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Date : 17-Nov-2022
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!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
श्रीमद्-देवसेनाचार्य-प्रणीत
श्री
आराधानासार
मूल प्राकृत गाथा
आभार : हिंदी पद्यानुवाद - गुणभद्र जैन 'कविरत्न', मुंबई
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री आराधानासार नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तर ग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीदेवसेनाचार्य विरचितं
॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
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मंगलाचरण
विमलयरगुणसमिद्धं सिद्धं सुरसेणवंदियं सिरसा ।
णमिऊण महावीरं वोच्छं आराहणासारं ॥1॥
सुर समूह सिर वंद्य नित, निर्मल गुण सुसमृद्ध ।
वन्दन कर उन वीर को, कहूँ साधना शुद्ध ॥१॥
अन्वयार्थ : [विमलयरगुणसमिद्धं] अत्यन्त निर्मल शुद्ध, चैतन्य गुण से परिपूर्ण, [सुरसेणवंदियं] सौधर्मेन्द्र आदि चतुर्णिकाय की देव-सेनाओं से नमस्कृत और [महावीरं] अत्यन्त वीर [सिद्धं] सिद्ध परमात्मा को [सिरसा] सिर से [णमिऊण] नमस्कार कर [आराहणासारं] आराधनासार ग्रन्थ को [वोच्छं] कहूँगा ।
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आराहणाइसारो तवदंसणणाणचरणसमवाओ ।
सो दुब्भेओ उत्तो ववहारो चेग परमट्ठो ॥2॥
तप, दृग, ज्ञान चरणमयी, शुभाराधना सार ।
ये विभक्त दो भेद में, निश्चय वा व्यवहार ॥२॥
अन्वयार्थ : [तवदंसणणाणचरणसमवाओ] तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समूह [आराहणाइसारो] आराधनासार है [सो] वह आराधनासार [दुब्भेओ] दो भेद वाला [उत्तो] कहा गया है [ववहारो चेग परमट्ठो] एक व्यवहार और एक परमार्थ ।
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ववहारेण य सारो भणिओ आराहणाचउक्कस्स ।
दंसणणाणचरित्तं तवो य जिणभासियं णूणं ॥3॥
मुनियों ने व्यवहार से, कहा साधना सार ।
दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप, जिनभाषित सुखकार ॥३॥
अन्वयार्थ : [णूणं] निश्चय से [जिणभासियं] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ [दंसणणाणचरित्तं तवो य] दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप [ववहारेण] व्यवहारनय से [आराहणाचउक्कस्स] चार आराधनाओं का [सारो भणिओ] सार कहा गया है ।
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भावाणं सद्दहणं कीरइ जं सुत्तउत्तजुत्तीहिं ।
आराहणा हु भणिया सम्मत्ते सा मुणिंदेहिं ॥4॥
आगमोक्त सद्युक्तियुत, भावों का श्रद्धान ।
उसे दर्शनाराधना, कहते जिन भगवान ॥४॥
अन्वयार्थ : [सुत्तउत्तजुत्तीहिं] आगम में कही हुई युक्तियों के द्वारा [भावाणं] जीवादि पदार्थों का [जं] जो [सद्दहणं] श्रद्धान [कीरइ] किया जाता है [सा] वह [मुणिंदेहिं] मुनिराजों के द्वारा [हु] निश्चय से [सम्मत्ते] सम्यग्दर्शन विषयक [आराहणा] आराधना [भणिया] कही गई है ॥४॥
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सुत्तत्थभावणा वा तेसिं भावाणमहिगमो जो वा ।
णाणस्स हवदि एसा उत्ता आराहणा सुत्ते ॥5॥
सूत्र, अर्थ की भावना, तत्त्वों का शुभज्ञान ।
सम्यग्ज्ञानाराधना, है सूत्रोक्त प्रमाण ॥५॥
अन्वयार्थ : [सुत्तत्थभावणा] आगम के अर्थ की भावना [वा] अथवा [तेसिं भावाणं] उन जीवादि पदार्थों का जो [अहिगमो] सम्यग्ज्ञान है [एसा] यह [सुत्त] परमागम में [णाणस्य] ज्ञान की [आराहणा] आराधना [उत्ता हवदि] कही गई है ।
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तेरहविहस्स चरणं चारित्तस्सेह भावसुद्धीए ।
दुविहअसंजमचाओ चारित्ताराहणा एसा ॥6॥
भाव युक्त पालें सदा, तेरह विध चारित्र ।
द्विविध असंयम त्याग से, है चारित्र पवित्र ॥६॥
अन्वयार्थ : [भावसुद्धीए] भावों की शुद्धि पूर्वक [इह] इस आराधना में [तेरह विहस्स] तेरह प्रकार के [चारित्तस्स] चारित्र का [चरणं] आचरण करना - पालन करना और [दुविहअसंजमचाओ] दो प्रकार के असंयम का त्याग करना [एसा] यह [चारित्ताराहणा] चारित्राराधना [हवदि] है ॥६॥
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बारहविहतवयरणे कीरइ जो उज्जमो ससत्तीए ।
सा भणिया जिणसुत्ते तवम्मि आराहणा णूणं ॥7॥
द्वादश विध तप में करे, उद्यम शक्ति प्रमाण ।
वह है तप आराधना, जिन आगम में जान ॥७॥
अन्वयार्थ : [ससत्तीए] अपनी शक्ति के अनुसार [बारहविहतवयरणे] बारह प्रकार के तपश्चरण में [जो उज्जमो] जो उद्यम [कीरइ] किया जाता है [सा] वह [णूणं] निश्चय से [जिणसुत्ते] जिनागम में [तवम्मि आराहणा] तप आराधना [भणिया] कही गई है ।
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सुद्धणये चउखंधं उत्तं आराहणाए एरिसियं ।
सव्ववियप्पविमुक्को सुद्धो अप्पा णिरालंबो ॥8॥
होती यह मुनिराज के, चार भेद से युक्त ।
निश्चय शुद्धाराधना, सर्व विकल्प विमुक्त ॥८॥
अन्वयार्थ : [सुद्धणये] निश्चय नय में [आराहणाए] आराधना के [चउखंधं] सम्यग्दर्शनादि चार भेदों का समूह [एरिसियं उत्तं] इस रीति से कहा गया है कि [सव्ववियप्पविमुक्को] समस्त विकल्पों से रहित [सुद्धो] शुद्ध और [णिरालंबो] बाह्य आलम्बन से रहित [अप्पा] आत्मा ही [आराहणा अत्थि] आराधना है ।
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सद्दहइ सस्सहावं जाणई अप्पाणमप्पणो सुद्धं ।
तं चिय अणुचरइ पुणो इंदियविसये णिरोहित्ता ॥9॥
श्रद्धा आत्मस्वभाव की, निज में निज शुचि ज्ञान ।
तदाचरण चारित्र है, विषय-त्याग तप ज्ञान ॥९॥
अन्वयार्थ : निश्चयाराधना में यह जीव [सस्सहावं] अपने स्वभावरूप शुद्धात्मा का [सद्दहइ] श्रद्धान करता है, [अप्पणो] अपने आप में [शुद्धं अप्पाणं] शुद्ध आत्मा को [जाणइ] जानता है [पुणो] और [इंदियविसए] इन्द्रिय विषयों को [णिरोहित्ता] संकुचित कर [तंचिय] उसी शुद्ध आत्मा में [अणुचरइ] अनुचरण करता है - उसी में लीन होता है ।
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तम्हा दंसणणाणं चारित्तं तह तवो य सो अप्पा ।
चइऊण रायदोसे आराहउ सुद्धमप्पाणं ॥10॥
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, आत्मरूप ही मान ।
राग-द्वेष तजकर भजो, शुचि चैतन्य प्रधान ॥१०॥
अन्वयार्थ : [तम्हा] इसलिए [दंसणणाणं चारित्तं तह तवो य] दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप [सो अप्पा] वह आत्मा ही है । अतएव [रायदोसे] राग और द्वेष को [चइऊण] छोड़कर [सुद्धमप्पाणं] शुद्ध आत्मा की [आराहउ] आराधना करो ॥१०॥
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आराहणमाराहं आराहय तह फलं च जं भणियं ।
तं सव्वं जाणिज्जो अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥11॥
आराधन, आराध्य, फल, आराधक ये चार ।
भिन्न न चेतन से कभी, निश्चयमत अवधार ॥११॥
अन्वयार्थ : [आराहणं आराहं] आराधन, आराध्य, [आराहय] आराधक [तह] तथा [फलं च] आराधना का फल [जं भणियं] जो कहा गया है [तं सव्वं] उस सबको [णिच्छयदो] निश्चय से [अप्पाणं चेव] आत्मा ही [जाणिज्जो] जानो ।
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पज्जयणयेण भणिया चउव्विहाराहणा हु जा सुत्ते ।
सा पुणु कारणभूदा णिच्छयणयदो चउक्कस्स ॥12॥
पर्ययनय से सूत्र में, कही गईं ये चार ।
होता निश्चय धर्म का, इससे अति उपकार ॥१२॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [सुत्ते] परमागम में [पज्जयणयेण] भेदनय से [जा] जो [चउव्विहाराहणा] चार प्रकार की आराधना [भणिया] कही गई है [सा पुणु] वही आराधना [णिच्छयणयदो चउक्कस्स] निश्चयनय से कही जाने वाली चार आराधनाओं का [कारणभूदा] कारण [अत्थि] है ।
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कारणकज्जविभागं मुणिऊण कालपहुदिलद्धीए ।
लहिऊण तहा खवओ आराहउ जह भवं मुवइ ॥13॥
हेतु, हेतुत् जान के, काल-लब्धि कर प्राप्त ।
मुनि करता आराधना, हो भव-भ्रण समाप्त ॥१३॥
अन्वयार्थ : [कारणकज्जविभागं] कारण और कार्य के विभाग को [मुणिऊण] जानकर तथा [कालपहुदि लद्धीए] काललब्धियों को [लहिऊण] प्राप्त कर [खवओ] क्षपक [तहा] उस प्रकार [आराहऊ] आराधना करे [जह] जिस प्रकार [भवं] संसार को [मुवइ] छोड़ सके ।
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जीवो भमइ भमिस्सइ भमिओ पुव्वं तु णरयणरतिरियं ।
अलहंतो णाणमईं अप्पा आराहणां णाउं ॥14॥
भ्रमा, भ्रमेगा, भ्रम रहा, यह चेतन संसार ।
की न आत्म-आराधना, है इससे दुखभार ॥१४॥
अन्वयार्थ : [णाणमई] ज्ञानमयी [अप्पा आराहणां] आत्माराधना को [णाउं] जानकर [अलहंतो] नहीं प्राप्त करने वाला [जीवो] जीव [पुव्वं तु] पहले तो [णरयणरतिरियं] नरक, मनुष्य, तिर्यंच और देवगति में [भमिओ] भटका है [भमइ] वर्तमान में भटक रहा है और [भमिस्सइ] आगे भटकेगा ।
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संसारकारणाइं अत्थि हु आलंबणाइ बहुयाइं ।
चइऊण ताइं खवओ आराहओ अप्पयं सुद्धं ॥15॥
जो पदार्थ भव हेतु हैं, क्षपक, उन्हें तू छोड़ ।
अपने शुद्ध स्वरूप में, तू अपने को जोड़ ॥१५॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [संसारकारणाइं] संसार के कारणभूत [बहुयाइं] बहुत से [आलंबणाइ] आलम्बन [अत्थि] हैं । [खवओ] क्षपक [ताइं] उन्हें [चइऊण] छोड़कर [सुद्धं] शुद्ध [अप्पयं] आत्मा की [आराहओ] आराधना करे ।
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भेयगया जा उत्ता चउव्विहाराहणा मुणिंदेहिं ।
पारंपरेण सावि हु मोक्खस्स य कारणं हवइ ॥16॥
आराधना में भेद जो, वह व्यवहार प्रमाण ।
परम्परा से वे सभी, देती हैं निर्वाण ॥१६॥
अन्वयार्थ : [मुणिंदेहिं] मुनिराजों के द्वारा [भेयगया] भेद को प्राप्त हुई [जा] जो [चउव्विहाराहणा] चार प्रकार की आराधना [उत्ता] कही गई है [हु] निश्चय से [सावि] वह भी [पारंपरेण] परम्परा से [मोक्खस्स य] मोक्ष का [कारणं] कारण [हवइ] होती है ।
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णिहयकसाओ भव्वो दंसणवंतो हु णाणसंपण्णो ।
दुविहपरिग्गहचत्तो मरणे आराहओ हवइ ॥17॥
निष्कषाय, सद्दृष्टि हो, भव्य, ज्ञान संयुक्त ।
आराधक वह अन्त में, द्विविध परिग्रह त्यक्त ॥१७॥
अन्वयार्थ : [णिहयकसाओ] कषायों को नष्ट करने वाला, [भव्वो] भव्य, [दंसणवंतो] सम्यग्दर्शन से युक्त, [णाणसंपण्णो] सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण और [दुविह परिग्गहचत्तो] दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागी पुरुष [मरणे] मरण पर्यन्त [हु] निश्चय से [आराहओ] आराधना करने वाला [हवइ] होता है ।
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संसारसुहविरत्तो वेरग्गं परमउवसमं पत्तो ।
विविहतवतवियदेहो मरणे आराहओ एसो ॥18॥
जो विरक्त, भव सौख्य से, राग हीन, उपशान्त ।
अनशनादि तप जो करे, साधक वह निर्भ्रान्त ॥१८॥
अन्वयार्थ : जो [संसारसुहविरत्तो] संसार सम्बन्धी सुख से विरक्त है, [वेरग्गं परमउवसमं पत्तो] वैराग्य तथा परम उपशम भाव को प्राप्त है और [विविहतवतवियदेहो] नाना प्रकार के तपों से जिसका शरीर तपा हुआ है [एसो] यह जीव [मरणे] मरणपर्यन्त [आराहओ] आराधक [हवइ] होता है ।
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अप्पसहावे णिरओ वज्जियपरदव्वसंगसुक्खरसो ।
णिम्महियरायदोसो हवइ आराहओ मरणे ॥19॥
रहता आत्म-स्वभाव में, द्रव्य, संग सुख त्याग ।
राग-द्वेष को जीतता, वह साधक बड़भाग ॥१९॥
अन्वयार्थ : जो [अप्पसहावे णिरओ] आत्म-स्वभाव में तत्पर है, [वज्जियपरदव्वसंगसुक्खरसो] जिसने पर-द्रव्य के संसर्ग से होने वाले सुख की अभिलाषा को
छोड़ दिया है और जिसने [णिम्महियरायदोसो] राग-द्वेष को नष्ट कर दिया है, ऐसा पुरुष [मरणे] मरण-पर्यन्त [आराहओ] आराधक [हवइ] होता है ।
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जो रयणत्तयमइओ मुत्तूणं अप्पणो विसुद्धप्पा ।
चिंतेइ य परदव्वं विराहओ णिच्छयं भणिओ ॥20॥
रत्नत्रयमय जीव की, करके जो बहु हानि ।
धरे ध्यान पर-द्रव्य का, उसे विराधक जान ॥२०॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [रयणत्तयमइओ] रत्नत्रय स्वरूप [अप्पणो] अपने [विसुद्धप्पा] विशुद्ध आत्मा को [मुत्तूणं] छोड़कर [परदव्वं] पर-द्रव्य की [चिंतेइय] चिन्ता करता है, वह [णिच्छयं] निश्चय से [विराहओ] विराधक [भणिओ] कहा गया है ।
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जो णवि बुज्झइ अप्पा णेय परं णिच्छयं समासिज्ज ।
तस्स ण बोही भणिया सुसमाही राहणा णेय ॥21॥
जो निज को जाने नहीं, ना जाने पर तत्त्व ।
उसे नहीं आराधना, तथा न बोधि पवित्र ॥२१॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरुष [णिच्छयं समासिज्ज] निश्चय नय का आलम्बन कर [अप्पा] आत्मा को [णवि बुज्झइ] नहीं जानता है और [परं] पर को [णवि बुज्झइ] नहीं जानता है [तस्स] उसके [ण बोही भणिया] न बोधि कही गई है, [ण सुसमाही भणिया] न सुसमाधि कही गई है और [णेय आराहणा भणिया] न आराधना ही कही गई है ।
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अरिहो संगच्चाओ कसाय2सल्लेहणा य कायव्वा ।
परिसहचमूण विजओ उवसग्गाणं तहा सहणं ॥22॥
इंदियमल्लाण जओ मणगयपसरस्स तह य संजमणं ।
काऊण हणउ खवओ चिरभवबद्धाइ कम्माइं ॥23॥
परिग्रह-त्याग, कषाय-कृश, परिषह-जय है कार्य ।
सहे तथा उपसर्ग सब, आराधक मुनि आर्य ॥२२॥
जीतते इन्द्रिय-मल्ल सब, रोके चित्त प्रसार ।
ऐसा मुनि चिरबद्ध निज, टाले कर्म प्रचार ॥२३॥
अन्वयार्थ : [खवओ] क्षपक [अरिहो] संन्यास धारण करने के योग्य होता हुआ [संगच्चाओ] संगत्याग [कायव्वा कसायसल्लेहणा] करने योग्य कषाय सल्लेखना, [परिसहचमूण विजओ] परिषह रूपी सेना का विजय [तहा उवसग्गाणं सहणं] तथा उपसर्गों का सहन, [इंदियमल्लाण जओ] इन्द्रिय रूपी मल्लों को जीतना [तहय] और [मणगयपसरस्स संजमणं] मन रूपी हाथी के प्रसार का नियन्त्रण [काऊण] करके
[चिरभवबद्धाइ] चिरकाल से अनेक भवों में बँधे हुए [कम्माइं] कर्मों को [हणउ] नष्ट करे ।
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छंडियगिहवावारो विमुक्कपुत्ताइसयणसंबंधो ।
जीवियधणासमुक्को अरिहो सो होइ सण्णासे ॥24॥
हो विमुक्त सुत, स्वजन से, तजता जो गृह-पाश ।
जीवन, धन, आशा रहित, योग्य उसे संन्यास ॥२४॥
अन्वयार्थ : [छंडियगिहवावारो] जिसने गृह-सम्बन्धी व्यापार छोड़ दिये हैं, [विमुक्कपुत्ताइसयणसंबंधो] जिसने पुत्र आदि आत्मीय जनों से सम्बन्ध छोड़ दिया है और [जीवियधणासमुक्को] जो जीवित तथा धन की आशा से मुक्त है [सो] वह [सण्णासे] संन्यास के विषय में [अरिहो] अर्ह [होइ] होता है ।
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जरवग्धिणी ण चंपइ जाम ण वियलाइ हुंति अक्खाइं ।
बुद्धीजाम ण णासइ आउजलं जाम ण परिगलई ॥25॥
आहारासणणिद्दाविजओ जावत्थि अप्पणो णूणं ।
अप्पाणमप्पणोण य तरइ य णिज्जावओ जाम ॥26॥
जाम ण सिढिलायंति य अंगोवंगाइ संधिबंधाइं ।
जाम ण देहो कंपइ मिच्चुस्स भयेण भीउव्व ॥27॥
जा उज्जमो ण वियलइ संजमतवणाणझाणजोएसु ।
तावरिहो सो पुरिसो उत्तमठाणस्स संभवई ॥28॥
जरा-व्याधि आई नहीं, जब तक करण सशक्त ।
जब तक बुद्धि न नष्ट हो, जब तक आयु प्रशस्त ॥२५॥
भोजन, आसन, नींद पर, जब तक निज अधिकार ।
निर्यापक बन आप ही, तिर सकता संसार ॥२६॥
शिथिल न अंगोपांग है, शिथिल न संधि बन्ध ।
मृत्यु-भीत जिनके सदृश, हो न देह में कम्प ॥२७॥
ज्ञान, ध्यान, तप योग में, शिथिल नहीं उद्योग ।
तब तक करना उचित है, शुभाराधना योग्य ॥२८॥
अन्वयार्थ : [जाम] जब तक [जरवग्घिणी] वृद्धावस्था रूपी व्याघ्री [ण चंपइ] आक्रमण नहीं करती, [अक्खाइं] इन्द्रियाँ [वियलाइं] विकल [ण हुंति] नहीं हो जातीं, [जाम बुद्धी ण णासइ] जब तक बुद्धि नष्ट नहीं होती [जाम आउजलं ण परिगलई] जब तक आयु रूपी जल नहीं गलता, [णूणं] निश्चय से [अप्पणो आहारासण णिद्दा णिजओ जावत्थि] जब तक अपने आपके आहार, आसन और निद्रा पर विजय है, [जाम] जब तक [णिज्जावओ अप्पाणमप्पणोण य तरइ य] अपना आत्मा स्वयं निर्यापकाचार्य बनकर अपने आपको नहीं तारता है, [जाम अंगोवंगाइ संधि बंधाइं य ण सिढिलायंति] जब तक अंगोपांग और सन्धियों के बन्धन ढीले नहीं पड़ जाते, [जाम] जब तक [देहो] शरीर [मिच्चुस्स] मृत्यु [भयेण] भय से [भीउव्व] डरे हुए के समान [ण कंपइ] नहीं काँपने लगता है तथा [संजम तवणाणझाणजोएसु] संयम, तप, ज्ञान, ध्यान और योग में [जा उज्जमो ण वियलइ] जब तक उद्यम नष्ट नहीं होता [ताव] तब तक [सो] वह [पुरिसो] पुरुष [उत्तमठाणस्स] उत्तम स्थान संन्यास के [अरिहो] योग्य [संभवई] होता है ।
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सो सण्णासे उत्तो णिच्छयवाईहिं णिच्छयणएण ।
ससहावे विण्णासो सवणस्स वियप्परहियस्स ॥29॥
निर्विकल्प मुनिराज का, निज स्वभाव विन्यास ।
निश्चयज्ञ परमार्थ से, कहें उसे संन्यास ॥२९॥
अन्वयार्थ : [वियप्परहियस्स] विकल्प रहित जिस [सवणस्स] मुनि को [ससहावे] अपने स्वभाव में [विण्णासे] अवस्थान है [सो] वह [णिच्छयवाईहिं]
निश्चयवादियों के द्वारा [णिच्छयणएण] निश्चय नय से [सण्णासे] संन्यास के विषय में [अरिहो] अर्ह [उत्तो] कहा गया है ॥२९॥
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खित्ताइबाहिराणां अब्भिंतर मिच्छपहुदिगंथाणं ।
चाए काऊण पुणो भावह अप्पा णिरालंबो ॥30॥
अभ्यन्तर संग मोह है, बाह्य क्षेत्र, घर-बार ।
त्याग इन्हें निरलम्ब हो, कर तू आत्म-विचार ॥३०॥
अन्वयार्थ : [खित्ताइबाहिराणां] क्षेत्र आदि बाह्य और [मिच्छपहुदि अब्भिंतरगंथाणं] मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रहों का [चाए] त्याग [काउण] करके [पुणो] पश्चात् [णिरालंबो] निरालम्ब [अप्पा] आत्मा की [भावह] भावना करो ॥३०॥
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संगच्चाएण फुडं जीवो परिणवइ उवसमो परमो ।
उवसमगओ हु जीवो अप्पसरूवे थिरो हवइ ॥31॥
संग त्याग से जीव यह, होता परम प्रशान्त ।
उससे आत्मस्वरूप में, होता सुदृढ़ नितान्त ॥३१॥
अन्वयार्थ : [संगच्चाएण] परिग्रह के त्याग से [जीवो] जीव [फुडं] स्पष्ट ही [परमो उपसमो] परम उपशम भाव को [परिणवइ] प्राप्त होता है [दु] और [उपसमगओ] उपशम भाव को प्राप्त हुआ जीव [अप्पसरूवे] आत्म-स्वरूप में [थिरो] स्थिर [हवइ] होता है ।
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जाम ण गंथंछंडइ ताम ण चित्तस्स मलिणिमा मुंचइ ।
दुविहपरिग्गहचाए णिम्मलचित्तो हवइ खवओ ॥32॥
तजे न जब तक संग यह, तब तक मन अपवित्र ।
द्विविध संग के त्याग से, मुनि होता शुचि चित्त ॥३२॥
अन्वयार्थ : [आराहओ] आराधक [जाम] जब तक [गंथं] परिग्रह को [ण छंडइ] नहीं छोड़ता है [ताम] तब तक [चित्तस्य] मन की [मलिणिमा] मलिनता को [ण मुंचइ] नहीं छोड़ता है [खवओ] क्षपक [दुविह परिग्गहचाए] दो प्रकार के परिग्रह के त्याग से ही [णिम्मलचित्तो] निर्मल चित्त [हवइ] होता है ।
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देहो बाहिरगंथो अण्णो अक्खाणं विसयअहिलासो ।
तेसिं चाए खवओ परमत्थे1 हवइ णिग्गंथो ॥33॥
तजे भोग की लालसा, और बाह्य तनु, ग्रन्थ ।
मुनि दोनों के त्याग से, हो यथार्थ निर्ग्रन्थ ॥३३॥
अन्वयार्थ : [देहो बाहिरगंथो] शरीर बाह्य परिग्रह है और [अक्खाणं विसयअहिलासो] इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा होना [अण्णो अत्थि] अन्तरंग परिग्रह है । [तेसिं] उन का [चाए] त्याग होने पर [खवओ] क्षपक [परमत्थे] परमार्थ से [णग्गंथो] निर्ग्रन्थ [हवइ] होता है ।
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इंदियमयं सरीरं णियणियविसएसु तेसु गमणिच्छा ।
ताणुवरिं हयमोहो मंदकसाई हवइ खवओ ॥34॥
निज-निज विषयों में सदा, इन्द्रियमय तन जाय ।
जो इसको है जीतता, वह मुनि मन्द-कषाय ॥३४॥
अन्वयार्थ : [इंदियमयं सरीरं] इन्द्रियों से तन्मय शरीर [तेसु णियणियविसयेसु] अपने-अपने विषयों में [गमनिच्छा] गमनशील है । [ताणुवरिं] उन विषयों के ऊपर [हयमोहो] जिसका मोह नष्ट हो गया है, ऐसा [खवओ] क्षपक [मंदकसाई] मन्दकषायी [हवइ] होता है ।
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सल्लेहणा सरीरे बाहिरजोएहि जा कया मुणिणा ।
सयलाविसा णिरत्था जाम कसाएण सल्लिहदि ॥35॥
बाह्य योग से साधु जो, करे आप कृशकाय ।
किन्तु व्यर्थ वह है सभी, जब तक रहे कषाय ॥३५॥
अन्वयार्थ : [मुणिणा] मुनि के द्वारा [बाहिरजोएहि] बाह्य योगों के द्वारा [सरीरे जा सल्लेखना कया] शरीर की जो सल्लेखना की गई है [सा सयलावि] वह सबकी सब [ताव] तब तक [निरत्था] निरर्थक है [जाम] जब तक वह [कसाए न सल्लिहदि] कषायों की सल्लेखना नहीं करता ।
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अत्थि कसाया बलिया सुदुज्जया जेहि तिहुवणं सयलं ।
भमइ भमडिज्जंतो चउगइभवसायरे भीमे ॥36॥
त्रिभुवन में दुर्जय विकट, ये कषाय बलवान ।
इससे फिरता जीव नित, चतुर्गति विश्व महान ॥३६॥
अन्वयार्थ : वे [कसाया] कषाय [बलिया] अत्यन्त बलवान और [सुदुज्जया] अत्यन्त कठिनाई से जीतने योग्य [अत्थि] हैं [जेहि] जिनके द्वारा [भमडिज्जंतो] घुमाया हुआ [सयलं तिहुवणं] समस्त त्रिभुवन [भीमे चउगइभवसायरे] भयंकर चतुर्गति रूप संसार-सागर में [भमइ] भ्रमण कर रहा है ।
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जाम ण हणइ कसाए स कसाई णेव संजमी होइ ।
संजमरहियस्स गुणा ण हुंति सव्वे विसुद्धियरा ॥37॥
हो न कषायी संयमी, इससे हनो कषाय ।
संयम बिन गुण अन्य भी, हों न शुद्ध सुखदाय ॥३७॥
अन्वयार्थ : [कसाई] कषाय से सहित [स] वह क्षपक [जाम] जब तक [कसाए ण हणइ] कषायों को नष्ट नहीं करता है [ताव] तब तक वह [संजमी] संयमी [णेव होइ] नहीं होता है और [संजमरहियस्स] संयम से रहित क्षपक के [सव्वे गुणा] समस्त गुण [विशुद्धियरा] विशुद्धि को करने वाले [ण हुंति] नहीं होते ।
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तम्हा णाणीहिं सया किसियरणं हवइ तेसु कायव्वं ।
किसिएसु कसाएसु अ सवणो झाणे थिरो हवइ ॥38॥
इससे ज्ञानी सर्वदा, करें कषायें क्षीण ।
होते मन्द कषाय जब, हो मुनि निज में लीन ॥३८॥
अन्वयार्थ : [तम्हा] इसलिए [णाणीहिं] ज्ञानी जीवों के द्वारा [तेसु] उन कषायों के विषय में [सया] सदा [किसियरणं] कृशीकरण [कायव्वं] करने योग्य [हवइ] है, क्योंकि [कसाएसु य] कषायों के [किसिएसु] कृश किये जाने पर [सवणो] मुनि [झाणे] ध्यान में [थिरो] स्थिर [हवइ] होता है ।
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सल्लेहिया कसाया करंति मुणिणो ण चित्तसंखोहं ।
चित्तक्खोहेण विणा पडिवज्जदि उत्तमं धम्मं ॥39॥
मन्द-कषायी साधु का, क्षुब्ध न होता चित्त ।
नष्ट क्षोभ उस जीव के, प्रकटे धर्म पवित्र ॥३९॥
अन्वयार्थ : [सल्लेहिया] छोड़ी हुई [कसाया] कषायें [मुणिणो] मुनि के [चित्तसंखोहं] चित्त में क्षोभ [ण करंति] नहीं करती हैं और [चित्तक्खोहेण विणा] चित्त क्षोभ में नहीं होने से मुनि [उत्तमं धम्मं] उत्तम धर्म को [पडिवज्जदि] प्राप्त होता है ।
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सीयाई बावीसं परिसहसुहडा हवंति णायव्वा ।
जेयव्वा ते मुणिणा वरउवसमणाणखग्गेण ॥40॥
शीतादिक बाईस ये, विकट परीषह धार ।
उन्हें जीतता साधुवर, ले उपशम तलवार ॥४०॥
अन्वयार्थ : [सीयाई] शीत आदि [बावीसं] बाईस [परिसहसुहडा] परीषहरूपी सुभट [णायव्वा] जानने योग्य [हवंति] हैं, [मुणिणा] मुनि के द्वारा [ते] वे परिषह रूपी सुभट [वरउपसमणाणखग्गेण] उत्कृष्ट उपशमभाव रूपी ज्ञान खड़ग से [जेयव्वा] जीतने योग्य हैं ।
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परिसहसुहडेहिं जिया केई सण्णासओहवे भग्गा ।
सरणं पइसंति पुणो सरीरपडियारसुक्खस्स ॥41॥
विकट परीषह से विजित, तज बैठे संन्यास ।
फिर निज, देह सुखार्थ ही, करे सदन में वास ॥४१॥
अन्वयार्थ : [सण्णासओहवे] संन्यास रूपी युद्ध में [परीसहसुहडेहिं] परीषह रूपी सुभटों के द्वारा [जिया] पराजित [केई] कितने ही लोग [भग्गा] भागकर [पुणो] फिर से [सरीरपडियारसुक्खस्स] शरीर के प्रतीकार - भोजन-वस्त्रादि विषय सुख की [सरणं] शरण में [पइसंति] प्रवेश करते हैं ।
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दुक्खाइं अणेयाइं सहियाई परवसेण संसारे ।
इण्हं सवसो विसहसु अप्पसहावे मणो किच्चा ॥42॥
परवश इस संसार में, भोगे कष्ट अपार ।
स्ववश सही तु इस समय, निज में मन को धार ॥४२॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन् ! तूने [परवसेण] पराधीन हो [संसारे] संसार में [अणेयाइं] अनेक [दुक्खाइं] दुःख [सहियाई] सहन किये [इण्हं] अब [अप्पसहावे] आत्म-स्वभाव में [मणो किच्चा] मन लगाकर [सवसो] स्वाधीनता पूर्वक [विसहसु] सहन कर ।
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अइतिव्ववेयणाए अक्कंतो कुणसि भावणा सुसमा ।
जइ तो णिहणसि कम्मं असुहं सव्वं खणद्धेण ॥43॥
कीजे उपशम भावना, देख परीषह कष्ट ।
होगा क्षणभर में सभी, अशुभोदय तब नष्ट ॥४३॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन् ! [अइतिव्ववेयणाए] अत्यन्त तीव्र वेदना से [अक्कंतो] आक्रान्त हुआ तू [जइ] यदि [सुसमा भावणा] मध्यस्थ भावना [कुणसि] करता है [तो] तो तू [खणद्धेण] आधे क्षण में [सव्वं] समस्त [असुहं] अशुभ [कम्मं] कर्म को [णिहणसि] नष्ट कर सकता है ।
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परिसहभडाण भीया पुरिसा छंडंति चरणरणभूी ।
भुवि उवहासं पविया दुक्खाणं हुंति ते णिलया ॥44॥
दुख-सुभटों से भीत हो, जो तजते संन्यास ।
होता दुख का धाम वह, हो जग में उपहास ॥४४॥
अन्वयार्थ : [परिसहभडाण] परीषह रूपी सुभटों से [भीया] डरे हुए जो [पुरिसा] पुरुष [चरणरणभूी] चारित्र रूपी रणभूमि को [छंडंति] छोड़ देते हैं [ते] वे [भुवि] इस लोक में [उवहासं पविया] उपहास को प्राप्त होते हैं और परलोक में [दुक्खाणं णिलया] दुःखों के स्थान [हुंति] होते हैं ।
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परिसहपरचक्कभिओ जइ तो पइसेहि गुत्तितयगुत्तिं ।
ठाणं कुण सुसहावे मोक्खगयं कुणसु मणवाणं ॥45॥
देख परीषह सैन्य को, कर तू गुप्ति प्रवेश ।
निज स्वभाव में स्थान कर, मन-सर मुक्ति निवेश ॥४५॥
अन्वयार्थ : हे क्षपक ! [जइ] यदि तू [परिसहपरचक्कभिओ] परीषह रूपी परचक्र - शत्रु सेना से भीत है [तो] तो [गुत्तितयगुत्तिं] तीन गुप्ति रूपी दुर्ग में [पइसेहि] प्रवेश कर [ससहावे] अपने स्वभाव में [ठाणं कुण] स्थान कर और [मणवाणं] मन रूपी बाण को [मोक्खगयं] मोक्षगत [कुणसु] कर ।
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परिसहदवग्गितत्तो पइसइ जइ णाणसरवरे जीवो ।
ससहावजलपसित्तो णिव्वाणं लहइ अवियप्पो ॥46॥
ज्ञान-सरोवर मग्न यदि, टले परीषह ताप ।
स्व-स्वभाव-जल सिक्त चित, पाता शिव, हर पाप ॥४६॥
अन्वयार्थ : [परिसहदवग्गितत्तो] परीषह रूपी अग्नि से संतप्त [जीवो] जीव [जइ] यदि [णाणसरवरे] ज्ञान रूपी सरोवर में [पइसइ] प्रवेश करता है तो [ससहावजलपसित्तो] स्वभाव रूपी जल से सींचा जाकर [अवियप्पो] निर्विकल्प होता हुआ [णिव्वाणं] मोक्ष को [लहइ] प्राप्त होता है ।
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जइ हुंति कहवि जइणो उवसग्गा बहुविहा हु दुहजणया ।
ते सहियव्वा णूणं समभावणणाणचित्तेण ॥47॥
कर्मोदय वश साधु को, आये यदि अति कष्ट ।
समता धरता ज्ञान से, हो न किन्तु पर इष्ट ॥४७॥
अन्वयार्थ : [जइ] यदि [कहवि] किसी प्रकार [जइणो] मुनि के [दुहजणया] दुःख को उत्पन्न करने वाले [बहुविहा] नाना प्रकार के [उपसग्गा] उपसर्ग [हु] निश्चय से [हुंति] होते हैं तो [समभावणणाणचित्तेण] चित्त में समताभाव को धारण करने वाले मुनि के द्वारा [ते] वे परिषह [णूणं] निश्चय से [सहियव्वा] सहन करने योग्य हैं ।
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णाणमयभावणाए भवियचित्तेहिं पुरिससीहेहिं ।
सहिया महोवसग्गा अचेयणादीय चउभेया ॥48॥
ज्ञान भावना युक्त नर, सहे महा उपसर्ग ।
उपसर्गों के जानिये, अचेतनादि चतु वर्ग ॥४८॥
अन्वयार्थ : [णाणमयभावणाए] ज्ञान के द्वारा रचित भावना से [भावियचित्तेहिं] वासित चित्त वाले [पुरिससीहेहिं] श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा [अचेयणादीय] अचेतन आदिक [चउभेया] चार प्रकार के [महोवसग्गा] बड़े-बड़े उपसर्ग [सहिया] सहन किये गये हैं ।
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सिवभूइणा विसहिओ महोवसग्गो हु चेयणारहिओ ।
सुकुमालकोसलेहि य तिरियंचकओ महाभीमो ॥49॥
सहे साधु शिवभूति ने, जड़ कृत सब ही क्लेश ।
कौशल श्री सुकुमाल ने, पशु कृत दुःख अशेष ॥४९॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [सिवभूइणा] शिवभूति मुनि के द्वारा [चेयणारहिओ] अचेतनकृत [महोवसग्गो] महान उपसर्ग [विसहिओ] सहन किया गया है [य] और [सुकुमालकोसलेहि] सुकुमाल तथा सुकौशल मुनियों के द्वारा [तिरियंचकओ] तिर्यंचों के द्वारा किया हुआ [महाभीमो] महान भयंकर महोपसर्ग सहन किया गया है ।
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गुरुदत्तपंडवेहिं य गयवरकुमरेहिं तह य अवरेहिं ।
माणुसकउ उवसग्गो सहिओ हु महाणुभावेहिं ॥50॥
पांडव, श्री गुरुदत्त मुनि, गजकुमार सुकुमार ।
सहा इन्होंने मनुजकृत, दुख उपसर्ग अपार ॥५०॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [गुरुदत्तपंडवेहिं] गुरुदत्त तथा पाण्डवों ने [गयवरकुमरेहिं] गजवर कुमार ने [तह य] और [अवरेहिं] अन्य [महाणुभावेहिं] महानुभावों ने [माणुसकउ] मनुष्यकृत [उवसग्गो] उपसर्ग [सहिओ] सहन किया है ।
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अमरकओ उवसग्गो सिरिदत्तसुवण्णभद्दआईहिं ।
समभावणाए सहिओ अप्पाणं झायमाणेहिं ॥51॥
कनकभद्र, श्री दत्त को, हुआ अमर-कृत कष्ट ।
समता से सहते हुए, किया ध्यान सुविशिष्ट ॥५१॥
अन्वयार्थ : [अप्पाणं] आत्मा का [झायमाणेहिं] ध्यान करते हुए [सिरदित्तसुवण्णभद्दआईहिं] श्रीदत्त तथा सुवर्णभद्र आदि मुनियों ने [समभावणाए] समभावना से [अमरकओ] देवकृत, [उवसग्गो] उपसर्ग [सहिओ] सहन किया है ।
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एएहिं अवरेहिं य जहं सहिया थिरमणेहिं उवसग्गा ।
विसहसु तुंपि मुणिवर अप्पसहावे मणं काऊ ॥52॥
इनने त्यों ही अन्य ने, सहा हृदय-दृढ़ त्रास ।
त्यों मुनिवर ! तुम भी सहो, धर चेतन विश्वास ॥५२॥
अन्वयार्थ : [मुणिवर] हे मुनि श्रेष्ठ ! [थिरमणेहिं] स्थिर चित्त के धारक [एएहिं] इन सुकुमाल आदि ने [य] और [अवरेहिं] अन्य संजयन्त आदि मुनियों ने [जहं] जिस प्रकार [उवसग्गा] उपसर्ग [सहिया] सहन किये हैं [तहं] उसी प्रकार [तुंपि] तुम भी [अप्पसहावे] आत्मस्वभाव में [मणं काऊ] मन लगाकर [विसहसु] सहन करो ।
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इंदियवाहेहिं हया सरपीडापीडियंगचलचित्ता ।
कत्थवि ण कुणंति रई विसयवणं जंति जणहरिणा ॥53॥
करण-पारधी से व्यथित, शर-पीड़ा चल चित्त ।
करे प्रेम नहिं नर-हिरण, दौड़ा करे विचित्र ॥५३॥
अन्वयार्थ : [इंदियवाहेहिं] इन्द्रिय रूपी शिकारियों के द्वारा [हया] ताड़ित तथा [सरपीडापीडियंगचलचित्ता] कामरूपी बाण की पीड़ा से पीड़ित शरीर होने के कारण चंचल चित्त [जणहरिणा] मनुष्यरूपी हरिण [कत्थवि] कहीं भी [रई] प्रीति [ण कुणंति] नहीं करते हैं और [विसयवणं] विषयरूपी वन की ओर [जंति] जाते हैं ।
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सव्वं चायं काऊ विसए अहिलससि गहियसण्णासे ।
जइ तो सव्वं अहलं दंसण णाणं तवं कुणसि ॥54॥
सर्व त्याग संन्यास ले, यदि विषयों में आश ।
तो दर्शन, चारित्र में, तेरा व्यर्थ प्रयास ॥५४॥
अन्वयार्थ : [सव्वं चायं काऊ] सर्व त्याग कर [गहियसण्णासे] संन्यास के ग्रहण करने पर भी [जइ] यदि तू [विसए अहिलससि] विषयों की अभिलाषा करता है [तो] तो [सव्वं] समस्त [दंसण णाणं तवं] दर्शन, ज्ञान और तप को [अहलं] निष्फल [कुणसि] करता है ।
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इंदियविसयवियारा जाम2 ण तुट्टंति मणगया खवओ ।
ताव ण सक्कइ काउं परिहारो णिहिलदोसाणं ॥55॥
टले न जौं लौ हृदय-गत, इन्द्रिय विषय विकार ।
तब तक कर सकता न मुनि, सकल दोष परिहार ॥५५॥
अन्वयार्थ : [मणगया] मन में स्थित [इंदियविसयवियारा] इन्द्रिय विषय सम्बन्धी विकार [जाम] जब तक [ण तुट्टंति] नहीं टूटते हैं - नष्ट नहीं होते हैं [ताव] तब तक [खवओ] क्षपक [णिहिलदोसाणं] समस्त दोषों का [परिहारो] त्याग [काउं ण सक्कइ] नहीं कर सकता ।
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इंदियमल्लेहिं जिया अमरासुरणरवराण संघाया ।
सरणं विसयाण गया तत्थवि मण्णंति सुक्खाइ ॥56॥
अमर, असुर, नरवर सभी, प्रकट इन्द्रियाधीन ।
विषयों का आधार ले, रहें उसी में लीन ॥५६॥
अन्वयार्थ : [इंदियमल्लेहिं] इन्द्रिय रूपी सुभटों के द्वारा [जिया] पराजित [अमरासुरणरवराण] देव, धरणेन्द्र और श्रेष्ठ मनुष्यों के [संघाया] समूह [विसयाण] विषयों की [सरणं] शरण को [गया] प्राप्त होते हैं तथा [तत्थपि] उन्हीं में [सुक्खाइ] सुख [मण्णंति] मानते हैं ।
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इंदियगयं ण सुक्खं परदव्वसमागमे हवे जम्हा ।
तम्हा इंदियविरई सुणाणिणो होइ कायव्वा ॥57॥
अक्षज सुख, सुख ही नहीं, पर से तद् उत्पत्ति ।
इसीलिए विद्वान् गण, करते अक्ष विरक्ति ॥५७॥
अन्वयार्थ : हे क्षपक ! [इंदियगयं] इन्द्रियों से होने वाला [सुक्खं] सुख [सुक्खं ण] सुख नहीं है [जम्हा] क्योंकि वह [परदव्वसमागमे] पर द्रव्य के संयोग से होता है [तम्हा] इसलिए [सुणाणिणो] सम्यग्ज्ञानी जीव को [इंदियविरई] इन्द्रिय विषयों से विरक्ति [कायव्वा होइ] करने योग्य है ।
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इंदियसेणा पसरइ मणणरवइपेरिया ण संदेहो ।
तम्हा मणसंजमणं खवएण य हवदि कायव्वं ॥58॥
पाकर मन-नृप प्रेरणा, करण-सैन्य विस्तार ।
मन संयम इससे करे, मुनिजन बारम्बार ॥५८॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] क्योंकि [मणणरवइपेरिया] मन रूपी राजा के द्वारा प्रेरित [इंदियसेना] इन्द्रिय रूपी सेना [पसरइ] फैल रही है [ण संदेहो] इसमें संदेह नहीं है [तम्हा] इसलिए [खवयेण य] क्षपक को [मणसंजमणं] मन का नियन्त्रण [कायव्वं] करने योग्य [हवदि] है ।
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मणणरवइ सुहुभुंजइ अमरासुरखगणरिंदसंजुत्तं ।
णिमिसेणेक्केण जयं तस्सत्थि ण पडिभडो कोइ ॥59॥
मन नरपति है भोगता, क्षण में सुर सुख ठौर ।
इससे जगती में कहीं, मन-सम सुभट न और ॥५९॥
अन्वयार्थ : [मणणरवइ] मन रूपी राजा [अमरासुरखगणरिंदसंजुत्तं] देव, दैत्य, विद्याधर और राजा आदि से सहित [जयं] जगत् को [णिमिसेणेक्केण] एक निमेष मात्र में [सुहुभुंजइ] अपने भोग के योग्य कर लेता है [तस्स] उस मन का [पडिभडो] प्रतिमल्ल [कोई ण अत्थि] कोई भी नहीं है ।
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मणणरवइणो मरणे मरंति सेणाइं इंदियमयाइ ।
ताणं मरणेण पुणो मरंति णिस्सेसकम्माइ ॥60॥
तेसिं मरणे मुक्खो मुक्खे पावेइ सासयं सुक्खं ।
इंदियविसयविमुक्कं तम्हा मणमारणं कुणइ ॥61॥
मन भूपति के मरण से, मरे अक्ष परिवार ।
उनके मरते ही तुरत, टले कर्म का भार ॥६०॥
कर्म नाश से मोक्ष हो, वहाँ सौख्य हो नित्य ।
इससे मन को मारिये, होकर अक्ष विरक्त ॥६१॥
अन्वयार्थ : [मणणरवइणो] मन रूपी राजा का [मरणे] मरण होने पर [इंदियमयाइ] इन्द्रिय रूप [सेणाइं] सेनाएँ [मरंति] मर जाती हैं [ताणं] उनके [मरणेण]मरण के [पुणो] पश्चात् [णिस्सेसकम्माणि] समस्त कर्म [मरंति] मर जाते हैं - नष्ट हो जाते हैं [तेसिं] कर्मों का [मरणे] मरण होने पर [मुक्खो] मोक्ष होता है और [मुक्खे] मोक्ष में [इंदिय विसयविमुक्कं] इन्द्रियों के विषयों से रहित [सासयं] शाश्वत नित्य [सुक्ख] सुख [पावेइ] प्राप्त होता है [तम्हा] इसलिए [मणमारणं] मन का मरण [कुणइ] करो ।
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मणकरहो धावंतो णाणवरत्ताइ जेहिं ण हु बद्धो ।
ते पुरिसा संसारे हिंडंति दुहाइं भुंजंता ॥62॥
ज्ञान-रज्जु से मन-करम, किया न जिसने बद्ध ।
फिरता वह संसार में, दुःखों से हो विद्ध ॥६२॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [जेहिं] जिन पुरुषों के द्वारा [धावंतो] दौड़ता हुआ [मणकरहो] मन रूपी ऊँट [णाणवरत्ताइ] ज्ञान रूपी मजबूत रस्सी के द्वारा [ण बद्धो] नहीं बाँधा गया है [ते पुरिसा] वे पुरुष [संसारे] संसार में [दुहाइं] दुःख [भुंजंता] भोगते हुए [हिंडंति] परिभ्रमण करते हैं ।
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पिच्छह णरयं पत्तो मणकयदोसेहिं सालिसित्थक्खो ।
इय जाणिऊण मुणिणा मणरोही हवइ कायव्वो ॥63॥
शालिसिक्थ मन दोष से, पाता नरक, विलोक ।
मुनिवर, यह सब जानकर, चंचल मन को रोक ॥६३॥
अन्वयार्थ : [पिच्छह] देखो [मणकयदोसेहिं] मन से किये हुए दोषों के कारण [सालिसित्थक्खो] शालिसिक्थ नाम का मत्स्य [णरयं पत्तो] सप्तम नरक को प्राप्त हुआ था । [इय जाणिऊण] ऐसा जान कर [मुणिणा] मुनि के द्वारा [मणरोही] मन का निरोध [कायव्वो] करने योग्य [हवइ] है ।
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सिक्खह मणवसियरणं सवसीहूएण जेण मणुआणं ।
णासंति रायदोसे तेसिं णासे समो परमो ॥64॥
उवसमवंतो जीवो मणस्स सक्केइ णिग्गहं काउं ।
णिग्गहिए मणपसरे अप्पा परमप्पओ हवइ ॥65॥
मनोविजय से मनुज के, राग-द्वेष हों नाश ।
उन दोनों के नाश से, प्रकटे सम अविनाश ॥६४॥
समता वाले जीव का, मन होता है स्वस्थ ।
मन स्थिरत्व से, शीघ्र ही, बने जीव आत्मस्थ ॥६५॥
अन्वयार्थ : अहो मुनिजन हो ! [मणवसियरणं सिक्खह] मन को वश करना सीखो [जेण सवसीहूएण] उसके वशीभूत होने पर [मणुआणं] मनुष्यों के [रायदोसे] राग द्वेष [णासंति] नष्ट हो जाते हैं [तेसिं णासे] उन राग-द्वेषों का नाश होने पर [परमो समो] परम उपशम भाव प्राप्त होता है [उपसमवंतो जीवो] उपशम भाव से युक्त जीव [मणस्स] मन का [णिग्गहं काउं] निग्रह करने के लिए [सक्केइ] समर्थ होता है और [मणपसरे णिग्गहिए] मन का प्रसार रुक जाने पर [अप्पा] आत्मा [परमप्पओ] परमात्मा [हवइ] हो जाता है ।
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जहं जहं विसएसु रई पसमइ पुरिसस्स णाणमासिज्ज ।
तहं तहं मणस्स पसरो भज्जइ आलंबणारहियो ॥66॥
ज्ञानालम्बन से घटे, विषयों का रति भाव ।
त्यों-त्यों होता शीघ्र ही, मन विस्तार अभाव ॥६६॥
अन्वयार्थ : [णाणमासिज्ज] ज्ञान को प्राप्त कर [पुरिसस्स रई] पुरुष की रति [जहं जहं] जिस-जिस प्रकार [विसऐसु] विषयों में [पसमइ] शान्त हो जाती है [तहं तहं] उसीप्रकार [आलंबणारहिओ] आलम्बन से रहित [मणस्स पसरो] मन का प्रसार [भज्जइ] भग्न हो जाता है ।
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विसयालंबणरहिओ णाणसहावेण भाविओ संतो ।
कीलइ अप्पसहावे तक्काले मोक्खसुक्खे सो ॥67॥
विषय-हीन हो जब हृदय, प्रकटे सम्यग्ज्ञान ।
आत्म-रूप शिव सौख्य में, तब हो रक्त महान ॥६७॥
अन्वयार्थ : जब वह मन [विसयालंबणरहिओ] विषयों के आलम्बन से रहित होता हुआ [णाणसहावेण] ज्ञानस्वभाव से [भाविओ संतो] भावित होता है - ज्ञान स्वभाव में लीन होता है [तक्काले] तब [अप्पसहावे] आत्मा के स्वभावभूत [मोक्खसुक्खे] मोक्ष के सुख में [कीलइ] क्रीड़ा करता है ।
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णिल्लूरह मणवच्छो खंडह साहाउ रायदोसा जे ।
अहलो करेह पच्छा मा सिंचह मोहसलिलेण ॥68॥
काट, तोड़ तू चित्त-तरु, राग-द्वेष दो डाल ।
मोह-सलिल सींचो नहीं, विफल करो इस काल ॥६८॥
अन्वयार्थ : [मणवच्छो] मन रूपी वृक्ष को [णिल्लूरह] छेद डालो [जे राय दोसा साहाउ खंडह] उसकी जो राग-द्वेष रूपी दो शाखाएँ हैं, उन्हें खण्डित कर दो [अहलो करेह] फल रहित कर दो और [मोहसलिलेण] मोह रूपी जल से उसे [पच्छा] फिर [मा सिंचह] मत सींचो ।
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णट्ठे मणवावारे विसएसु ण जंति इंदिया सव्वे ।
छिण्णे तरुस्स मूले कत्तो पुण पल्लवा हुंति ॥69॥
विषय न माँगे इन्द्रियें, क्षय हो जाता चित्त ।
नष्ट हुए तरु मूल के, लगे न उसके पत्र ॥६९॥
अन्वयार्थ : [मणवावारे] मन का व्यापार [णट्ठे] नष्ट हो जाने पर [सव्वे इंदिया] समस्त इन्द्रियाँ [विसएसु] विषयों में [ण जंति] नहीं जाती हैं, क्योंकि [तरुस्स] वृक्ष की [मूले] जड़ [छिण्णे] कट जाने पर [पुण] फिर [पल्लवा] पत्ते [कत्तो] कहाँ से [हुंति] हो सकते हैं?
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मणमित्ते वावारे णट्ठुप्पण्णे य वे गुणा हुंति ।
णट्ठे आसवरोहो उप्पण्णे कम्मबंधो य ॥70॥
क्षय, जीवित उस चित्त के, दो गुण हों उत्पन्न ।
एक कर्म आस्रव रुके, द्वितीय कर्म का बन्ध ॥७०॥
अन्वयार्थ : [मणमित्ते] मनोमात्र [वावारे] व्यापार के [णट्ठुप्पण्णे य] नष्ट तथा उत्पन्न होने पर [वे गुणा हुंति] दो गुण - दो कार्य होते हैं । [णट्ठे] नष्ट होने पर [आसवरोहो] आस्रव का निरोध - संवर [य] और [उप्पण्णे] उत्पन्न होने पर [कम्मबंधो] कर्मबन्ध होता है ।
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परिहरिय रायदोसे सुण्णं काऊण णियमणं सहसा ।
अत्थइ जाव ण कालं ताव ण णिहणेइ कम्माइं ॥71॥
राग-द्वेष को त्याग कर, कर निज मन को शून्य ।
तब तक ऐसे हो रहो, कर्म न जब तक क्षीण ॥७१॥
अन्वयार्थ : [जाव कालं] जब तक यह जीव [रायदोसे] राग और द्वेष को छोड़ कर [सहसा] शीघ्र ही [णियमणं] अपने मन को [सुण्णं] शून्य [काऊण] करके [ण अत्थइ] स्थित नहीं होता [ताव] तब तक [कम्माइं] कर्मों को [ण णिहणेइ] नष्ट नहीं करता ।
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तणुवयणरोहणेहिं रुज्झंति ण आसवा सकम्माणं ।
जाव ण णिप्फंदकओ समणो मुणिणा सणाणेण ॥72॥
हो न चित्त निष्पन्द निज, पा जड़-चेतन बोध ।
तनु वाणी के रोध से, हो न कर्म का रोध ॥७२॥
अन्वयार्थ : [जाव] जब तक [समणो] अपना मन [मुणिणा] मुनि के द्वारा [सणाणेण] स्वसंवेदन ज्ञान से [ण णिप्फंदकओ] निश्चल नहीं कर लिया जाता [ताव] तब तक [तणुवयणरोहणेहिं] काय और वचन योग के रोकने मात्र से [सकम्माणं] आत्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त हुए ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अथवा अपने-अपने निमित्त से बँधने वाले कर्मों के [आसवा] आस्रव [ण रुज्झंति] नहीं रुकते हैं ।
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खीणे मणसंचारे तुट्टे तह आसवे य दुवियप्पे ।
गलइ पुराणं कम्मं केवलणाणं पयासेइ ॥73॥
दोनों आस्रव दूर जब, क्षय हो मन व्यापार ।
कर्म पुरातन छूटते, प्रकटे ज्ञान अपार ॥७३॥
अन्वयार्थ : [मणसंचारे] मन का संचार [खीणे] क्षीण होने [तह] तथा [दुवियप्पे] शुभ-अशुभ अथवा द्रव्य और भाव के दो भेद से दो प्रकार का आस्रव [तुट्टे] टूट जाने पर [पुराणं कम्मं] पूर्वबद्ध कर्म [गलइ] नष्ट हो जाता है और [केवलणाणं] केवल ज्ञान [पयासेइ] प्रकट हो जाता है ।
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जइ इच्छहि कम्मखयं सुण्णं धारेहि णियमणो झत्ति ।
सुण्णीकयम्मि चित्ते णूणं अप्पा पयासेइ ॥74॥
चाहो यदि तुम कर्म क्षय, धरो शून्य में चित्त ।
शून्य चित्त में वेग से, प्रकटे आत्म पवित्र ॥७४॥
अन्वयार्थ : [जइ] यदि तू [कम्मखयं] कर्मों का क्षय [इच्छहि] चाहता है तो [णियमणो] अपने मन को [झत्ति] शीघ्र ही [सुण्णं] शून्य [धारेहि] धारण कर [चित्ते सुण्णीकयम्मि] मन के शून्य कर लेने पर [णूणं] निश्चित ही [अप्पा] आत्मा [पयासेइ] प्रकट हो जाता है ।
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उव्वासहि णियचित्तं वसहि सहावे सुणिम्मले गंतुं ।
जइ तो पिच्छसि अप्पा सण्णाणो केवलो सुद्धो ॥75॥
लगा न विषयों में हृदय, कर स्वभाव में वास ।
तो तू देखेगा स्वयं, केवलज्ञान प्रकाश ॥७५॥
अन्वयार्थ : [जइ] यदि तू [णियचित्तं] अपने मन को [उव्वासहि] विषयों से विमुखता को प्राप्त कराता है और [गंतु] परमात्मा को जानने के लिए [सुणिम्मले] अत्यन्त निर्मल [सहावे] समीचीन भाव से युक्त परमात्मा में [वसहि] निवास करता है [तो] तो [सण्णाणो] सम्यग्ज्ञान से तन्मय [केवलो] पर पदार्थों से असंपृक्त तथा [सुद्धो] समस्त उपाधियों से रहित [अप्पा] आत्मा को [पिच्छसि] देख सकता है ।
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तणुणवयणे सुण्णो ण य सुण्णो अप्पसुद्धसब्भावे ।
ससहावे जो सुण्णो हवइ यसो गयणकुसुणिहो ॥76॥
तन, मन, वच से शून्य नर, नहिं स्वभाव से शून्य ।
गगन-कुसुम सम वह सभी, जो स्वभाव से शून्य ॥७६॥
अन्वयार्थ : क्षपक [तणुणवयणे] शरीर, मन और वचन के विषय में तो [सुण्णो] शून्य होता है, परन्तु [अप्पसुद्धसब्भावे] आत्मा के शुद्ध अस्तित्व में [ण य सुण्णो] शून्य नहीं होता । [जो] जो [ससहावे] स्वकीय आत्मा के सद्भाव में [सुण्णो] शून्य [हवइ] होता है [यसो] वह [गयणकुसुणिहो] आकाश के फूल के समान [हवइ] होता है ।
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सुण्णज्झाणपइट्ठो जोई ससहावसुक्खसंपण्णो ।
परमाणंदे थक्को भरियावत्थो फुडं हवइ ॥77॥
निर्विकल्प योगी निजी, भोगे सुख गुण युक्त ।
परमानन्द प्रसक्त वह, भरित कलश-सम तृप्त ॥७७॥
अन्वयार्थ : [सुण्णज्झाणपइट्ठो] शून्य - निर्विकल्पध्यान में प्रविष्ट, [ससहावसुक्खसंपण्णो] आत्म-सद्भाव के सुख से संपन्न और [परमाणंदे] उत्कृष्ट आनन्द में [थक्को] स्थित [जोई] जोगी [फुडं] स्पष्ट ही [भरियावत्थो] पूर्ण कलश के समान भृतावस्थ - अविनाशीक आत्मानन्द रूपी सुधा से संभृत [हवइ] होता है ।
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जत्थ ण झाणं झेयं झायारो णेव चिंतणं किंपि ।
ण य धारणावियप्पो तं सुण्णं सुट्ठु भाविज्ज ॥78॥
ध्यान, ध्येय, ध्याता नहीं, जहाँ न और विकल्प ।
चिन्ता तथा न धारणा, वही ध्यान अविकल्प ॥७८॥
अन्वयार्थ : [जत्थ] जिसमें [ण झाणं झेयं झायारो] न ध्यान है, न ध्येय है, न ध्याता है अर्थात् जो इन तीनों के विकल्प से रहित है, जिसमें [किंपि चिंतणं णेव] किसी प्रकार का चिन्तन नहीं है [य] और [ण धारणावियप्पो] न जिसमें पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी और वारुणी धारणाओं का विकल्प है अथवा जिसमें धारणा - कालान्तर में किसी तत्त्व को विस्मृत न होना तथा विकल्प - असंख्यात लोक प्रमाण विकल्प नहीं है [तं] उसे [सुट्ठु] अच्छी तरह [सुण्णं] शून्य ध्यान [भाविज्ज] समझो ।
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जो खलु सुद्धो भावो सो जीवो चेयणावि सा उत्ता ।
तं चेव हवदि णाणं दंसणचारित्तयं चेव ॥79॥
शुद्ध भाव मय जीव जो, उसे चेतना जान ।
वही चेतना सर्वथा, दर्शन-ज्ञान प्रमाण ॥७९॥
अन्वयार्थ : [खलु] निश्चय से [जो सुद्धो भावो] शुद्धभाव है [सो जीवो] वह जीव है, [सा चेयणावि उत्ता] वही चेतना कही गई है [तं चेव णाणं हवदि] वही ज्ञान है और वही [दंसणचारित्तयं चेव] दर्शन तथा चारित्र है ।
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दंसणणाणचरित्ता णिच्छयवाएण हुंति ण हु भिण्णा ।
जो खलु सुद्धो भावो तमेव रयणत्तयं जाण ॥80॥
दर्शन, ज्ञान, चरित्र में, निश्चय से एकत्व ।
शुद्ध-चेतना भाव ही, रत्नत्रयी पवित्र ॥८०॥
अन्वयार्थ : [णिच्छयवाएण] निश्चय की अपेक्षा [हु] वास्तव में [दंसणणाणचरित्ता] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [भिण्णा ण हुंति] भिन्न नहीं हैं । [खलु] निश्चय से [जो सुद्धो भावो] जो शुद्धभाव है [तमेव] उसे ही [रयणत्तयं] रत्नत्रय [जाण] जानो ।
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तत्तियमओ हु अप्पा अवसेसालंबणेहि परिमुक्को ।
उत्तो स तेण सुण्णो णाणीहि ण सव्वहा सुण्णो ॥81॥
तत् त्रिक मय है आत्मा, सकल विभाव वियुक्त ।
इससे शून्य कहा इसे, नहिं अभावता युक्त ॥८१॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [तत्तियमओ] रत्नत्रय से तन्मय आत्मा [अवसेसालंबणेहिं] राग-द्वेषादि समस्त आलम्बनों से रहित है [तेण] उस कारण [णाणीहि] ज्ञानी जनों के द्वारा [स] वह [सुण्णो] शून्य [उत्तो] कहा गया है [सव्वहा] सब प्रकार से [सुण्णो ण] शून्य नहीं है ।
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एवंगुणो हु अप्पा जो सो भणिओ हु मोक्खमग्गोत्ति ।
अहवा स एव मोक्खो असेसकम्मक्खए हवइ ॥82॥
गुण स्वरूप मय जीव को, मोक्षमार्ग तू जान ।
सर्व कर्म क्षय से मिले, अति पुनीत निर्वाण ॥८२॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [एवंगुणो] इसप्रकार के गुणों से युक्त [जो अप्पा] जो आत्मा है [सो हु] वही [मोक्खमग्गोत्ति] मोक्षमार्ग इस शब्द से [भणिओ] कहा गया है । [अहवा] अथवा [असेसकम्मक्खए] समस्त कर्मों का क्षय होने पर [स एव] वही आत्मा [मोक्खो] मोक्ष [हवइ] होता है ।
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जाम वियप्पो कोई जायइ जोइस्स झाणजुत्तस्स ।
ताम ण सुण्णं झाणं चिंता वा भावणा अहवा ॥83॥
ध्यान युक्त मुनि को रहे, जब तक लेश विकल्प ।
वह है चिन्ता भावना, नहीं ध्यान अविकल्प ॥८३॥
अन्वयार्थ : [झाणजुत्तस्स] ध्यान से युक्त [जोइस्स] मुनि के [जाम] जब तक [कोई वियप्पो] कोई विकल्प [जायइ] उत्पन्न होता है [ताम] तब तक [सुण्णं] शून्य - निर्विकल्प [झाणं] ध्यान [ण] नहीं होता? किन्तु [चिन्ता वा] चिन्ता [अहवा] अथवा [भावणा] भावना होती है ।
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लवणव्व सलिलजोए झाणे चित्तं विलीयए जस्स ।
तस्स सुहासुहडहणो अप्पाअणलो पयासेइ ॥84॥
चित्त ध्यान में लीन हो, जल में लवण-समान ।
जलें शुभाशुभ कर्म सब, है चिद्वह्नि महान ॥८४॥
अन्वयार्थ : [सलिलजोए] पानी के योग में [लवणव्व] नमक के समान [जस्स] जिसका [चित्तं] चित्त [झाणे] ध्यान में [विलीयए] विलीन हो जाता है [तस्स] उस मुनि के [सुहासुहडहणो] शुभ-अशुभ कर्मों को जलाने वाली [अप्पाअणलो] आत्मा रूपी अग्नि [पयासेइ] प्रकट होती है ।
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उव्वसिए मणगेहे णट्ठे णीसेसकरणवावारे ।
विप्फुरिए ससहावे अप्पा परमप्पओ हवइ ॥85॥
शून्य बने मन-गेह जब, अक्ष क्रिया हो नष्ट ।
आतम तब परमात्मा, प्रकटित हो निज इष्ट ॥८५॥
अन्वयार्थ : [मणगेहे] मन रूपी घर के [उव्वसिए] ऊजड़ होने पर [णीसेसकरणवावारे] समस्त इन्द्रियों का व्यापार [णट्ठे] नष्ट हो जाने पर और [ससहावे] स्वकीय स्वभाव को [विप्फुरिए] प्रकट होने पर [अप्पा] आत्मा [परमप्पओ] परमात्मा [हवइ] होता है ।
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इयएरिसम्मि सुण्णे झाणे झाणिस्स वट्टमाणस्स ।
चिरबद्धाण विणासो हवइ सकम्माण सव्वाणं ॥86॥
निर्विकल्प इस ध्यान में, जिस ध्यानी का वास ।
दीर्घ बद्ध उस जीव के, होते कर्म विनाश ॥८६॥
अन्वयार्थ : [इयएरिसम्मि] इसप्रकार के [सुण्णे] शून्य [झाणे] ध्यान में [वट्टमाणस्स] स्थित [झाणिस्स] ध्याता के [चिरबद्धाण] चिरकाल से बँधे हुए [सव्वाणं सकम्माण] समस्त अपने कर्मों का [विणासो] विनाश [हवइ] होता है ।
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णीसेसकम्मणासे पयडेइ अणंतणाणचउखंधं ।
अण्णेवि गुणा य तहा झाणस्स ण दुल्लहं किंपि ॥87॥
कर्मनाश से हो प्रकट, ज्ञानादिक गुण चार ।
तथा और भी हों प्रकट, सुलभ ध्यान से सार ॥८७॥
अन्वयार्थ : [णीसेसकम्मणासे] समस्त कर्मों का नाश होने पर [अणंतणाणचउखंधं] अनन्तज्ञानादि चतुष्टय प्रकट होता है [तहा अण्णेवि गुणा] तथा अन्य गुण भी प्रकट होते हैं । सो ठीक ही है, क्योंकि [झाणस्स] ध्यान के लिए [किंपि] कुछ भी [दुल्लहं] दुर्लभ [ण] नहीं है ।
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जाणइ पस्सइ सव्वं लोयालोयं च दव्वगुणजुत्तं ।
एयसमयस्स मज्झे सिद्धो सुद्धो सहावत्थो ॥88॥
लोकालोक समस्त निज, गुण-पर्याय प्रयुक्त ।
जाने, देखे समय में, उन्हें सिद्ध स्वात्मस्थ ॥८८॥
अन्वयार्थ : [सुद्धो] शुद्ध और [सहावत्थो] स्वभाव में स्थित [सिद्धो] सिद्ध भगवान [एयसमयस्स मज्झे] एक समय के बीच [दव्वगुणजुत्तं] द्रव्य और गुण से युक्त [सव्वं लोयालोयं च] समस्त लोक और अलोक को [जाणइ पस्सइ] जानते-देखते हैं ।
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कालमणंतं जीवो अणुहवइ सहावसुक्खसंभूइं ।
इंदियविसयातीदं अणोवमं देहपरिमुक्को ॥89॥
आत्मजन्य सुख अनुभवें, सिद्ध अपरिमित काल ।
जो सुख विषयातीत है, अनुपम और विशाल ॥८९॥
अन्वयार्थ : [देहपरिमुक्को] शरीर से रहित [जीवो] सिद्धात्मा [कालमणंतं] अनन्त काल तक [इंदियविसयातीदं] इन्द्रिय के विषयों से रहित और [अणोवमं] अनुपम [सहावसुक्खसंभूइं] स्वाभाविक सुख की विभूति का [अणुहवइ] अनुभव करते हैं ।
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एवं णाऊणं आराहउ पवयणस्स जं सारं ।
आराहणचउखंधं खवओ संसारमोक्खट्ठं ॥90॥
चतुराराधन साधना, है प्रवचन का सार ।
आराधे इनको क्षपक, हो जिससे भव पार ॥९०॥
अन्वयार्थ : [इय एवं णाऊणं] इसे इस तरह जान कर [खवओ] क्षपक [संसारमोक्खट्ठं] संसार से मोक्ष प्राप्त करने के लिए [जं पवयणस्स सारं] जो आगम का सार है [तं] उस [आराहणचउखंधं] आराधना चतुष्टय की [आराहउ] आराधना करे ।
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सल्लेखना
धण्णा ते भयवंता अवसाणे सव्वसंगपरिचाए ।
काऊण उत्तमट्ठं सुसाहियं णाणवंतेहिं ॥91॥
धन्य सदा भगवान वे, तजकर जगत पदार्थ ।
साधा अन्तिम काल में, उत्तम आत्मपदार्थ ॥९१॥
अन्वयार्थ : जिन [णाणवंतेहिं] ज्ञानवान जीवों ने [अवसाणे] जीवन के अन्त में [सव्वसंगपरिचाए] समस्त परिग्रह का त्याग [काऊण] कर [उत्तमट्ठं] मोक्ष अथवा समाधिमरण को [सुसाहियं] अच्छी तरह सिद्ध कर लिया है [ते] वे [धण्णा] धन्य हैं और [भयवंता] जगत्पूज्य हैं ।
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धण्णोसि तुं सुज्जस लहिऊणं माणुसं भवं सारं ।
कयसंजमेण लद्धं सण्णासे उत्तमं मरणं ॥92॥
धन्य धन्य! तुम हो क्षपक, पाकर नर-भव सार ।
तन तजकर संन्यास से, करो आत्म उद्धार ॥९२॥
अन्वयार्थ : [सुज्जस] हे निर्मल यश के धारक क्षपक ! [सारं] श्रेष्ठ [माणुसं भवं] मनुष्य भव को [लहिऊणं] प्राप्त कर [कयसंजमेण] संयम धारण करते हुए तुमने [सण्णासे] संन्यास में [उत्तमं मरणं] उत्तम मरण [लद्धं] प्राप्त किया है, इसलिए [तुं] तुम [धण्णोसि] धन्य हो, पुण्यशाली हो ।
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किसिए तणुसंघाए चिट्ठारहियस्स विगयधामस्स ।
खवयस्स हवइ दुक्खं तक्काले कायमणुहूयं ॥93॥
होते ही कृश देह के, करे न वह कुछ काम ।
व्यथित न हो मुनि उस समय, सँभाले परिणाम ॥९३॥
अन्वयार्थ : [तक्काले] संन्यास के समय [तणुसंघाए] शरीर का संघटन [किसिए] कृश होने पर [विगयधामस्स] निर्बल एवं [चिट्ठारहियस्स] चेष्टा रहित [खवयस्स] क्षपक को [कायमणुहूयं] काय और वचन से उत्पन्न होने वाला [दुक्खं] दुःख [हवइ] होता है ।
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जइ उप्पज्जइ दुक्खं कक्कससंथारगहणदोसेण ।
खीणसरीरस्स तुमं सहतं समभावसंजुत्तो ॥94॥
कर्कश संस्तर ग्रहण से, होता हो यदि कष्ट ।
सहन करे तनु-क्षीण यति, धर समभाव विशिष्ट ॥९४॥
अन्वयार्थ : हे क्षपक ! [खीणसरीरस्स] क्षीण शरीर को धारण करने वाले तुम्हें [जइ] यदि [कक्कससंथारगहणदोसेण] कठोर संथारे के ग्रहण रूप दोष से [दुक्खं] दुःख [उप्पज्जइ] उत्पन्न होता है तो [तुं] तुम उसे [समभावसंजुत्तो] समभाव से युक्त होकर [सहतं] सहन करो ।
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तं सुगहियसण्णासे जावक्कालं तु वससि संथारे ।
तण्हाइदुक्खतत्तो णियकम्मं ताव णिज्जरसि ॥95॥
हे समाधि साधक मुने, जब तक संस्तर वास ।
वहाँ तृषादिक कष्ट जो, करे कर्म वह नाश ॥९५॥
अन्वयार्थ : हे क्षपक ! [तं] तुम [सुगहियसण्णासे] संन्यास ग्रहण कर [जावक्कालं] जब तक [संथारे वससि] संथारे पर निवास करते हो [ताव] तब तक [तण्हाइदुक्खतत्तो] तृषा आदि के दुःख से संतप्त होते हुए [णियकम्मं] अपने कर्म की [णिज्जरसि] निर्जरा करते हो ।
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जहं जहं पीडा जायइ भुक्खाइपरीसहेहिं देहस्स ।
तहं तहं गलंति णूणं चिरभवबद्धाणि कम्माइं ॥96॥
क्षुधा परीषह आदि से, हो पीड़ा उत्पन्न ।
चिर भव संचित कर्म सब, उससे होते भिन्न ॥९६॥
अन्वयार्थ : [जहं जहं] जिस-जिस प्रकार [भुक्खाइपरीसहेहिं] क्षुधा आदि परीषहों के द्वारा [देहस्स] शरीर को [पीड़ा] तीव्रतर वेदना [जायइ] उत्पन्न होती है [तहं तहं] उसी-उसी प्रकार क्षपक के [चिरभवबद्धाणि] चिर काल से अनेक भावों में बँधे हुए [कम्माइं] कर्म [णूणं] निश्चित ही [गलंति] गल जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं ।
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तत्तोहं तणुजोए दुक्खेहिं अणोवमेहिं तिव्वेहि ।
णरसुरणारयतिरिए जहा जलं अग्गिजोएण ॥97॥
गतियों में तनु योग से, हुआ दुःखों से तप्त ।
अग्नि योग से नीर ज्यों, होता है संतप्त ॥९७॥
अन्वयार्थ : [अग्गिजोएण] अग्नि के योग से [जलं जहा] जल के समान [अहं] मैं [तणुजोए] शरीर का संयोग होने पर [तिव्वेहि] तीव्र तथा [अणोवमेहिं] अनुपम [दुक्खेहिं] दुःखों के द्वारा [णरसुरणारयतिरिए] मनुष्य, देव, नारकी और तिर्यंच गति में [तत्तो] संतप्त हुआ हूँ ।
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ण गणेइ दुक्खसल्लं इयभावणभाविओ फुडं खवओ ।
पडिवज्जइ ससहावं हवइ सुही णाणा सुक्खेण ॥98॥
ज्ञान भावना युक्त ॠषि, गिने न दुःख को लेश ।
पाता आत्मस्वभाव को, होता सुखी विशेष ॥९८॥
अन्वयार्थ : [इयभावणभाविओ] इसप्रकार की भावना से सुसंस्कृत [खवओ] क्षपक [फुडं] स्पष्ट ही [दुक्खसल्लं] दुःख रूपी शल्य को [ण गणेइ] कुछ नहीं गिनता है [ससहावं] अपने स्वभाव को [पडिवज्जइ] प्राप्त होता है और [णाणासुक्खेण] भेदज्ञान जनित सुख से [सुही] सुखी [हवइ] होता है ।
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भित्तूण रायदोसे छित्तूण य विसयसंभवे सुक्खे ।
अगणंतो तणुदुक्खं 2झायस्स णिजप्पयं खवया ॥99॥
राग-द्वेष को भेद कर, विषय-सुखों को छोड़ ।
क्षपक न तनु दुःख मान तू, निज में निज को जोड़ ॥९९॥
अन्वयार्थ : [खवया] हे क्षपक ! तुम [रायदोसे] राग.द्वेष को [भित्तूण] भेद कर [य] तथा [विसयसंभवे] विषयों से उत्पन्न होने वाले [सुक्खे] सुखों को [छित्तूण] छेद कर [तणुदुक्खं] शरीर के दुःख को [अगणंतो] कुछ नहीं गिनते हुए [णिजप्पयं] स्वकीय आत्मा का [झायस्स] ध्यान करो ।
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जाव ण तवग्गितत्तं सदेहमूसाइं णाणपवणेण ।
ताव ण चत्तकलंकं जीवसुवण्णं खु णिव्वडइ ॥100॥
ज्ञान पवन से देह में, जलती जब तप-ज्वाल ।
चेतन-सोना शुद्ध हो, तज कलंक तत्काल ॥१००॥
अन्वयार्थ : [खु] निश्चय से [जाव] जब तक [जीवसुवण्णं] आत्मा रूपी सुवर्ण [सदेहमूसाइं] अपने शरीर रूपी साँचे [मूस] के भीतर [णाणपवणेण] ज्ञान रूपी वायु द्वारा [तवग्गितत्तं] तप रूपी अग्नि से संतप्त [ण] नहीं होता [ताव] तब तक [चत्तकलंकं] कर्म रूपी
कालिमा से रहित [ण णिव्वडइ] नहीं निकलता / होता ।
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णाहं देहो ण मणो ण तेण मे अत्थि इत्थ दुक्खाइं ।
समभावणाइ जुत्तो विसहसु दुक्खं अहो खवय ॥101॥
नहीं देह मैं मन नहीं, मुझे न है दुःख लेश ।
यों मुनि समता भाव से, सभी सहें दुःख क्लेश ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [अहं] मैं [देहो ण] शरीर नहीं हूँ [मणो ण] मन नहीं हूँ [तेण] इसलिए [इत्थ दुक्खाइं] शरीर और मन में होने वाले दुःख [मे ण अत्थि] मेरे नहीं होते । [समभावणाइ जुत्तो] इसप्रकार की समभावना से युक्त होते हुए [अहो खवय] हे क्षपक ! [दुक्खं विसहसु] दुःख सहन करो ।
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ण य अत्थि कोवि वाही ण य मरणं अत्थि मे विसुद्धस्स ।
वाही मरणं काए तम्हा दुक्खं ण मे अत्थि ॥102॥
मैं विशुद्ध चैतन्य हूँ, मुझमें मरण न व्याधि ।
मरण-व्याधि है काय के, मुझे न दुःख-उपाधि ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [विसुद्धस्स] विशुद्ध स्वभाव को धारण करने वाले मेरे लिए [ण कोवि वाही अत्थि] न कोई शारीरिक पीड़ा है [ण य मरणं अत्थि] और न मेरा मरण है [वाही मरणं] शारीरिक पीड़ा और मरण तो [काए] शरीर में हैं [तम्हा] इसलिए [मे दुक्खं ण अत्थि] मुझे दुःख नहीं है ।
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सुक्खमओ अहमेक्को सुद्धप्पा णाणदंसणसमग्गो ।
अण्णे जे परभावा ते सव्वे कम्मणा जणिया ॥103॥
शुद्ध, एक मैं हूँ सुखी, दृग, अवगम भरपूर ।
कर्म-जनित परभाव जो, वे सब मुझसे दूर ॥१०३॥
अन्वयार्थ : [अहं] मैं [सुक्खमओ] सुखमय [एक्को] एक [सुद्धप्पा] शुद्धात्मा तथा [णाणदंसणसमग्गो] ज्ञान-दर्शन में परिपूर्ण हूँ [अण्णे जे परभावा] अन्य जो
परभाव हैं [ते सव्वे] वे सब [कम्मणा जणिया] कर्म से उत्पन्न हैं ।
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णिच्चो सुक्खसहावो जरमरणविवज्जिओ सयारूवी ।
णाणी जम्मणरहिओ 1इक्कोहं केवलो सुद्धो ॥104॥
जन्म-मरण वर्जित सदा, सुखमय, नित्य, अरूप ।
जरा रहित, ज्ञानी, विमल, मैं केवल चिद्रूप ॥१०४॥
अन्वयार्थ : क्षपक को ऐसी भावना करनी चाहिए कि [अहं] मैं [णिच्चो] नित्य हूँ [सया] सर्वदा [सुक्खसहावो] सुख स्वभाव वाला हूँ [जरमरणविवज्जिओ] जरा और मरण से रहित हूँ [सयारूवी] हमेशा अरूपी हूँ [णाणी] ज्ञानी हूँ [जम्मणरहिओ] जन्म से रहित हूँ [इक्कोहं] एक हूँ [केवली] पर की सहायता से रहित हूँ और [सुद्धो] शुद्ध हूँ ।
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इय भावणाइं जुत्तो अवगण्णिय देहदुक्खसंघायं ।
जीवो देहाउ तुमं कड्ढसु खग्गुव्व कोसाओ ॥105॥
कर ऐसी सद्भावना, देह-दुःख मत मान ।
तन से चेतन भिन्न कर, जैसे कोश-कृपाण ॥१०५॥
अन्वयार्थ : [इय भावणाइं] ऐसी भावना से [जुत्तो] युक्त होकर [तुं] तुम [देह दुक्खसंघायं] शरीर सम्बन्धी दुःखों के समूह की [अवगण्णिय] उपेक्षा कर
[जीवो] जीव को [देहाउ] शरीर से [कोसाओ] म्यान से [खग्गुव्व] तलवार की तरह [कड्ढसु] पृथक् निकालो ।
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हणिऊण अट्टरुद्दे अप्पा परमप्पयम्मि ठविऊण ।
भावियसहाउ जीवो कड्ढसु देहाउ मलमुत्तो ॥106॥
आत्म-तत्त्व में हो सुदृढ़, आर्त्त-रौद्र को छोड़ ।
आत्म-भाव धारक क्षपक, तन से निज को मोड़ ॥१०६॥
अन्वयार्थ : [भावियसहाउ] हे स्वभाव की भावना करने वाले क्षपक ! [अट्टरुद्दे] आर्त और रौद्रध्यान को [हणिऊण] नष्ट कर [अप्पा] आत्मा को [परमप्पयम्मि] परमात्मा में [ठविऊण] लगाकर [मलमुत्तो जीवो] निर्मल जीव को [देहाउ] शरीर से [कड्ढसु] पृथक् करो ।
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कालाई लहिऊणं छित्तूण य अट्ठकम्मसंखलयं ।
केवलणाणपहाणा भविया सिज्झंति तम्मि भवे ॥107॥
पाकर के कालादि को, छेद कर्म-जंजीर ।
होकर केवलज्ञानमय, भव्य तिरें भव नीर ॥१०७॥
अन्वयार्थ : [भविया] भव्य जीव [कालाई लहिऊणं] काल आदि लब्धियों को प्राप्त कर [य] तथा [अट्ठकम्मसंखलयं] आठ कर्मों की शृंखला को [छित्तूण] छेदकर [केवलणाणपहाणा] केवलज्ञान से युक्त होते हुए [तम्मि भवे] उसी भव में [सिज्झंति] सिद्ध हो जाते हैं ।
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आराहिऊण केइ चउव्विहाराहणाइं जं सारं ।
उव्वरियसेसपुण्णा सव्वट्ठणिवासिणो हुंति ॥108॥
पाप-कर्म के उदय से, हो दुर्गति में त्रास ।
बचे हुए कुछ पुण्य से, हो स्वर्गादि निवास ॥१०८॥
अन्वयार्थ : [उव्वरियसेसपुण्णा] जिनकी पुण्य प्रकृतियाँ नष्ट होने से शेष बची हैं, ऐसे [केई] कोई आराधक [चउव्विहाराहणाइं जं सारं] चार प्रकार की आराधनाओं में जो श्रेष्ठ है, उस शुद्ध बुद्ध स्वभाव परमात्मा की [आराहिऊण] आराधना करके [सव्वट्ठणिवासिणो] सर्वार्थसिद्धि में निवास करने वाले [हुंति] होते हैं ।
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जेसिं हुंति जहण्णा चउव्विहाराहणा हु खवयाणं ।
सत्तट्ठभवे गंतुं तेवि य पावंति णिव्वाणं ॥109॥
है जघन्य आराधना, उसको इस विध जान ।
धर कर वे सप्ताष्ट भव, पाते हैं निर्वाण ॥१०९॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [जेसिं] जिन [खवयाणं] क्षपकों के [जहण्णा चउव्विहाराहणा] चार प्रकार की जघन्य आराधनाएँ [हुंति] होती हैं [तेवि य] वे भी [सत्तट्ठभवे] सात-आठ भव [गत्वा] व्यतीत कर [णिव्वाणं पावंति] निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।
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उत्तमदेवमणुस्से सुक्खाइं अणोवमाइं भुत्तूण ।
आराहणउवजुत्ता भविया सिज्झंति झाणट्ठा ॥110॥
अमर, मनुज गति के मधुर, अनुपम, सुख को भोग ।
आराधक ध्यानस्थ जन, होते सिद्ध, अयोग ॥११०॥
अन्वयार्थ : [आराहणउवजुत्ता] आराधना में उपयुक्त तथा [झाणट्ठा] ध्यान में स्थित [भविया] भव्यजीव [उत्तमदेव मणुस्से] उत्तम देव और मनुष्यों में [अणोवमाइं] अनुपम [सुक्खाइं] सुख [भुत्तूण] भोग कर [सिज्झंति] सिद्ध होते हैं ।
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अइ कुणउ तवं पालेउ संजमं पढउ सयलसत्थाइं ।
जाम ण झावइ अप्पा ताम2ण मोक्खो जिणो भणइ ॥111॥
संयम पाले तप तपे, करे शास्त्र-अभ्यास ।
आत्मध्यान बिन, जिन करें, नहीं मुक्ति में वास ॥१११॥
अन्वयार्थ : प्राणी [अइ तवं कुणउ] अत्यन्त तप करे, [संजमं पालेउ] संयम का पालन करे और [सयल सत्थाइं पढउ] समस्त शास्त्रों को पढ़े, किन्तु [जाम] जब तक [अप्पा ण झावइ] आत्मा का ध्यान नहीं करता है [ताम] तब तक [मोक्खो] मोक्ष नहीं होता ऐसा [जिणो भणइ] जिनेन्द्र भगवान कहते हैं ।
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चइऊण सव्वसंगं लिंगं धरिऊण जिणवरिंदाणं ।
अप्पाणं झाऊणं भविया सिज्झंति णियमेण ॥112॥
सर्व परिग्रह त्याग कर, धर जिनेन्द्र का वेश ।
ध्याता निज चैतन्य मुनि, पाता सिद्धि अशेष ॥११२॥
अन्वयार्थ : [भविया] भव्यजीव [सव्वसंगं] सर्व परिग्रह को [चइऊण] छोड़कर [जिणवरिंदाणं] जिनेन्द्र भगवान का [लिंगं] दिगम्बर वेष [धरिऊण] धारण कर तथा [अप्पाणं झाऊण] आत्मा का ध्यान कर [णियमेण] नियम से [सिज्झंति] सिद्ध होते हैं ।
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आराहणाइ सारं उवइट्ठं जेहिं मुणिवरिंदेहिं ।
आराहियं च जेहिं ते सव्वेहं पवंदामि ॥113॥
महा मुनीन्द्रों ने कहा, यह आराधन सार ।
आराधा जिसने इन्हें, वन्दन उन्हें अपार ॥११३॥
अन्वयार्थ : [जेहिं मुणिवरिंदेहिं] जिन मुनिराजों ने [आराहणाइसारं] आराधनासार का [उवइट्ठं] उपदेश दिया है [च] और [जेहिं] जिन मुनिराजों ने [आराहियं] उसकी आराधना की है [ते सव्वे] उन सब की [अहं] मैं [पवंदामि] वन्दना करता हूँ ।
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ण य मे अत्थि कवित्तं ण मुणामो छंदलक्खणं किंपि ।
णियभावणाणिमित्तं रइयं आराहणासारं ॥114॥
मुझमें नहीं कवित्व है, नहीं छन्द का ज्ञान ।
आत्मभावना के लिए, आराधना कृति जान ॥११४॥
अन्वयार्थ : [ण मे कवित्तं अत्थि] न मैं कवि हूँ [य] और [ण किंपि छंदलक्खणं मुणामो] न मैं छंदों का लक्षण जानता हूँ । मैंने तो [णियभावणाणिमित्तं] मात्र
अपनी भावना के कारण [आराहणासारं] आराधनासार [रइयं] रचा है ।
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अमुणियतच्चेण इमं भणियं जं किंपि देवसेणेण ।
सोहंतु तं मुणिंदा अत्थि हु जइ पवयणविरुद्धम् ॥115॥
देवसेन ने वह कहा, जो है आगम सिद्ध ।
शुद्ध करें मुनिजन उसे, जो हो कहीं विरुद्ध ॥११५॥
अन्वयार्थ : [अमुणियतच्चेण] तत्त्व को नहीं जानने वाले [देवसेणेण] देवसेन ने [इमं] यह [जं किंपि] जो कुछ [भणियं] कहा है, इसमें [हु] निश्चय से [जइ] यदि कुछ [पवयणविरुद्धं] आगम से विरुद्ध हो तो [तं] उसे [मुणिंदा] मुनिराज [सोहंतु] शुद्ध कर लें ।
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