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Date : 17-Nov-2022
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!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
आचार्य माणिक्यनंदि-देव-विरचित
श्री
परीक्षामुख
मूल संस्कृत सूत्र
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबिधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीपरीक्षामुख नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीमाणिक्यनंदिदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
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परिच्छेद-1
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः ।
इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ॥
अन्वयार्थ : [प्रमाणात्] प्रमाण से [अर्थसंसिद्धि:] अर्थ की सम्यक् प्रकार सिद्धि होती है तथा [तदाभासात्] उसके आभास से [विपर्ययः] विपरीत होता है, इष्ट की संसिद्धि नहीं होती है [इति] इसलिए [तयोः] उन दोनों - के [सिद्धिम्] पूर्वाचार्यों से प्रसिद्ध एवं पूर्वापर विरोध से रहित [अल्पं] संक्षिप्त [लक्ष्म] लक्षण को [लघीयसः] लघुजनों के हितार्थ [वक्ष्ये] मैं कहूँगा।
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स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥1॥
अन्वयार्थ : स्व अर्थात् अपने आपको और 'अपूर्वार्थ' अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण से जाना नहीं है, ऐसे पदार्थ का निश्चय करनेवाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं ।
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हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ॥2॥
अन्वयार्थ : जो हित की प्राप्ति और अहित का परिहार कराने में समर्थ है वही प्रमाण है और वह ज्ञान ही हो सकता है ।
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तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥3॥
अन्वयार्थ : वह प्रमाण पदार्थ का निश्चयात्मक है, समारोप का विरोधी होने से, अनुमान की तरह ।
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अनिश्चितोऽपूर्वार्थ: ॥4॥
अन्वयार्थ : जिस पदार्थ का पहले किसी प्रमाण से निश्चय न किया गया हो, वह अपूर्वार्थ कहलाता है ।
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दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥5॥
अन्वयार्थ : पूर्व में देखे हुए पदार्थ में भी यदि समारोप अर्थात् संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आ जाता है तो वह पदार्थ भी अपूर्वार्थ बन जाता है ।
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स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसाय: ॥6॥
अन्वयार्थ : स्वयं की तरफ सन्मुख होने से जो अनुभवन होता है, वही स्व-व्यवसाय कहलाता है।
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अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥7॥
अन्वयार्थ : जिसप्रकार पदार्थ के प्रति सन्मुख होने से पदार्थ का निश्चय होता है अर्थात् ज्ञान होता है, उसीप्रकार स्व की ओर उन्मुख होने पर स्व का निश्चय होता है।
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घटमहमात्मना वेद्मि ॥8॥
अन्वयार्थ : घट को मैं अपने द्वारा जानता हूँ। यहाँ जैसे ‘घटङ्क पदार्थ रूप कर्म का प्रत्यक्ष होता है। वैसे ही कर्ता-आत्मा,करण-ज्ञान और जानने रूप क्रिया इन तीनों का प्रतीतिरूप प्रत्यक्ष होता है।
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कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीते: ॥9॥
अन्वयार्थ : कर्म के समान कर्ता, करण और क्रिया की भी प्रतीति होती है ।
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शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥10॥
अन्वयार्थ : शब्दों का उच्चारण किये बिना भी अपना अनुभव होता है। जैसे पदार्थों का घट आदि रूप वचन बोले बिना भी उसका ज्ञान होता है।
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को वा तत्प्रतिभासिनमर्थध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥11॥
अन्वयार्थ : ऐसा कौन पुरुष है जो ज्ञान के द्वारा अनुभव हुए पदार्थ को तो प्रत्यक्ष माने और उस ज्ञान को ही प्रत्यक्ष न माने अर्थात् उसे अवश्य ही ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना चाहिए।
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प्रदीपवत् ॥12॥
अन्वयार्थ : दीपक के समान।
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तत्प्रामाण्यं स्वत: परश्च ॥13॥
अन्वयार्थ : उस प्रमाण की प्रामाणिकता कहीं स्वत: होती है और कहीं पर से भी होती है।
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परिच्छेद-2
तद्द्वेधा ॥1॥
अन्वयार्थ : वह प्रमाण दो प्रकार का है।
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प्रत्यक्षेतरभेदात् ॥2॥
अन्वयार्थ : प्रत्यक्ष और इतर अर्थात् परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का होता है।
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विशदं प्रत्यक्षम् ॥3॥
अन्वयार्थ : विशद अर्थात् निर्मल और स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं।
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प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥4॥
अन्वयार्थ : दूसरे ज्ञान के व्यवधान से रहित और विशेषता से होनेवाले प्रतिभास को वैशद्य कहा जाता है।
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इन्द्रियानिन्द्रियानिमित्तं देशत: सांव्यवहारिकम् ॥5॥
अन्वयार्थ : इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाले एकदेश विशद ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
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नार्थालोकौ कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ॥6॥
अन्वयार्थ : पदार्थ व प्रकाश सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के कारण नहीं हैं,क्योंकि ये परिच्छेद्य अर्थात् ज्ञान के विषय हैं-जाननेयोग्य ज्ञेय हैं। जो ज्ञान का विषय होता है, वह ज्ञान का कारण नहीं होता, जैसे अन्धकार।
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तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोण्डुकज्ञानवन्नक्तंचर ज्ञानवच्च ॥7॥
अन्वयार्थ : पदार्थ और प्रकाश ज्ञान के कारण नहीं, क्योंकि ज्ञान का पदार्थ और प्रकाश के साथ अन्वय-व्यतिरेक रूप संबंध का अभाव है। जैसे, केश में भ्रम से होनेवाले मच्छर ज्ञान के साथ तथा नक्तंचर अर्थात् रात्रि में चलनेवाले उलूक आदि को रात्रि में होनेवाले ज्ञान के साथ देखा जाता है।
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अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ॥8॥
अन्वयार्थ : पदार्थ से उत्पन्न नहीं होकर भी ज्ञान पदार्थ का प्रकाशक होता है, दीपक के समान।
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स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति ॥9॥
अन्वयार्थ : अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम लक्षणवाली योग्यता प्रत्यक्ष प्रमाण प्रतिनियत पदार्थों के जानने की व्यवस्था करता है।
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कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचार: ॥10॥
अन्वयार्थ : कारण को परिच्छेद्य अर्थात् ज्ञेय मानने पर करण अर्थात् इन्द्रियों के साथ व्यभिचार दोष आता है।
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सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियशेषतो मुख्यम् ॥11॥
अन्वयार्थ : सामग्री की विशेषता से विश्लेषित अर्थात् दूर हो गये हैं,समस्त आवरण जिसके ऐसे अतीन्द्रिय और पूर्णरूप से विशद ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं।
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सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबंधसम्भवात् ॥12॥
अन्वयार्थ : आवरण सहित होने पर और इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न होने पर प्रतिबंध सम्भव है।
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परिच्छेद-3
परोक्षमितरत् ॥1॥
अन्वयार्थ : [इतरत्] भिन्न [परोक्षम्] परोक्ष है ।
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प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागम भेदम् ॥2॥
अन्वयार्थ : [प्रत्यक्षादिनिमित्तं] प्रत्यक्ष आदि जिसके निमित्त हैं तथा [स्मृति-प्रत्यभिज्ञान-तर्कानुमानागम] स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम [भेदम्] भेद वाला ।
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संस्कारोद्बोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः ॥3॥
अन्वयार्थ : [संस्कारोद्बोधनिबन्धना] धरणारूप संस्कार की प्रकटता के निमित्त से होने वाले और [तदित्याकारा] इस प्रकार के आकार वाले ज्ञान को [स्मृतिः] स्मृति कहते हैं ।
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स देवदत्तो यथा ॥4॥
अन्वयार्थ : [यथा] जैसे [सः] वह [देवदत्तः] देवदत्त है ।
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दर्शनस्मरणकारकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानं, तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ॥5॥
अन्वयार्थ : [दर्शनस्मरणकारकं] वर्तमान में पदार्थ का दर्शन और पूर्व में देखे हुए का स्मरण ऐसे [सङ्कलनं] अनुसन्धानरूप ज्ञान को [प्रत्यभिज्ञानं] प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे - [इदं तदेव] 'यह वही है' ; [तत्सदृशं] 'उसके समान है' ; [तद्विलक्षणं] 'उससे भिन्न है' ; [तत्प्रतियोगी] 'उसका प्रतियोगी है' ; [इत्यादि] इत्यादि । इसप्रकार और भी प्रत्यभिज्ञान के भेद हो सकते हैं ।
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यथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणो महिषः, इदमस्माद् दूरम्, वृक्षोऽयमित्यादि ॥6॥
अन्वयार्थ : [यथा] जैसे [सः] वह [एव] ही [अयम्] यह [देवदत्तः] देवदत्त है [गोसदृशः] गाय के समान [गवयः] नीलगाय है [गोविलक्षणः] गाय से विलक्षण [महिषः] भैंसा है [इदम्] यह [अस्मात्] इससे [दूरम्] दूर है [अयम्] यह [वृक्षः] वृक्ष है [इत्यादि] इत्यादि।
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उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥7॥
अन्वयार्थ : [उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं] उपलम्भ और अनुपलम्भ हैं कारण जिसमें ऐसे [व्याप्तिज्ञानम्] व्याप्ति के ज्ञान को [ऊहः] तर्क कहते हैं।
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इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति तु न भवत्येव ॥8॥
यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥9॥
अन्वयार्थ : [इदम्] यह [अस्मिन्] इसके [सति] होने पर [एव] ही [भवति] होता है [तु] किन्तु [असति] नहीं होने पर [न] नहीं [एव] ही [भवति] होता है । [यथा] जैसे [अग्नौ] अग्नि के होने पर [एव] ही [धूम] धुआँ होता है [च] और [तदभावे] उसके अभाव में [न] नहीं [एव] ही [भवति] होता है, [इति] इस प्रकार ।
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साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् ॥10॥
अन्वयार्थ : [साधनात्] साधन से [साध्यविज्ञानम्] साध्य का विशिष्ट ज्ञान [अनुमानम्] अनुमान कहलाता है।
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साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ॥11॥
अन्वयार्थ : [साध्याविनाभावित्वेन] साध्य के साथ जिसका अविनाभाव [निश्चितः] निश्चित हो, अर्थात् जो साध्य के बिना न हो, उसे [हेतुः] हेतु कहते हैं।
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सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥12॥
अन्वयार्थ : [सहक्रमभावनियमः] सहभाव नियम और क्रमभाव नियम को [अविनाभावः] अविनाभाव कहते हैं।
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सहचारिणोर्व्याप्यव्यापकयोश्च सहभावः ॥13॥
अन्वयार्थ : [सहचारिणोः] सहचारी में [च] और [व्याप्यव्यापकयोः] व्याप्य-व्यापक पदार्थों में [सहभावः] सहभाव नियम होता है।
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पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः ॥14॥
अन्वयार्थ : [पूर्वोत्तरचारिणोः] पूर्वचर और उत्तरचर में [च] तथा [कार्यकारणयोः] कार्य और कारण में [क्रमभावः] क्रमभाव-नियम होता है।
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तर्कात्तन्निर्णयः ॥15॥
अन्वयार्थ : [तर्कात्] तर्क प्रमाण से [तन्निर्णयः] उस अविनाभाव का निर्णय होता है।
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इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् ॥16॥
अन्वयार्थ : [इष्टमबाधितमसिद्धं] इष्ट
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संदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथास्यादित्यसिद्धपदम् ॥17॥
अन्वयार्थ : [संदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां] संदिग्ध, विपर्यस्त , अव्युत्पन्न पदार्थों के [साध्यत्वं] साध्यपना [यथा] जिस प्रकार से [स्यात्] हो [इति] इसलिए साध्य के लक्षण में [असिद्धपदम्] असिद्ध पद दिया है ।
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अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टाबाधितवचनम् ॥18॥
अन्वयार्थ : [अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः] अनिष्ट और प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित पदार्थों के [साध्यत्वं] साध्यपना [मा भूत्] न माना जाये, [इति] इसलिए [इष्टाबाधितवचनं] इष्ट और अबाधित - ये दो वचन - दिये गये हैं।
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न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥19॥
अन्वयार्थ : [च] और [असिद्धवत्] असिद्ध के समान [इष्टं] इष्ट [प्रतिवादिनः] प्रतिवादी की अपेक्षा से [न] नहीं है।
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प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेव ॥20॥
अन्वयार्थ : [प्रत्यायनाय] दूसरे को समझाने के लिए [हि] निश्चय से [इच्छा] इच्छा [वक्तुः] वक्ता के [एव] ही होती है।
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साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी ॥21॥
अन्वयार्थ : [क्वचित्] कहीं पर [धर्मः] धर्म [साध्यं] साध्य होता है [वा] अथवा [तद्विशिष्टः] उस धर्म से विशिष्ट [धर्मी] धर्मी साध्य होता है।
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पक्ष इति यावत् ॥22॥
अन्वयार्थ : [पक्षः] पक्ष [इति] इस प्रकार है [यावत्] जैसा धर्मी।
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प्रसिद्धो धर्मी ॥23॥
अन्वयार्थ : [धर्मी] धर्मी [प्रसिद्धः] प्रसिद्ध अर्थात् प्रमाण से सिद्ध होता है।
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विकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये ॥24॥
अन्वयार्थ : [तस्मिन् विकल्पसिद्धे] उस विकल्पसिद्ध धर्मी में [सत्तेतरे] सत्ता और इतर [साध्ये] दोनों ही साध्य हैं।
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अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम् ॥25॥
अन्वयार्थ : [सर्वज्ञः] सर्वज्ञ [अस्ति] है [खरविषाणम्] खर-विषाण [नास्ति] नहीं है।
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प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥26॥
अन्वयार्थ : [प्रमाणोभयसिद्धे] प्रमाणसिद्ध धर्मी और उभयसिद्ध धर्मी में [तु] तो [साध्यधर्मविशिष्टता] साध्य धर्म से विशिष्टता अर्थात् संयुत्तफता साध्य होती है।
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अग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा ॥27॥
अन्वयार्थ : [यथा] जैसे [अयम्] यह [देशः] प्रदेश [अग्निमान्] अग्नि वाला है [इति] और इसी प्रकार [शब्दः] शब्द [परिणामी] परिणामी है।
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व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥28॥
अन्वयार्थ : [व्याप्तौ] व्याप्तिकाल में [तु] तो [धर्मः] धर्म [एव] ही [साध्यं] साध्य होता है।
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अन्यथा तदघटनात् ॥29॥
अन्वयार्थ : [अन्यथा] अन्यथा [तत्] वह [अघटनात्] घटित नहीं हो सकती है
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साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ॥30॥
अन्वयार्थ : [साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय] साध्य धर्म के आधर के विषय में सन्देह को दूर करने के लिए [गम्यमानस्य पक्षस्य] गम्यमान पक्ष का [अपि] भी [वचनम्] वचन प्रयोग किया जाता है।
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साध्यधर्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥31॥
अन्वयार्थ : [साध्यधर्मिणि] साध्य से युक्त धर्मी में [साधनधर्मावबोधनाय] साधन-धर्म के ज्ञान कराने के लिए [पक्षधर्मोपसंहारवत्] पक्षधर्म के उपसंहाररूप उपनय का प्रयोग किया जाता है।
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को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥32॥
अन्वयार्थ : [वा] अथवा [कः] कौन है जो [त्रिधा] तीन प्रकार के [हेतुम्] हेतु को [उक्त्वा] कह करके [समर्थयमानः] उसका समर्थन करता हुआ भी [पक्षयति] पक्ष का प्रयोग [न] न करे?
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एतद्-द्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणम् ॥33॥
अन्वयार्थ : [एतत्] ये [द्वयम्] दोनों - पक्ष और हेतु - [एव] ही [अनुमानाङ्गं] अनुमान के अंग हैं, [उदाहरणम्] उदाहरणादिक [न] नहीं।
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न हि तत्साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं तत्र यथोक्त हेतोरेव व्यापारात् ॥34॥
अन्वयार्थ : [तत्साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं] वह साध्य के ज्ञान में कारण [न] नहीं है [हि] क्योंकि [तत्र] वहाँ साध्य के ज्ञान में [यथोक्त] यथोक्त [हेतोः] हेतु का [एव] ही [व्यापारात्] व्यापार होता है।
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तदविनाभावनिश्चयार्थं वा विपक्षे बाधकप्रमाणबलादेव तत्सिद्धेः ॥35॥
अन्वयार्थ : [तदविनाभावनिश्चयार्थं] वह उदाहरण अविनाभाव के निश्चय के लिए भी कारण नहीं है [वा] क्योंकि [विपक्षे] विपक्ष में [बाधकप्रमाणबलात्] बाधक-प्रमाण के बल से [एव] ही [तत्] वह [सिद्धेः] सिद्ध हो जाता है।
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व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि तद्विप्रतिपत्तावनवस्थानं स्याद् दृष्टान्तान्तरापेक्षणात् ॥36॥
अन्वयार्थ : [निदर्शनं] निदर्शन [व्यक्तिरूपं] व्यक्तिरूप होता है [तु] परन्तु [व्याप्तिः] व्याप्ति [सामान्येन] सामान्यरूप से होती है [तत्रापि] उस उदाहरण में भी [च] और [तद्विप्रतिपतौ] उस सामान्य व्याप्ति में विवाद होने पर [दृष्टान्तान्तरापेक्षणात्] दृष्टान्त को अन्य दृष्टान्त की अपेक्षा होने से [अनवस्थानम्] अनवस्था दोष प्राप्त होगा।
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नापि व्याप्तिस्मरणार्थं तथाविधहेतुप्रयोगादेव तत्स्मृतेः ॥37॥
अन्वयार्थ : [व्याप्तिस्मरणार्थं] व्याप्ति का स्मरण करने के लिए [अपि] भी [न] उदाहरण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि [तथाविधहेतुप्रयोगात्] उस प्रकार के हेतु के प्रयोग से [एव] ही [तत्स्मृतेः] उस स्मरण हो जाता है।
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तत्परमभिधीयमानं साध्यधर्मिणि साध्यसाधने सन्देहयति ॥38॥
अन्वयार्थ : [तत्परमभिधीयमानं] उस उदाहरण मात्रा का कहा जाना [साध्यधर्मिणि] साध्यधर्म वाले धर्मी में [साध्यसाधने] साध्य के सिद्ध करने में [संदेहयति] संदेह करा देता है।
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कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ॥39॥
अन्वयार्थ : [अन्यथा] अन्यथा [उपनयनिगमने] उपनय और निगमन [कुतः] किस कारण से प्रयोग में लाये जाते?
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न च ते तदङ्गे, साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात् ॥40॥
अन्वयार्थ : [साध्यधर्मिणि] साध्यधर्म वाले धर्मी में [हेतुसाध्ययोः] हेतु और साध्य के [वचनात्] वचन से [एव] ही [असंशयात्] संशय नहीं होने से [ते च] वे - उपनय और निगमन - भी [तदङ्गे] उस अंग [न] नहीं हैं।
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समर्थन वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वाऽस्तु साध्ये तदुपयोगात् ॥41॥
अन्वयार्थ : [समर्थनं] समर्थन [वा] ही [वरं] श्रेष्ठ/वास्तविक [हेतुरूपम्] हेतु का स्वरूप है और [तत्] वही [अनुमानावयवः] अनुमान का अवयव [अस्तु] होता है [वा] क्योंकि [साध्ये] साध्य की सिद्धि में [उपयोगात्] उसी का उपयोग होता है।
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बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्त्रायोपगमे शास्त्रा एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥42॥
अन्वयार्थ : [बालव्युत्पत्त्यर्थं] मंदबुद्धि वाले बालकों की व्यत्पुत्ति के लिए [तत्त्रायोपगमे] उन तीन - उदाहरण, उपनय, निगमन - अवयवों को मान लेने पर भी [शास्त्रा] शास्त्रा में [एव] ही [असौ] उनकी स्वीकारता है, [वादे] वाद में [न] नहीं, क्योंकि वाद में [अनुपयोगात्] उनका उपयोग नहीं है।
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दृष्टान्तो द्वेधा अन्वयव्यतिरेकभेदात् ॥43॥
अन्वयार्थ : [दृष्टान्तः] दृष्टान्त [द्वेधा] दो प्रकार का होता है - [अन्वयव्यतिरेकभेदात्] अन्वय और व्यतिरेक के भेद से।
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साध्यव्याप्तं साधनं यत्रा प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः ॥44॥
अन्वयार्थ : [साध्यव्याप्तं] साध्य से व्याप्त [साधनम्] साधन को [यत्रा] जहाँ [प्रदर्श्यते] दिखाया जाता है, [सः] वह [अन्वयदृष्टान्तः] अन्वय-दृष्टान्त है।
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साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः ॥45॥
अन्वयार्थ : [यत्र] जहाँ [साध्याभावे] साध्य के अभाव में [साधनाभावः] साधन का अभाव [कथ्यते] कहा जाता है, [सः] वह [व्यतिरेकदृष्टान्तः] व्यतिरेक-दृष्टान्त है।
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हेतोरुपसंहार उपनयः ॥46॥
अन्वयार्थ : [हेतोः] हेतु का [उपसंहारः] उपसंहार [उपनयः] उपनय कहलाता है।
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प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ॥47॥
अन्वयार्थ : [तु] दूसरी ओर [प्रतिज्ञायाः] प्रतिज्ञा के उपसंहार को [निगमनम्] निगमन कहते हैं।
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तदनुमानं द्वेधा ॥48॥
अन्वयार्थ : [तत्] वह [अनुमानं] अनुमान [द्वेधा] दो प्रकार का है।
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स्वार्थपरार्थभेदात् ॥49॥
अन्वयार्थ : [स्वार्थपरार्थभेदात्] एक स्वार्थानुमान और दूसरा परार्थानुमान।
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स्वार्थमुक्तलक्षणम् ॥50॥
अन्वयार्थ : [स्वार्थम्] स्वार्थानुमान [उक्त] कह दिये गये [लक्षणम्] लक्षण वाला है।
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परार्थं तु तदर्थपरामर्शिवचनाज्जातम् ॥51॥
अन्वयार्थ : [तु] परन्तु [तदर्थपरामर्शिवचनात्] उस स्वार्थानुमान के विषयभूत अर्थ का परामर्श करने वाले वचनों से जो ज्ञान [जातम्] उत्पन्न होता है उसे [परार्थं] परार्थानुमान कहते हैं।
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तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ॥52॥
अन्वयार्थ : [तद्धेतुत्वात्] उस परार्थानुमान का हेतु/कारण होने से [तत्] उस [वचनम्] वचन को [अपि] भी परार्थनुमान कहते हैं।
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स हेतुर्द्वेधोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥53॥
अन्वयार्थ : [सः] वह [हेतुः] हेतु [द्वेधा] दो प्रकार का है- [उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात्] एक उपलब्धिरूप हेतु और दूसरा अनुपलब्धिरूप हेतु।
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उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥54॥
अन्वयार्थ : [उपलब्धि:] उपलब्धिरूप हेतु [च] और [अनुपलब्धि:] अनुपलब्धिरूप हेतु [विधिप्रतिषेध्योः] विधि और प्रतिषेध् दोनों के साधक हैं।
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अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा-व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥55॥
अन्वयार्थ : [विधौ] विधि-साधन की दशा में [अविरुद्धोपलब्धि:] अविरुद्धोपलब्धि [षोढा] छह प्रकार की है- [व्याप्यकार्यकारण- पूर्वोत्तरसहचरभेदात्] 1) अविरुद्धव्याप्योपलब्धि, 2) अविरुद्ध- कार्योपलब्धि, 3) अविरुद्धकारणोपलब्धि, 4) अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि, 5) अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धि और 6) अविरुद्धसहचरोपलब्धि।
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रसादेकैंची रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित् कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये ॥56॥
अन्वयार्थ : [यत्र] जिसमें [सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये] सामर्थ्य की रुकावट नहीं है और अन्य कारणों की विकलता नही है, ऐसे [रसात्] रस से [एकसामग्र्यनुमानेन] एक सामग्री के अनुमान द्वारा [रूपानुमानम्] रूप का अनुमान [इच्छद्भि] चाहने वाले [किञ्चित् कारणं] कोई विशिष्ट कारणरूप [हेतुः] हेतु [इष्टं एव] स्वीकार किया गया ही है।
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न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥57॥
अन्वयार्थ : [पूर्वोत्तरचारिणोः] पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओं का साध्य के साथ [तादात्म्यं] तादात्म्य सम्बन्ध् [च] और [तदुत्पत्तिः] तदुत्पत्ति सम्बन्ध् [न] नहीं है [वा] क्योंकि [कालव्यवधाने] काल का व्यवधान होने पर [तदनुपलब्धेः] उन दोनों सम्बन्धें की साध्य के साथ उपलब्धि नहीं है।
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भाव्यतीतयोर्मरणजाग्रद्बोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रतिहेतुत्वम् ॥58॥
अन्वयार्थ : [भाव्यतीतयोः मरणजाग्रद्बोधयोः] भावी-मरण और अतीत-जाग्रतबोध के [अपि] भी [अरिष्टोद्बोधौ] अरिष्ट और उद्बोध के [प्रतिहेतुत्वम्] प्रति हेतुपना [न] नहीं है।
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तद्-व्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ॥59॥
अन्वयार्थ : [हि] क्योंकि [तद्-व्यापाराश्रितं] उस कारण के व्यापार के आश्रित ही [तद्भावभावित्वम्] कार्य का व्यापार हुआ करता है।
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सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च ॥60॥
अन्वयार्थ : [सहचारिणः] सहचारी पदार्थ के [अपि] भी [परस्पर-परिहारेण] परस्पर के परिहार से [अवस्थानात्] अवस्थित रहने से सहचरहेतु का स्वभावहेतु में अन्तर्भाव नहीं हो सकता [च] और [सहोत्पादात्] एक साथ उत्पन्न होने से कार्यहेतु और कारणहेतु में अन्तर्भाव नहीं हो सकता।
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परिणामी शब्दः, कृतकत्वात् । य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः । कृतकश्चायं, तस्मात्परिणामीति । यस्तु न परिणामी, स न कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनन्धयः। कृतकश्चायम्, तस्मात्परिणामीति ॥61॥
अन्वयार्थ : [शब्दः] शब्द [परिणामी] परिणामी है , [कृतकत्वात्] क्योंकि वह कृतक है । [यः] जो [एवं] इस प्रकार कृतक होता है [सः] वह [एवं] इस प्रकार परिणामी [दृष्टः] देखा जाता है, [यथा] जैसे [घटः] घट । [च] और [अयं] यह शब्द [कृतकः] कृतक है । [तस्मात्] उस कारण से [परिणामीति] परिणामी है । [तु] परन्तु [यः] जो [इति] इस प्रकार [परिणामी] परिणामी [न] नहीं होता है [सः] वह [कृतकः] कृतक [न] नहीं [दृष्टः] देखा जाता है [यथा] जैसे [वन्ध्यास्तनन्धयः] बन्ध्या का पुत्र । [च] और [अयं] यह शब्द [कृतकः] कृतक है । [तस्मात्] इसलिए [परिणामीति] परिणामी है ।
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अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिर्व्याहारादेः ॥62॥
अन्वयार्थ : [अत्र] इस [देहिनि] देही में [बुद्धिः] बुद्धि [अस्ति] है [व्याहारादेः] क्योंकि बुद्धि के कार्य वचनादिक पाये जाते हैं।
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अस्त्यत्रच्छाया छत्रात् ॥63॥
अन्वयार्थ : [अत्र] यहाँ पर [छाया] छाया [अस्ति] है, [छत्रात्] छत्र होने से।
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उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥64॥
अन्वयार्थ : [शकटं] शकट नक्षत्रा [उदेष्यति] उदित होगा [कृत्तिकोदयात्] कृत्तिका नक्षत्रा का उदय होने से।
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उद्गाद् भरणिः प्राक्तत एव ॥65॥
अन्वयार्थ : [भरणिः] भरणी का [उद्गाद्] उदय [प्राक्] एक मुहूर्त के पूर्व [एव] ही हो चुका है, क्योंकि [ततः] उस उदय पाया जाता है।
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अस्त्यत्र मातुलिङ्गे रूपं रसात् ॥66॥
अन्वयार्थ : [अत्र] यहाँ [मातुलिङ्गे] बिजौरा फल में [रूपं] रूप [अस्ति] है [रसात्] रस होने से।
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विरुद्धतदुपलब्धि: प्रतिषेधे तथा ॥67॥
अन्वयार्थ : [प्रतिषेधे] प्रतिषेध-रूप में [विरुद्धतदुपलब्धि:] वह विरुद्धोपलब्धि: [तथा] उसी प्रकार से छह भेद वाली है ।
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नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ॥68॥
अन्वयार्थ : [अत्र] यहाँ [शीतस्पर्शः] शीतस्पर्श [नास्ति] नहीं है [औष्ण्यात्] उष्णता होने से ।
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नास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् ॥69॥
अन्वयार्थ : [अत्र] यहाँ पर [शीतस्पर्शः] शीतस्पर्श [नास्ति] नहीं है [धूमात्] धुआँ होने से ।
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नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥70॥
अन्वयार्थ : [अस्मिन् शरीरिणि] इस प्राणी में [सुखम्] सुख [न] नहीं [अस्ति] है [हृदयशल्यात्] हृदय में शल्य होने से ।
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नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ॥71॥
अन्वयार्थ : एक मुहूर्त के पश्चात् रोहिणी उदय नहीं होगा क्योंकि अभी रेवती नक्षत्र का उदय हो रहा है ।
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नोद्गाद् भरणि: मुहूर्तात्परं पुष्योदयात् ॥72॥
अन्वयार्थ : एक मुहूर्त पहले भरणी का उदय नहीं हुआ है, क्योंकि अभी पुष्य नक्षत्र का उदय पाया जा रहा है ।
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नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ॥73॥
अन्वयार्थ : इस दीवाल में उस ओर के भाग का अभाव नहीं है क्योंकि इस ओर का भाग दिखाई दे रहा है ।
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अविरुद्धानुपलब्धि: प्रतिषेधे सप्तधा स्वभाव व्यापक कार्य कारण पूर्वोत्तर सहचरानुपलम्भभेदात् ॥77॥
अन्वयार्थ : [प्रतिषेधे] प्रतिषेध अर्थात् अभाव को सिद्ध करने वाली [अविरुद्धानुपलब्धि] अविरुद्धानुपलब्धि [सप्तधा] सात [भेदात्] भेद वाली है- [स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलम्भ] 1) अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, 2) अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, 3) अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, 4) अविरुद्धकारणानुपलब्धि, 5) अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, 6) अविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धि और 7) अविरुद्धसहचरानुपलब्धि
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नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः ॥75॥
अन्वयार्थ : इस भूतल पर घट नहीं है क्योंकि उपलब्धि योग्य स्वभाव के होने पर वह भी नहीं पाया जा रहा है ।
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नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः ॥76॥
अन्वयार्थ : यहाँ पर शीशम नहीं है, क्योंकि वृक्ष की अनुपलब्धि है ।
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नास्त्यत्राप्रतिबद्ध-सामर्थ्योऽग्निर्धूमानुपलब्धेः ॥77॥
अन्वयार्थ : यहाँ पर अप्रतिबद्ध सामर्थ्य वाली अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम नहीं पाया जाता है ।
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नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः ॥78॥
अन्वयार्थ : यहाँ पर धूम नहीं है, क्योंकि धूम के अविरोधी कारण अग्नि का अभाव है ।
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न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृतिकोदयानुपलब्धेः ॥79॥
अन्वयार्थ : एक मुहूर्त के पश्चात् रोहिणी का उदय नहीं होगा, क्योंकि कृतिका के उदय की अनुपलब्धि है ।
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नोद्गाद् भरणि: मुहूर्तात्प्राक् तत एव ॥80॥
अन्वयार्थ : एक मुहूर्त पहले भरणि का उदय नहीं हुआ है क्योंकि उत्तरचर कृतिका का उदय नहीं पाया जाता ।
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नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः ॥81॥
अन्वयार्थ : इस तराजू में एक ओर ऊँचापना नहीं है, क्योंकि उन्नाम का अविरोधि सहचर नहीं पाया जाता है ।
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विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा विरुद्ध कार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ॥82॥
अन्वयार्थ : विधि के अस्तित्व को सिद्ध करने में विरुद्धानुपलब्धि के तीन भेद हैं ।
2. विरुद्धकारणानुपलब्धि -- साध्य से विरुद्ध पदार्थ के कारण का नहीं पाया जाना विरुद्ध कारणानुपलब्धि है।
3. विरुद्धस्वभावानुपलब्धि -- साध्य से विरुद्ध पदार्थ के स्वभाव का नहीं पाया जाना विरुद्ध स्वभावानुपलब्धि हेतु है।
ये तीनों ही हेतु अपने साध्य के सद्भाव को सिद्ध करते हैं, इसलिए विधि साधक कहा गया है।)
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यथास्मिन्प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः ॥83॥
अन्वयार्थ : इस प्राणी में व्याधि-विशेष है क्योंकि निरामय चेष्टा नहीं पाई जाती है ।
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अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ॥84॥
अन्वयार्थ : इस प्राणी में दुःख है क्योंकि इष्ट संयोग का अभाव है ।
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अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धेः ॥85॥
अन्वयार्थ : वस्तु अनेकान्तात्मक है अर्थात् अनेक धर्म वाली है, क्योंकि वस्तु का एकान्त रूप पाया नहीं जाता ।
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परम्पराया संभवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ॥86॥
अन्वयार्थ : और भी जो साधन सम्भव हो सकते हैं उनका पूर्वोक्त साधनों में ही अन्तर्भाव करना चाहिए ।
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अभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात् ॥87॥
अन्वयार्थ : इस चाक पर शिवक हो गया है, क्योंकि स्थास पाया जा रहा है ।
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कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥88॥
अन्वयार्थ : कार्य के कार्यरूप उक्त हेतु का अविरुद्धकार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है ।
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नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं, मृगारिसंशब्दनात् । कारणविरुद्धकार्यं विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥89॥
अन्वयार्थ : इस गुफा में हरिण की क्रीड़ा नहीं है, क्योंकि सिंह की गर्जना हो रही है, यह कारणविरुद्धकार्यरूप हेतु है, इसका विरुद्धकार्योपलब्धि हेतु में अन्तर्भाव होता है ।
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व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा ॥90॥
अन्वयार्थ : व्युत्पन्नपुरुषों के लिए तथोपत्ति या अन्यथानुपपत्ति नियम से ही प्रयोग करना चाहिए ।
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अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेर्धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेर्वा ॥91॥
अन्वयार्थ : यह प्रदेश अग्नि वाला है क्योंकि अग्निवाला होने पर ही धूमवाला हो सकता है । अथवा अग्नि के अभाव में धूमवाला हो नहीं सकता ।
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हेतुप्रयोगो हि यथा व्याप्तिग्रहणं विधीयते सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्नैरवधार्यते॥ 92॥
अन्वयार्थ : जैसे हेतु का प्रयोग व्याप्ति को ग्रहण करता है, उतने मात्र से बुद्धिमानों के द्वारा धारण किया जाता है ।
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तावता च साध्यसिद्धिः ॥93॥
अन्वयार्थ : उतने मात्र से ही साध्य की सिद्धि हो जाती है ।
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तेन पक्षस्तदाधार सूचनायोक्तः ॥94॥
अन्वयार्थ : साधन से व्याप्त साध्य रूप आधार की सूचना के लिए पक्ष कहा जाता है ।
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आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ॥95॥
अन्वयार्थ : आप्त के वचनादि के निमित्त से होने वाले अर्थज्ञान को आगम कहते हैं ।
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सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ॥96॥
अन्वयार्थ : सहज योग्यता के होने पर संकेत के वश से शब्दादि वस्तु का ज्ञान कराने के कारण हैं।
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यथा मेर्वादयः सन्ति ॥97॥
अन्वयार्थ : जैसे मेरुपर्वतादिक हैं ।
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परिच्छेद-4
सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः ॥1॥
अन्वयार्थ : सामान्य और विशेष स्वरूप वस्तु प्रमाण का विषय है।
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अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्ति स्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ॥2॥
अन्वयार्थ : वस्तु अनेकान्तात्मक है, क्योंकि वह अनुवृत्त और व्यावृत्त ज्ञान की विषय है तथा पूर्व आकार का परिहार और उत्तर आकार की प्राप्ति तथा स्थिति लक्षण परिणाम के साथ उसमें अर्थक्रिया पायी जाती है।
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सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ॥3॥
अन्वयार्थ : सामान्य के दो भेद हैं -- तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वपना सामान्य ।
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सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ॥4॥
अन्वयार्थ : सदृश परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं । जैसे खण्डी, मुण्डी आदि गायों में गोपना ।
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परापरविर्वतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु ॥5॥
अन्वयार्थ : पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं। जैसे - स्थास, कोश, कुशूल आदि में मिट्टी रहती है। यहाँ सामान्य पद की अनुवृत्ति है।
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विशेषश्च ॥6॥
अन्वयार्थ : विशेष के भी पर्याय और व्यतिरेक दो भेद हैं।
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पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥7॥
अन्वयार्थ : पर्याय और व्यतिरेक के भेद से विशेष दो प्रकार का है।
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एकस्मिन्द्रव्ये क्रमभाविन: परिणाम: पर्यायाः आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥8॥
अन्वयार्थ : एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय कहते हैं, जैसे आत्मा में हर्ष विषाद आदिक।
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अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ॥१॥
अन्वयार्थ : एक पदार्थ की अपेक्षा अन्य पदार्थ में रहने वाले विसदृश परिणाम का व्यतिरेक कहते हैं। जैसे - गााय, भैंस आदि में विलक्षणपना।
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परिच्छेद-5
अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ॥1॥
अन्वयार्थ : अज्ञान की निवृत्ति, त्याग, ग्रहण के प्रति उदासीनता ये प्रमाण के फल हैं।
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प्रमाणादभिन्नं भिन्नं च ॥2॥
अन्वयार्थ : वह प्रमाण का फल संज्ञा, स्वरूपादि भेद की अपेक्षा से कथञ्चित् अभिन्न है।
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य: प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्ते उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥3॥
अन्वयार्थ : जो प्रमाण से पदार्थ को जानता है, उसी का अज्ञान निवृत्त होता है, अप्रशस्त पदार्थ का त्याग करता है, इष्ट का ग्रहण करता है अथवा उपेक्षा करता है। यह बात प्रतीति सिद्ध है।
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परिच्छेद-6
ततोऽन्यत्तदाभासम् ॥1॥
अन्वयार्थ : पहले कहे गए प्रमाण से भिन्न प्रमाणाभास है।
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अस्वसंविदित-गृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः ॥2॥
अन्वयार्थ : अस्वसंविदित, गृहीतार्थ, दर्शन, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को प्रमाणाभास कहते हैं।
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स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात्॥3॥
अन्वयार्थ : क्योंकि वे अपने विषय का निश्चय नहीं करते हैं।
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पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् ॥4॥
अन्वयार्थ : दूसरे पुरुष का ज्ञान गृहीतागृहीतज्ञान, चलते हुए पुरुष के तृण स्पर्शी ज्ञान के समान स्थाणु है या पुरुष ऐसे संशयादि ज्ञान प्रमाणाभास हैं।पुरुषान्तरं च पूर्वार्थं च, गच्छत्तृणस्पर्शं च, स्थाणुपुरुषादि च तेषां ज्ञानम् तद्वत् सूत्र में इस प्रकार द्वन्द्व समास कर लेना चाहिए।
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चक्षुरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥5॥
अन्वयार्थ : द्रव्य में चक्षु और रस के संयुक्त समवाय के समान।
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अवैशद्यै प्रत्यक्षं तदाभासं, बौद्धस्याकस्माद् धूमदर्शनाद् वह्नि विज्ञानवत् ॥6॥
अन्वयार्थ : बौद्ध का अविशदरूप निर्विकल्प ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है। जैसे - अचानक धुआँ देखने से उत्पन्न हुआ अग्नि ज्ञान अनुमानाभास है।
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वैशद्यैऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥7॥
अन्वयार्थ : विशदज्ञान को भी परोक्ष मानना परोक्षाभास है। जैसे - मीमांसक करणज्ञान को परोक्ष मानते हैं, उनका ऐसा मानना परोक्षाभास है।
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अतस्मिस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं, जिनदत्ते स देवदत्तो यथा ॥8॥
अन्वयार्थ : पूर्व में अनुभव नहीं किए गए पदार्थ में वह है अर्थात् वैसी है इस प्रकार का ज्ञान स्मरणाभास है। जैसे - जिनदत्त में वह देवदत्त है।
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सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशम्, यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥9॥
अन्वयार्थ : सदृश पदार्थ में यह वही है, ऐसा कहना उसी पदार्थ में यह उसके सदृश है, ऐसा कहना। जैसे - युगल उत्पन्न हुए मनुष्यों में विपरीत ज्ञान हो जाता है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास है।
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असम्बद्धे तज्ज्ञानं तर्काभासम् ॥10॥
अन्वयार्थ : अविनाभाव सम्बन्ध से रहित पदार्थ में अविनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान कराना तर्काभास है।
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इदमनुमानाभासम् ॥11॥
अन्वयार्थ : यह अनुमानाभास है ।
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तत्रानिष्टादिः पक्षाभासः ॥12॥
अन्वयार्थ : उनमें अनिष्ट आदि को पक्षाभास कहते हैं ।
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अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः शब्दः ॥13॥
अन्वयार्थ : मीमांसक का कहना है कि शब्द अनित्य है, यह अनिष्ट पक्षाभास है।
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सिद्धः श्रावणः शब्दः ॥14॥
अन्वयार्थ : शब्द श्रवणेन्द्रिय का विषय है, यह सिद्धपक्षाभास है।
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बाधितः प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनैः ॥15॥
अन्वयार्थ : बाधितपक्षाभास प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, लोक और स्ववचन से बाधित होता है।
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तत्र प्रत्यक्षबाधितो यथा, अनुष्णोऽग्नि द्रर्व्यत्वाजलवत् ॥16॥
अन्वयार्थ : उनमें से प्रत्यक्षबाधित पक्षाभास का उदाहरण। जैसे - अग्नि उष्णता रहित है, क्योंकि यह द्रव्य है। जैसे-जल।
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अपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥17॥
अन्वयार्थ : शब्द अपरिणामी है, कृतक होने से।
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प्रेत्यासुखदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् ॥18॥
अन्वयार्थ : धर्म परलोक में दुःख देने वाला होता है, क्योंकि वह पुरुष के आश्रित है, जैसे - अधर्म।
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शुचि नरशिर: कपालं प्राण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् ॥19॥
अन्वयार्थ : मनुष्य के सिर का कपाल पवित्र है, प्राणी का अंग होने से जैसे शंख और सीप।
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माता मे वन्ध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात्-प्रसिद्धबन्ध्यावत्॥20॥
अन्वयार्थ : मेरी माता बंध्या है, क्योंकि पुरुष का संयोग होने पर भी उसके गर्भ नहीं रहता। जैसे - प्रसिद्ध बन्ध्या स्त्री।
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हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानैकान्तिकाकिञ्चित्कराः ॥21॥
अन्वयार्थ : असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वाभास के भेद हैं।
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असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥22॥
अन्वयार्थ : जिस हेतु की सत्ता का अभाव हो अथवा निश्चय न हो उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं।
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अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दः चाक्षुषत्वात् ॥23॥
अन्वयार्थ : शब्द परिणामी है, क्योंकि चाक्षुष है, यह अविद्यमान सत्ता वाले स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास का उदाहरण हैं।
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स्वरूपेणासत्वात् ॥24॥
अन्वयार्थ : शब्द का चाक्षुष होना स्वरूप से ही असिद्ध है।
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अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्रधूमात् ॥25॥
अन्वयार्थ : मुग्ध बुद्धि पुरुष के प्रति कहना यहाँ अग्नि है धूम होने से। यह अविद्यमान निश्चय वाले संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास का उदाहरण है।
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तस्य वाष्पादिभावेन भूतसंघाते सन्देहात् ॥26॥
अन्वयार्थ : क्योंकि उसे भूतसंघात में भाप आदि के रूप से संदेह हो सकता है। भूतसंघात -चूल्हे से उतारी हुई बटलोई, क्योंकि उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु चारों रहते हैं और भाप भी निकलती रहती है।
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सांख्यम्प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥27॥
अन्वयार्थ : सांख्य के प्रति कहना है कि शब्द परिणामी है क्योंकि वह कृतक है।
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तेनाज्ञातत्वात् ॥28॥
अन्वयार्थ : क्योंकि उसने कृतकपना जाना ही नहीं है।
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विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥29॥
अन्वयार्थ : साध्य से विपरीत पदार्थ के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित हो, उसे विरुद्धहेत्वाभास कहते हैं, जैसे शब्द अपरिणामी है, क्योंकि वह कृतक है।
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विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ॥30॥
अन्वयार्थ : जिसका विपक्ष में भी रहना अविरुद्ध है, अर्थात् जो हेतु पक्ष सम्पदा के समान विपक्ष में भी बिना किसी विरोध के रहता है, उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं।सूत्र पठित अपि शब्द से न केवल पक्ष-सपक्ष में रहने वाला हेतु लेना किन्तु विपक्ष में भी रहने वाले हेतु का ग्रहण करना चाहिए।
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निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् ॥31॥
अन्वयार्थ : शब्द अनित्य है, प्रमेय होने से। जैसे-घट।
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आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ॥32॥
अन्वयार्थ : क्योंकि नित्य आकाश में भी इस प्रमेयत्व हेतु के रहने का निश्चय है।
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शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ॥33॥
अन्वयार्थ : सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है अर्थात् बोलने वाला होने से, यह शंकित विपक्षवृत्ति अनैकान्तिक हेत्वाभास का उदाहरण है।
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सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥34॥
अन्वयार्थ : क्योंकि सर्वज्ञपने के साथ वक्तापने का कोई विरोध नहीं है।
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सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ॥35॥
अन्वयार्थ : साध्य के सिद्ध होने पर तथा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित होने पर प्रयुक्त हेतु अकिञ्चित्कर हेत्वाभास कहलाता है।
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सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् ॥36॥
अन्वयार्थ : शब्द कर्ण इन्द्रिय का विषय होता है, इसलिए सिद्ध है, शब्द होने से।
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किञ्चिदकरणात् ॥37॥
अन्वयार्थ : कुछ भी नहीं करने से शब्दत्वहेतु अकिञ्चित्कर हेत्वाभास है।
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यथाऽनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादित्यादौ किञ्चित्कर्तुमशक्यत्वात् ॥38॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार अग्नि ठण्डी होती है क्योंकि वह द्रव्य है इत्यादि अनुमानों में कुछ भी नहीं कर सकने से द्रव्यत्वादि हेतु अकिञ्चित्कर कहे जाते हैं ।
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लक्षणे एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैवदुष्टत्वात् ॥39॥
अन्वयार्थ : लक्षण की अपेक्षा से ही यह दोष है क्योंकि व्युत्पन्न पुरुषों का प्रयोग पेक्ष के दोषों से ही पुष्ट हो जाता है।
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दृष्टान्ताभासा अन्वयेऽसिद्धसाधनोभयाः ॥40॥
अन्वयार्थ : अन्वय दृष्टान्ताभास के तीन भेद हैं - साध्य विकल, साधन विकल और उभयविकल।
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अपौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वादिन्द्रियसुखपरमाणुघटवत् ॥41॥
अन्वयार्थ : शब्द अपौरुषेय है, अमूर्त होने से, इन्द्रिय सुख, परमाणु और घट के समान।
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विपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्तम् ॥42॥
अन्वयार्थ : जो अपौरुषेय होता है, वह अमूर्त होता है, वह विपरीतान्वय नाम का दृष्टान्ताभास है।
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विद्युदादिनाऽति प्रसङ्गेत् ॥43॥
अन्वयार्थ : क्योंकि इसमें बिजली आदि से अतिप्रसंग दोष आता है।
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व्यतिरेकेऽसिद्धतद्व्यतिरेका, परमाण्विन्द्रिय सुखाकाशवत् ॥44॥
अन्वयार्थ : व्यतिरेकदृष्टान्ताभास साध्यविकल, साधनविकल, उभय विकल इनके उदाहरण परमाणु इन्द्रियसुख और आकाश हैं।
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विपरीतव्यतिरेकश्च यन्नामूर्तं तन्नापौरुषेयम् ॥45॥
अन्वयार्थ : जो अमूर्त नहीं है, वह अपौरुषेय नहीं है, यह विपरीत व्यतिरेक दृष्टान्ताभास का उदाहरण है।
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बालप्रयोगाभासः पञ्चावयवेषु कियद्धीनता ॥46॥
अन्वयार्थ : पाँच अवयवों में से कितने ही कम अवयवों का प्रयोग बाल प्रयोगाभास है।
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अग्निमानयं प्रदेशो धूमवत्वाद्यदिथं तदित्थं यथा महानसः ॥47॥
अन्वयार्थ : यह प्रदेश अग्नि वाला है, धूम वाला होने से। जो धूम वाला होता है, वह अग्नि वाला होता है, जैसे रसोईघर।
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धूमवाँश्चायम् ॥48॥
अन्वयार्थ : और यह भी धूम वाला है।
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तस्मादग्निमान् धूमवान् चायम् ॥49॥
अन्वयार्थ : इसलिए यह अग्नि वाला है और यह भी धूम वाला है।
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स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ॥50॥
अन्वयार्थ : कम अवयव प्रयोग करने पर पदार्थ का स्पष्टता से ठीकठीक ज्ञान नहीं होता।
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रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ॥51॥
अन्वयार्थ : रागद्वेषमोह से आक्रान्त पुरुष के वचनों से उत्पन्न हुए पदार्थ के ज्ञान को आगमाभास कहते हैं।
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यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति, धावध्वं माणवकाः ॥52॥
अन्वयार्थ : जैसे कि - हे बालको दौड़ो, नदी के किनारे लड्डुओं के ढेर लगे हैं।
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अंगुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इति च ॥53॥
अन्वयार्थ : अंगुली के अग्र भाग पर हाथियों के सौ समुदाय रहते हैं।
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विसंवादात् ॥54॥
अन्वयार्थ : विसंवाद होने से।
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प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ॥55॥
अन्वयार्थ : ्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, इत्यादि रूप से सर्व संख्याभास है।
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लौकायतिकस्य प्रत्यक्षत: परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धया देश्चासिद्धेरतद्विषयत्वात् ॥56॥
अन्वयार्थ : चार्वाक का प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना इसलिए संख्याभास है कि प्रत्यक्ष से परलोक आदि का निषेध और पर की बुद्धि आदि की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि वे उसके विषय नहीं है।
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सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोप मानार्थापत्याभावैरेकैकाधिकैः व्याप्तिवत् ॥57॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार बौद्ध, सांख्य, योग, प्रभाकर और जैमिनीयों के प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन एक-एक अधिक प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति विषय नहीं की जाती है।
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अनुमानादेरतद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥58॥
अन्वयार्थ : अनुमानादि के परबुद्धि आदिक का विषयपना मानने पर अन्य प्रमाणों के मानने का प्रसंग आता है।
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तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वमप्रमाणस्या व्यवस्थापकत्वात् ॥59॥
अन्वयार्थ : तर्क को व्याप्ति का विषय करने वाला मानने पर बौद्धादि को उसे एक भिन्न प्रमाण मानना पड़ता है, क्योंकि अप्रमाणज्ञान पदार्थ की व्यवस्था नहीं कर सकता है।
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प्रतिभासस्य च भेदकत्वात् ॥60॥
अन्वयार्थ : प्रतिभास का भेद ही प्रमाणों का भेदक होता है।
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विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम् ॥61॥
अन्वयार्थ : केवलसामान्य को, केवल विशेष को अथवा स्वतंत्र दोनों को प्रमाण का विषय मानना विषयाभास है।
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तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च ॥62॥
अन्वयार्थ : उस प्रकार का प्रतिभास न होने से और कार्य को नहीं करने से।
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समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥63॥
अन्वयार्थ : समर्थ पदार्थ के कार्य करने पर अपेक्षा न होने से हमेशा कार्य की उत्पत्ति का प्रसंग आता है।
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परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् ॥64॥
अन्वयार्थ : दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षा रखने पर परिणामीपना प्राप्त होता है, अन्यथा कार्य नहीं हो सकता है।
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स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात् पूर्ववत् ॥65॥
अन्वयार्थ : आप ही असमर्थ के पूर्व के समान कार्य करने वाला न होने से।
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फलाभास: प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा ॥66॥
अन्वयार्थ : प्रमाण से उसके फल को सर्वथा अभिन्न तथा भिन्न मानना फलाभास है।
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अभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः ॥67॥
अन्वयार्थ : प्रमाण से फल सर्वथा अभिन्न माना जाए तो प्रमाण और प्रमाण के फल में व्यवहार ही नहीं हो सकता है।
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व्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फलान्तराद् व्यावृत्याऽफलत्व प्रसंगात् ॥68॥
अन्वयार्थ : अफल की व्यावृत्ति से भी फल की कल्पना नहीं की जा सकती अन्यथा फलान्तर का व्यावृत्ति से अफलपने की कल्पना का प्रसंग आ जायेगा।
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प्रमाणान्तरात् व्यावृत्यावाप्रमाणत्वस्य ॥69॥
अन्वयार्थ : अन्य प्रमाण की व्यावृत्ति से अप्रमाणपने का प्रसंग आता है।
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तस्माद्वास्तवो भेदः ॥70॥
अन्वयार्थ : इसलिए प्रमाण और फल में परमार्थ से भेद है।
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भेदेत्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तेः ॥71॥
अन्वयार्थ : भेद मानने पर अन्य आत्मा के समान यह इस प्रमाण का फल है ऐसा व्यवहार हो नहीं सकता है।
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समवायेऽति प्रसंगः ॥72॥
अन्वयार्थ : समवाय के मानने पर अतिप्रसंग का दोष आता है।
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प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च ॥73॥
अन्वयार्थ : वादी के द्वारा प्रयोग में लाए गए प्रमाण और प्रमाणाभास प्रतिवादी के द्वारा दोष रूप में प्रकट किये जाने पर वादी से परिहार दोष लिए रहते हैं तो वे वादी के लिए साधन और साधनाभास हैं और प्रतिवादी के लिए दूषण और भूषण हैं।
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अन्य ग्रन्थों में नयादि तत्त्व
अन्वयार्थ : संभव अन्य भी विचारणीय है।
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परीक्षामुखमादर्शी, हेयोपादेयतत्त्वयोः ।
संविदे मादृशो बालः, परीक्षादक्षवद् व्यधाम ॥
अन्वयार्थ : छोड़ने योग्य और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के ज्ञान के लिए दर्पण के समान इस परीक्षामुख ग्रन्थ को मुझ सदृश बालक ने परीक्षा में निपुण पुरुष के समान रचा।
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