सुखद मित्र रिपु गिनै समान ।
राग न रोष करै परकाज, ध्यान जोग सोई मुनिराज ॥11॥
अन्वयार्थ : जो [लाहालाहे] लाभ और अलाभ में, [सुहदुक्खे] सुख और दुःख में [तह य] और उसी प्रकार [जीविए मरणे] जीवन तथा मरण में [सरिसो] सदृश रहता है, इसी प्रकार [बंधुअरियणसमाणो] बन्धु और शत्रु में समान भाव रखता है, [सो हु] निश्चय से वही [जोई] योगी [झाणसमत्यो] ध्यान करने में समर्थ है।
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कालाइ-लद्धि णियडा जह जह संभवइ भव्व-पुरिसस्स ।
तह तह जायइ णूणं सुसव्व-सामग्गि मोक्खट्ठं ॥12॥
काललब्धिबल सम्यक वरै, नूतन बंध न कारज करै ।
पूरव उदै देह खिरि जाहि, जीवन मुकत भविक जगमाहि ॥12॥
अन्वयार्थ : [जह जह] जैसे जैसे [भव्वपुरिसस्स] भव्य पुरुष की [कालाइलद्धि] काल आदि लब्धियां [णियडा] निकट [संभवइ] आती जाती हैं, [तह तह] वैसे वैसे ही [णूणं] निश्चय से [मोक्खट्ठ] मोक्ष के लिए [सुसव्वसामग्गि] उत्तम सर्व सामग्री [जायइ] प्राप्त हो जाती है।
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चलण-रहिओ मणुस्सो जह वंछइ मेरु-सिहरमारुहिउं ।
तह झाणेण विहीणो इच्छइ कम्मक्खयं साहू ॥13॥
जैसे चरनरहित नर पंग, चढ़न सकत गिरि मेरु उतंग ।
त्यौं विन साधु ध्यान अभ्यास, चाहै करौ करमकौ नास ॥13॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [चलण-रहिओ] पाद-रहित [मणुस्सो] मनुष्य [मेरु-सिहर] सुमेरु पर्वतके शिखर पर [आरुहिउं] चढ़ने के लिए [वंछइ] इच्छा करे, [तह] वैसे ही [झाणेण] ध्यान से [विहीणो] रहित [साहू] साधु [कम्मक्खयं] कर्मों का क्षय [इच्छइ] करना चाहता है।
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संका-कंखा-गहिया विसय-पसत्ता सुमग्ग-पब्भट्ठा ।
एवं भणंति केई ण हु कालो होइ झाणस्स ॥14॥
संकितचित्त सुमारग नाहिं, विषैलीन वांछा उरमाहिं ।
ऐसैं आप्त कहैं निरवान, पंचमकाल विषैं नहिं जान ॥14॥
अन्वयार्थ : [संका-कंखागहिया] शंकाशील और आकांक्षावाले, [विसयपसत्ता] विषयों में आसक्त [सुमग्गपन्भट्ठा] और मोक्ष के सुमार्ग से प्रभ्रष्ट [केई] कितने ही पुरुष [एवं] इस प्रकार [भणंति] कहते हैं कि [कालो] यह काल [झाणस्स] ध्यान के योग्य [ण है] नहीं [होइ] है ।
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अज्ज वि तिरयणवंता अप्पा झाऊण जंति सुर-लोए ।
तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं ॥15॥
आत्मज्ञान दृग चारितवान, आतम ध्याय लहै सुरथान ।
मनुज होय पावै निरवान, तातैं यहां मुकति मग जान ॥15॥
अन्वयार्थ : [अज्जवि] आज भी [तिरयणवंता] रत्नत्रय-धारक मनुष्य [अप्पा] आत्मा का [झाऊण] ध्यान कर [सुरलोयं] स्वर्गलोक को [जंति] जाते हैं, और [तत्थ] वहां से [चुया] च्युत होकर [मणुयत्ते] उत्तम मनुष्यकुल में [उप्पज्जिय] उत्पन्न हो [णिव्वाणं] निर्वाण को [लहहि] प्राप्त करते हैं ।
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तम्हा अब्भसऊ सया मोत्तूणं राय दोस वा मोहे ।
झायउ णिय अप्पाणं जइ इच्छह सासयं सोक्खं ॥16॥
यह उपदेस जानि रे जीव, करि इतनौ अभ्यास सदीव ।
रागादिक तजि आतम ध्याय, अटल होय सुख दुख मिटि जाय ॥16॥
अन्वयार्थ : [तम्हा] इसलिए [जइ] यदि [सासयं] शाश्वत [सुक्खं] सुख को [इच्छह] चाहते हो तो [राय दोस वा मोहे] राग, द्वेष और मोह को [मोत्तूणं] छोड़कर [सया] सदा [अब्भसउ] ध्यान का अभ्यास करो और [णिय-अप्पाणं] अपनी आत्मा का [झायउ] ध्यान करो।
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दंसण-णाणपहाणो असंखदेसो हु मुत्तिपरिहीणो ।
सगहियदेहपमाणो णायव्वो एरिसो अप्पा ॥17॥
आप-प्रमान प्रकास प्रमान, लोक प्रमान, सरीर समान ।
दरसन ज्ञानवान परधान, परतैं आन आतमा जान ॥17॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चयनय से आत्मा [दसण-णाणपहाणो] दर्शन और ज्ञानगुण प्रधान है, [असंखदेसो] असंख्यात प्रदेशी है, [मुत्तिपरिहीणो] मूर्ति से रहित है, [सगहियदेहपमाणो] अपने द्वारा गृहीत देह-प्रमाण है -- [एरिसो] ऐसे स्वरूपवाला [अप्पा] आत्मा [णायव्वो] जानना चाहिए।
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रागादिया विभावा बहिरंतर-उहय-वियप्पं मोत्तूणं ।
एयग्ग-मणो झायउ णिरंजणं णियय-अप्पाणं ॥18॥
राग विरोध मोह तजि वीर, तजि विकलप मन वचन सरीर ।
ह्वै निचिंत चिंता सब हारि, सुद्ध निरंजन आप निहारि ॥18॥
अन्वयार्थ : [रागादिया विभावा] रागादि विभावों को, तथा [बहिरंतर-उहवियप्प] बाहिरी और भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पों को [मोत्तूणं] छोड़कर और [एयग्गमणो] एकाग्र मन होकर [णिरंजणं] कर्मरूप अंजन से रहित शुद्ध [णियय-अप्पाणं] अपने आत्मा का [झायउ] ध्यान करना चाहिए।
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जस्स ण कोहो माणो माया लोहो य सल्ल-लेस्साओ ।
जाइ-जरा-मरणं चिय णिरंजणो सो अहं भणिओ ॥19॥
क्रोध मान माया नहिं लोभ, लेस्या सल्य जहाँ नहिं सोभ ।
जन्म जरा मृतुकौ नहिं लेस, सो मैं सुद्ध निरंजन भेस ॥19॥
अन्वयार्थ : [जस्स] जिसके [ण कोहो] न क्रोध है, [ण माणो] न मान है, [ण माया] न माया है, [ण लोहो] न लोभ है, [ण सल्ल] न शल्य है, [ण लेस्साओ] न कोई लेश्या है, [ण जाइजरा-मरणं चिय] और न जन्म, जरा और मरण भी है, [सो] वही [णिरंजणो] निरंजन [अहं] मैं [भणिओ] कहा गया हूँ।
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णत्थि कला संठाणं मग्गण-गुणठाण-जीवठाणाइं ।
ण य लद्धि-बंधठाणा णोदयठाणाइया केई ॥20॥
बंध उदै हिय लबधि न कोय, जीवथान संठान न होय ।
चौदह मारगना गुनथान, काल न कोय चेतना ठान ॥20॥
अन्वयार्थ : [उस निरंजन आत्मा के] [णत्थि कला] कोई कला नहीं है, [संठाणं] कोई संस्थान नहीं है, [मग्गण-गुणठाण] कोई मार्गणास्थान नहीं है, कोई गुणस्थान नहीं है, [जीवट्ठाणाई] और न कोई जीवस्थान है [ण य लद्धि बंधढाणा] न कोई लब्धिस्थान हैं, न कोई बन्धस्थान हैं, [णोदयठाणाइया केई] और न कोई उदयस्थान आदि हैं।
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फास-रस-रूव-गंधा सद्दादीया य जस्स णत्थि पुणो ।
सुद्धो चेयण-भावो णिरंजणो सो अहं भणिओ ॥21॥
फरस वरन रस सुर नहि गंध, वरग वरगना जास न खंध ।
नहिं पुदगल नहिं जीवविभाव, सो मैं सुद्ध निरंजन राव ॥21॥
अन्वयार्थ : [पुणो] और [जस्स] जिसके [फास-रस-रूव-गंधा] स्पर्श, रस, गन्ध, रूप [सद्दादीया य] और शब्द आदिक [पत्थि] नहीं हैं [सो] वह [सुद्धो] शुद्ध [चेयणभावो] चेतनभावरूप [अहं] मैं [निरंजणो] निरंजन [भणिओ] कहा गया हूँ।
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तृतीय पर्व
अत्थित्ति पुणो भणिया णएण ववहारिएण ए सव्वे ।
णोकम्म-कम्मणादी पज्जाया विविह-भेय-गया ॥22॥
विविध भाँति पुदगल परजाय, देह आदि भाषी जिनराय ।
चेतन की कहियै व्योहार, निहचैं भिन्न-भिन्न निरधार ॥22॥
अन्वयार्थ : [पुणो] पुनः [ववहारिएण णएण] व्यावहारिक नय से [विविहभेयगया] अनेक भेद-गत [ए सव्वे] ये सर्व [णोकम्मकम्मणादी] नोकर्म और कर्म-जनित [पज्जाया] पर्याय [अत्थित्ति] जीव के हैं, ऐसा [भणिया] कहा गया है।
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संबंधो एदेसिं णायव्वो खीर-णीर-णाएण ।
एकत्तो मिलियाणं णिय-णिय-सब्भाव-जुत्ताणं ॥23॥
जैसैं एकमेक जल खीर, तैसैं आनौ जीव सरीर ।
मिलैं एक पै जदे त्रिकाल, तजै न कोऊ अपनी चाल ॥23॥
अन्वयार्थ : [णिय-णियसब्भावजुत्ताणं] अपने अपने सद्भाव से युक्त, किन्तु [एकत्तो मिलियाणं] एकत्व को प्राप्त [एदेसिं] इन जीव और कर्म का [संबंधो] सम्बन्ध [खीर-णीरणाएण] दूध और पानी के न्याय से [णायव्वो] जानना चाहिए।
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जह कुणइ को वि भेयं पाणिय-दुद्धाण तक्कजोएणं ।
णाणी वि तहा भेयं करेइ वरझाणजोएणं ॥24॥
नीर खीरसौं न्यारौ होय, छांछिमाहिं डारै जो कोय ।
त्यौं ज्ञानी अनुभौ अनुसरै, चेतन जड़सौं न्यारौ करै ॥24॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [को वि] कोई पुरुष [तक्कजोएण] तर्क के योग से [पाणिय-दुद्धाण] पानी और दूध का [भेयं] भेद [कुणइ] करता है, [तहा] उसी प्रकार [णाणी वि] ज्ञानी पुरुष भी [वर-झाणजोएणं] उत्तम ध्यान के योग से [भेयं] चेतन और अचेतनरूप स्व-पर का [भेयं] भेद [करेइ] करता है।
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झाणेण कुणउ भेयं पुग्गल-जीवाण तह य कम्माणं ।
घेत्तव्वो णिय अप्पा सिद्धसरूवो परो बंभो ॥25॥
चेतन जड़ न्यारौ करै, सम्यकदृष्टी भूप ।
जड़ तजिकैं चेतन गहै, परमहंसचिद्रूप ॥25॥
अन्वयार्थ : [झाणेण] ध्यान से [पुग्गल-जीवाण] पुद्गल और जीव का [तह य] और उसी प्रकार [कम्माणं] कर्म और जीव का [भेयं] भेद [कुणउ] करना चाहिए। तत्पश्चात् [सिद्धसरूवो] सिद्ध-स्वरूप [परो बंभो] परम ब्रह्मरूप [णिय अप्पा] अपना आत्मा [णेत्तव्यो] ग्रहण करना चाहिए।
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मलरहिओ णाणमओ णिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो ।
तारिसओ देहत्थो परमो बंभो मुणेयव्वो ॥26॥
ज्ञानवान अमलान प्रभु, जो सिवखेतमँझार ।
सो आतम मम घट बसै, निहचै फेर न सार ॥26॥
अन्वयार्थ : [जारिसो] जैसा [मल-रहिओ] कर्म-मल से रहित, [णाणमओ] ज्ञानमय [सिद्धो] सिद्धात्मा [सिद्धीए] सिद्धलोक में [णिवसइ] निवास करता है, [तारिसओ] वैसा ही [परमो बंभो] परमब्रह्मस्वरूप अपना आत्मा [देहत्थो] देह में स्थित [मुणेयव्वो] जानना चाहिए।
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णोकम्म-कम्मरहिओ, केवलणाणाइगुणसमिद्धो जो ।
सो हं सिद्धो सुद्धो णिच्चो एक्को णिरालंबो ॥27॥
सिद्ध सुद्ध नित एक मैं, ज्ञान आदि गुणखान ।
अगन प्रदेस अमूरती, तन प्रमान तन आन ॥27॥
अन्वयार्थ : [जो] जो सिद्ध जीव, [णोकम्म-कम्मरहिओ] [शरीरादि] नोकर्म, [ज्ञानावरणादि] द्रव्यकर्म तथा [राग-द्वेषादि] भावकर्म से रहित है, [केवलणाणाइ-गुणसमिद्धो] केवलज्ञानादि अनन्त गुणों से समृद्ध है, [सो हं] वही मैं [सिद्धो] सिद्ध हूँ, [सुद्धो] शुद्ध हूँ, [णिच्चो] नित्य हूँ, [एक्को] एक स्वरूप हूँ और [णिरालंबो] निरालंब हूँ।
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सिद्धोहं सुद्धोहं अणंतणाणाइसमिद्धो हं ।
देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य ॥28॥
सिद्ध सुद्ध नित एक मैं, निरालम्ब भगवान् ।
करमरहित आनंदमय, अभै अखै जग जान ॥28॥
अन्वयार्थ : [सिद्धोहं] मैं सिद्ध हूँ, [सुद्धो हं] मैं शुद्ध हूँ, [अणंतणाणाइसमिद्धो हं] मैं अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध हूँ, [देहपमाणो] मैं शरीर-प्रमाण हूं, [णिच्चो] मैं नित्य हूं, [असंखदेसो] में असंख्य प्रदेशी हूँ, [अमुत्तो य] और अमूर्त हूं।
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थक्के मणसंकप्पे रुद्धे अक्खाण विसयवावारे ।
पयडइ बंभसरूवं अप्पा झाणेण जोईणं ॥29॥
मनथिर होत विषै घटै, आतमतत्त्व अनूप ।
ज्ञान ध्यान बल साधिकै, प्रगटै ब्रह्मसरूप ॥29॥
अन्वयार्थ : [मणसंकप्पे] मन के संकल्पों के [थक्के] बन्द हो जाने पर [अक्खण] और इन्द्रियों के [विसयवावारे] विषय-व्यापार के [रुद्ध] रुक जाने पर [जोईणं] योगियों के [झाणेण] ध्यान के द्वारा [बंभसरूवं] ब्रह्मस्वरूप [अप्पा] आत्मा [पयडइ] प्रकट होता है।
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जह जह मणसंचारा इंदियविसया वि उवसमं जंति ।
तह तह पयडइ अप्पा अप्पाणं जह णहे सूरो ॥30॥
अंबर घन फट प्रगट रवि, भूपर करै उदोत ।
विषय कषाय घटावतैं, जिय प्रकास जग होत ॥30॥
अन्वयार्थ : [जह जह] जैसे जैसे, [मणसंचारा] मन का संचार और [इंदियविसया वि] इन्द्रियों के विषय भी [उवसम] उपशमभाव को [जंति] प्राप्त होते हैं, [तह तह] वैसे वैसे ही [अप्पा] अपना आत्मा [अप्पाणं] अपने शुद्धस्वरूप को [पयडइ] प्रकट करता है, [जह] जैसे [णहे] आकाश में [सूरो] सूर्य।
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मण-वयण-कायजोया जइणो जइ जंति णिव्वियारत्तं ।
तो पयडइ अप्पाणं अप्पा परमप्पयसरूवं ॥31॥
मन वच काय विकार तजि, निरविकारता धार ।
प्रगट होय निज आतमा, परमातमपद सार ॥31॥
अन्वयार्थ : [जइणो] योगी के [जइ] यदि [मण-वयण-कायजोया] मन, वचन और काययोग [णिव्वियारत्त] निर्विकारता को [जंति] प्राप्त हो जाते हैं [तो] तो [अप्पा] आत्मा [अप्पाणं] अपने [परमप्पयसरूव] परमात्मस्वरूप को [पयडइ] प्रकट करता है।
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मण-वयण-कायरोहे रुज्झइ कम्माण आसवो णूणं ।
चिर-बद्धं गलइ सयं फलरहियं जाइ जोईणं ॥32॥
मौनगहित आसन सहित, चित्त चलाचल खोय ।
पूरव सत्तामैं गले, नये रुकैं सिव होय ॥32॥
अन्वयार्थ : [मण-वयण-कायरोहे] मनवचनकाय की चंचलता रुकने पर [कम्माण] कर्मों का [आसवो] आस्रव [णूणं] निश्चय से [रुज्झइ] रुक जाता है। तब [चिर-बद्ध] चिरकालीन बंधा हुआ कर्म [जोईणं] योगियों का [सयं] स्वयं [गलइ] गल जाता है और [फलरहियं] फल-रहित [जाइ] हो जाता है।
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चतुर्थ पर्व
ण लहइ भव्वो मोक्खं जावय परदव्ववावडो चित्तो ।
उग्गतवं पि कुणंतो सुद्धे भावे लहुं लहइ ॥33॥
भव्य करैं चिरकाल तप, लहैं न सिव विन ज्ञान ।
ज्ञानवान ततकाल ही, पावैं पद निरवान ॥33॥
अन्वयार्थ : [जावय] जबतक [चित्तो] मन [पर दव्ववावडो] पर-द्रव्यों में व्याप्त [व्यापारयुक्त] है, तबतक [उग्ग तवं पि] उग्र तप को भी [कुणंतो] करता हुआ [भव्वो] भव्य जीव [मोक्खं] मोक्ष को [ण लहइ] नहीं पाता है। किन्तु [शुद्ध भावे] शुद्ध भाव में लीन होने पर [लहुं] शीघ्र ही [लहइ] पा लेता है।
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परदव्वं देहाई कुणइ ममत्तिं च जाय तेसुवरिं ।
परसमयरदो तावं बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ॥34॥
देह आदि परद्रव्यमैं, ममता करै गँवार ।
भयौ परसमैं लीन सो, बांधै कर्म अपार ॥34॥
अन्वयार्थ : [देहाई] देहादिक [परदव्वं] पर-द्रव्य हैं, [जाय च] और जबतक [तेसुवरि] उनके ऊपर [ममत्ति] ममत्व भाव [कुणइ] करता है, [तावं] तबतक वह [पर-समय-रदो] परसमय में रत है, अतएव [विविहेहिं] नाना प्रकार के [कम्मेहिं] कर्मों से [बज्झदि] बंधता है।
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रूसइ तूसइ णिच्चं इंदियविसएहि वसगओ मूढो ।
सकसाओ अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥35॥
इंद्रीविषै मगन रहै, राग दोष घटमाहिं ।
क्रोध मान कलुषित कुधी, ज्ञानी ऐसौ नाहिं ॥35॥
अन्वयार्थ : [इंदिय-विसएहिं] इन्द्रियों के विषयों में [वसगओ] आसक्त [मूढो] मूढ़ [सकसाओ] कषाय-युक्त [अण्णाणी] अज्ञानी पुरुष [णिच्च] नित्य [रूसइ] किसी में रुष्ट होता है और किसी में [तूसइ] सन्तुष्ट होता है, किन्तु [णाणी] ज्ञानी पुरुष [एत्तो दु] इससे [विवरीदो] विपरीत [स्वभाववाला] होता है ।
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चेयणरहिओ दीसइ ण य दीसइ इत्थ चेयणासहिओ ।
तम्हा मज्झत्थो हं रूसेमि य कस्स तूसेमि ॥36॥
देखै सो चेतन नहीं, चेतन देखौ नाहिं ।
राग दोष किहिसौं करौं, हौं मैं समतामाहिं ॥36॥
अन्वयार्थ : [इत्थ] इस संसार में [चेयण-रहिओ] चेतन-रहित पदार्थ [दीसइ] दिखाई देता है, [चेयणा-सहिओ] और चेतना-सहित पदार्थ [ण य दीसइ] नहीं दिखाई देता है; [तम्हा] इस कारण [मज्झत्थोह] मध्यस्थ मैं [कस्स] किससे [रूसेमि] रुष्ट होऊँ [तूसेमि य] और किससे सन्तुष्ट होऊँ ?
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अप्पसमाणा दिट्ठा जीवा सव्वे वि तिहुयणत्था वि ।
सो मज्झत्थो जोई ण य रूसइ णेय तूसेइ ॥37॥
थावर जंगम मित्र रिपु, देखै आप समान ।
राग विरोध करै नहीं, सोई समतावान ॥37॥
अन्वयार्थ : [तिहुयणत्था वि] तीन भुवन में स्थित भी [सव्वे वि] सभी [जीवा] जीव [अप्पसमाणा] अपने समान [दिट्ठा] दिखाई देते हैं, [सो] इसलिए वह [मज्झत्थो] मध्यस्थ [जोई] योगी [ण य] न तो [रूसइ] किसी से रुष्ट होता है [णेय] और नहीं [तूसेइ] किसी से सन्तुष्ट होता है।
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जम्मण-मरणविमुक्का अप्पपएसेहिं सव्वसामण्णा ।
सगुणेहिं सव्वसरिसा णाणमया णिच्छयणएण ॥38॥
सब असंखपरदेसजुत, जनमै मरे न कोय ।
गुणअनंत चेतनमई, दिव्यदृष्टि धरि जोय ॥38॥
अन्वयार्थ : [णिच्छयणएण] निश्चयनय से सभी जीव [जम्मणमरणविमुक्का] जन्म-मरण से विमुक्त [अप्पपएसेहिं] आत्मप्रदेशों की अपेक्षा [सव्वसामण्णा] सभी समान [सगुणेहिं सव्वसरिसा] आत्मीय गुणों से सभी सदृश और [णाणमया] ज्ञानमयी हैं।
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इय एवं जो बुज्झइ वत्थुसहावं णएहिं दोहिं पि ।
तस्स मणो डहुलिज्जइ ण राय-दोसेहिं मोहेहिं ॥39॥
निहचै रूप अभेद है, भेदरूप व्योहार ।
स्यादवाद मानै सदा, तजि रागादि विकार ॥39॥
अन्वयार्थ : [जो] जो ज्ञानी [दोहिं पि] दोनों ही [णएहिं] नयों से [इय एवं] यह इस प्रकार का [वत्थुसहाव] वस्तु-स्वभाव [बुज्झइ] जानता है [तस्स] उसका [मणो] मन [राय-दोसेहिं] राग-द्वेष [मोहेहिं] और मोह से [ण डहुलिज्जइ] डंवाडोल नहीं होता है।
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रायद्दोसादीहि य डहुलिज्जइ णेव जस्स मण-सलिलं ।
सो णिय-तच्चं पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ ॥40॥
राग दोष कल्लोलबिन, जो मन जल थिर होय ।
सो देखै निजरूपकौं, और न देखै कोय ॥40॥
अन्वयार्थ : [जस्स] जिसका [मणसलिलं] मनरूपी जल [रागद्दोसादीहि य] रागद्वेष आदि के द्वारा [णेय] नहीं [डहुलिज्जइ] डंवाडोल होता है [सो] वह [णियतच्च] निजतत्त्व को [पिच्छइ] देखता है; [तस्स] इससे [विवरीओ] विपरीत पुरुष [ण हु] निश्चय से नहीं [पिच्छइ] देखता है।
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सर-सलिले थिरभूए दीसइ णिरु णिवडियं पि जह रयणं ।
मण-सलिले थिरभूए दीसइ अप्पा तहा विमले ॥41॥
अमल सुथिर सरवर भयैं, दीसै रतनभण्डार ।
त्यौं मन निरमल थिरविषैं, दीसै चेतन सार ॥41॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [सरसलिले] सरोवर के जल के [थिरभूए] स्थिर होने पर [णिवडियं पि] सरोवर में गिरा हुआ भी [रयणं] रत्न [णिरु] नियम से [दीसइ] दिखाई देता है, [तहा] उसी प्रकार [मणसलिले] मनरूपी जल के [थिरभूए] स्थिर होने पर [विमले] निर्मल भाव में [अप्पा] आत्मा [दीसइ] दिखाई देता है।
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दिट्ठे विमल-सहावे णिय-तच्चे इंदियत्थ-परिचत्ते ।
जायइ जोइस्स फुडं अमाणुसत्तं खणद्धेण ॥42॥
देखैं विमलसरूपकौं, इन्द्रियविषै विसार ।
होय मुकति खिन आधमैं, तजि नरभौ अवतार ॥42॥
अन्वयार्थ : [विमलसहावे] निर्मल स्वभाववाले, [इंदियत्थपरिचत्त] इन्द्रियों के विषयों से रहित [णियतच्चे] निज आत्मतत्त्व के [दिट्ठे] दिखाई देने पर [खणद्धेण] आधे क्षण में [जोइस्स] योगी के [अमाणुसत्त] अमानुषपना [फुड] स्पष्ट प्रकट [जायइ] हो जाता है ।
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णाणमयं णिय-तच्चं मेल्लिय सव्वे वि पर-गया भावा ।
ते छंडिय भावेज्जो सुद्ध-सहावं णियप्पाणं ॥43॥
ज्ञानरूप निज आतमा, जड़सरूप पर मान ।
जड़तजि चेतन ध्याइयै, सुद्धभाव सुखदान ॥43॥
अन्वयार्थ : [णाणमयं] ज्ञानमयी [णियतच्चं] निजतत्त्व को [मेल्लिय] छोड़कर [सव्वेवि] सभी [भावा] भाव [परगया] परगत हैं; [ते छंडिय] उन्हें छोड़कर [सुद्धसहाव] शुद्ध-स्वभाववाले [णियप्पाणं] निज आत्मा की ही [भावेज्जो] भावना करनी चाहिए।
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जो अप्पाणं झायदि संवेयण-चेयणाइ-उवजुत्तो ।
सो हवइ वीयराओ णिम्मल-रयणत्तओ साहू ॥44॥
निरमल रत्नत्रय धरैं, सहित भाव वैराग ।
चेतन लखि अनुभौ करैं, वीतरागपद जाग ॥44॥
अन्वयार्थ : [जो संवेयणचेयणाइ उवजुत्तो] जो स्व-संवेदन चेतनादि से उपयुक्त [साहू] साधु [अप्पाणं] आत्मा को [झायदि] ध्याता है [सो] वह [णिम्मलरयणत्तओ] निर्मल रत्नत्रय का धारक [वीयराओ] वीतराग [हवइ] हो जाता है।
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दंसण-णाण-चरित्तं जोई तस्सेह णिच्छयं भणइ ।
जो झायइ अप्पाणं सचेयणं सुद्ध-भावट्ठं ॥45॥
देखै जानै अनुसरै, आपविषैं जब आप ।
निरमल रत्नत्रय तहां जहां न पुन्य न पाप ॥45॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [जोई] योगी [सचेयणं] सचेतन और [शुद्धभावटुं] शुद्ध भाव में स्थित योगी परमयोगी [अप्पाणं] आत्मा को [झायइ] ध्याता है [तस्स] उसको [इह] इस लोक में [णिच्छय] निश्चय [दंसणणाण-चरित्त] दर्शन ज्ञान चारित्र [भणइ] कहते हैं।
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पंचम पर्व
झाणट्ठिओ हु जोई जइ णो संवेइ णियय-अप्पाणं ।
तो ण लहइ तं सुद्धं भग्ग-विहीणो जहा रयणं ॥46॥
थिर समाधि वैरागजुत, होय न ध्यावै आप ।
भागहीन कैसैं करै, रतन विसुद्ध मिलाप ॥46॥
अन्वयार्थ : [झाणट्ठिओ] घ्यान में स्थित [जोई] योगी [जइ] यदि [हु] निश्चय से [णिययअप्पाणं] अपने आत्मा को [णो] नहीं [संवेइ] अनुभव करता है [तो] तो वह [तं] उस [सुद्धं] शुद्ध आत्मा को [ण] नहीं [लहइ] प्राप्त कर पाता है। [जहा] जैसे [भग्गविहीणो] भाग्यहीन मनुष्य [रयणं] रत्न को नहीं प्राप्त कर पाता है।
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देह-सुहे पडिबद्धो जेण य सो तेण लहइ ण हु सुद्धं ।
तच्चं वियार-रहियं णिच्चं चिय झायमाणो हु ॥47॥
विषयसुखनमैं मगन जो, लहै न सुद्ध विचार ।
ध्यानवान विषयनि तजै लहै तत्त्व अविकार ॥47॥
अन्वयार्थ : [वियार-रहियं] विचार-रहित [तच्च] तत्त्वको [णिच्च] नित्य [चिय] ही [झायमाणो हु] निश्चय से ध्यान करता हुआ भी [जेण] यतः [देहसुहे] शरीर के सुख में [पडिबद्धो] अनुरक्त है [तेण] इसलिए [सो] वह [सुद्ध] शुद्ध आत्मस्वरूप को [ण हु] नहीं [लहइ] प्राप्त कर पाता है।
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मुक्खो विणास-रूवो चेयण-परिवज्जिओ सया देहो ।
तस्स ममत्ति कुणंतो बहिरप्पा होइ सो जीवो ॥48॥
अथिर अचेतन जड़मई, देह महादुखदान ।
जो यासौं ममता करै, सो बहिरातम जान ॥48॥
अन्वयार्थ : [देहो] शरीर [सया] सदाकाल [मुक्खो] मूर्ख है, [विणासरूवो] विनाशरूप है, [चेयणपरिवज्जिओ] चेतना से रहित है, जो [तस्स] उसकी [ममत्ति] ममता [कुणंतो] करता है [सो] वह [बहिरप्पा] बहिरात्मा [होइ] है।
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रोयं सडणं पडणं देहस्स य पिक्खिऊण जर-मरणं ।
जो अप्पाणं झायदि सो मुच्चइ पंच-देहेहिं ॥49॥
सरै परै आमय धरै, जरै मरै तन एह ।
हरि ममता समता करै, सो न वरै पन-देह ॥49॥
अन्वयार्थ : [देहस्स य] देह के [रोयं] रोग [सडणं] सटन और [पडणं] पतन को तथा [जरमरणं] जरा और मरण को [पिक्खिऊण] देखकर [जो] जो भव्य [अप्पाणं] आत्मा को [झायदि] ध्याता है [स] वह [पंच देहेहिं] पांच प्रकार के शरीरों से [मुच्चइ] मुक्त हो जाता है।
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जं होइ भुंजियव्वं कम्मं उदयस्स आणियं तवसा ।
सयमागयं च तं जइ सो लाहो णत्थि संदेहो ॥50॥
पापउदैकौं साधि, तप, करै विविध परकार ।
सो आवै जो सहज ही, बड़ौ लाम है सार ॥50॥
अन्वयार्थ : [ज] जो [कम्म] कर्म [तवसा] तप के द्वारा [उदयस्स] उदय में [आणिय] लाकर [भुंजियव्वं] भोगने के योग्य [होइ] होता है, [तं] वह [जइ] यदि [सयं] स्वयं [आगयं] उदय में आ गया है [सो] वह [लाहो] बड़ा भारी लाभ है; इसमें कोई [संदेहो] सन्देह [पत्थि] नहीं है ।
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भुंजंतो कम्म-फलं कुणइ ण रायं तह य दोसं च ।
सो संचियं विणासइ अहिणव-कम्मं ण बंधेइ ॥51॥
करमउदय फल भोगतें, कर न राग विरोध ।
सो नासै पूरव करम, आगैं करै निरोध ॥51॥
अन्वयार्थ : [कम्मफलं] कर्मों के फल को [भुजंतो] भोगता हुआ [ण राय] न राग को [तह य] और [दोसं च] न द्वेष को [कुणइ] करता है [सो] वह [संचियं] पूर्व संचित कर्म को [विणासइ] विनष्ट करता है और [अहिणवकम्म] नवीन कर्म को [ण बंधेइ] नहीं बांधता है।
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भुंजंतो कम्म-फलं भावं मोहेण कुणइ सुहमसुहं ।
जइ तो पुणो वि बंधइ णाणावरणादि-अट्ठ-विहं ॥52॥
कर्मउदै सुख दुख संजोग, भोगत करैं सुभासुभ लोग ।
तातैं, बांधैं करम अपार, ज्ञानावरनादिक अनिवार ॥52॥
अन्वयार्थ : [कम्मफलं] कर्मों के फल को [भुंजतो] भोगता हुआ अज्ञानी पुरुष [जइ] यदि [मोहेण] मोह से [सुहमसुह] शुभ और अशुभ [भाव] भाव को [कुणइ] करता है, [तो] तब [पुणो वि] फिर भी वह [गाणावरणादि] ज्ञानावरणादि [अट्टविहं] आठ प्रकार के कर्म को [बंधइ] बांधता है।
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परमाणु-मित्त-रायं जाम ण छंडेइ जोइ स-मणम्मि ।
सो कम्मेण ण मुच्चइ परमट्ठ-वियाणओ समणो ॥53॥
जबलौं परमानूसम राग, तबलौं करम सकैं नहिं त्याग ।
परमारथ ज्ञायक मुनि सोय, राग तजै बिनु काज न होय ॥53॥
अन्वयार्थ : [जाम] जबतक [जोई] योगी [समणम्मि] अपने मन में से [परिमाणुमित्तरायं] परमाणुमात्र भी राग को [ण छंडेइ] नहीं छोड़ता है, तबतक [परमट्ठवियाणओ] परमार्थ का ज्ञायक भी [स समणो] वह श्रमण [कम्मेण] कर्म से [ण मुच्चइ] नहीं छूटता है।
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सुह-दुक्खं पि सहंतो णाणी झाणम्मि होइ दिढ-चित्तो ।
हेऊ कम्मस्स तओ णिज्जरणट्ठं इमो भणिओ ॥54॥
सुख दुख सहै करम वस साध, कर न राग विरोध उपाध ।
ज्ञानध्यानमैं थिर तपवंत, सो मुनि करै कर्मकौ अन्त ॥54॥
अन्वयार्थ : [सुह-दुक्खं पि] सुख-दुःख को भी [सहंतो] सहता हुआ [णाणी] ज्ञानी पुरुष जब [झाणम्मि] ध्यान में [दिढचित्तो] दृढ़-चित्त [होइ] होता है, तब उसका [तपो] तप [कम्मस्स] कर्म की [णिज्जरणट्ठं] निर्जरा के लिए [हेऊ] हेतु होता है [इमो] ऐसा [भणिओ] कहा गया है।
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ण मुएइ सगं भावं ण परं परिणमइ मुणइ अप्पाणं ।
जो जीवो संवरणं णिज्जरणं सो फुडं भणिओ ॥55॥
गहै नहीं पर तजै न आप, करें निरन्तर आतमजाप ।
ताकैं संवर निर्जर होय, आस्रव बंध विनासै सोय ॥55॥
अन्वयार्थ : [जो जीवो] जो जीव [सगं] अपने [भावं] भाव को [ण माह] नहीं छोडता है, [पर] और पर पदार्थरूप [ण परिणमइ] परिणत नहीं होता है, किन्तु [अप्पाणं] अपने आत्मा का [मुणइ] मनन, चिन्तन और अनुभवन करता है, [सो] वह जीव [फुड] निश्चयनय से [संवरणं] संवर और [णिज्जरणं] निर्जरारूप [भणिओ] कहा गया है।
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स-सहावं वेदंतो णिच्चल-चित्तो विमुक्क-परभावो ।
सो जीवो णायव्वो दंसण-णाणं चरित्तं च ॥56॥
तजि परभाव चित्त थिर कीन, आप-स्वभावविषैं ह्वै लीन ।
सोई ज्ञानवान दृगवान, सोई चारितवान प्रधान ॥56॥
अन्वयार्थ : [ससहावं] अपने आत्मस्वभाव को [वेदंतो] अनुभव करता हुआ जो जीव [विमुक्कपरभावो] परभाव को छोड़कर [णिच्चलचित्तो] निश्चल चित्त होता है [सो जीवो] वही जीव [दंसण-णाणं चरित्तं च] सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक् चारित्र है, ऐसा [णायव्वो] जानना चाहिए।
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जो अप्पा तं णाणं जं णाणं तं च दंसणं चरणं ।
सा सुद्ध-चेयणा वि य णिच्छय-णयमस्सिए जीवे ॥57॥
आतमचारित दरसन ज्ञान, सुद्धचेतना विमल सुजान ।
कथन भेद है वस्तु अभेद, सुखी अभेद भेदमैं खेद ॥57॥
अन्वयार्थ : [णिच्छयणयमस्सिए] निश्चयनय के आश्रित [जीवे] जीव में [जो अप्पा] जो आत्मा है, [तं णाणं] वही ज्ञान है, [जं णाणं] और जो ज्ञान है [तं च दंसणं चरणं] वही दर्शन है, वही चारित्र है [सा शुद्धचेयणा वि य] और वही शुद्ध चेतना भी है।
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उभय-विणट्ठे भावे णिय-उवलद्धे सु-सुद्ध-ससरूवे ।
विलसइ परमाणंदो जोईणं जोय-सत्तीए ॥58॥
जो मुनि थिर करि मनवचकाय, त्यागै राग दोष समुदाय ।
धरै ध्यान निज सुद्धसरूप, बिलसै परमानंद अनूप ॥58॥
अन्वयार्थ : [उभयविणट्ठे भावे] राग और द्वेषरूप दोनों भावों के विनष्ट होने पर [सुसुद्धससरूवे] अत्यन्त शुद्ध आत्मस्वरूप [णियउवलद्धे] निज भाव के उपलब्ध होने पर [जोयसत्तीए] योगशक्ति से [जोईणं] योगियों के [परमाणंदो] परम आनन्द [विलसइ] विलसित होता है।
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किं किज्जइ जोएणं जस्स य ण हु अत्थि एरिसी सत्ती ।
फुरइ ण परमाणंदो सच्चेयण-संभवो सुहदो ॥59॥
जिह जोगी मन थिर नहिं कीन, जाकी सकति करम आधीन ।
करइ कहा न फुरे बल तास, लहै न चेतन सुखकी रास ॥59॥
अन्वयार्थ : [जोएण किं कीरइ] उस योग से क्या करना है ? [जस्स य] जिसकी [एरिसी] ऐसी [सत्ती] शक्ति [ण हु] नहीं [अत्थि] है कि उससे [सच्चेयणसंभवो] सत्-चेतन से उत्पन्न [सुहदो] सुखद [परमाणंदो] परमानन्द [ण फुरइ] प्रकट न हो।
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जा किंचि वि चलइ मणो झाणे जोइस्स गहिय-जोयस्स ।
ताम ण परमाणंदो उप्पज्जइ परम-सुक्खयरो ॥60॥
जोग दियौ मुनि मनवचकाय, मन किंचित चलि बाहिर जाय ।
परमानंद परम सुखकंद, प्रगट न होय घटामैं चंद ॥60॥
अन्वयार्थ : [जा] जबतक [गहियजोयस्स] योग के धारक [जोइस्स] योगी का [मणो] मन [झाणे] ध्यान में [किंचिवि] कुछ भी [चलइ] चलायमान रहता है [ताम] तब तक [परमसोक्खयरो] परम सुख-कारक [परमाणंदो] परमानन्द [ण उप्पज्जइ] नहीं उत्पन्न होता है।
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सयल-वियप्पे थक्के उप्पज्जइ को वि सासओ भावो ।
जो अप्पणो सहावो मोक्खस्स य कारणं सो खु ॥61॥
सब संकल्प विकल्प विहंड, प्रगटै आतमजोति अखण्ड ।
अविनासी सिवकौ अंकूर, सो लखि साध करमदल चूर ॥61॥
अन्वयार्थ : [सयलवियप्पे] समस्त विकल्पों के [थक्के] रुक जाने पर [कोवि] कोई अद्वितीय [सासओ] शाश्वत-नित्य [भावो] भाव [उप्पज्जइ] उत्पन्न होता है [जो] जो [अप्पणो] आत्मा का [सहावो] स्वभाव है; [सो] वह [खु] निश्चय से [मोक्खस्स य] मोक्ष का [कारणं] कारण है।
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अप्पसहावे थक्को जोई ण मुणेइ आगए विसए ।
जाणइ णिय-अप्पाणं पिच्छइ तं चेव सुविसुद्धं ॥62॥
विषय कषाय भाव करि नास, सुद्धसुभाव देखि जिनपास ।
ताहि जानि परसौं तजि काज, तहां लीन हूजै मुनिराज ॥62॥
अन्वयार्थ : [अप्पसहावे] आत्मस्वभाव में [थक्को] स्थित [जोई] योगी [आगए] उदय में आये हुए [विसए] इन्द्रियों के विषयों को [ण मुणेइ] नहीं जानता है। किन्तु [णिय-अप्पाणं] अपनी आत्मा को ही [जाणइ] जानता है [तं चेव] और उसी [सुविसुद्ध] अतिविशुद्ध आत्मा को [पिच्छइ] देखता है।
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ण रमइ विसएसु मणो जोइस्सुवलद्धसुद्धतच्चस्स ।
एकीहवइ णिरासो मरइ पुणो झाणसत्थेण ॥63॥
विषय भोगसेती उचटाइ, शुद्धतत्त्वमैं चित्त लगाइ ।
होय निरास आस सब हरै, एक ध्यानअसिसौं मन मरै ॥63॥
अन्वयार्थ : [उवलद्धसुद्धतच्चस्स] जिसने शुद्धतत्त्व को प्राप्त कर लिया है, ऐसे [जोइस्स] योगी का [मणो] मन [विसएस] इन्द्रियों के विषयों में [ण रमह] नहीं रमता है। किन्त [णिरासो] विषयों से निराश होकर आत्मा में [एकीहवइ] एकमेव हो जाता है। [पुणो] पुनः [झाणसत्येण] ध्यानरूपी शस्त्र के द्वारा [मरइ] मरण को प्राप्त हो जाता है।
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ण मरइ तावेत्थ मणो जाम ण मोहो खयं गओ सव्वो ।
खीयंति खीणमोहे सेसाणि य घाइकम्माणि ॥64॥
मरै न मन जो जीवै मोह, मोह मरैं मन जनमन होय ।
ज्ञानदर्श आवर्न पलाय, अन्तरायकी सत्ता जाय ॥64॥
अन्वयार्थ : [जाम] जबतक [सव्वो मोहो] सम्पूर्ण मोह [खयं] क्षय को [ण गओ] नहीं प्राप्त होता है, [ताव] तबतक [इत्थ] इस आत्मा का [मणो] मन [ण मरइ] नहीं मरता है। [खीणमोहे] मोह के क्षीण होने पर [सेसाणि य] शेष भी [घाइकम्माणि] घाति-कर्म [खीयंति] नष्ट हो जाते हैं।
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णिहए राए सेण्णं णासइ सयमेव गलियमाहप्पं ।
तह णिहयमोहराए गलंति णिस्सेसघाईणि ॥65॥
जैसे भूप नसैं सब सैन, भाग जाइ न दिखावै नैन ।
तैसे मोह नास जब होय, कर्मघातिया रहै न कोय ॥65॥
अन्वयार्थ : [राए] राजा के [णिहए] मारे जाने पर जैसे [गलियमाहप्पं] जिसका माहात्म्य गल गया है ऐसी [सेण्णं] सेना [सयमेव] स्वयं ही [णासइ] नष्ट हो जाती है, [तह] उसी प्रकार [णिहयमोहराए] मोहराजा के नष्ट हो जाने पर [णिस्सेसघाईणि] समस्त घातिया-कर्म [गलंति] स्वयं ही गल जाते हैं।
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घाइचउक्के णट्ठे उप्पज्जइ विमलकेवलं णाणं ।
लोयालोयपयासं कालत्तयजाणगं परमं ॥66॥
कीनैं चारिघातिया हान, उपजै निरमल केवलज्ञान ।
लोकालोक त्रिकाल प्रकास, एक समैंमैं सुखकी रास ॥66॥
अन्वयार्थ : [घाइचउक्के गट्टे] चारों घातिया कर्मों के नष्ट होने पर [लोयालोयपयासं] लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला, [कालत्तय जाणगं] तीनों कालों को जाननेवाला, [परम] परम [विमल] निर्मल [केवलणाणं] केवलज्ञान [उप्पज्जइ] उत्पन्न होता है।
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षष्ठ पर्व
तिहुवणपुज्जो होउं खविउ सेसाणि कम्मजालाणि ।
जायइ अभूदपुव्वो लोयग्गणिवासिओ सिद्धो ॥67॥
त्रिभुवन इन्द्र नमैं कर जोर, भाजैं दोषचोर लखि भोर ।
आव जु नाम गोत वेदनी, नासि मयैं नूतन सिवधनी ॥67॥
अन्वयार्थ : [तिहुवणपुज्जो] अरहन्त अवस्था में तीन भुवन के जीवों का पूज्य होकर, पुनः [सेसाणि] शेष [कम्मजालाणि] कर्मजालों को [खविउ] क्षय करके [अभूदपुल्वो] अभूतपूर्व [लोयग्गणिवासिओ] लोकाग्र का निवासी [सिद्धो] सिद्ध परमात्मा [जायइ] हो जाता है।
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गमणागमणविहीणो फंदण-चलणेहि विरहिओ सिद्धो ।
अव्वाबाहसुहत्थो परमट्ठगुणेहिं संजुत्तो ॥68॥
आवागमनरहित निरबंध, अरस अरूप अफास अगंध ।
अचल अबाधित सुख विलसंत, सम्यकआदि अष्टगुणवंत ॥68॥
अन्वयार्थ : [गमणागमणविहीणो] गमन और आगमन से रहित [फंदण-चलणेहि] परिस्पन्द और हलन-चलन से रहित, [अव्वाबाहसुहत्थो] अव्याबाध सुख में स्थित [परमट्ठगुणेहिं] परमार्थ या परम अष्टगुणों से [संजुत्तो] संयुक्त [सिद्धो] सिद्ध परमात्मा होता है।
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लोयालोयं सव्वं जाणइ पेच्छइ करणकमरहियं ।
मुत्तामुत्ते दव्वे अणंतपज्जायगुणकलिए ॥69॥
मूरतिवंत अमूरतिवंत, गुण अनंत परजाय अनंत ।
लोक अलोक त्रिकाल विथार, देखै जानै एकहि बार ॥69॥
अन्वयार्थ : [करणकमरहियं] इंद्रियों के क्रम से रहित एक साथ [सव्वं] सर्व [लोयालोयं] लोक और अलोक को, तथा [अणंतपज्जायगुणकलिए] अनन्त पर्याय और अनन्त गुणों से संयुक्त सभी [मुत्तामुत्ते दव्वे] मूर्त और अमूर्त द्रव्यों को [जाणइ] जानता है और [पेच्छइ] देखता है।
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धम्माभावे परदो गमणं णत्थि त्ति तस्स सिद्धस्स ।
अच्छइ अणंतकालं लोयग्गणिवासिओ होउ ॥70॥
लोकसिखर तनुवात, कालअनंत तहां बसे ।
धरमद्रव्य विख्यात, जहां तहां लौं थिर रहै ॥70॥
अन्वयार्थ : [तस्स सिद्धस्स] उस सिद्ध परमात्मा का [धम्माभावे] धर्मद्रव्य का अभाव होने से [परदो] लोक से परे अलोक में [गमणं णत्थि त्ति] गमन नहीं है, इस कारण [लोयग्गणिवासिओ होउ] लोकाग्र निवासी होकर वहाँ [अणंतकाल] अनंत काल तक [अच्छइ] रहते हैं।
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संते वि धम्मदव्वे अहो ण गच्छेइ तह य तिरियं वा ।
उड्ढगमणसहाओ मुक्को जीवो हवे जम्हा ॥71॥
ऊरधगमन सुभाव, तातैं बंक चलै नहीं ।
लोकअंत ठहराव, आगैं धर्मदरव नहीं ॥71॥
अन्वयार्थ : [मुक्को जीवो] कर्मों से मुक्त हुआ जीव [धम्मदव्वे संते वि] धर्म-द्रव्य के होने पर भी [अहो ण गच्छेइ] नीचे नहीं जाता है, [तह य तिरियं वा] उसी प्रकार तिरछा भी नहीं जाता है। [जम्हा] क्योंकि मुक्त जीव [उड्ढगमणसहाओ] ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला [हवे] है ।
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असरीरा जीव घणा चरमसरीरा हवंति किंचूणा ।
जम्मण-मरण-विमुक्का णमामि सव्वे पुणो सिद्धा ॥72॥
रहित जन्म मृति एह, चरमदेहतैं कछु कमी ।
जीव अनंत विदेह, सिद्ध सकल वंदौं सदा ॥72॥
अन्वयार्थ : [पुणो] पुनः [सिद्धा जीवा] वे सिद्ध जीव [असरीरा] शरीर-रहित हैं, [घणा] अर्थात् बहुत घने हैं, [किंचणा] कुछ कम [चरम सरीरा] चरम शरीर प्रमाण हैं, [जन्म-मरण-विमुक्का] जन्म और मरण से रहित हैं। ऐसे [सव्वे सिद्धा] सर्व सिद्धों को [णमामि] मैं नमस्कार करता हूँ ।
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जं अल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरं विसमं ।
तं भव्वजीवसरणं णंदउ सग-परगयं तच्चं ॥73॥
ते हैं भव्य सहाय, जे दुस्तर भवदधि तरैं ।
तत्त्वसार यह गाय, जैवंतौ प्रगटौ सदा ॥73॥
अन्वयार्थ : [जं अल्लीणा] जिसमें तल्लीन हुए [जीवा] जीव [विसमं] विषम [संसार-सायरं] संसार समुद्र को [तरंति] तिर जाते हैं [त] वह [भव्वजीवसरणं] भव्य जीवों को शरणभूत [सग-परगयं] स्व और परगत [तच्चं] तत्त्व [णंदउ] सदा वृद्धि को प्राप्त हो ।
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सोऊण तच्चसारं रइयं मुणिणाह देवसेणेण ।
जो सद्दिट्टी भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ॥74॥
देवसेन मुनिराज, तत्त्वसार आगम कह्यौ ।
जो ध्यावै हितकाज, सो ज्ञाता सिवसुख लहै ॥74॥
अन्वयार्थ : [जो सद्दिट्ठी] जो सम्यग्दृष्टि [मुणिणाहदेवसेणेण] मुनिनाथ देवसेन के द्वारा [रइयं] रचित [तच्चसारं] इस तत्त्वसार को [सोऊण] सुनकर [भावइ] उसकी भावना करेगा, [सो] वह [सासयं सोक्खं] शाश्वत सुख को [पावइ] पावेगा ।
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