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Date : 17-Nov-2022
Index
!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
श्रीमद्-नेमिचंद्र-आचार्यदेव-प्रणीत
श्री
लब्धिसार
मूल प्राकृत गाथा,
आभार :
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-लाब्धिसार नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-भगवत्नेमिचंद्र-आचार्यदेव विरचितं ॥
॥ श्रोतार: सावधान-तया शृणवन्तु ॥मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
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सिद्धे जिणिंदचंदे आयरियन उवज्झाय साहुगणे
वंदिय सम्मद्दं सण-चरित्तलद्धिं परुवेमो ॥1॥
अन्वयार्थ : [सिद्धे] सिद्ध, [जिणिंदचंदे] चन्द्रमा के समान समस्त लोक को प्रकाशित करने वाले अरिहंत, [आयरियन] आचार्यों, [उवज्झाय] उपाध्याय और [साहुगणे] सब साधुओं को [वंदिय] नमस्कार कर [सम्मद्दं सण] सम्यग्दर्शन और [चरित्त] सम्यक्चारित्र की [लद्धिं] प्राप्ति के उपायों को मैं, नेमिचंद आचार्य, [परुवेमो] कहूँगा ।
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चदुगदिमिच्छो सण्णी पुण्णो गब्भज विसुद्ध सागरो
पढमुवसमं स गिण्हदि पंचमवरलद्धि चरिमम्हि ॥2॥
अन्वयार्थ : [चदु] चारो [गदि] गतियों का [मिच्छो] मिथ्यदृष्टि, [सण्णी] संज्ञी, [पुण्णो] पर्याप्तक, [गब्भज] गर्भज, [विसुद्ध] मंद कषायी / विशुद्ध परिणामी, [सागरो] साकार ज्ञानोपयोगी [स] जीव, [पंचमवरलद्धि] पंचमलब्धि के [चरिमम्हि] अंत समय में, [पढमुवसमं] प्रथमोपशम सम्यक्त्व [गिण्हदि] ग्रहण करता है ।
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खयउवसमियविसोही, देसणापाउग्गकरणलद्धि य
चत्तारि वि सामण्णा, करणं सम्मत्तचारित्ते ॥3॥
अन्वयार्थ : [खयउवसमिय] क्षयोपशम, [विसोही] विशुद्धि, [देसणा] देशना, [पाउग्ग] प्रायोग्य और [करणलद्धि] करण, [य] ये पांच लब्धिया है [चत्तारि] जिनमे से आदि की चार [वि सामण्णा] सामान्य है किन्तु [करणं] करणलब्धि होने से [सम्मत्तचारित्ते] सम्यक्त्व / चारित्र अवश्य होता है ।
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कम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा
होदूणुदीरदि जदा तदा खओवसमलद्धि दु ॥4॥
अन्वयार्थ : [कम्ममलपडल] कर्म-मल-पटल अर्थात अप्रशस्त ज्ञानवर्णीय आदि कर्मों के पटल समूह की [सत्ती] शक्ति की [कमा] क्रम से [पडिसमयमणंत] प्रतिसमय अनन्त [गुणविहीण] गुणी हीनता सहित जिस समय [होदूणुदीरदि] उदीरणा होती है [जदा] तब [तदा] उस समय [खओवसमलद्धि] क्षयोपशम लब्धि [दु] होती है ।
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आदिमलद्धिभवो जो भावो जीवस्स सादपाहुदीणं
सत्थाणं पयडीणं बंधण जोगो विसुद्धलद्दी सो ॥5॥
अन्वयार्थ : [आदिम] प्रथम [लद्धि] लब्धि [भवो] होने पर, [सादपाहुदीणं] सातादि [सत्थाणं] प्रशस्त [पयडीणं] प्रकृतियों के [बंधण] बंध [जोगो] योग्य [जीवस्स] जीव के [जो भावो] जो परिणाम होते है [सो] वह [विसुद्धलद्दी] विशुद्धिलब्धि है ।
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छद्दव्वणवपयत्थोपदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो
देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्दी दु ॥6॥
अन्वयार्थ : [छ] छ: [द्दव्व] द्रव्य और [णव] नौ [पयत्थो] पदार्थों का [पदेसयरसूरिपहुदि] उपदेश देने वाले आचार्य आदि से अथवा [देसिद] उपदेशित [पदत्थ] पदार्थों को [धारण] धारण कर [लाहो] लाभान्वित [जो] होना, [वा] वह [तदियलद्दी] तृतिया लब्धि है ।
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अंतोकोडकोडी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं
पाउग्गलद्धिणामा भव्वाभव्वेसु सामण्णा॥7॥
अन्वयार्थ : कर्मों की [ठिदि] स्थिति को [अंतो] अंत: [कोडकोडी] कोड़ाकोड़ी-सागर प्रमाण तथा उनका [रसाण] अनुभाग [विट्ठाणे] द्वि-स्थानिक [जं करणं] करने को [पाउग्गलद्धिणामा] प्रायोग्य लब्धि कहते है । यह [भव्वाभव्वेसु] भव्य और अभव्य के [सामण्णा] समान रूप से होती है ।
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जेट्ठवरट्ठिदिबंधे जेट्ठवरट्ठिदितियाण सत्ते य
ण य पडिवज्जदि पढमुवसमसम्मं मिच्छ जीवो हु ॥8॥
अन्वयार्थ : [जेट्ठवरट्ठिदिबंधे] उत्कृष्ट/जघन्य स्थिति बंध करने वाले [च] तथा [तियाण] स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन तीनों का [जेट्ठवरट्ठिदि] उत्कृष्ट/जघन्य [सत्ते] सत्व [य] वाले [मिच्छ] मिथ्यादृष्टि [जीवो] जीवों के [पढमुवसमसम्मं] प्रथमोपशम सम्यक्त्व [ण] नही [पडिवज्जदि] उत्पन्न [हु] होता है ।
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सम्मतहिमुहमिच्छो विसोहिवड्ढीहि वड्ढमाणो हु
अंतो कोडाकोडि सत्तण्हं बंधणं कुणई ॥9॥
अन्वयार्थ : [सम्मत] प्रथमोपशम सम्यक्त्व के [हिमुह] अभिमुख [मिच्छो] मिथ्यादृष्टि जीव, परिणामों में [वड्ढमाणो] प्रतिसमय वृद्धिंगत [विसोहि] विशुद्धता [वड्ढीहि] वर्धमान हुए [हु] करता है, [सत्तण्हं] वह सात कर्मों का [अंतो] अंत: कोडाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति [बंधणं] बंध [कुणई] करता है ।
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तत्तो उदहिसदस्स य पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय
बंधम्मि पयडिबन्धुच्छेदपदा होंति चोत्तीसा ॥10॥
अन्वयार्थ : [तत्तो] उस [उदहि] उदय से पृथकत्व [सदस्स] सौ सागर हीन स्थिति को बंध कर [पुणोपुणो] पुन:पुन; [पुधत्त] पृथकत्व [मेत्तं] मात्र १०० सागर [उदरिय] उदीरणा करते हुए, [बंधम्मि] स्थितिबंध करने पर [पयडिबन्ध:] प्रकृति बंध [उच्छेद] व्युच्छति के [चोत्तीसा] चौतीस [पदा] स्थान [होंति] होते है ।
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आऊ पडि णिरयदुगे, सुहुमतिये सुहुमदोण्णि पत्तेयं
बादरजुत दोण्णि पदे, अपुण्णजुद बि ति चसण्णिसण्णीसु ॥11॥
अट्ठ-अपुण्णपदेसु वि,पुण्णेण जुदेसु तेसु तुरियेपदे
एइंद्रिय आदावं, थावरणामं च मिलिदव्वं ॥12॥
तिरिगदुगुज्जोवो वि य णीचे अपसत्थगमण दुभगतिय
हुंडासंपत्ते वि य णउंसए वाम-खिलीए ॥13॥
खुज्जद्धंणाराए, इत्थिवेदे य सादिणाराए
णाग्गोधवज्जणाराए, मणुओरालदुगवज्जे ॥14॥
अथिरअसुभजस-अरदी सोय-असादे य होंति चोतिसा
बंधोसरणट्ठाणा, भव्वा भव्वेसु सामाण्णा ॥15॥
अन्वयार्थ : [आऊ] आयुबंध व्युच्छित्ति स्थानों के पश्चात [पडि] क्रमश: [णिरयदुगे] नरक-द्विक , [सुहुमतिये] सूक्ष्म तीन , [सुहुमदोण्णि] सूक्ष्म दो , व [बादरजुत द्वि] , [पत्तेयं] प्रत्येक, अपर्याप्त [दोण्णिपदे] द्वीन्द्रिय, [अपुण्णजुद] अपर्याप्त सहित [बितिचसण्णि] त्रीन्द्रिय चतुरिंद्रिय अपर्याप्त [असण्णी] असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त [सण्णीसु] संज्ञी पंचेन्द्रिय ।
उपर्युक्त [अट्ठ] आठ [अपुण्ण] अपर्याप्त [पदेसु] पदों [वि] के स्थान पर [पुण्णेण] पर्याप्त [जुदेसु] जैसे [तेसु] वैसे और [तुरिये] चौथे [पदे] पद में [एइंद्रिय] एकेन्द्रिय [आदावं] आतप [थावरणामं] स्थावर [च] भी [मिलिदव्वं] लगाना है ।
उसके बाद क्रम से, आयु से शत सागरोपम पृथकत्व नीचे - नीचे उतर कर संयोग-रूप [तिरिगदुगुज्जोवो] तिर्यञ्चद्विक -- तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी उद्योत का युगपत, [णीचे] नीच गोत्र [अपसत्थगमण] अप्रशस्त विहायोगगति, [दुभगतिय] दुर्भग -- दुःस्वर और अनादेय चार प्रकृतियों का युगपत, [हुंडासंपत्ते] हुंडक-संस्थान - सृपाटिका संहनन प्रकृतियों कस युगपत, [णउंसए] नपुंसक वेद प्रकृति [वि] की भी [य] तथा [वाम] वामन संस्थान व [खिलीए] कीलितसंहनन प्रकृति के व्युच्छिति प्राप्ति के क्रमश: २३, २४, २५, २६, २७ और २८वे स्थान है ।
उसके बाद स्थान की आयु से प्रत्येक स्थान से क्रमश: शतसागरोपम पृथकत्व नीचे-नीचे उत्तर कर [खुज्ज] कुब्जक संस्थान और [द्धंणाराए] अर्द्धनाराच शरीर / संहनन , [इत्थिवेदे] स्त्रीवेद् , [सादि] स्वाति संस्थान और [णाराए] नाराचशरीर संहनन , [णाग्गोध] न्योग्रोधपरिमंडलसंस्थान [य] और [दुग] दो-दो [वज्जणाराए] वज्रनाराचशरीरसंहनन , [मणु] संयोग रूप मनुष्य गति / मनुष्यानुपूर्वी, [ओराल] औदारिक शरीर / औदारिक अंगोपांग और [वज्जे] वज्रऋषभनाराच शरीर संहनन के २९वे, ३०वे, ३१वे, ३२वे और ३३वे बंध व्युच्छिति के स्थान है ।
उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर [अथिर] अस्थिर [असुभजस] अशुभ, अयश:कीर्ति [अरदी] अरति, [सोय] शोक और [असादे] असातावेदनीय,छः प्रकृति का युगपत बंधव्युच्छेद [होंति] होता है । इस प्रकार [बंधोसरणट्ठाणा] बंध व्युच्छित्ति के कुल [चोतिसा] चौतीस [स्थाननी] स्थान है । ये [भव्वा] भव्य और [अभव्वेसु] अभव्य दोनों जीवों के [सामाण्णा] समान रूप है ।
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णर तिरियाणं ओघो भवणति-सोहम्मजुगलाए विदियं
तदीयं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥16॥
ते चेव चोदस् पदा अट्ठार समेण हीणया होंति
रयणादिपुढविछक्के सणक्कुमरादिदसकप्पे ॥17॥
ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा
आणद कप्पादुवरिमगेवेज्जंतो त्ति ओसरणा ॥18॥
अन्वयार्थ : [णर] मनुष्य और [तिरियाणं] तिर्यंच गति में [ओघो] साधारण अर्थात ३४ बंधापसरण होते हैं । जिनके बंध योग्य ११७ प्रकृतियों में से, आदि के छ स्थान विषय ९; १८वे स्थान विषय ऐकेन्द्रिय-३; १९, २०, २१ वे संबंधी द्वी, त्रि, चतुर इन्द्रिय-३ प्रकृति और २३वें ३४वें तक १२ स्थान संबंधी ३१, कुल ४६ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । शेष ७१ बंधने योग्य रहती है । [भवणति] भवनत्रिक और [सोहम्मजु] सौधर्म [जुगलाए] युगल में [विदियं] दूसरा, [तदीयं] तीसरा, [अट्ठारसमं] अठारहवां, [तेवीसदिमादि] तेईसवें को आदि लेकर ३२ वे तक [दसपदं] १० स्थानों तक तथा [चरिमं] अंतिम ३४वां कुल १४ बन्धापसरण होते हैं जिनमे ३१ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है ।
होते है।
[रयणादि] रत्नप्रभादि [छक्के] ६ [पुढ] पृथ्वियों के [वि] विषय में [ते] उपर्युक्त [अथण] कहे गए [चोदस्पदा] १४ प्रकृति बंध प्रसारणों में [अट्ठार] १८वें [परिहीणा] अतिरिक्त १३ स्थान होते है जिसमे २८ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । वहां बंध योग्य सौ में से ७२ का ही बंध शेष रहता है।
[आणद] आनत [कप्पा] कल्प से लेकर उपरिम ९वे [गेवेज्जंतो] गैवियक [दुवरिम] पर्यंत उपर्युक्त [तेरस] तेरह पृकृति बंध [ओसरणा] पसरणों स्थानों में से [विदिएण] दूसरा [य] और [तेवीसदिमेण] २३वा बन्धापसरण नही होता शेष ११ बन्धापसरण [त्ति] होते है। इनमे २४ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है ।
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ते चेवेक्कार पदा तदिऊणा विदियठाणसंपत्ता
चउवीसदि मेणू णा सत्तमिपुढविम्हि ओसरणा ॥19॥
अन्वयार्थ : सातवी पृथ्वी में, [ते] गाथा १८ में [चेवेक्कार] उल्लेखित ११ [पदा] बन्धापसरण में से [चउवीसदिमेणू] चौबीसवाँ बन्धापसरण [णा] नही होता, किन्तु [विदिय] दूसरा [ठाण] स्थान / बन्धापसरण [संपत्ता] होता है । इस प्रकार [सत्त] सातवी [मिपुढविम्हि] पृथ्वी केवल १० [ओसरणा] बन्धापसरण होते हैं ।
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घादिति सादं मिच्छं कसायपुं हस्सरदि भयस्स दुगं
अपमत्तडवीसच्चं बंधंती विसुद्धणरतिरिया ॥20॥
अन्वयार्थ : [विसुद्ध] विशुद्ध [णर] मनुष्य और [तिरिया] तिर्यंच; मिथ्यादृष्ट, गर्भज, संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख प्रायोग्यलब्धि में स्थित, जिसने ३४ बंध पसरणो में ४६ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति कर दी है),; [घादिति] तीन घातिया कर्मों -- ; [सादं] सातावेदनीय, [मिच्छं] मिथ्यात्व, [कसाय] १६ कषाय , [पुं] पुरुषवेद, [हस्सरदि] हास्य, रति, [भयस्स दुगं] भय, जुगुप्सा; [अपमत्तडवीस] अप्रमत्तगुणस्थान संबंधी-२८, [उच्च] उच्च गोत्र, इस प्रकार कुल ७१ प्रकृतियों का [बंधंती] बंध करते है ।
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देव-तस वण्ण-अगरुचउक्कं समचउरतेजकम्मइं
सग्गमणं पंचिंदी थिरादिछण्णिमिणमडवीसं ॥21॥
अन्वयार्थ : [देव] देव [चउक्कं] चतुष्क , [तस] त्रस [चउक्कं] चतुष्क, [वण्ण] वर्ण [चउक्कं] चतुष्क, [अगरु] अगुरुलघु [चउक्कं] चतुष्क , [समचउर] समचतुरस्र-संस्थान, [तेज] तेजस, [कम्मइं] कार्माण-१, [सग्गमणं] शुभ विहायोगति, [पंचिंदी] पंचेन्द्रिय, [थिरादिछ] स्थिरादि छः-६ और [ण्णिमिण] निर्माण, अप्रमत्तगुण स्थान संबंधी [मडवीसं] २८ कर्म प्रकृतियाँ अप्रमत्त गुणस्थान संबंधी बंधने वाली है ।
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तं सुरचउक्कहीणं णरचउवज्जजुद पयडिपरिमाणं
सुरछ्प्पुढवीमिच्छा सिद्धोसरणा हु बंधति ॥22॥
अन्वयार्थ : [तं] उन,उक्त ७१ प्रकृतियों में से [सुर] देव [चउक्क] चतुष्क [हीणं] को कम करके [णर] मनुष्य [चउ] चतुष्क तथा [वज्ज] वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन को [जुद] मिलाने से, [सिद्धोसरणा] बन्धापसरण [हु] करने के पश्चात, [मिच्छा] मिथ्यादृष्टि [सुर] देव और [छ्प्पुढवी] छटी पृथ्वी तक के [मिच्छा] मिथ्यादृष्टि नारकी, [परिमाणं] कुल ७२ [यडिप] प्रकृतियों का [बंधति] बंध करते है।
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तं णरदुगुच्चहीणं तिरियदु णीच जुद पयडिपरिमाणं
उज्जोवेण जुदं वा सत्तमखिदिगा हु बंधंति ॥23॥
अन्वयार्थ : प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सातवी पृथ्वी का नारकी, [तं] पूर्वाक्त ७२ प्रकृतियों में से [णर] मनुष्य [दुगुच्च] द्विक; मनुष्यगति और मनुषगत्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्र को [हीणं] कम करने से तथा [तिरियदु] तिर्यंचगति [द्विक] द्विक ;तिर्यंच गति और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी तथा [णीच] नीच गोत्र को [जुद] मिलाने से [पयडिपरिमाणं] ७२ प्रकृतियाँ का बंध करता है । यदि [उज्जोवेण] उद्योत प्रकृति [जुदं] मिलाई जाती है तो सातवी पृथ्वी का नारकी [सत्तमखिदिगा] ७३ प्रकृति का [हु] ही [बंधंति] बंध करते है ।
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अंतों कोडाकोड़ीठिदिं अस्तथाणं सत्थगाणं च
बिचउठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणदि ॥24॥
अन्वयार्थ : बंधने योग्य कर्म प्रकृतियों का [अंतों] अंत: [कोडाकोड़ी] कोटाकोटिसागरोपम प्रमाण ही [ठिदिं] स्थिति-बंध [कुणदि] करता क्योकि वह विशुद्धतर परिणामों से युक्त होता है ,उससे अधिक स्थितिबंध असम्भव है तथा [अस्तथाणं] अप्रशस्त कर्म प्रकृतियों का [बि] द्वि [ठाण] स्थानीय अनंत अनंत गुणा घटते हुए [च] और [सत्थगाणं] प्रशस्त प्रकृतियों का [चउ] चतु: [ठाण] स्थानीय [रसं] अनुभाग [बंधणं] बंध प्रति समय अनंत अनंत गुणा वृद्धिंगत बांधता है।
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मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थ गमण सुभगतीयं
णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु ॥25॥
अन्वयार्थ : [प] प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख [मिच्छ] मिथ्यात्व / अन्नतानुबन्धी चतुष्क , [णथीण] स्तयानगृद्धादि-त्रिक , [सुरचउ] देव-चतुष्क , [सम] समचतुरस्र-संस्थान, [वज्ज] वज्रवृषभनाराच-संहनन, [पसत्थ] प्रशस्त [गमण] विहायोगगति, [सुभगतीयं] सुभगादितीन , [णीच] नीच गोत्र, इन १९ कर्म प्रकृतियों का [उक्कस्स] उत्कृष्ट [वा] और [अणुक्कस्सं] अनुत्कृष्ट [पदेसं] प्रदेश [बंधदि] बंध [हु] करते हैं ।
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एदेहिं विहीणाणं तिण्णि महादंडएसु उत्ताणं
एकट्ठिपमाणाणमणुक्कस्सपदेसंबंधणं कुणदि ॥26॥
अन्वयार्थ : [एदेहिं] गाथा २५ में कही १९ कर्म प्रकृतियों [विहीणाणं] से रहित [तिण्णि] तीन [महादंडएसु] महादण्डक अर्थात २१, २२, २३ शेष [एकट्ठि पमाणाणं] ६१ प्रकृतियों का [अणुक्कस्स] अनुत्कृष्ट [पदेसं] प्रदेश [बंधणं] बंध [कुणदि] करते हैं ।
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पढमे सव्वे विदिये पण तिदिये चउ कमा अपुणरुत्ता
इदि पयडीणमसीदी तिदंडएसु वि अपुणरुत्ता ॥27॥
अन्वयार्थ : [पढमे] प्रथम की [सव्वे] सभी, [विदिये] द्वितीय की [पण] पांच और [तिदिये] तृतीय की [चउ] ४ प्रकृति [कमा] क्रमश: [अपुणरुत्ता] अपुनरुक्त है, [इदि] ये [तिदंड] तीन दण्डक [एसु] संबंधी ८० [पयडी] प्रकृतियाँ [अपुणरुत्ता] अपुनरुक्त है ।
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उदये चउदसघादी णिद्दापयलाणमेक्कदरंग तु
मोहे दस सिय णामे वचिठाणं सेसगे सजोगेक्कं ॥28॥
अन्वयार्थ : तीन [घादी] घातिया-कर्मों की [चउदस] चौदह प्रकृतियों, [णिद्दा] निद्रा और [पयलाणमें] प्रचला में से [क्कदरंग] किसी एक, [मोहे] मोहनीयकर्म की [सिय] स्यात् [दस] १० प्रकृतियों, [णामे] नाम-कर्म की [वचिठाणं] भाषा पर्याप्ति काल में उदय योग्य प्रकृतियां और [सेसगे] शेष की [क्कं] एक-एक प्रकृति [सजोगे] मिला लेने चाहिए । ये सर्व प्रकृतियाँ [उदये] उदय योग्य हैं ।
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उद इल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि
विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥29॥
अजहण्णमणुक्कस्स्प्देसमणुभवदि सोदयाणं तु
उद्यिल्लाणं पयडिचउक्काणमुदीरगो होदि ॥30॥
अन्वयार्थ : [उदइल्लाणं] उदयवान प्रकृतियों का [उदये] उदय प्राप्त होने पर [पत्तेक्कठिदिस्स] एक स्थिति का [वेदगो] वेदक [होदि] होता है । [असत्थे] अप्रशस्त प्रकृतियों के [विच] द्वि [उट्ठाणं] स्थानरूप और [सत्थे] प्रशस्त प्रकृतियों कर [चतु:] चतु:स्थानरूप उदयमान [रस] अनुभाग को [भुत्ती] भोगता है ।
[उदयल्ल] उदरूप प्रकृतियों के [अजहण्णम] अजघन्य [णुक्कस्स्प्देसम] अनुत्कृष्ट प्रदेशों को [णुभवदि] अनुभव करता है । [उद्यिल्लाणं] उदयस्वरूप [पयडि] प्रकृतियों के [चउक्काणं] प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग का [उदीरगो] उदीरणा [होदि] करता है ।
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दुति आउ तित्थहारचाउक्कणा सम्मेगण हीणा
मिस्सेणूना वा वि य सव्वे पयडी हवे सत्तं ॥31॥
अन्वयार्थ : [दु] दो, या [ति] तीन [आउ] आयु, [तित्थ] तीर्थंकर और [हार] आहारक [चाउक्कणा] चतुष्क; [सम्मेगण] सम्यक्त्व [वा] तथा [मिस्सेणूना] सम्यकमिथ्यात्व प्रकृतियों के [हीणा] अतिरिक्त [सव्वे] सब [पयडी] प्रकृतियों का [सत्तं] सत्त्व [हवे] रहता है ।
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अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदितियं होदि सत्तपयडीणं
एवं पयडिचउक्कं बंघादिसु होदि पत्तेयं ॥32॥
अन्वयार्थ : [सत्तपयडीणं] उक्त सत्त्व प्रकृतियों का [ठिदितियं] स्थितित्रिक [अजहण्णमणुक्कस्सं] अजघन्य-अनुत्कृष्ट [होदि] होता है । [बंघादिसु] बन्धादि [पत्तेयं] प्रत्येक में इसी प्रकार [पयडिचउक्कं] प्रकृति चतुष्क [होदि] होता है।
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तत्तो अभव्वजोग्गं परिणामं बोलिऊण भव्वो हू
करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुव्वमणियट्टिं ॥33॥
अन्वयार्थ : [तत्तो] उस अर्थात प्रायोग्य लब्धि के बाद [अभव्वजोग्गं] अभव्य योग्य [परिणामं] परिणामों का [बोलिऊण] उल्लंघन कर [भव्वो] भव्य जीव [हू] ही अधिक वृद्धिगत विशुद्ध परिणामों के द्वारा [करणं] करण लब्धि को जो [कमसो] क्रमश: [अधापवत्तं] अध:प्रवृत्त करण, [अपुव्वमणियट्टिं] अपूर्व करण और अनिवृत्ति करण [करेदि] प्राप्त करता है ।
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अंतोमुहुत्तकाला तिण्णिवि करणा हवंति पत्तेयं
उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूवेण ॥34॥
अन्वयार्थ : [तिण्णिवि] तीनों [करणा] करणों में [पत्तेयं] प्रत्येक का [अंतोमुहुत्तकाला] अन्तर्मुर्हूर्त प्रमाणकाल [हवंति] होता है । किन्तु [उवरीदो] ऊपर से नीचे करणों का काल [संखेज्जरूवेण] संख्यात गुणा [गुणियकमा कमेण] क्रम लिए हुए है ।
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जम्हा हेट्ठीमभावा उवरिम भावेहिं सरिसगा होंति
तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोति णिद्दिट्ठं ॥35॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] क्योंकि [हेट्ठीमभावा] अधस्तन अर्थात नीचे के भाव [उवरिम] उपरितन [भावेहिं] भावों के [सरिसगा] सदृश [होंति] होते है [तम्हा] इसलिए [पढमं] प्रथम [करणं] करण को [अधापवत्तोत] अध:प्रवृत्तकरण [णिद्दिट्ठं] कहा गया है ।
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समय समय भिण्णा भावा तम्हा अपुव्व करणो दु
अणियट्टीवि तहं वि य पडिसमयं एक्कपरिणामो ॥36॥
अन्वयार्थ : [समय समय] प्रति समय [भिण्णा] भिन्न [भावा] भाव होते हैं [तम्हा] इसलिए [अपुव्व करणो] अपूर्वकरण [दु] है [य] तथा [पडि समय] प्रति समय [एक्कपरिणामो] एक समान परिणाम होते है [वि] वह [अणियट्टीवि] अनिवृत्तिकरण है
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गुणसेढी गुणसकम ठिदिरसखंडं च णत्थि पढमम्हि
पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्ढिहिं वड्ढदि हु ॥37॥
अन्वयार्थ : [पढमम्हि] प्रथम; अध:करण में [गुणसेढी] गुणश्रेणि, [गुणसकम] गुणसंक्रमण, [ठिदि] स्थिति [खंडं] खण्ड [च] और [रस] अनुभागखण्ड [णत्थि] नहीं होते, किन्तु [पडि] प्रति [समयम्] समय परिणामों में [अणंतगुणं] अनंतगुणी [वड्ढिहिं] वृद्धिंगत [विसोहि] विशुद्धि [वड्ढदि] बढती [हि] है ।
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सत्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणंरसं च बंधदि हु
पडिसमयणंतेण य गुणभजियक्मं तु रसबंधे ॥38॥
अन्वयार्थ : [सत्थाणमसत्थाणं] प्रशस्त प्रकृतिओं का प्रति समय अनंत गुणा [चउ] चतुः [ट्ठाणं] स्थानरूप [रसं] अनुभाग [बंधदि] बंध होता [हि] है [च] और अप्रशस्त प्रकृतियों का [पडि] प्रति [समयणंतेण] समय अनंतवे [गुणभज] भाग मात्र [वि] द्वी स्थानीय [क्मं] क्रम से [रसबंधे] अनुभाग बंध होता है ।
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पल्लस्स संखभागं मुहूत्तअंतेण ओसरदि बंधे ॥
संखेज्जसहस्साणि य अधापवत्तम्मि ओसरणा ॥39॥
अन्वयार्थ : अध:करण के प्रथम समय से, [मुहूत्तअंतेण] अन्तर्मुर्हूत अंतराल से [पल्लस्स] पल्य का [संखभागं] संख्यात्वां भाग [ओसरदि] घटता हुआ [बंधे] स्थिति-बंध होता रहता है । [य अधापवत्तम्मि] अध:प्रवृत्त करण काल में [संखेज्जसहस्साणि] संख्यात हज़ार [ओसरणा] स्थिति-बन्धापसरण होते रहते हैं ।
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आदिमकरणद्धाए पढमट्ठिदिबंधदो दु चरिमम्हि
संखेज्जगुणविहीणो ट्ठिदिबंधो होइ णियमेण ॥40॥
अन्वयार्थ : [आदिमकरणद्धाए] अध:प्रवृत्तकरण काल के आदि में जो [पढम] प्रथम [ट्ठिदिबंधदो] स्थिति-बंध होता है, [दु] तथा उससे [चरिमम्हि] अंत में [म्हि] होना वाला [ट्ठिदिबंधो] स्थिति बंध [णियमेण] नियम से [संखेज्जगुणविहीणो] संख्यातगुणाहीन होता है ।
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तच्चरिमे ठिदिबंधो आदिमसम्मेण देससयलजमं
पडिवज्जमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण हीणकमो ॥41॥
अन्वयार्थ : [तच्चरिमे] इस चरम [ठिदिबंधो] स्थिति बंध से [देससयलजमं] देश / सकल संयम सहित [आदिमसम्मेण] प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले जीव के स्थिति बंध [संखेज्जगुणेण] संख्यात गुणा [हीण] हीन होता है ।
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आदिमकरणद्धाए पडिसमयमसंलेखलोगपरिणामा
अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥42॥
अन्वयार्थ : [आदिमकरणद्धाए] आदि करण के काल में, [पडिसमयम] प्रतिसमय [अहिय] अधिक [कमा] क्रम [हु] लिए हुए [असंलेखलोग] असंख्यात लोक प्रमाण [परिणामा] परिणाम होते है । [विसेसे] विशेष को प्राप्त करने के लिए, [मुहुत्तअंतो] अन्तर्मुहूर्त प्रमाण [पडिभागो] प्रतिभाग [हु] है ।
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ताए अधा पवत्तद्धाय संखेज्जभागमेत्तं तु
अणुकट्टीए अद्धा णिव्वग्गणकंडयं तं तु ॥43॥
अन्वयार्थ : [ताए] उस [अधा] अध: [पवत्तद्धाय] प्रवृत्तकरण के काल का [संखेज्जभागमेत्तं] संख्यात्वा भाग प्रमाण [अणुकट्टीए] अनुकृष्ट रचना का [अद्धा] आयाम [तु] है, [तंतु]जितने समय का वह [अद्धा] आयाम है उतने समय का एक [णिव्वग्गणकंडयं] निर्वर्गणाकाण्डक होता है ।
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पडिसमयगपरिणामा णिव्वग्गणसमयमेत्तंखंडकमा
अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥44॥
अन्वयार्थ : [णिव्वग्गण] निर्वर्गणा काण्ड के [समयमेत्तं] समय मात्र के समान [पडिसमयग] प्रति समय के [परिणामा] परिणामों के [कमा] क्रमश: खंड [अहियकमा] अधिक क्रम वाले [हु] होते है । यहां [विसेसे] विशेष को प्राप्त करने का [पडिभागो] प्रतिभाग [मुहुत्तअंतो] अन्तर्मुर्हूत प्रमाण काल [हु] है ।
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