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सन्मतितर्क
























- सिद्धसेनाचार्य



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022

Index


अधिकार

नयमीमांसा ज्ञानमीमांसा ज्ञेयमीमांसा







Index


गाथा / सूत्रविषय

नयमीमांसा

1-01) जिन-शासन : स्वतः प्रमाण-सिद्ध है
1-02) यह रचना मन्द-बुद्धि वालों के लिए
1-03) तीर्थंकर-वाणी : सामान्य-विशेषात्मक
1-04) संग्रहनय की सत्ता
1-05) पर्यायार्थिकनय का मूल
1-06) निक्षेप -- लोक व्यवहार
1-07) दोनों नयों का विषय
1-08) नय : एक-दूसरे से अतिक्रान्त
1-09) कोई नय शुद्ध जाति वाला नहीं
1-10) दोनों नय परस्पर विरुद्ध
1-12) द्रव्य का लक्षण
1-13) दोनों नय : असत्य दृष्टि ?
1-14) नयों की यथार्थता
1-16) कोई भी नय उभयवाद का प्रतिपादक नहीं
1-17-021) दोनों नयों की एकान्त दृष्टि में संसार / मोक्ष नहीं
1-22-025) समन्वित ही सुनय
1-26) दृष्टान्त की सार्थकता
1-27) सापेक्षता न हो तो मिथ्यात्व (विपरीतता)
1-28) अपनी मर्यादा में सभी नय सच्चे
1-29) दोनों नयों की विषय-मर्यादा
1-30) व्यंजन पर्याय भिन्‍न तथा अभिन्‍न
1-31) द्रव्य कितना ?
1-32) व्यंजनपर्याय : सदृशपर्यायप्रवाह
1-34) एक द्रव्य में दोनों पर्यायें (अवस्थायें)
1-35) सविकल्प या निर्विकल्प मानना अनिश्चितता
1-36-040) सात भंग
1-41) अर्थपर्याय तथा व्यंजनपर्याय में भंग
1-42) केवल पर्यायार्थिकनय का वक्तव्य पूर्ण नहीं
1-44-046) वस्तु एक है और अनेक भी
1-47-048) दूध और जल के समान जीव और शरीर भिन्न-अभिन्न
1-49) आत्मा और मन, वचन, काय का एकत्व
1-50) बाह्याभ्यन्तर व्यवस्था की विशिष्टता
1-51-052) दोनों नयों की मान्यता
1-53) समन्वय में जैनदृष्टि
1-54) वक्ता किसी एक नय से कथन करे

ज्ञानमीमांसा

2-01) दर्शन और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं
2-02) दर्शन तथा ज्ञान काल में भेद
2-03) केवलज्ञान में ज्ञान, दर्शन का काल भिन्न नहीं
2-04) कुछ आचार्यों का भिन्न मत
2-05-08) केवली के ज्ञान-दर्शन में काल-भेद नहीं
2-09) केवली के एक ही उपयोग
2-10-14) सर्वज्ञ सामान्य-विशेष रूप पदार्थों का ज्ञाता
2-15) क्रमोपयोगवादी का कथन
2-16-17) ज्ञान का विषय पदार्थ
2-18) सामर्थ्य के अनुसार सूत्रों की व्याख्या
2-19) मन:पर्यय ज्ञान ही है दर्शन नहीं
2-20) केवलदर्शन, केवलज्ञान कहने का तात्पर्य
2-21-22) केवलदर्शन और केवलज्ञान में अन्तर क्‍या ?
2-23-24) मतिज्ञान ही दर्शन
2-25) आगम में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन क्यों?
2-26) मन:पर्यय ज्ञान में मन:पर्यय दर्शन का प्रसंग नहीं
2-27) अल्पज्ञ का पदार्थ-ज्ञान दर्शनपूर्वक
2-28) श्रुतज्ञान में दर्शन शब्द लागू नहीं
2-29) अवधिज्ञान में दर्शन शब्द का प्रयोग उपयुक्त
2-30) केवली के भेदविहीन ज्ञान, दर्शन
2-31) युगपत्‌ अनन्तदर्शन ज्ञानयुक्त स्वसमय
2-32-33) तत्त्व-रुचि रूप श्रद्धान सम्यग्दर्शन
2-34-36) एक बार होने पर केवलज्ञान सतत
2-37-42) परस्पर विरुद्धता होने पर केवलज्ञान कैसे ?
2-43) केवलज्ञान : असंख्यात और अनन्त भी

ज्ञेयमीमांसा

3-01-02) सामान्य और विशेष में भेद नहीं
3-03-04) सामान्य का समन्वयकारी प्रतीत्यवचन
3-05-06) वस्तु में अस्तित्व ओर नास्तित्व दोनों
3-07) एक ही पुरुष में भेदाभेद
3-08) क्‍या द्रव्य और गुण में भेद है?
3-09-15) गुण पर्याय-संज्ञा है क्या ?
3-16-18) अभेदवादी का कथन
3-19) सर्वथा अभेद-पक्ष निर्दोष नहीं
3-20) अभेदवादी का कथन
3-21) सिद्धान्ती का तर्क
3-22) प्रश्नोत्तर
3-23-24) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण-विचार
3-25-26) प्रस्तुत वार्ता का प्रयोजन
3-35-37) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भिन्‍न तथा अभिन्‍न भी
3-43-45) धर्मवाद
3-46-49) शुद्ध नयवाद
3-50-52) वे सभी सदोष
3-53) कार्य की उत्पत्ति स्व-कारण से
3-54-55) अनात्मवादी और आत्मवादी
3-56-59) अनेकान्त-दृष्टि के अभाव में
3-60) पदार्थ के प्रतिपादन का क्रम
3-61-62) अनेकान्ती ही भावस्पर्शी
3-63) भक्ति या जानकारी मात्र से ज्ञानी नहीं
3-64-65) अर्थ-ज्ञान दुर्लभ है
3-66-67) ज्ञान-विहीन पर-समय



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

आचार्य सिद्धसेन-देव-विरचित

श्री
सन्मतितर्क


मूल प्राकृत सूत्र

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥

अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥

अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥

॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीसन्मतितर्क नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीसिद्धसेनदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥



मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥

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नयमीमांसा



+ जिन-शासन : स्वतः प्रमाण-सिद्ध है -
सिद्धं सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं ।
कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं ॥1॥
अन्वयार्थ : [अणोवम] अनुपम [सुहं] सुख (के) [ठाणं] स्थान को [उब] गयाणं] प्राप्त (तथा) [भवजिणाणं] संसार को जीतने वाले [जिणाणं] जिनेन्द्र भगवान का [सासणं] शासन [सिद्धत्याणं] (प्रमाण ) प्रसिद्ध अर्थों का [ठाणं] स्थान है और [कुसमय] मिथ्या मत (का) [विसासणं] निवारण करने वाला [सिद्धं] (स्वत:) सिद्ध है ।

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+ यह रचना मन्द-बुद्धि वालों के लिए -
समयपरमत्थवित्थरविहाडजणपज्जुवासणसयन्नो।
आगममलारहियओ जह होइ तमत्थमुन्नेसुं ॥2॥
अन्वयार्थ : [आगममलारहियओ] आगम (समझने में) मन्‍द बुद्धि वालों के लिए यह ग्रन्थ [समयपरमत्थवित्थर] सिद्धान्त (के) परमार्थ (सत्यार्थ) विस्तार (को) [विहाड] प्रकट(प्रकाशित करने वाला है) [जण] लोग [पज्जुवासण] पर्युपासना (भमलीभांति उपासना में) [सयण्ण] सावधान [जह] जैसे (जिस तरह से) [होइ] हो (जायें) (वैसे ही) [तमत्थ मुण्णेसु] उस अर्थ को कहूँगा ।

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+ तीर्थंकर-वाणी : सामान्य-विशेषात्मक -
तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी ।
दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पा सिं ॥3॥
अन्वयार्थ : [तित्थयरवयण] तीर्थंकर (के) वचन (वचनों का) [संगह] संग्रह (सामान्य और) [विसेस पत्थार] विशेष प्रस्तार (के) [मूलवागरणी] मूल व्याख्याता [दव्वट्ठियो] द्रव्यार्थिक(नय) [य]और [पज्जवणयो] पर्यायार्थिक नय (मूल में दो नय हैं) [य] और [सेसा] शेष (नय) [सिं] उन (दोनों नयों के) [वियप्पा] विकल्प (भेद) हैं ।

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+ संग्रहनय की सत्ता -
दव्वट्ठियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ ।
पडिरूवे पुण वयणत्थनिच्छओ तस्स ववहारो ॥४॥
अन्वयार्थ : [संगहपरूवणाविसओ] संग्रह (नय की) प्ररूपणा (का) विषय [सुद्धा] शुद्ध [दव्वट्ठियणयपयडी] द्रव्यार्थिक नय (की) प्रकृति है [पडिरूवे] प्रतिरूप में (प्रत्येक वस्तु-रूप में) [पुण] फिर [वयणत्थ] वचन के अर्थ का [णिच्छोओ] निश्चय [तस्स] उस (संग्रह नय) का [ववहारो] व्यवहार है ।

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+ पर्यायार्थिकनय का मूल -
मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उज्जुसुयवयणविच्छेदो ।
तस्स उ सहाईआ साहपसाहा सुहुमभेया ॥5॥
अन्वयार्थ : [उज्जुसुयवयणविच्छेदो] ऋज़ुसूत्रनय (का) वचन-व्यवहार (ही) [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक नय का [मूलणिमेणं] मूल स्थान (है) [सद्दाईआ] शब्दादिक (शब्दनय, समभिरूढ़नय, एवंभूतनय) [उ तस्य] तो उस (ऋजुसूत्रनय) के [साहपसाहा] शाखा-प्रशाखा (रूप) [सुहुमभेया] सूक्ष्म भेद हैं ।

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+ निक्षेप -- लोक व्यवहार -
नामं ठवणा दविए त्ति एस दव्यट्ठियस्स निक्खेवो ।
भावो उ पज्जवट्ठिअस्स परूवणा एस परमत्थो ॥6॥
अन्वयार्थ : [णामं ठवणा दविए] नाम स्थापना द्रव्य (निक्षेप) [त्ति] इस प्रकार [एस] यह (तीनों निक्षेप) [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक (नय) के [णिक्खेवो] निक्षेप हैं [उ भावो] किन्तु भाव (निक्षेप) [पज्जवड्डियस्स] पर्यायार्थिक (नय) की [परूवणा] प्ररूपणा (कथनी) (होने से) [एस] यह [परमत्थो] परमार्थ है ।

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+ दोनों नयों का विषय -
पज्जवणिस्सामण्णं वयणं दव्वट्ठियस्स 'अत्थि' त्ति ।
अवसेसो वयणविही पज्जवभयणा सपडिवक्खो ॥7॥
अन्वयार्थ : [अत्थि] है (सत्‌) [त्ति] यह (वचन) [पज्जवणिस्सामण्णं] पर्याय (से) रहित सामान्य (विशेष से सर्वथा रहित) [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक (नय) का [ववण] वचन (विषय है) [पज्जवभयणा] पर्याय (के) विभाग से [अवसेसो] बाकी सब [वयणविही] वचनविधि (कथन-प्रकार) [सपडिवक्खो] प्रतिपक्षी (सापेक्ष / प्रतिपक्ष सहित) है ।

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+ नय : एक-दूसरे से अतिक्रान्त -
पज्जवणयवोक्कंतं वत्थुं दव्वट्ठियस्स वयणिज्जं ।
जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्प-निव्वयणो ॥8॥
अन्वयार्थ : [जाव] जब तक [अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो] अन्तिम विकल्प (और) वचन-व्यवहार (रूप) [दविओवओगो] द्रव्योपयोग (है) (ताव) तब तक [पज्जवणयवोक्कंतं] पर्यायार्थिकनय से अतिक्रान्त [वत्थुं] वस्तु को [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक (नय) की [वयणिज्जं] वाच्य जानो ।

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+ कोई नय शुद्ध जाति वाला नहीं -
दव्वट्टिओ त्ति तम्हा नत्थि णओ णियम सुद्धजाईओ ।
ण य पज्जवट्ठिओ णाम कोइ भयणाय उ विसेसो ॥9॥
अन्वयार्थ : [तम्हा] इसलिए [णियमसुद्धजाईओ] नियम से शुद्ध जातीय [दव्वट्ठियो] द्रव्यार्थिक [णयो] नय [णत्थि] नहीं है [त्ति] इसी प्रकार कोई [पज्जवट्टियो] पर्यायार्थिक [णाम] नाम (नहीं है) [उ] किन्तु [विसेसो] विशेष (विवक्षा) [भयणाय] विभाग (करने) के लिए है ।

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+ दोनों नय परस्पर विरुद्ध -
दव्वट्ठियवत्तव्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स ।
तह पज्जववत्थु अवत्थुमेव दवट्ठियनयस्स ॥१०॥
अन्वयार्थ : [दव्वट्टियवत्तव्वं] द्रव्यार्थिक (नय का) वक्तव्य [पज्जवणयस्स] पर्यावार्थिक नय के (लिए) [णियमेण] नियम से [अवत्थु] अवस्तु (है) [तह] उसी प्रकार (से) [दव्वट्ठियणयस्स] द्रव्यार्थिक नय के (लिए) [पज्जववत्थु] पर्यायार्थिक (की) वस्तु [अवत्युमेव] अवस्तु ही है ।

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उप्पज्जंति वियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स ।
दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविणट्ठं ॥11॥
अन्वयार्थ : [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक नय की (दृष्टि में) [भावा] पदार्थ [णियमेण] नियम से [उप्पज्जंति] उत्पन्न होते हैं [वियंति] नष्ट होते हैं [य] और [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक (नय) की (दृष्टि में) [सया] सदा [सव्वं] सभी (पदार्थ) [अणुष्पण्णमविणट्ठं] न उत्पन्न होते न नष्ट होते हैं ।

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+ द्रव्य का लक्षण -
दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि ।
उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं ॥12॥
अन्वयार्थ : [पज्जवविउयं] पर्याय (से) रहित [दव्वं] द्रव्य [य] और [दव्वविउत्ता] द्रव्य से अलग [पज्जवा] पर्याय [णत्थि] नहीं (है) [उप्पायट्ठिइभंगा] उत्पाद, स्थिति (और) व्यय (से युक्त वस्तु) के कथन (प्रकार) से [हंदि] निश्चय से [एयं] यह [दवियलक्खणं] द्रव्य का लक्षण है ।

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+ दोनों नय : असत्य दृष्टि ? -
एए पुण संगहओ पाडिक्कमलक्खणं दुवेण्हं पि ।
तम्हा मिच्छद्दिट्ठी पत्तेयं दो वि मूलणया ॥13॥
अन्वयार्थ : [एए] ये [पुण] फिर [संगहओ] संग्रह (परस्पर अभिन्‍न) नय से [दुर्वेण्हं] दोनों [पि] भी [पाडिक्कमलक्खणं] प्रत्येक अलक्षण (लक्षण वाले नहीं हैं) [तम्हा] इसलिए [पत्तेयं] प्रत्येक [दो] दोनां [वि] ही [मूलणया] मूल नय [मिच्छादिट्ठी] मिथ्यादृष्टि हैं ।

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+ नयों की यथार्थता -
ण य तइयो अस्थि णओ ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं ।
जेण दुवे एगन्ता विभजमाणा अणेगन्तो ॥14॥
अन्वयार्थ : [य] और [तइओ] तीसरा [णयो] नय [ण] नहीं [अत्यि] है [य] और [तेसु] उनमें (उन दोनों नयों में) [पडिपुण्णं] परिपूर्ण [सम्मत्तं] सम्यक्त्व (यथार्थपना) [णयं] नय [ण] नहीं है (ऐसा) [ण] नहीं है [जेण] जिससे [दुवे] दोनों [एंगता] एकान्त (नय) [विभज्जमाणा] भजमान (परस्पर सापेक्ष कथन करने पर) [अणेगंतो] अनेकान्त कहे जाते हैं ।

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जह एए तह अण्णे पत्तेयं दुण्णया णया सव्वे ।
हंदि हु मुलणयाणं पण्णवणे वावडा ते वि ॥15॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस तरह [एए] ये (दोनों नय निरपेक्ष होने पर) [दुण्णया] दुर्नय (मिथ्या नय) (हैं) [तह] उसी तरह [अण्णे] दूसरे [सव्वे] सब [पत्तेयं] प्रत्येक [णया] नय (मिथ्या कहलाते हैं) (क्योंकि) [हु] सचमुच [मूलणयाणं] मूल नयों की [पण्णवणे] प्रज्ञापना (विषय के प्रतिपक्ष) में [ते वि] वे भी (अन्य नय भी सापेक्ष होकर) [वावडा] संलग्न [होंति] होते हैं ।

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+ कोई भी नय उभयवाद का प्रतिपादक नहीं -
सव्वणयसमूहम्मि वि णत्थि णओ उभयवायपण्णवओ ।
मूलणयाण उ आणं पत्तेयं विसेसियं बिंति ॥16॥
अन्वयार्थ : [सव्वणयसमूहम्मि] सब नयों (के) समूह में [वि] भी [उभयवायपण्णवओ] उभयवाद (का) प्रतिपादक [णयो] नय [णत्थि] नहीं है [उ] किन्तु [मूलणयाण] मूल नयों (के) द्वारा [णाअं] जाने (विषय को) [विसेसियं] विशेष (रूप से) [पत्तेयं] प्रत्येक (नय) [बेंति] कहते हैं ।

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+ दोनों नयों की एकान्त दृष्टि में संसार / मोक्ष नहीं -
ण य दव्वट्ठियपक्खे संसारो णेव पज्जवणयस्स ।
सासयवियत्तिवायी जम्हा उच्छेअवाईआ ॥17॥
सुह-दुक्खसम्पओगो ण जुज्जए णिच्चवायपक्खम्मि ।
एगंतुच्छेयम्मि य सुह-दुक्खवियप्पणमजुत्तं ॥18॥
कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ बन्धट्ठिई कसायवसा ।
अपरिणरउच्छिण्णेसु य बंघट्ठिइकारणं णत्थि ॥19॥
बंधम्मि अपूरन्ते संसारभओघदंसणं मोज्झं ।
बन्धं व विणा मोक्खसुहपत्थणा णत्थि मोक्खो य ॥20॥
तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा ।
अण्णोण्णणिस्सिआ उण हवंति सम्मत्तसब्भावा ॥21॥
अन्वयार्थ : [दव्वट्टियपक्खे] द्रव्यार्थिक (नय के) पक्ष (मत) में [संसारो] संसार [ण] नहीं है [य] और [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक नय के (पक्ष में भी संसार) [णेव] नहीं (है) [जम्हा] जिस कारण (क्योंकि) (द्रव्यार्थिक नय) [सासयवियत्तिवाई] शाश्वत (नित्य) व्यक्तिवादी (है) [य] और (दूसरा) [उच्छेयवाई] उच्छेदवादी (नाशवादी) है ।
[णिच्चवायपक्खम्मि] नित्यवाद पक्ष में [सुहदुक्खसंपओगो] सुख-दुःख (का) सम्बन्ध [ण] नहीं [जुज्जए] जोड़ा जा सकता (है) [य] और [एगंतुच्छेयम्मि] एकान्त (के) उच्छेद (क्षणिकवाद) में (भी) [सुहदुक्खवियप्पणमजुत्तं] सुख-दुःख (का) विकल्प करना अयुक्त (नहीं बनता) है ।
[जोगणिमित्तं] योग (मन, वचन और शरीर के व्यापार से आत्मप्रदेशों में स्थित शक्ति विशेष से होने वाले परिस्पन्दन) निमित्त (साधन) से [कम्मं] कर्म [बज्ञइ] ग्रहण (किया जाता है) [कसायवसा] कषाय (क्रोध, अहंकार, माया और लोभ) के अधीन (सामर्थ्य) से [बंधट्ठिई] बन्ध (की) स्थिति (निर्मित होती हैं) [अपरिणउक्किण्णेसु] उपशान्त कषाय तथा क्षीणकषाय दानों में सर्वथा नित्य-अनित्य अवस्था में [य] और [बंधट्ठिई] बन्धस्थिति (का); कारण (निमित्ते) [णत्थि] नहीं है ।
[बंधम्मि] बन्ध (की) में [अपूरंते] पूर्ति हुए (बिना) [संसारभओघदंसणं] संसार (में) भय-समूह (विविधता का) दर्शन [मोज्झ] व्यर्थ है [बंधं] बन्ध के [व] ही [विणा] बिना [मोक्खसुहपत्थणा] मोक्षसुख की प्रार्थना (अभिलाषा) [य] और [मोकेंखो] मोक्ष [णत्थि] नहीं है ।
[तम्हा] इसलिए [सव्वे] सब [वि] ही [णया] नय [सपक्खपडिबद्धा] अपने (अपने) पक्ष (एकान्त में) संलग्न [मिच्छादिट्ठी] मिथ्या रूप हैं [उण] फिर (वे ही) [अण्णोण्ण] एक-दूसरे (परस्पर) के [णिस्सिया] पक्षपाती (सापेक्ष) [सम्मत्तसब्भावा] सम्यक्‌ रूप (वाले) [हवंति] होते हैं ।

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+ समन्वित ही सुनय -
जहऽणेयलक्खणगुणा वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता ।
रयणावलिववएसं न लहंति महग्घमुल्ला वि ॥22॥
तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोण्णपक्खणिरवेक्खा ।
सम्मद्दंसणसद्दं सव्वे वि णया ण पावेंति ॥23॥
जह पुण ते चेव मणी जहा गुणविसेसभागपडिबद्धा ।
'रयणावलि'त्ति भएणइ जहंति पाडिक्कसण्णाउ ॥24॥
तह सव्वे णयवाया जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा ।
सम्मद्दंसणसद्दं लहन्ति ण विसेससण्णाओ ॥25॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [णेग] अनेक [लक्खणगुणा] लक्षण (और) गुण (वाले) [वेरुलियाई मणी] वैडूर्य मणि [महग्धमुल्ला] बहुत मूल्य (वाले) [वि] भी [विसंजुत्ता] बिखरे हुए (पिरोये हुए, संयुक्त नहीं होने से) [रयणावलिववएसं] रत्नावली नाम (व्यवहार को) [ण] नहीं [लहंति] प्राप्त (करते) हैं ।
[तह] उसी प्रकार [णिययवायसुविणिच्छिया] अपने (अपने) वाद (पक्ष में) सुनिश्चित (होने पर) [वि] भी [अण्णोण्णपक्खणिरवेक्खा] एक-दूसरे (के) पक्ष (के साथ) निरपेक्ष (होने से) [सव्वे] सब [वि] ही [णया] नय [सम्महंसणसइं] सम्यक्‌दर्शन शब्द को [ण] नहीं [पारवंति] पाते हैं ।
[जह पुण] जैसे फिर [ते चेव] वे ही [मणी जहागुणविसेसभाग पडिबद्धा] जहाँ (जब) धागे विशेष (में) पिरो दी जाती हैं तो [रयणावलि] रत्नावली (रत्नों का हार) [त्ति] यह [भण्णइ] कही जाती है (और) [पाडिक्कसण्णाओ] प्रत्येक (अपने-अपने) संज्ञा (नाम को, मणि इस नाम को) [जहति] छोड़ देती है ।
[तह] उसी प्रकार [सव्वे] सब [णयवाया] नयवाद [जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा] यथानुरूप वचनों (में) विनियुक्त (प्रकट होने वाले) [सम्मदंसणसद्दं] सम्यग्दर्शन शब्द(को) [लहंति] प्राप्त करते हैं [विसेससण्णाओ] विशेष संज्ञा(वाले हो कर) [ण] नहीं ।

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+ दृष्टान्त की सार्थकता -
लोइयपरिच्छयसुहो निच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो य ।
अह पण्णवणाविसउ त्ति तेण वीसत्थमुवणीओ ॥26॥
अन्वयार्थ : [अह] और [पण्णवणाविसओ] प्रतिपादन का विषय (जो कहा जा रहा है) [वह) [लोइय] लौकिक (जन और) [परिच्छय] परीक्षक जन को [सुहो] सुख (ज्ञेय हो जाए) [य] और [णिच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो] निश्चित ज्ञानमार्ग (के प्रतिपादक) वचन हैं [तेण] इसलिये [त्ति] यह [वीसत्थमुवणीओ] विश्वस्त करने वाला है ।

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इहरा समूहसिद्धो परिणामकओ व्व जो जहिं अत्थो ।
ते तं च ण तं तं चेव व त्ति नियमेण मिच्छत्तं ॥27॥
अन्वयार्थ : [इहरा] अन्य प्रकार से (सापेक्षता न हो तो) [समूहसिद्धो] समुदाय (रूप में) प्रतिष्ठित (मत में) [परिणामकओ] परिणाम (रूप) कार्य (उत्पन्न होता है) [व्व] ही जो [जहिं] जिसमें (कारण में) [अत्थो] पदार्थ (सत्‌ होता है) [ते] वह (कार्य) [तं] उस (कारण रूप है) [व] अथवा [ण] नहीं (है वह कार्य-कारण रूप) [च] और [तं] वह (कार्य) [तं] कारण (रूप) [चेव] ही है [त्ति] यह (मान्यता) [णियमेण] नियम से (सिद्धान्ततः) [मिच्छत्तं] मिथ्यात्व (विपरीत) कहा जाता है ।

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णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा ।
ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा ॥28॥
अन्वयार्थ : [सव्वणया] सभी नय [णियय] अपने (अपने) [वयणिज्ज] वक्तव्य (में) [सच्चा] सच्चे हैं और [परवियालणे] दूसरे (के वक्तव्य का) निराकरण (करने) में [मोहा] व्यर्थ हैं [दिट्ठसमयो] सिद्धान्त (का) ज्ञाता [पुण] फिर [ते] उन (नयों का) [सच्चे] सत्य में (यह सच्चा है) [व] अथवा [अलिए] झूठ में (यह झूठा है) ऐसा [ण] नहीं [विभयइ] विभाग करता ।

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दव्वट्ठियवत्तव्वं सव्वं सव्वेण णिच्चमवियप्पं ।
आरद्धो य विभागो पज्जववत्तव्वमग्गो य ॥29॥
अन्वयार्थ : [सव्वं] सब [सव्वेण] सब तरह से [णिच्चमवियप्पं] नित्य (और) अविकल्प (भेदरहित) [दव्वट्ठियवत्तव्वं] द्रव्यार्थिक (नय का) वक्तव्य है [य] और [विभागो] भेद के [आरद्धो] आरम्भ (होते ही) [पज्जववत्तव्वमग्गो] पर्याय (आर्थिक नय के) वक्तव्य का मार्ग (बन जाता) है।

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जो उण समासओ च्चिय वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य ।
अत्थगओ य अभिण्णो भइयव्वो वंजणवियप्पो ॥30॥
अन्वयार्थ : जो [पुण] फिर [समासओ] संक्षेप (में) [च्चिय] ही [वंजणणियओ] व्यंजननियत (शब्दसापेक्ष) [य] और [अत्थणियओ] अर्थ-नियत (अर्थसापेक्ष) हैं [य] और [अत्थगओ] अर्थगत (विभाग) [अभिण्णे] अभिन्न हैं [य] और [वंजणवियप्पो] व्यंजन-विकल्प [भइयव्वो] भाज्य (भिन्‍न तथा अभिन्‍न) हैं ।

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एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया वयणपज्जया वावि ।
तीयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥31॥
अन्वयार्थ : [एगदवियम्मि] एक द्रव्य में [जे] जो [तीयाणागयभूया] अतीत, भविष्य (और) वर्तमान (में) [अत्थपज्जया] अर्थपर्याय [वा] अथवा [वयणपज्जया] व्यंजनपर्याय [तं] वह [दव्वं] द्रव्य [तावइयं] उतना [इवइ] होता है ।

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पुरिसम्मि पुरिससद्दो जम्माई मरणकालपज्जन्तो ।
तस्स उ बालाईया पन्जवजोया बहुवियप्पा ॥32॥
अन्वयार्थ : [जम्माई मरणकालपज्जंतो] जन्म से मरणकाल तक [पुरिसम्मि] पुरुष में [पुरिससद्दो] पुरुष शब्द (का व्यवहार होता है) [तस्स उ] उस (पुरुष) के तो [पज्जवजोगा] पर्याय (के) संयोगों से [बहुवियप्पा] अनेक विकल्प (अंश) होते हैं ।

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अत्थि त्ति णिव्वियप्पं पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि ।
सो बालाइवियप्पं न लहइ तुल्लं व पावेज्जा ॥33॥
अन्वयार्थ : जो [पुरिसं] पुरुष को [पुरिसकालम्मि] पुरुषकाल (मनुष्यदशा) में [अत्थि] अस्ति (अस्ति रूप से है) [त्ति] यह (मानता है सो) [णिव्वियप्पं] निर्विकल्प (है) [सो] वह [बालाइवियप्पं] बाल (युवा आदि भेदों) आदि विकल्पों को [ण] नहीं [लहइ] पाता (मानता है) [तुल्लं] बराबर (दोनों को समान) [व] ही [पा्वेज्जा] पाता है (मानता है)

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वंजणपज्जायस्स उ 'पुरिसो' 'पुरिसो' त्ति णिच्चमवियप्पो ।
बालाइवियप्पं पुण पासई से अत्थपज्जाओ ॥34॥
अन्वयार्थ : [वंजणपज्जायस्स] व्यंजनपर्याय का (अनुगमन करने वाले को) [उ] तो [पुरिसो] पुरुष [पुरिसो] पुरुष [त्ति] यह (ऐसी) [णिच्चमवियप्पो] नित्य निर्विकल्प (भेदहीन प्रतीति होती है) [पुण] फिर [बालाइवियप्पं] बाल (युवा आदि भेदों) आदि विकल्पों को [पासइ] देखा जाता (है) [से] वह [अत्थपज्जाओ] अर्थपर्याय है ।

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सवियप्प-णिव्वियप्पं इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं ।
सवियप्पमेव वा णिच्छएण ण स निच्छिओ समए ॥35॥
अन्वयार्थ : जो [सवियप्पणिव्वियप्पं] सविकल्प-निर्विकल्प (रूप द्रव्य है) [इय] इस कारण [पुरिसं] पुरुष को [अवियप्पं] निर्विकल्प (मात्र) [सवियप्पमेव] सविकल्प (मात्र) ही [वा] अथवा [भणेज्ज] कहता है [स] वह (मनुष्य) [समए] आगम (शास्त्र) में [ण] नहीं [णिच्छिओ] निश्चित (स्थिरबुद्धि) है ।

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अत्थंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयमाईहिं ।
वयणविसेसाईयं दव्वमवत्तव्वयं पडइ ॥36॥
अह देसो सब्भावे देसोऽसब्भावपज्जवे णियओ ।
तं दवियमत्थि णत्थि य आएसविसेसियं जम्हा ॥37॥
सब्भावे आइट्ठो देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं अत्थि अवत्तव्वं च होइ दविअं वियप्पवसा ॥38॥
आइट्ठोऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं णत्थि अवत्तव्वं च होइ दवियं वियप्पवसा ॥39॥
सब्भावाऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं अत्थि णत्थि अवत्तव्वयं च दवियं वियप्पवसा ॥40॥
अन्वयार्थ : [अत्थंतरभूएहि] अर्थान्तरभूत (पद्धव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव) के द्वारा [य] और [णियएहि] निज (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव) के द्वारा [दोहि] दोनों के द्वारा [समयमाईहिं] एक साथ से (में) [वयणविसेसाईयं] वचन विशेष से अतीत (वचनों की पहुँच से बाहर) [द्रव्वं] द्रव्य (कही जाने वाली वस्तु) [अवत्तव्वं] अवक्तव्य [पडइ] पड़ती (कही जाती) है ।
[अह] और (जिसका) [देसो] भाग (एक देश) [सब्भावे] सद्भाव में (सार रूप में) (तथा) देसो] एक देश [असब्भावपज्जवे] असतूभाव (रूप) पर्याय में [णियओ] नियत (है) [तं] वह [दवियं] द्रव्य [अत्थि] अस्ति [णत्यि] नास्ति (रूप है) [जम्हा] क्योंकि [आएसविसेसियं] भेद (विवक्षा की) विशेषता है ।
[जस्स] जिसका [देसो] देश (एक भाग) [सब्भावे] सद्भाव (अस्तिरूप) से [य] और [देसो] देश (एक भाग) [उभयहा] उभय (रूप) से [आइट्ठो] विवक्षित (हो) [तं] वह [दवियं] द्रव्य [वियप्पवसा] विकल्प (भेद के) वश (कारण) [अत्थि अवत्तव्वं] अस्ति] अवक्तव्य है ।
[जस्स] जिसका [देसो] देश (एक भाग) [असब्भावे] असत्‌ भाव में [आइट्ठो] कहा जाता (है) य] और [देसो] देश (एक भाग) [उभयहा] उभयरूप (दोनों तरह) से [तं] वह [दवियं] द्रव्य [वियप्पवसा] विकल्पवश [णत्थि अवत्तव्वं] नास्ति] अवक्तव्य [होइ] होता है ।
[जस्स] जिसका [देसो] देश (एक भाग) [सब्भावासब्भावे] सद्भाव-असद्भाव (सदसत्रूप से) में [य] और [देसो] देश (एक भाग) [उभयहा] दोनों रूप से (कहा जाता है) [तं] वह [दवियं] द्रव्य [वियप्पवसा] विकल्पवश से [अत्यि णत्यि च अवत्तव्वं] अस्ति] नास्ति और अवक्तव्य (बनता) है ।

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+ अर्थपर्याय तथा व्यंजनपर्याय में भंग -
एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए ।
वंजणपज्जाए उण सवियप्पो णिव्वियप्पो य ॥41॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [अत्थपज्जाए] अर्थपर्याय में [सत्तवियप्पो] सात विकल्प (रूप) [वयणपहो] वचनमार्ग [होइ] होता है [पुण] फिर [वंजणपज्जाए] व्यंजनपर्याय में [सवियप्पो] सविकल्प [य] और [णिव्वियप्पो] निर्विकल्प (रूप वचन मार्ग) होता है ।

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+ केवल पर्यायार्थिकनय का वक्तव्य पूर्ण नहीं -
जह दवियमप्पियं तं तहेव अस्थि त्ति पज्जवणयस्स ।
ण य स समयपन्नवणा पज्जवणयमेत्तपडिपुण्णा ॥42॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [दवियं] द्रव्य [अष्पियं] अर्पित (विवक्षित) [तं] वह [तहेव] वैसा ही [अत्थि] है [त्ति] यह (ऐसा) [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिकनय का (कथन है); (किन्तु) [पज्जवणयर्मेत्त] पर्यायार्थिकनय मात्र [पड़िपुण्णा] परिपूर्ण [ससमयपण्णवणा] स्वसमय (आत्मतत्त्व की) प्ररूपणा [ण] नहीं (है)

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पडिपुण्णजोव्वणगुणो जह लज्जइ बालभावचरिएण ।
कुणइ य गुणपणिहाणं अणागयसुहोवहाणत्थं ॥43॥

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+ वस्तु एक है और अनेक भी -
ण य होइ जोव्वणत्थो बालो अण्णो वि लज्जइ ण तेण ।
ण वि य अणागयवयगुणपसाहणं जुज्जइ विभत्ते ॥44॥
जाइ-कुल-रूव-लक्खण-सण्णा-संबंधओ अहिगयस्स ।
बालाइभावदिट्ठविगयस्स जह तस्स संबंधो ॥45॥
तेहिं अतीताणागयदोसगुणदुगुंछणऽब्भुवगमेहिं ।
तह बंध-मोक्ख-सुह-दुक्खपत्थणा होइ जीवस्स ॥46॥
अन्वयार्थ : [जोव्वणत्थो] युवावस्था (में) [बालो] बालक [ण] नहीं [होइ] होता (रहता है) [अण्णो] अन्य (भिन्‍न होने पर) [वि] भी [ण] नहीं (है) [तेण] उस (बालचरित्र) से [लज्जइ] लजाता (है, इसी तरह) [विभत्ते] विभक्त (अत्यन्त भिन्‍न होने पर) [अणागयवयगृण पसाहणं] भावी आयुष्य (के लिए), गुण] साधना [वि] भी [ण] नहीं [जुज्जइ] घटती है ।
[जाइ] जाति [कुल] कुल [रूव] रूप [लक्खण] लक्षण [सण्णा] संज्ञा [संबंधओ] सम्बन्ध से [अहिगयस्स] ज्ञात [बालाइभाव] बालक आदि अवस्था [दिट्ठ] देखे गए [विगयस्स] विगत (विनष्ट) [तस्स] उस (पुरुष) का [जह] जैसा [संबंधो] सम्बन्ध (घटित होता है)
[तेहिं] उन दोनों (अवस्थाओं से) [अइयाणागय] अतीत (भूतकाल), अनागत (भविष्यत्‌ काल) [दोष] दोष [गुण] गुण [दुगुंछण] जुगुप्सा (ग्लानि) [अब्भुवगमेहिं] प्राप्त होने से [तह] उसी प्रकार [जीवस्स] जीव के [बंधमोक्‍ख सुहदुक्खपत्थणा] बन्ध, मोक्ष, सुख, दुःख (की) अभिलाषा होती है ।

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+ दूध और जल के समान जीव और शरीर भिन्न-अभिन्न -
अण्णोण्णाणुगयाणं 'इमं व तं व' त्ति विभयणमजुत्तं ।
जह दुद्ध-पाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ॥47॥
रूआइपज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि ।
ते अण्णोण्णाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थम्मि ॥47॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [दुद्धपाणियाणं] दूध-पानी का [विभयण मजुत्तं] विभाजन (पृथक्करण ) अयुक्त है (उसी प्रकार) [अण्णोण्णाणुगयाणं] परस्पर ओतप्रोत [जावंत] जितनी [विसेसपज्ञाया] विशेष पर्यायें हैं [इमं] इसकी [व] अथवा [तं] उसकी [व] या [त्ति] इस प्रकार [विभयणमजुत्तं] विभाजन अयुक्त है ।
[देहे] शरीर में [जे] जो [रूवाइपज्जवा] रूपादि पर्यायें हैं [सुद्धम्मि] शुद्ध में [जीवदवियम्मि] जीवद्रव्य में (जो पर्यायें हैं), [भवत्थम्मि] संसारी (जीव) में [ते] वे (पर्यायें) [अण्णोष्णाणुगया] परस्पर में मिली हुई [पण्णवणिज्जा] कहनी चाहिए ।

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+ आत्मा और मन, वचन, काय का एकत्व -
एवं 'एगे आया एगे दंडे य होइ किरिया य' ।
करणविसेसेण य तिविहजोगसिद्धी वि अविरुद्धा ॥49॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [एगे] एक में [आया] आत्मा [एगे] एक में [य] और [दंडें] दण्ड (मन, वचन और शरीर में) [य] और [किरिया] क्रिया (सिद्ध होती है) [य] और [करणविसेसेण] करण विशेष से (के कारण) [तिविहजोगसिद्धी] त्रिविध योग (मन, वचन, काय की) सिद्धि [वि] भी [अविरुद्धा] अविरुद्ध है ।

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+ बाह्याभ्यन्तर व्यवस्था की विशिष्टता -
ण य बाहिरओ भावो अब्भंतरओ य अस्थि समयम्मि ।
णोइंदियं पुण पड्डञ्च होइ अब्भंतरविसेसो ॥50॥
अन्वयार्थ : [समयम्मि] शास्त्र में [बाहिरओ] बाहरी [अब्भिंतरओ] भीतरी [य] और [भावो] भाव [न] नहीं [य] और है [णोइंदियं] नोइन्द्रिय (मन) [पुण] फिर [पड़च्च] आश्रय करके [अब्भिंतरविसेसो] आभ्यन्तर विशेष [होइ] होता है ।

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+ दोनों नयों की मान्यता -
दव्वट्ठियस्स आया बंधइ कम्मं फलं च वेएइ ।
बीयस्स भावमेत्तं ण कुणइ ण य कोइ वेएइ ॥51॥
दव्वट्ठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा ।
अण्णो करेइ अण्णो परिभुंजइ पज्जवणयस्स ॥52॥
अन्वयार्थ : [आया] आत्मा [कम्मं] कर्म को [बंधइ] बाँधता (है) [फलं] फल को [च] और [बेइए] भोगता (है) (यह मत) [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक (नय) का (है) [वीयस्स] दूसरे का (पर्यायार्थिक नय) [भावमेत्तं] भाव मात्र (है वह) [ण] नहीं [कुणइ] करता (बन्ध) है [ण] नहीं [य] और [कोइ] कोई [वेइए] (फल) भोगता है ।
जो [चेव] ही [कुणइ] करता है [सो] वह [चेव] ही [णियमा] नियम से [वेयइ] भोगता है (यह मत) [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक (नय) का है [अण्णो] अन्य [करेइ] करता (है और) [अण्णो] अन्य [परिभुंजइ] भोगता है (यह मत) [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक (नय) का है ।

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+ समन्वय में जैनदृष्टि -
जे वयणिज्जवियप्पा संजुज्जंतेसु होन्ति एएसु ।
सा ससमयपण्णवणा 'तित्थयराऽऽसायणा अण्णा ॥53॥
अन्वयार्थ : [एएसु] इन दोनों के [संजुज्जन्तेसु] संयुक्त होने पर [जें] जो (वस्तु के सम्बन्ध में) [वयणिज्जवियप्पा] कथन करने योग्य विकल्प [होंति] होते हैँ [सा] वह [सूसुमयपण्णवणा] अपने सिद्धान्त की प्ररूपणा है [अण्णा] अन्य (विचारधारा) [तित्थयरासारणा] तीर्थंकर की आशातना है ।

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+ वक्ता किसी एक नय से कथन करे -
पुरिसज्जायं तु पडुच जाणओ पण्णवेज्ज अण्णयरं ।
परिकम्मणाणिमित्तं दाएही सो विसेसं पि ॥54॥
अन्वयार्थ : [जाणओ] जानकार (सिद्धान्तज्ञाता) [पुरिसज्जायं] पुरुष समूह को [तु] तो [पडुच्च] अपेक्षा करके [अण्णयरं] दोनों में से किसी एक (नय का ) [पण्णवेज्ज] प्रतिपादन करना चाहिए [परिकम्मणा] गुणविशेष के आधार के [णिमित्तं] निमित्त (से) [सो] वह [विसेसं] विशेष को [पि] भी [दाएही] दिखलायेगा ।

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ज्ञानमीमांसा



+ दर्शन और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं -
जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं णाणं ।
दोण्ह वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ ॥1॥
अन्वयार्थ : [जं] जो [सामण्णं] सामान्य का [गहणं] ग्रहण है, वह [एयं] यह [दंसणं] दर्शन है [विसेसियं] विशेष रूप से जानना [णाणं] ज्ञान है [दोण्ह] दोनों [वि] भी ही [णयाण] नयों के [पाडेक्कं] प्रत्येक पृथक-पृथक्‌ रूप से [एसो] यह अर्थबोध सामान्य [अत्थपज्जाओ] अर्थपर्याय है ।

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+ दर्शन तथा ज्ञान काल में भेद -
दव्वट्ठिओ वि होऊण दंसणे पज्जवट्ठिओ होइ ।
उवसमियाईभावं पडुच्च णाणे उ विवरीयं ॥2॥
अन्वयार्थ : [दंसणे] दर्शन के समय में [दव्वट्ठिओ] द्रव्यार्थिक नय का विषय [वि] भी [होऊण] हो कर (जीव) [उवसमियाईभावं] औपशमिक आदि भाव की [पडुच्च] अपेक्षा से [पज्जवट्ठिओ] पर्यायार्थिक भी [होइ] होता है [उ] किन्तु [णाणे] ज्ञान के समय में [विवरीयं] विपरीत भासित होता है ।

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+ केवलज्ञान में ज्ञान, दर्शन का काल भिन्न नहीं -
मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ।
केवलणाणं पुण दसणं ति णाणं ति य समाणं ॥3॥
अन्वयार्थ : [णाणस्स] ज्ञान की [य] और [दरिसणस्स] दर्शन की [य] और (भिन्‍नकालता विषयक) [विसेसो] विशेष भेद [मण पज्जवणाणंतो] मन:पर्ययज्ञान पर्यन्त है [पुण] पुन: परन्तु [केवलणाणं] केवलज्ञान में [दसणं] दर्शन [ति] यह [णाणं] ज्ञान [ति] यह [य] और [समाणं] समान हैं ।

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+ कुछ आचार्यों का भिन्न मत -
केई भणंति "जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो" त्ति ।
सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाऽभीरू ॥4॥
अन्वयार्थ : [तित्थयरासायणाऽभीरू] तीर्थंकर की आशातना (अवज्ञा) से भयभीत (डरने) वाले अतः [सुत्तमवलम्बमाणा] सूत्र (आगम ग्रन्थों) का अवलम्बन लेने वाले [केइ] कितने आचार्य कहते हैं [जइया] जब [जाणइ] जानते हैं [तइया] तब [जिणो] केवली [ण] नहीं [पासइ] देखते हैं [त्ति] यह [भर्णति] कहते हैं ।

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+ केवली के ज्ञान-दर्शन में काल-भेद नहीं -
केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं ।
तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥5॥
भण्णइ खीणावरणे जह मइणाणं जिणे ण संभवइ ।
तह खीणावरणिज्जे विसेसओ दंसणं नत्थि ॥6॥
सुत्तम्मि चेव साई अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं ।
सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥7॥
संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्थि ।
केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाइं ॥८॥
अन्वयार्थ : [जहा] जिस प्रकार [केवल णाणं] केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान [केवलणाणावरणक्खयजायं] केवलज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न होता है [तह] उसी प्रकार [णियआवरणवखयस्संते] निज आवरण (दर्शनावरण) क्षय के अनन्तर [दंसणं] दर्शन (केवल-दर्शन) [पि] भी [जुज्जइ] घटता है ।
[जह] जिस प्रकार [खीणावरणे] क्षीण आवरण वाले जिन में [जिणे] जिन (भगवान्‌) में [मइणाणं] मतिज्ञान [ण] नहीं [संभवइ] सम्भव है [तह] उसी प्रकार [खीणावरणिज्जे] क्षीण आवरण वाले जिन में [विसेसओ] विशेष रूप से भिन्न काल में [दंसणं] दर्शन [णत्थि] नहीं है।
[सुत्तम्मि] सूत्र (आगम) में [चेव] ही [केवलं] केवल दर्शन और ज्ञान को [साईअपज्जवसियं] सादि-अनन्त (अपर्यवसित) [ति] यह [वुत्तं] कहा गया है [सुत्तासायणभीरुहि] आगम सूत्र की आशातना से भयभीतों को (के द्वारा) [तं] वह [च] और [दट्ठव्वयं] विचारणीय (दृष्टव्य) [होइ] होता है ।
[केवले] केवली में [दंसणम्मि] दर्शन के [संतम्मि] होने पर [णाणस्स] ज्ञान का (केवलज्ञान का) होना [संभवो] सम्भव [णत्थयि] नहीं है [केवलणाणम्मि] केवलज्ञान में [च] और [दंसणस्स] दर्शन (केवलदर्शन) का होना सम्भव नहीं है [तम्हा] इस कारण से [सणिहणाइं] सादि-सान्त हो जाएगा ।

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+ केवली के एक ही उपयोग -
दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं ।
होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुए णत्थि उवओगा ॥9॥
अन्वयार्थ : [दंसणणाणावरणक्खए] दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षय होने पर [समाणस्मि] समान रूप में [कस्स] किसका उत्पाद [पुव्वअरं] पहले (पू्र्वतर) होता है, क्योंकि दोनों का [समं] एक साथ [उप्पाओ] उत्पाद [होज्ज] हो तो [हंदि] निश्चय से [बे] दो [उवओगा] उपयोग [णत्थि] (एक साथ) नहीं हैं ।

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+ सर्वज्ञ सामान्य-विशेष रूप पदार्थों का ज्ञाता -
जइ सव्वं सायारं जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू ।
जुज्जइ सयावि एवं अहवा सव्वं ण याणाइ ॥10॥
परिसुद्धं सायारं अवियत्तं दंसणं अणायारं ।
ण य खीणावरणिज्जे जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥11॥
अद्दिट्ठं अण्णायं च केवली एव भासइ सया वि ।
एगसमयम्मि हंदी वयणवियप्पो न संभवइ ॥12॥
अण्णायं पासंतो अद्दिट्ठं च अरहा वियाणंतो ।
किं जाणइ किं पासइ कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ॥13॥
केवलणाणमणंतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं ।
सागारग्गहणा हि य णियमपरित्तं अणागारं ॥14॥
अन्वयार्थ : [जह] यदि [सब्वण्णू] सर्वज्ञ [एक्कसमएण] एक साथ एक समय में [सव्वं] सब [सायारं] साकार आकार सहित पदार्थों को [जाणइ] जानता है तो [सया वि एवं] सदा ही इस प्रकार [जुज्जइ] युक्ति (युक्त) हो सकती है [अहवा] अन्यथा [सव्वं] सब को [ण] नहीं [याणाइ] जानता है ।
[सायारं] साकार ज्ञान [परिसुद्धं] निर्मल होता है [अणायारं] अनाकार [दंसण्णं] दर्शन [अवियत्तं] अव्यक्त रहता है [खीणावरणिज्जे] क्षीण आवरण वाले केवली में [सुवियत्तमवियत्तं] सुव्यक्त तथा अव्यक्त का भेद [ण] नहीं [य] और यह [जुज्जइ] युक्त है ।
[केवली] केवली भगवान्‌ [एव] ही [सया वि] सदा ही [अहिट्ठं] अदृष्ट [च] और [अण्णायं] अज्ञात [भासइ] बोलते हैं [हंदी] निश्चय से [एगसमयम्मि] एक समय में [वयणवियप्पो] वचन-विकल्प [ण] नहीं [संभवइ] सम्भव है ।
[अण्णायं] अज्ञात को [पासंतो] देखने वाला [य] और [अद्दिट्ठं] अदृष्ट को [वियाणंतो] जानता हुआ [अरहा] अर्हन् केवली [किं] क्या [जाणइ] जानता है और [किं] क्या [पासइ] देखता है [त्ति] यह [कह] किस प्रकार [सव्वण्णु] सर्वज्ञ [वा होइ] होता है ?
[जहेव] जिस प्रकार [केवलणाणमणंतं] केवलज्ञान अनन्त है [तह] वैसे ही [दंसणं] दर्शन [वि] भी [पण्णत्तं] कहा गया है [किन्तु सागारग्गहणाहि] साकार ग्रहण की अपेक्षा से [य] और (पाद-पूरण के लिए) [अणागारं] अनाकार (दर्शन) [णियम] नियम से [परित्त] अल्प (परिमित) है।आगम में केवली भगवान का दर्शन और ज्ञान अनन्त कहा गया है । परन्तु उनके दर्शन, ज्ञान के उपयोग में क्रम भाना जाय तो साकार-ग्रहण की अपेक्षा से परिमित विषय वाला होगा, जिससे उनके दर्शन में अनन्ता नहीं बन सकती । अतएवं केवली भगवान्‌ में एक समय में ही उपयोग मानना चाहिए ।

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+ क्रमोपयोगवादी का कथन -
भण्णइ जह चउणाणी जुज्जइ णियमा तहेव एयं पि ।
भण्णइ ण पंचणाणी जहेव अरहा तहेयं पि ॥15॥
अन्वयार्थ : [भण्णइ] कहता है [जह] जिस प्रकार [चउणाणी] चार ज्ञान वाला [जुज्जइ] संयुक्त होता है [तहेव] उसी प्रकार ही [णियमा] नियम से [एयं पि] यह भी है [सिद्धान्ती भण्णइ] कहता है [जहेव] जिस प्रकार से ही [अरहा] केवली (सर्वज्ञ) [पंचणाणी] पाँच ज्ञान वाले [ण] नहीं [तहा] उस प्रकार [एयं पि] यह भी है ।

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+ ज्ञान का विषय पदार्थ -
पण्णवणिज्जा भावा समत्तसुयणाणदंसणा विसओ ।
ओहिमणपज्जवाण उ अण्णोण्णविलक्खणा विसओ ॥१६॥
तम्हा चउव्विभागो जुज्जइ ण उ णाणदंसणजिणाणं ।
सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा ॥१७॥
अन्वयार्थ : [समत्त] समस्त (सभी) [सुयणाणदंसणा] श्रुतज्ञान (आगम) रूप दर्शन का [विसओ] विषय [पण्णवणिज्जा] प्रज्ञापनीय (शब्दों के द्वारा प्रतिपादन करने योग्य) [भावा] पदार्थ (द्रव्यादिक) पदार्थ हैं [उ] किन्तु [ओहि मणपज्जवाण] अवधि ज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के [अण्णोण्ण] परस्पर [विलक्खण] विलक्षण (भिन्‍नता) वाले पदार्थ [विसओ] विषय हैं ।
[तम्हा] इसलिये [चउव्विभागो] चार विभाग मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान का विभाग [जुज्जइ] युक्त है [ण उ] किन्तु नहीं बनता है [जिणाणं] जिन (केवली) के [णाणदसंण] ज्ञान-दर्शन में [जम्हा] क्योंकि [केवल] केवल ज्ञान [सयलं] सम्पूर्ण [अणावरणं] अनावरण [अणंतं] अनन्त और [अक्खयं] अक्षय है ।

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+ सामर्थ्य के अनुसार सूत्रों की व्याख्या -
परवत्तव्वयपक्खा अविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु ।
अत्थगईअ उ तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ ॥18॥
अन्वयार्थ : [तेसुतेसु] उनमें-उनमें [सुत्तेसु] सूत्रों में [परवत्तव्वयपक्खा ] पर (अन्य दर्शनों के) वक्तव्य (पक्ष) के समान [अविसिट्ठा] अविशिष्ट सामान्य हैं [उ जाणओ] इसलिए जानने वाला [अत्यगईय] अर्थ की गति के अनुसार [तेसिं] उन (सूत्रों) का [वियंजणं] प्रकटन (व्यक्त) [कुणइ] करता है ।

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+ मन:पर्यय ज्ञान ही है दर्शन नहीं -
जेण मणोविसयगयाण दंसणं णत्थि दव्वजायाण ।
तो मणपज्जवणाणं णियमा णाणं तु णिद्दिट्ठं ॥19॥
अन्वयार्थ : [जेण] जिस कारण से [मणोविसयगयाणं] मन के विषयगत [दव्वजायाणं] द्रव्य-समूह का [दंसणं] दर्शन [णत्थि] नहीं होता है [तो] इसलिए [मणपज्जवणाणं] मनःपर्ययज्ञान को [णियमा] नियम से [णाणं] ज्ञान [णिहिट्ठं] निर्दिष्ट किया गया है ।

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+ केवलदर्शन, केवलज्ञान कहने का तात्पर्य -
चक्खुअचक्खुअवहिकेवलाण समयम्मि दंसणविअप्पा ।
परिपढिया केवलणाणदंसणा तेण ते अण्णा ॥20॥
अन्वयार्थ : [समयस्मि] आगम में [चक्खुअचक्खुअवहिकेवलाण] चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल (दर्शन) (ये) [दंसणवियप्पा] दर्शन के भेद प्रकट किए गए हैं (अतएव) [परिपढिया] पढ़े गए [तेण ते] उससे वे [केवलणाणदंसणा] केवलज्ञान और केवलदर्शन [अण्णा] अन्य (भिन्न) हैं ।

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+ केवलदर्शन और केवलज्ञान में अन्तर क्‍या ? -
दंसणमोग्गहमेत्तं 'घडो' त्ति णिव्वण्णणा हवइ णाणं ।
जह एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चेव ॥21॥
दंसणपुव्वं णाणं णाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि ।
तेण सुविणिच्छियामो दंसणणाणाण अण्णत्तं ॥22॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [ओग्गहमेत्तं] अवग्रह विकल्प ज्ञान मात्र [दंसणं] दर्शन है [घडो] घड़ा [त्ति] यह [णिव्वण्णणा] देखने से [णाणं] मतिज्ञान [हवइ] होता है [तह] वैसे [एत्थ] यहाँ [केवलणाण] केवलज्ञान (और केवलदर्शन में) [वि] भी [एत्तियं] इतनी ही [विसेसण] विशेषता [चेव] और भी है ।
[दंसणपुव्वं] दर्शन पूर्वक [णाणं] ज्ञान होता है [णाण णिमित्तं] ज्ञान के निमित्त पूर्वक [तु] तो [दंसण] दर्शन [णत्यि] नहीं है [तेण] इससे (हम) [सुविणिच्छियामो] भली-भाँति निश्चय करते हैं [दंसगणाणा] दर्शन और ज्ञान में [अण्णत्तं] अन्यत्व [ण] नहीं हैं ।

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+ मतिज्ञान ही दर्शन -
जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मण्णसि विसेसिअं णाणं ।
मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ निप्फण्णं ॥23॥
एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं ।
अह तत्थ णाणमेत्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥24॥
अन्वयार्थ : [जइ] यदि [ओग्गह] अवग्रह (आद्य ग्रहण) [मेत्तं] मात्र [दंसणं] दर्शन है [ति] यह (तथा) [विसेसियं] विशेष (बोध) [णाणं] ज्ञान है [मण्णसि] मानते हो तो [एवं] इस प्रकार [सइ] होने पर (यह मतिज्ञान) [णिप्फण्णं] निष्पन्न (फलित) [होइ] होता है ।
[एवं] इस प्रकार होने पर [सेसिंदियदंसणम्मि] शेष इन्द्रियों के दर्शन में भी [णियमेण] नियम से यही मानना पड़ेगा, किन्तु [जुत्तं] युक्त [ण] नहीं [होइ] होता है [अह] और [तत्थ] वहाँ उन इन्द्रिय विषयक पदार्थों में [णाणमेत्तं] ज्ञान मात्र [घप्पई] ग्रहण किया जाता है तो [चक्खुम्मि] चक्षु इन्द्रिय के विषय में [वि] भी [तहेव] उसी प्रकार से ही मान लेना चाहिए ।

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+ आगम में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन क्यों? -
णाणं अप्पुट्ठे अविसए य अत्थम्मि दंसणं होइ ।
मोत्तूण लिंगओ जं अण्णागयाईयविसएसु ॥25॥
अन्वयार्थ : [अप्पुट्ठे] अस्पृष्ट में [अविसए] [य] और अविषय भूत [अत्थम्मि] पदार्थ में [दंसणं] दर्शन [होइ] होता है [अण्णागयाईयविसएसु] अनागत (भविष्य) आदि के विषयों (पदार्थों) में [लिंगओ] हेतु से जो ज्ञान होता है [जं] जिसे उसे [मोत्तृण] छोड़ कर दिया जाता है ।

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+ मन:पर्यय ज्ञान में मन:पर्यय दर्शन का प्रसंग नहीं -
मणपज्जवणाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं ।
भण्णइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादयो जम्हा ॥26॥
अन्वयार्थ : [तेणेह] इसलिए (यहाँ व्याख्या के अनुसार प्रसंगतः) [मणपज्जवणाणं] मन:पर्ययज्ञान को [दंसणं] दर्शन मानना पड़ेगा [ति] यह [ण] नहीं [होइ] होता है [य] और [जुत्त] युक्‍त [भण्णइ] कहा जाता है [जम्हा] जिससे [घडादओ] घट आदि [णोइंदियम्मि] नोइन्द्रिय (मन) के विषय में [णाणं] ज्ञान (मन:पर्यय) प्रवर्तमान [ण] नहीं होता है ।

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+ अल्पज्ञ का पदार्थ-ज्ञान दर्शनपूर्वक -
मइसुयणाणणिमित्तो छउमत्थे होइ अत्थउवलंभो ।
एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दसणं कत्तो ? ॥27॥
अन्वयार्थ : [छउमत्थे] छद्मस्थ (अल्प ज्ञान वाले जीवों) में [मइसुयणाण] मतिज्ञान (और) श्रुतज्ञान (के) [णिमित्तो] निमित्त (से) [अत्यउवलंभो] पदार्थ (का) ज्ञान [होइ] होता है [तेसिं] उन दोनों (ज्ञानों में से) में [एगयरम्मि] एक में (यदि) [ण] नहीं [दंसणं] दर्शन (ज्ञान के पहले वस्तु को देखना है) (तो फिर) [दंसणं] दर्शन [कत्तो] कहाँ से हो सकता है ?

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+ श्रुतज्ञान में दर्शन शब्द लागू नहीं -
जं पञ्चक्खग्गहणं ण इन्ति सुयणाणसम्मिया अत्था ।
तम्हा दंसणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे ॥28॥
अन्वयार्थ : [जं] जिस कारण [सुयणाणसम्मिया] आगम के ज्ञान से जाने गए [अत्था] पदार्थ [पञ्चक्खग्गहणं] प्रत्यक्ष ग्रहण को [ण] नहीं [इंति] प्राप्त होते हैं [तम्हा] इस कारण [सयले] सम्पूर्ण में [वि] भी [सुयणाणे] श्रुतज्ञान में [दंसणसद्दो] दर्शन शब्द लागू [ण] नहीं [होइ] होता है ।

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+ अवधिज्ञान में दर्शन शब्द का प्रयोग उपयुक्त -
जं अप्पुट्ठा भावा ओहिण्णाणस्स होंति पच्चक्खा ।
तम्हा ओहिण्णाणे दंसणसद्दो वि उवउत्तो ॥29॥
अन्वयार्थ : [जं] क्योंकि [अप्पुट्ठा] अस्पृष्ट [भावा] पदार्थ [ओहिण्णाणस्स] अवधिज्ञान के [पच्चक्खा होंति] प्रत्यक्ष होते हैं [तम्हा ओहिणाणे] इसलिए अवधिज्ञान में [वि] भी [दंसणसदो] दर्शन शब्द [उवउत्तो] उपयुक्त है ।

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+ केवली के भेदविहीन ज्ञान, दर्शन -
जं अप्पुट्ठे भावे जाणइ पासइ य केवली णियमा ।
तम्हा तं णाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥30॥
अन्वयार्थ : [जं] जिस कारण [केवली] केवली भगवान्‌ [णियमा] नियम से [अप्पुट्ठ] अस्पृष्ट [भावे] पदार्थों को [जाणइ] जानता है [पासइ] देखता है [य] और [तम्हा] इस कारण [तं] उसे [णाणं दंसणं च] ज्ञान और दर्शन [अविसेसओ सिद्धं] भेद-रहित सिद्ध होते हैं ।

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+ युगपत्‌ अनन्तदर्शन ज्ञानयुक्त स्वसमय -
साई अपज्जवसियं ति दो वि ते ससमयओ हवइ एवं ।
परतित्थयवत्तव्वं च एगसमयंतरुप्पाओ ॥31॥
अन्वयार्थ : [ते] वे (दोनों - केवलदर्शन, केवलज्ञान) [दो वि] दोनों ही [साई] सादि, [अपज्जवसियं] अपर्यवसित (बदलते रहते हैं) [च] और [एगसमयंतरुप्पाओ] (दोनों) एक समय के अन्तर से उत्पन्न होते हैं [एवं] इस प्रकार [ससमयओ] स्वसमय (परमात्मा) [हवइ] होता है [परतित्थयवत्तव्वं] अन्य मत का वक्‍तव्य है ।

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+ तत्त्व-रुचि रूप श्रद्धान सम्यग्दर्शन -
एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे ।
पुरिसस्साभिणिबोहे दंसणसद्दो हवइ जुत्तो ॥32॥
सम्मण्णाणे णियमेण दंसणं दसणे उ भयणिज्जं ।
सम्मण्णाणं च इमं ति अत्थओ होइ उववण्णं ॥33॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [जिणपण्णसे] जिन तीर्थंकर कथित [भावे] पदार्थों का [भावओ] भावपूर्वक [सहहंमाणस्स] श्रद्धान करने वाले का [पुरिसस्स] पुरुष के [अभिणिबोहे] अभिनिबोध मन और इन्द्रियों की सहायता से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान में [दंसणसहो] दर्शन शब्द [जुंत्तो] युक्त उपयुक्त [हवइ] होता है ।
[सम्मण्णाणे] सम्यग्ज्ञान के होने पर [णियमेण] नियम से [दंसणं] दर्शन सम्यग्दर्शन होता है [दंसणे] दर्शन के होने पर [उ] तो [सम्मण्णाणं] सम्यग्ज्ञान [भयणिज्जं] भजनीय होता है [इमं] यह [ति] इस प्रकार [अत्थओ] अर्थ से [उववण्णं] सिद्ध [होइ] होता है ।

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+ एक बार होने पर केवलज्ञान सतत -
केवलणाणं साई अपज्जवसियं ति दाइयं सुत्ते ।
तेत्तियमित्तोत्तूणा केइ विसेसं ण इच्छंति ॥34॥
जे संघयणाईया भवत्थकेवलिविसेसपज्जाया ।
ते सिज्ज्ञमाणसमये ण होंति विगयं तओ होइ ॥35॥
सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो एस अत्थपज्जाओ ।
केवलभावं तु पडुच्च केवलं दाइयं सुत्ते ॥36॥
अन्वयार्थ : [केवलणाणं] केवलज्ञान [साई] सादि [अपज्जवसियं] अपर्यवसित (परिवर्तनशील) है [त्ति] यह [सुत्ते] सूत्र में [दाइयं] दर्शाया गया है [तेत्तियमित्तोत्तूणा] उतने मात्र से गर्वित [केइ] कुछ [विसेसं] विशेष (केवल ज्ञान को पर्यवसित) को [ण] नहीं [इच्छंति] चाहते (मानते) हैं ।
[भवत्थकेवलि] भवस्थ केवली की [विसेसपज्जाया] विशेष पर्यायें संहनन आदि रूप [जे] जो [संघयणाईया] संहनन आदि हैं [तै] वे [सिज्ममाणसमये] सिद्ध होने के समय में [ण] नहीं [होंति] होती [तओ] इस कारण [विगयं] विगत (पर्यवसित) [होइ] होती है ।
[एस] यह (केवलज्ञान रूप) [अत्थपज्जाओ] अर्थपर्याय [सिद्धत्तणेण] सिद्धत्व रूप से [य] और [पुणो] फिर [उप्पण्णो] उत्पन्न होती है [केवलभावं] केवलभाव की [पडुच्च] अपेक्षा से [केवलं] केवलज्ञान को (सादि अपर्यवसित) [सुत्ते] सूत्र में [दांइयं] दिखाया गया है ।

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+ परस्पर विरुद्धता होने पर केवलज्ञान कैसे ? -
जीवो अणाइणिहणो केवलणाणं तु साइयमणंतं ।
इअ थोरम्मि विसेसे कह जीवो केवलं होइ ॥37॥
तम्हा अण्णो जीवो अण्णे णाणाइपज्जवा तस्स ।
उवसमियाईलक्खणविसेसओ केइ इच्छन्ति ॥38॥
अह पुण पुव्वपयुत्तो अत्थो एगंतपक्खपडिसेहे ।
तह वि उयाहरणमिणं ति हेउपडिजोअणं वोच्छं ॥39॥
जह कोई सट्ठिवरिसो तीसइवरिसो णराहिवो जाओ ।
उभयत्थ जायसद्दो वरिसविभागं विसेसेई ॥40॥
एवं जीवद्दव्वं अणाइणिहणमविसेसियं जम्हा ।
रायसरिसो उ केवलिपज्जाओ तस्स सविसेसो ॥41॥
जीवो अणाइनिहणो 'जीव' त्ति य णियमओ ण वत्तव्वो ।
जं पुरिसाउयजीवो देवाउयजीवियविसिट्ठो ॥42॥
अन्वयार्थ : [जीवो] जीव [अणाइणिहणो] अनादिनिधन है [केवल णाणं] केवलज्ञान [तु] तो [साइयमण्णतं] सादि अनन्त है [इय थोरम्मि] मोटे सामान्य रूप में और [विसेसे] विशेष (पर्याय रूप) में [जीवो] जीव [केवलं] केवल ज्ञान रूप [कह] कैसे [होइ] होता है ?
[तम्हा] इस कारण [उवसमियाइ] उपशम आदि [लक्खण] लक्षण की [विसेसओ] भिन्‍नता से [जीवो] जीव [अण्णो] अन्य भिन्‍न है और [तस्स] उस की [णाणाइ] पज्जवा] ज्ञान आदि पर्यायें [अण्णे] भिन्‍न हैं, ऐसा [केइ] कुछ [इच्छंति] कहते हैं ।
[अथ] और [एगंतपक्खपडिसेहे] एकान्त पक्ष के प्रतिषेध में [अत्थ] अर्थ (विषय) [पुव्वपउत्तो] पहले कहा जा चुका है [तह वि] तो भी [हेउपडिजोयणं] हेतु (का साध्य के साथ अविनाभाव) सम्बन्ध का [इणं] यह [उयाहरणं] उदाहरण [वोच्छं] कहूँगा ।
[जह] जैसे [कोइ] कोई (पुरुष) [सट्ठिवरिसो] साठ वर्ष का है [तीसइवरिसो] तीसवें वर्ष में वह [णराहिवो] राजा [जाओ] हुआ था [उभयत्थ] दोनों में यहाँ [जायसद्दो] जात शब्द (हुआ) [वरिसविभागं] वर्ष का विभाग [विसेसेइ] विशेषत: प्रकट करता है ।
[एवं] इस प्रकार [अविसेसियं] सामान्यत [जीवद्दव्वं] जीव द्रव्य [जम्हा] जिस लिए [अणाइणिहणं] अनादिनिधन है और [रायसरिसो] राजा के समान [उ] तो [तस्स] उसकी [केवलिपज्जाओ] केवली रूप पर्याय [सविसेसो] विशेष-सहित है ।
[जीवो] जीव [अणाइणिहणो] अनादिनिधन [जीव] जीव ही है [त्ति] ऐसा [य] भी [णियमओ] नियम से [ण] नहीं [वत्तव्वो] कहना चाहिए [क्योंकि, जं] जो [पुरिसाउय] मनुष्यायुज [जीवो] जीव में और [देवाउयजीविय] देवायुज जीव में [विसिट्ठो] विशिष्ट भेद है, वह नहीं बन सकेगा ।

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+ केवलज्ञान : असंख्यात और अनन्त भी -
संखेज्जमसंखेज्जं अणंतकप्पं च केवलं णाणं ।
तह रागदोसमोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया ॥43॥
अन्वयार्थ : [केवल णाणं] केवलज्ञान [संखेज्जं] संख्यात [असंखेज्जं] असंख्यात [च] और [अणतकप्पं] अनन्त रूप (प्रकार) का है [तह] वैसे [रागदोसमोहा] राग, देष और मोह रूप [अण्णो वि] दूसरे भी [य] और [जीव पज्जाया] जीवपर्याय हैं ।

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ज्ञेयमीमांसा



+ सामान्य और विशेष में भेद नहीं -
सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो ।
दव्वपरिणाममणणं दाएइ तयं च णियमेइ ॥1॥
एगतणिव्विसेसं एयंतविसेसियं च वयमाणो ।
दव्वस्स पज्जवे पज्जवा हि दवियं णियत्तेइ ॥2॥
अन्वयार्थ : [सामण्णम्मि] सामान्य में [विसेसो] विशेष का [य] और [विसेसपक्खे] विशेष पक्ष में [वयणविणिवेसो] (सामान्‍य का) वचन विनिवेश होता है वह [दव्वपरिणाममण्णं] द्रव्य परिणाम और अन्य (स्थिति) को [दाएइ] दिखलाता है [च] और [तयं] तीनों (उत्पाद, व्यय ओर ध्रौव्य) को [णियमेइ] नियत करता है ।
[एगंतणिव्विसेसं] एकान्त सामान्य [च] और [एगंतविसेसियं] एकान्त विशेष का [वयमाणों] कथन करने वाला [दव्वस्स] द्रव्य की [पज्जवे] पर्यायों को और [पज्जवा] पर्यायों से [हि] निश्चय से [दवियं] द्रव्य को [णियत्तेइ] अलग करता है ।

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+ सामान्य का समन्वयकारी प्रतीत्यवचन -
पच्चुप्पण्णं भावं विगयभविस्सेहिं जं सम्मण्णेइ ।
एयं पडुच्चवयणं दव्वंतरणिस्सियं जं च ॥3॥
दव्वं जहा परिणयं तहेव अस्थि त्ति तम्मि समयम्मि ।
विगयभविस्सेहि उ पज्जएहिं भयणा विभयणा वा ॥4॥
अन्वयार्थ : [जं] जो वचन [पच्चुप्पण्णं] (अपने समय में उत्पन्न होने वाली) वर्तमान [भाव] पर्याय का [विगयभविस्सेहिं] अतीत तथा भावी पर्याय के साथ से [समण्णेइ] समन्वय करता है [च] और [दव्वंतरणिस्सियं] अन्य द्रव्यों से बाहर है [जं] जो [एयं] यह [पडुच्चवयणं] प्रतीत्यवचन (वास्तविक ज्ञानपूर्वक उच्चरित आप्त-वचन) है ।
[जहा] जिस प्रकार [दव्वं] द्रव्य [परिणयं] परिणत हुआ [तम्मि समयम्मि] उस-उस समय में [तहेव] उसी प्रकार ही [अत्थि] है [त्ति] इस प्रकार [उ] तो [विगयभविस्सेहि] अतीत और भविष्यत्‌ काल की [पज्जएहिं] पर्यायों के साथ [भयणा] अभेद [वा] और [विभयणा] भेद भी है ।

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+ वस्तु में अस्तित्व ओर नास्तित्व दोनों -
परपज्जवेहिं असरिसगमेहिं णियमेण णिञ्चमवि नत्थि ।
सरिसेहिं पि वंजणओ अस्थि ण पुणऽत्थपज्जाए ॥5॥
पच्चुप्पण्णम्मि वि पज्जयम्मि भयणागइं पडइ दव्वे ।
जं एगगुणाईया अणंतकप्पा गमविसेसा ॥6॥
अन्वयार्थ : [असरिसगमेहिं] असदृशी [परपज्जवेहिं] पर-पर्यायों की अपेक्षा से [णियमेण] नियम से [णिञ्चमवि] नित्य भी [णत्थि] नहीं है [सरिसेहिं पि] सदृशों में भी [वंजणओ] व्यंजन पर्यायों की अपेक्षा से [अत्थि] है [पुण] फिर [ण पुणऽत्थपज्जाए] अर्थपर्याय की अपेक्षा से नहीं है ।
[पच्चुप्पण्णम्मि वि] वर्तमान काल में भी [पज्जयम्मि] पर्याय में [दव्वे] द्रव्य [भयणागइं] भजनागति (उभयरूप) कथंचित्‌ सत्‌ और कथंचित्‌ असत्‌ को [पडइ] पड़ता (धारण करता) है [जं एगगुणाईया] जिस एक गुण को आदि लेकर [गुणविसेसा] उस गुण के विशेष [अणंतकप्पा] अनन्त प्रकार होते हैं ।

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+ एक ही पुरुष में भेदाभेद -
कोवं उप्पायंतो पुरिसो जीवस्स कारओ होइ ।
तत्तो विभएयव्वो परम्मि सयमेव भइयव्वो ॥7॥
अन्वयार्थ : [कोवं] क्रोध को [उप्पायंतो] उत्पन्न करता हुआ [पुरिसो] पुरुष [जीवस्स] (उत्तरवर्ती) जीव का [कारओ होइ] कारक होता है [तत्तो] इससे वह [विभएयव्वो] भेद योग्य है और [परम्मि] पर भव में [सयमेव] स्वयं ही होने से [भइयव्वो] अभेद योग्य है ।

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+ क्‍या द्रव्य और गुण में भेद है? -
रूव-रस-गंध-फासा असमाणग्गहण-लक्खणा जम्हा ।
तम्हा दव्वाणुगया गुण त्ति ते केइ इच्छंति ॥8॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] जिस कारण [रूवरसगंधफासा] रूप, रस, गन्‍ध और स्पर्श ये [असमाणग्गहण] भिन्न प्रमाण से ग्रहण होते हैं और [लक्खणा] भिन्न लक्षण वाले हैं [तम्हा] इस कारण [ते] वे [दव्वाणुगया] द्रव्य के आश्रित [गुण] गुण हैं [त्ति] ] ऐसा [कइ] कई (प्रवादी जन) [इच्छंति] मानते हैं ।

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+ गुण पर्याय-संज्ञा है क्या ? -
दूरे ता अण्णत्तं गुणसद्दे चेव ताव पारिच्छं ।
किं पज्जवाहिओ होज्ज पज्जवे चेवगुणसण्णा ॥9॥
दो उण णया भगवया दवट्ठिय-पज्जवट्ठिया नियया ।
एत्तो य गुणविसेसे गुणट्ठियणओ वि जुज्जंतो ॥10॥
जं च पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं ।
पज्जवसण्णा णियया वागरिया तेण पज्जाया ॥11॥
परिगमणं पज्जाओ अणेगकरणं गुण त्ति तुल्लत्था ।
तह वि ण 'गुण' त्ति भण्णइ पज्जवणयदेसणा जम्हा ॥12॥
जंपन्ति अत्थि समये एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो ।
रूवाई परिणामो भएणइ तम्हा गुणविसेसो ॥13॥
गुणसद्दमंतरेणावि तं तु पज्जवविसेससंखाणं ।
सिज्झइ णवरं संखाणसत्थधम्मो 'तइगुणो' त्ति ॥14॥
जह दससु दसगुणम्मि य एगम्मि दसत्तणं समं चेव ।
अहियम्मि वि गुणसद्दे तहेय एयं पि दट्ठव्वं ॥15॥
अन्वयार्थ : [दूरे ता अण्णत्तं] दूर रहे तो अन्यत्व (भिन्‍नपना) [ गुणसद्दे चेव] गुण शब्द के विषय में ही [ताव] तब तक [पारिच्छं] विचार करना चाहिए [किं] क्या (गुण) [पज्जवाहिओ] पर्याय से अधिक (भिन्न) है या [पज्जवे] पर्याय में [चेवगुणसण्णा] ही गुण संज्ञा [होज्ज] होवे ।
[भगवया] भगवान्‌ के द्वारा [उण] फिर [दवट्ठिय पज्जवट्ठिया] द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे [दो णया] दो नय [णियया] नियत किए गए हैं [एत्तो य] इससे भिन्न [गुणविसेसे] गुण विशेष होने पर [गुणट्ठियणओ] गुणार्थिकनय [वि] भी [जुज्जंतो] प्रयुक्त होता ।
[जं च पुण] और फिर [अरहया] अर्हन्त प्रभु ने [तेसु तेसु] उन उनमें [सुत्तेसु] सूत्रों में [गोयमाईणं] गौतम गणघर आदि के लिए [पज्जवसण्णा] पर्याय संज्ञा [णियया] नियत की है और [तेण] उन्होंने उनके द्वारा [पज्जाया] पर्यायें (गुण हैं), यह [वागरिया] व्याख्यान किया है ।
[परिगमणं] परिगमन (परिणमन, पलटना) [पज्जायो] पर्याय है [अणेगकरणं] अनेक रूप करना [गुण] गुण है [त्ति] यह [तुल्लत्था] तुल्य अर्थ वाले हैं दोनों [तह वि] तथापि (तो भी) [ण गुण] नहीं है गुण [त्ति] ऐसा [भण्णइ] कहा जाता है [जम्हा] जिससे क्योंकि [पज्जवणयदेसणा] पर्यायनय की देशना है ।
[एगगुणो] एक गुण [दसगुणो] दस गुण और [अणंतगुणो] अनन्त गुण वाला [रूवाई] रूप आदि [परिणामो] परिणाम [अत्थि] है [तम्हा] इसलिए [गुणविसेसो] गुण विशेष (रूपादि हैं, जिसे विषय करने वाला गुणार्थिक नय है - ऐसा कोई) [भण्णइ] कहता है यह [समये] आगम में [जंपंति] कहा जाता है ।
[गुणसद्दमंतरेणावि] गुण शब्द के बिना भी [तं तु] वह तो जो [पज्जवविसेससंखाणं] पर्याय गत विशेष संख्या को कहने वाले [सिज्झइ] सिद्ध होते हैं [णवरं] केवल वह [तइगुणो] उतना गुण है [त्ति] यह [संखाणसत्थघम्मो] गणित शास्त्र का धर्म है ।
[जह] जिस प्रकार [गुणसद्दे] गुण शब्द के [अहियम्मि वि] अधिक (होने) पर भी [दससु] दसों (वस्तुओं) में [दसगुणम्मि] दसगुनी में (वस्तुओं में) [य] और [एगम्मि] एक (वस्तु) में [दसत्तणं] दसपना [समं] समान [चेव] ही (होता है) [तहेय एयं पि] उसी प्रकार यह भी [दट्ठव्वं] समझना चाहिए ।

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+ अभेदवादी का कथन -
एयंतपक्खवाओ जो उण दव्व-गुण-जाइभेयम्मि ।
अह पुव्वपडिक्कुट्ठो उआहरणमित्तमेयं तु ॥16॥
पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं एगपुरिससंबंधो ।
ण य सो एगस्स पिय त्ति सेसयाणं पिया होइ ॥17॥
जह संबंधविसिट्ठो सो पुरिसो पुरिसभावणिरइसओ ।
तह दव्वमिंदियगयं रूवाइविसेसणं लहई ॥18॥
अन्वयार्थ : [अह] और [दव्व-गुण-जाइभेयम्मि] द्रव्य (तथा) गुण (की) जाति (गत) भेद में [जो पुण] जो फिर [एयंतपक्खवाओ] एकान्त (रूप से) पक्षपात (है उसे) [पुव्वपडिक्कुट्ठो] पहले (ही) निषिद्ध (किया जा चुका) है [एयं तु] यह तो [उआहरणमित्तमेयं] उदाहरण मात्र है ।
[पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं] पिता, पुत्र, नाती, भावज, भाई का [एगपुरिससंबंधो] एक (ही) पुरुष के साथ सम्बन्ध हो [सो] वह [एगस्स] एक का [ पिय त्ति] पिता [सेसयाणं] शेष जनों का [पिया ण य होइ] पिता नहीं होता है ।
[जह] जिस प्रकार [संबंधविसिट्ठो] सम्बन्ध विशेष के होने पर [सो] वह [पुरिसो] पुरुष [पुरिसभाव णिरइसओ] पुरुष पर्याय (की) अधिकता (वाला है) [तह] वैसे ही [इंदियगयं] इन्द्रियगत (सम्बद्ध) [दव्वं] द्रव्य [रूवाईविसेसणं] रूप आदि विशेषण (वाला) [लभते] हो जाता है ।

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+ सर्वथा अभेद-पक्ष निर्दोष नहीं -
होज्जाहि दुगुणमहुरं अणंतगुणकालयं तु जं दव्वं ।
रण उ डहरओ महल्लो व होइ संबंधओ पुरिसो ॥19॥
अन्वयार्थ : [जं] जो कोई [तु] तो [दव्वं] द्रव्य [दुगुणमहुरं] दुगुना मधुर हो [अणंतगुणकालयं] अनन्त गुना काला [होज्जाहि] होवे [वा] अथवा [पुरिसो] पुरुष [डहरओ] छोटा [महल्लो] बड़ा हो तो [संबंधओ] (इन्द्रियादिक के) सम्बन्ध से [ण उ होइ] नहीं होता है (किन्तु विशेष धर्म से होता है)

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+ अभेदवादी का कथन -
भण्णइ संबंधवसा जइ संबंधित्तणं अणुमयं ते ।
णणु संबंधविसेसे संबंधिविसेसणं सिद्धं ॥20॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [संबंधवसा] सम्बन्ध के वश से [ते] तुम्हें [संबंधित्तणं] सम्बन्धीपन [अणुमयं] मान्य है [णणु] निश्चय से (वैसे ही) [संबंधविसेसं] सम्बन्ध विशेष (वस्तु) में [संबंधिविसेसणं] सम्बन्ध विशेषता भी [सिद्धं] सिद्ध हो जाती है ।

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+ सिद्धान्ती का तर्क -
जुज्जइ संबंधवसा संबंधिविसेसणं ण उण एयं ।
णयणाइविसेसगओ रूवाइविसेसपरिणामो ॥२१॥
अन्वयार्थ : [संबंधवसा] सम्बन्ध वश से [संबंधिविसेसणं] सम्बन्ध विशेष (वाली वस्तु) [ण] नहीं [जुज्जइ] प्रयुक्त होती है [उण] फिर [एयं] यह (ये) [णयणाइविसेसगओ] नेत्र आदि के विशेष सम्बन्ध (के कारण) [रूवाइ विसेसपरिणामो] रूप आदि विशेष परिणाम घटित होते हैं ।

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+ प्रश्नोत्तर -
भण्णइ विसमपरिणयं कह एयं होहिइ त्ति उवणीयं ।
तं होइ परणिमित्तं ण व त्ति एत्थऽत्थि एगंतो ॥22॥
अन्वयार्थ : [एयं] यह [विसमपरिणयं] विषम परिणाम रूप [कह] किस प्रकार [होहिइ] होगा [त्ति] यह (जो) [उवणीयं] घटित होता है [तं] वह [परणिमित्तं] पर-निमित्त (की अपेक्षा से घटित) [होइ] होता है [त्ति] यह (है) [ण व] अथवा नहीं (भी है, क्योंकि) [एगंतो] एकान्त [एत्थऽत्थि] यहाँ (इस विषय में) है नहीं ।

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+ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण-विचार -
दव्वस्स ठिई जम्म-विगमा य गुणलक्खणं ति वत्त्व्वं ।
एवं सइ केवलिणो जुज्जइ तं णो उ दवियस्स ॥23॥
दव्वत्थंतरभूया मुत्ताऽमुत्ता य ते गुणा होज्ज ।
जइ मुत्ता परमाणू णत्थि अमुत्तेसु अग्गहणं ॥24॥
अन्वयार्थ : [दव्वस्स] द्रव्य का (लक्षण ) [ठिई] स्थिति (ध्रौव्य) [जम्मविगमा] उत्पत्ति [य] और विनाश [गुणलक्खणं] गुण (पर्याय का) लक्षण (है) [ति] यह (ऐसा) [वत्त्व्वं] कहना चाहिए [एवं] इस प्रकार [सइ] होने पर (मान लेने से) [तं] वह (लक्षण ) [केवलिणो] केवल [दवियस्स] द्रव्य का (तथा केवल गुण का) [जुज्जइ] घटता है [उ] किन्तु [दवियस्स] द्रव्य का अखण्ड वस्तु का [णो] नहीं ।
[दव्वत्थंतरभूया] द्रव्वान्तर (को) प्राप्त [ते] वे [गुणा] गुण [मुत्तामुत्ता] मूर्त [य] और अमूर्त [होज्जा] होंगे [जइ] यदि [मुत्ता] मूर्त हों तो कोई परमाणु [णत्यि] नहीं है (होगा) [अमृत्तेसु] अमूर्त होने पर [अग्गहणं] परमाणु ग्रहण नहीं होंगे ।

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+ प्रस्तुत वार्ता का प्रयोजन -
सीसमईविप्फारणमेत्तत्थोऽयं को समुल्लावो ।
इहरा कहामुहं चेव णत्थि एवं ससमयम्मि ॥25॥
ण वि अस्थि अण्णवादो ण वि तव्वाओ जिणोवएसम्मि ।
तं चेव य मण्णंता अवमण्णंता ण याणंति ॥26॥
अन्वयार्थ : [सीसमई] शिष्य (जनों की) बुद्धि (को) [विप्फारण] विकसित करने [मेत्तत्थोऽयं] मात्र प्रयोजन (से) यह [समुल्लावो] प्रबन्ध (कथा वार्ता) [कओ] किया गया है [इहरा] अन्यथा [ससमयम्मि] जिन-शासन में [एवं] इस प्रकार (की) [कहामुहं] कथा आरम्भ (का अवकाश) [चेव] ही [णत्थि] नहीं है ।
[जिणोवएसस्मि] जिन ( भगवान्‌ के) उपदेश में [अण्णवादो] अन्य भेदवाद (मत) [ण वि] नहीं ही [अत्यि] है [ण वि] नहीं (ही) [तव्वाओ] वह (अभेद) वाद [तं] उसे (भेद या अभद को) [चेव य] ही जो [मण्णंता] मानने वाले (हैं वे) [अमण्णंता] नहीं मानते हुए [ण] (कुछ भी) नहीं [याणंति] जानते हैं ।

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भयणा वि हु भइयव्वा जइ भयणा भयइ सव्वदव्वाइं ।
एवं भयणा णियमा वि होइ समयाविरोहेण ॥27॥
णियमेण सद्दहंतो छक्काए भावओ न सद्दहइ ।
हंदी अपज्जवेसु वि सद्दहणा होइ अविभत्ता ॥28॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [सव्वदव्वाइं] सब द्रव्यों को (अनेकान्त) [भयणा] विकल्प से [भयइ] भजता है [भयणा वि] भजना भी (अनेकान्त भी) [हु] निश्चय से [भइयव्वा] विकल्पनीय (भजनीय) है [एवं] इस प्रकार [समयाविरोहेण] सिद्धान्त (से) अविरुद्ध [भयणा] विकल्प [णियमो वि] नियम से ही [होइ] होता है ।
[णियमेण]नियम से [छक्‍काए] छह कायों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा त्रसकाय) की [सहहंतो] श्रद्धा करने वाला (पुरुष) [भावओ] भाव से (मूल वस्तु की दृष्टि से) [ण] नहीं [सदृहइ] श्रद्धान करता है [हंदी] निश्चय (से) [अपज्जवेसु]अपर्यायों में (द्रव्यों में) [वि] भी (ही) [अविभत्ता] अखण्ड [सद्दहणा] श्रद्धान [होइ] होता है ।

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गइपरिगयं गई चेव केइ णियमेण दवियमिच्छंति ।
तं पि य उड्ढ़गईयं तहा गई अन्नहा अगई ॥29॥
गुणणिव्वत्तियसण्णा एवं दहणादओ वि दट्ठव्वा ।
जं तु जहा पडिसिद्धं दव्वमदव्वं तहा होइ ॥30॥
कुंभो ण जीवदवियं जीवो वि ण होइ कुंभदवियं ति ।
तम्हा दो वि अदवियं अण्णोण्णविसेसिया होंति ॥31॥
अन्वयार्थ : [केइ] कोइ (एकान्तावलम्बी ) [णियमेण] नियम से [गइ परिणयं] गति (क्रिया में) परिणत [दवियं] द्रव्य को [गई] गति (वाला ) [चेव] ही [इच्छंति] मानते हैं [तं पि य] और वह भी [उड्ढगईयं] ऊर्ध्व गति वाला (है) [तहा] तथा (तो) [गई] गति (वाला है) [अण्णहा अगई] अन्यथा अगति (वाला) है।
[एवं] इस प्रकार [गुणणिव्वत्तियसण्णा] गुण (से) सिद्ध संज्ञा (वाले) [दहणादओ] दहन आदि (पदार्थ ) [वि] भी [दट्ठव्वा] समझना चाहिए [जं तु] जो तो [जहा] जिस प्रकार से (स) [पडिसिद्धं] निषिद्ध (अपना कार्य नहीं करता है) [दव्वं] द्रव्य (वह) [तहा] वैसे (ही) [अदव्वं] पदार्थ नहीं [होइ] होता है ।
[कुंभो जीवदवियं ण] घड़ा जीव द्रव्य नहीं है [जीवो वि ण होइ कुंभदवियं ति] जीव द्रव्य भी घड़ा नहीं होता [तम्हा] इससे [दो वि] दोनों ही [अण्णोण्णविसेसिया] एक-दूसरे के गुणों से भिन्‍न (विशिष्ट होने से) [अदवियं] अद्रव्य [होंति] हैं ।

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उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ य वीससा चेव ।
तत्थ उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥32॥
साभाविओ वि समुदयकओ व्व एगंतिओ व्व होज्जाहि ।
आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओऽणियमा ॥33॥
विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो ।
समुदयविभागमेत्तं अत्थंतरभावगमणं च ॥34॥
अन्वयार्थ : [उप्पाओ] उत्पाद [दुवियप्पो] दो प्रकार का है [पओगजणिओ] प्रयोगजन्य [य] और [वीससा] विस्रसा (स्वाभाविक) [चेव] ही [तत्य उ] उसमें तो [पओगजणिओ] प्रयत्नजन्य (तो) [समुदयवाओ] समुदायवाद (नाम वाला है और) [अपरिसुद्धो] अपरिशद्ध भी है ।
[साभाविओ वि] स्वाभाविक (उत्पाद) भी [समुदयकओ व्व] समुदायकृत और [एगंतिओ व्व] ऐकत्विक भी [होज्जाहि] होता (है) [तिण्हं] तीनों [आगासाईआणं] आकाशादिक (घमं, अधर्म और आकाश) [परपच्चओऽणियमा] परप्रत्यय (निमित्त होने से) अनियत हैं ।
[विगमस्स वि] विनाश की भी [एस विधि] यह पद्धति है [सो समुदयजणियम्मि] वह समुदयजनित में [दुवियप्पो] दो प्रकार (की है) [समुदयविभागमेत्तं] समुदय विभागमात्र [च] और [अत्थंतरभावगमणं] अर्थान्तरभाव प्राप्ति ।

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+ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भिन्‍न तथा अभिन्‍न भी -
तिण्णि वि उप्पायाई अभिण्णकाला य भिण्णकाला य ।
अत्थंतरं अणत्थंतरं च दवियाहि णायव्वा ॥35॥
जो आउंचणकालो सो चेव पसारियस्स वि ण जुत्तो ।
तेसिं पुण पडिवत्ती-विगमे कालंतरं णत्थि ॥36॥
उप्पज्जमाणकालं उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं ।
दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥37॥
अन्वयार्थ : [तिण्णि वि] तीनों हि [उप्पायाई] उत्पाद आदि (उत्पाद, व्यय और धौव्य इन तीनों का) [अभिण्णकाला] अभिन्‍न काल (एक समय) [य] और [भिण्णकाला य] भिन्‍न (भिन्न) समय (भी किसी अपेक्षा कहा गया है) [दवियाहि] द्रव्यों से (अपने आश्रयभूत द्रव्यों मे) [अत्थंतर] अर्थान्तर (भिन्‍न पर्याय वाले हैं) [च] और [अणत्थंतरं] अभिन्‍न पर्याय (वाले) [णायव्वा] समझना चाहिए ।
[जो] जो [आउंचणकालो] संकोचन (का) समय (है) [सो] वह [चेव] ही [पसारियस्स वि] पसारने का (फैलाव का समय) भी है [ण जूत्तो] उपयुक्त नहीं (यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है) [पुण] फिर (यह कहना कि) [तेसिं] उन दोनों के (आकुंचन तथा प्रसारण के) [पडिवत्तीविगमे] उत्पत्ति (और) विनाश में [कालंतरं णत्थि] समय (का) अन्तर नहीं है ।
[उप्पज्जमाणकालं] उत्पन्न होते समय [उत्पण्णं] उत्पन्न (हुआ है) [विगच्छंतं] नष्ट होते (समय) [विगयं] नष्ट [ति] यह (इस प्रकार) [पण्णवयंतो] प्ररूपणा करता हुआ [दवियं] द्रव्य को [तिकालविसयं] त्रिकाल विषयक (त्रैकालिक) [विसेसेइ] विशेषित करता है ।

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दव्वंतरसंजोगाहि केचि दवियस्स बेंति उप्पायं ।
उप्पायत्थाऽकुसला विभागजायं ण इच्छंति ॥38॥
अणु दुअणुएहिं दव्वे आरद्धे 'तिअणुयं' ति ववएसो ।
तत्तो य पुण विभत्तो अणु त्ति जाओ आणू होइ ॥39॥
बहुयाण एगसद्दे जह संजोगाहि होइ उप्पाओ ।
णणु एगविभागम्मि वि जुज्जइ बहुयाण उप्पाओ ॥40॥
एगसमयम्मि एगदवियस्स बहुया वि होंति उप्पाया ।
उप्पायसमा विगमा ठिईउ उस्सग्गओ णियमा ॥41॥ काय-मण-वयण-किरिया-रूवाइ-गईविसेसओ वावि ।
संजोयभेयओ जाणणा य दवियस्स उप्पाओ ॥42॥
अन्वयार्थ : [उप्पायत्थाऽकुसला] उत्पाद (शब्द) के अर्थ से [अकुसला] अनभिज्ञ [के वि] भी कुछ (लोग) [दव्वंतरसंजोगाहि] द्रव्यान्तर के संयोगों से [दवियस्स] द्रव्य की [उप्पायं बेंति] उत्पत्ति कहते हैं [विभागजायं] विभाग से द्रव्य उत्पन्न होता है, ऐसा [ण इच्छंति] नहीं मानते (हैं)
[दुअणुएहिं] दो आदि अणुओं से [आरद्धे अणु] द्रव्य में द्वयणु [तिअणुयं] त्र्यणुक [ति] यह (ऐसा) [ववएसो] व्यवहार होता है [तत्तो] इस कारण [पुण] फिर [विभत्तो] विभक्त हुआ (त्र्यणुक से) [अणु जाओ] अणु होने पर [अणु] अणु (ऐसा) [ववएसो होइ] व्यवहार होता है ।
[बहुयाण] बहुतों में [एगसद्दे] एक शब्द (का प्रयोग होने) पर [जह] जिस प्रकार [संजोगाहि] संयोगों से [उप्पाओ होइ] उत्पत्ति होती है [णणु] निश्चय से [एगविभागम्मि] एक का विभाग होने पर [बहुयाण वि] बहुतों की भी [उप्पाओ जुज्जइ] उत्पत्ति बन जाती है ।
[एगदवियस्स] एक द्रव्य की [एगसमयम्मि] एक समय में [बहुया वि] बहुत भी [उप्पाया होंति] उत्पत्ति होती है और [उप्पायसमा] उत्पत्ति के समान [विगमा ठिईउ] विनाश स्थिति भी [णियमा] नियम से है ।
[कायमणवयणकिरिया] शरीर, मन, वचन, क्रिया, [रूवाइगई] रूप आदि, गति [विसेसओ] विशेष से [वावि] भी [संजोगभेयओ] संयोग और विभाग से [दवियस्स] द्रव्य का [उप्पाओ जाणणा] उत्पाद जानना चाहिए ।

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+ धर्मवाद -
दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य ।
तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा ॥43॥
भविओ सम्मद्दंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो ।
णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥44॥
जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ ।
सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो ॥45॥
अन्वयार्थ : [धम्मावाओ] धर्मवाद [दुविहो] दो प्रकार का है [अहेउवाओ] अहेतुवाद [य] और [हेउवाओ] हेतुवाद [य] और [तत्थ] उसमें [अहेउवाओ] हेतुवाद (के विषय ) [उ] तो [भवियाऽभवियादओ] भव्य-अभव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय) आदि [भावा] पदार्थ हैं ।
[सम्मद्दंसणणाणचरित्त] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्‌ चारित्र की [पडिवत्ति संपन्नो] प्राप्ति से युक्त (जीव) [भविओ] भव्य है [णियमा] नियम से वह [दुक्खंतकडो] दु:खों का अन्त करने वाला होगा [त्ति] यह [हेउवायस्स] हेतुवाद का [लक्खणं] लक्षण है ।
जो जो (पुरुष) [हेउवायपक्खम्मि] हेतुवाद के पक्ष में [हेउओ] हेतु का [आगमे य] और आगम में [आगमिओ] आगम का प्रयोग करता है [सो] वह [ससमयपण्णवओ] स्व समय का प्ररूपक है [अण्णो] अन्य (इससे भिन्न) [सिद्धंतविराहओ] सिद्धान्त विराधक है ।

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+ शुद्ध नयवाद -
परिसुद्धो नयवाओ आगममेत्तत्थसाहओ होइ ।
सो चेव दुण्णिगिण्णो दोण्णि वि पक्खे विधम्मेइ ॥46॥
जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया ।
जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥47॥
जं काविलं दरिसणं एवं दव्वट्ठियस्स वत्तव्वं ।
सुद्धोअणतणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ॥48॥
दोहि वि णएहि णीअं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं ।
जं सविसअप्पहाणतणेण अण्णोण्णणिरवेक्खा ॥49॥
अन्वयार्थ : [आगममेत्तत्थसाहओ] आगम मात्र अर्थ (कंबल श्रुत कथित विषय) का साधक [परिसुद्धो] परिशुद्ध [णयवाओ] नयवाद [होइ] होता है [सो] वह [चेव] ही और (जब) [दुण्णिगिण्णो] दुर्निक्षिप्त (परस्पर निरपेक्ष रखा जाता है, तब) [दोण्णि वि] दोनों ही [पक्‍खे] पक्ष में (का) [विधम्मेइ] विनाशक होता है ।
[जावइया] जितने भी [वयणवहा] वचन] पथ (प्रकार हैं) [तावइया] उतने [चेव] ही [णयवाया] नयवाद [होंति] होते है (और) [जावइया] जितने [णयवाया] नयवाद हैं [तावइया] उतने [चेव] ही [परसमया] अन्य मत (है)
[जं] जो [काविलं दरिसणं] सांख्य दर्शन है वह [एयं] यह (इस) [दव्वट्ठियस्स] द्रवयार्थिक नय का [वत्तव्वं] वक्तव्य है [सुद्धोअणतणअस्स उ] किन्‍तु गौतम बुद्ध का (सिद्धान्त) [परिसुद्धो] विल्कुल शुद्ध [पज्जवविअप्पो] पर्यायार्थिक नय का विकल्प है ।
[दोहि वि] दोनों ही [णयेहि] नयों से [उलुएण] कणाद ने (के द्वारा) [सत्थम्] शास्त्र (वैशेषिक दर्शन की ) [णीयं] रचना की [तह वि] तो भी [मिच्छत्तं] मिथ्यात्व (विपरीत, अप्रमाण) है [जं] जो (ये दोनों नय) [सविसअप्पहाणतणेण] अपने विषय (की) प्रधानता से [अण्णोण्णणिरवेक्खा] परस्पर निरपेक्ष हैं ।

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+ वे सभी सदोष -
 जे संतवायदोसे सक्कोलूया भणंति संखाणं ।
संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा ॥50॥
ते उ भयणोवणीया सम्मद्दंसणमणुत्तरं होंति ।
जं भवदुक्खविमोक्खं दो वि न पूरेंति पाडिक्कं ॥51॥
नत्थि पुढविविसिट्टो 'घडो' त्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो ।
जं पुण 'घडो' त्ति पुव्वं ण आसि पुढवी तओ अण्णो ॥52॥
अन्वयार्थ : [सक्कोलूया] बौद्ध एवं वैशेषिक [जे] जिन [संतवायदोसे] सत्‌ (कार्य) वादी दोषों को [संखाणं] सांख्य के (सिद्धान्त पर) [भणंति] कहते हैं [तेसिं] उनके [य] और [संखा] सांख्य [असव्वाए] असद्वाद (पक्ष) में (दोष प्रकट करते हैं) [ते] वे [सव्वे वि] सभी (दोष) [सच्चा] सच्चे हैं ।
[ते] वे दोनों (सत्‌वाद, असत्‌वाद) [भयणोवणीया] विभाग (किए जाने पर) [अणुत्तरं] सर्वोत्तम [सम्मद्दंसणम्] सम्यग्दर्शन [होंति] होते हैं [जं] जो (वह) [पाडिक्कं] प्रत्येक [दो वि] दोनों ही [भवदुक्खविमोक्खं] संसार के दुःख से मुक्ति [ण पूरेंति] दिला सकते हैं ।
[घडो त्ति] यह घड़ा [पुढवीविसिट्ठो] पृथ्वी से विशिष्ट (भिन्न) [णत्थि] नहीं है [जं] जो [तेण] उससे [अणण्णो] अभिन्‍न [जुज्जइ] युक्त होता है [जं पुण] जो पुन: [त्ति] यह (पृथ्वी) [पुव्वं घड़ो ण] पहले घड़ा नहीं [आसि] थी [तओ] इसलिए [पुढवी] पृथ्वी से [अण्णो] भिन्न है ।

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+ कार्य की उत्पत्ति स्व-कारण से -
कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिसकारणेगंता ।
मिच्छत्तं ते चेवा (व) समासओ होंति सम्मत्तं ॥53॥
अन्वयार्थ : [कालो] काल [सहाव] स्वभाव [णियई] नियत्ति [पुव्वकयं] पूर्वकृत (अदृष्ट) [पुरिस] पुरुष (रूप) [कारणेगंता] कारण (विषयक) एकान्त (वाद) [मिच्छत्त] मिथ्यात्व हैं [ते चेव] वे ही [समासओ] समस्त (समग्र रूप में, सापक्ष रूप से मिलने पर) [सम्मत्तं] सम्यक् [होंति] होते है ।

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+ अनात्मवादी और आत्मवादी -
णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं ।
णत्थि य मोक्खोवाओ छ म्मिच्छत्तस्स ठाणाइं ॥54॥
अत्थि अविणासधम्मी करेइ वेएइ अत्थि णिव्वाणं ।
अत्थि य मोक्खोवाओ छ स्सम्मत्तस्स ठाणाइं ॥55॥
अन्वयार्थ : (आत्मा) [णत्थि] नहीं है [णिच्चो ण] नित्य नहीं है [कुणइ] कर्ता (कुछ भी) [कयं] कार्य [ण] नहीं करता [ण] नहीं [वेएइ] फल भोगता है [णिव्वाणं णत्थि] निर्वाण (मुक्ति) नहीं है [य] और [मोक्खोवाओ णत्थि] मोक्ष का उपाय नहीं है [छम्मिच्छत्तस्स] मिथ्यात्व के ये छह [ठाणाईं] स्थान हैं ।
(आत्मा) [अत्थि] है [अविणासधम्मी] अविनाशी स्वभाव (वाला है) [करेइ] कर्ता (शुभ-अशुभ कर्मों का) है [वेएइ] भोगता है [णिव्वाण] निर्वाण (मुक्ति) है, और [मोक्खोवाओ] मोक्ष का उपाय है [छ स्सम्मत्तस्स] सम्यक्त्व के (ये) छह [ठाणाइं] स्थान हैं ।

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+ अनेकान्त-दृष्टि के अभाव में -
साहम्मउ व्व अत्थं साहेज्ज परो विहम्मओ वा वि ।
अण्णोणं पडिकुट्ठा दोण्णवि एए असव्वाया ॥56॥
दव्वट्ठियवत्तव्वं सामण्णं पज्जवस्स य विसेसो ।
एए समोवणीआ विभज्जवायं विसेसेंति ॥57॥
हेउविसओवणीअं जह वयणिज्जं परो नियत्तेइ ।
जइ तं तहा पुरिल्लो दाइंतो केण जिव्वंतो ॥58॥
एयंताऽसब्भूयं सब्भूयमणिच्छियं च वयमांणो ।
लोइय-परिच्छियाणं वयणिज्जपहं पडइ वादी ॥59॥
अन्वयार्थ : [परो] पर (एकान्तवादी) [साहम्मऊ] साधम्य से [व्व] अथवा [विहम्मओ] वैधर्म्य से [वा वि] भी [अत्थ] अर्थ (साध्य) [साहेज्ज] साधे [एए] ये [दोण्णि वि] दोनों ही [अण्णोण्णं] परस्पर [पडिकुट्ठा] प्रतिषिद्ध (प्रतिकूल) [असव्वाया] असद्वाद हैं ।
[दव्वट्ठियवत्तव्वं] द्रव्यार्थिक (नय) का वक्तव्य [सामण्णं] सामान्य (है) य] और [पज्जवस्स] पर्यायाथिक (नय) का (वक्तव्य) [विसेसो] विशेष है [समोवणीया] प्रस्तुत [एए] ये दोनों (सापेक्ष रूप से) [विभज्जवायं] अनेकान्तवाद को [विसेसेंति] विशिष्ट बनाते हैं (रचते हैं )
[हेउविसओवणीयं] हेतु (के) विषय (रूप में) प्रस्तुत [वयणिज्जं] वचन योग्य (विषय को) [जह] जिस प्रकार [परो] प्रतिवादी [णियत्तेइ] निवारण करता है [जइ] यदि [पुरिल्लो] पूर्ववर्ती (वादी नें) [तं] उस (साध्य) को [तहा] उसी प्रकार (हेतुपूर्वक) [दाइंतो] दिखलाए तो [केण] किसके द्वारा [जिव्वंतो] जीता (जा सकता है) ?
[एयंताऽसब्भूयं] एकान्त असद्भूत का (अथवा) [सब्भूयमणिच्छियं] सद्भूत (होने पर भी) अनिश्चित [वयमाणो] बोलने वाला [वादी] वादी [लोइयपरिच्छियाणं] लौकिक (तथा) परीक्षकों के [वयणिज्जपहं] वचन पथ को [पडइ] प्राप्त होता है (निन्‍दा का पात्र बन जाता है)

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+ पदार्थ के प्रतिपादन का क्रम -
दव्वं खेत्तं कालं भावं पज्जाय-देस-संजोगे ।
भेदं च पडुच्च समा भावाणं पण्णवणपज्जा ॥60॥
अन्वयार्थ : [दव्वं] द्रव्य [खेत्तं] क्षेत्र [कालं] काल [भाव] भाव [पज्जाय देससंजोगे] पर्याय देश संयोग [च] और [भेदं] भेद का [पडुच्च] आश्रय कर [भावाणं] पदार्थों की [पण्णवणपज्जा] प्रतिपादन (की) परिपाटी [समा] सम्यक्‌ है ।

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+ अनेकान्ती ही भावस्पर्शी -
पाडेक्कनयपहगयं सुत्तं सुत्तहरसद्दसंतुट्ठा ।
अविकोवियसामत्था जहागमविभत्तपडिवत्ती ॥61॥
सम्मद्दंसणमिणमो सयलसमत्तवयणिज्जणिद्दोसं ।
अत्तुक्कोसविणट्ठा सलाहमाणा विणासेंति ॥62॥
अन्वयार्थ : [पाडेक्कणयपहगयं] प्रत्येक नय मार्गगत [सुत्त] सूत्र अथवा [सुत्तहरसद्दसंतुट्ठा] सूत्रधर के शब्द से सन्तुष्ट हो जाते हैं [अविकोवियसामत्था] निश्चय से विद्वता‌ के सामर्थ्य को [जहागमविभत्तपडिवत्ती] आगम से भिन्न प्राप्त करते हैं ।
[सलाहमाणा] (अपनी) प्रशंसा के पुल बाँधने वाले [अत्तुक्कोसविणट्ठा] आत्मोत्कर्ष (से) नष्ट (हो कर) [सयलसमत्तवयणिज्जणिद्दोसं] सम्पूर्ण सिद्ध निर्दोष वक्तव्य वाले [सम्मद्दंसणमिणमो] इस सम्यग्दर्शन को [विणासेंति] नष्ट कर देते हैं ।

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+ भक्ति या जानकारी मात्र से ज्ञानी नहीं -
ण हु सासणभत्तीमत्तएण सिद्धंतजाणओ होइ ।
ण वि जाणओ वि णियमा पण्णवणाणिच्छिओ णामं ॥63॥
अन्वयार्थ : [सासणभत्तीमेत्तएण] शासन-भक्ति मात्र से (कोई व्यक्ति) [सिद्धतंजाणओ] सिद्धान्त का ज्ञाता [ण हु] नहीं ही [होइ] होता; [जाणओ वि] जानकार (होने पर) भी [णियमा] नियम से [पण्णवणाणिच्छिओ] प्ररूपणा के योग्य निश्चित [णामं] नाम वाला [ण वि] नहीं ही होता है ।

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+ अर्थ-ज्ञान दुर्लभ है -
सुत्तं अत्थनिमेणं न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती ।
अत्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा ॥64॥
तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं ।
आयरियधीरहत्था हंदि महाणं विलंवेन्ति ॥65॥
अन्वयार्थ : [सुत्तं अत्थनिमेणं] सूत्र अर्थ का स्थान है (किन्तु) [सुत्तमेत्तेण] सूत्र (जान लेने) मात्र से [ण अत्थपडिवत्ती] अर्थ (का) ज्ञान नहीं होता है [णयवायगहणलीणा] नयवाद पर गहन निर्भर होने [अत्थगई उण] पर (भी) अर्थ-ज्ञान [दुरभिगम्मा] दुर्बोध्य है ।
[तम्हा] इसलिए [अहिगयसुत्तेण] सूत्र जान लेने (पर) से [अत्थसंपायणम्मि] अर्थ (के) सम्पादन में [जइयव्वं] प्रयत्न करना चाहिए [हंदि] यह समझें कि [आयरियघीरहत्था] अनुभवहीन आचार्य [महाणं] जिनागम (जिनवाणी की) [विलंबेंति] विडम्बना करते हैं ।

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+ ज्ञान-विहीन पर-समय -
जह जह बहुस्सुओ सम्मओ य सिस्सगणसंपरिवुडो य ।
अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्वंतपडिणीओ ॥66॥
चरणकरणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कवावारा ।
चरण-करणस्स सारं णिच्छयसुद्ध ण याणंति ॥67॥
अन्वयार्थ : [समये] सिद्धान्त में [अविणिच्छिओ] अनिश्चित ( बुद्धि वाला कोई आाचार्य) [जह जह] जैसे-जैसे [बहुस्सुओ] बहुश्रुत (पण्डित) [सम्मगो] माना जाता है [य] और [सिस्सगणसंपरिवुडो] शिष्यवृन्द से घिरता जाता है [तह तह] वैसे-वैसे [सिद्धंतपडिणीओ] सिद्धान्त के प्रतिकूल होता जाता है ।
[चरण-करणप्पहाणा] (बाह्य) आचरण की क्रियाओं को मुख्य (समझने वाले) [ससमय-परसमयमुक्कवावारा] स्व-समय (और) पर-समय के व्यापार (चिन्तन) से मुक्त [चरण-करणस्स] आचरण परिणाम का [सारं] सार [णिच्छयसुद्ध ण याणंति] निश्चय-शुद्ध (आत्मा) को नहीं जानते हैं ।

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णाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दो वि एगंता ।
असमत्था दाएउं जम्ममरणदुक्ख मा भाई ॥68॥
अन्वयार्थ : [किरियारहियं णाण] चारित्र विहीन ज्ञान [च] और [किरियामेत्तं] (ज्ञान शून्य) मात्र क्रिया [दो वि] दोनों ही [एगंता] एकान्त है; [जम्ममरणदुक्ख] जन्म-मरण के दुःखों से [मा] मत [भाई] डरो; (परस्पर साथ रह कर ज्ञान और चारित्र) [दाएउ] (जन्म मरण दु:ख ) दिलाने में [असमत्था] असमर्थ हैं ।

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जेज विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ ।
तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥६९॥
भद्दं मिच्छादंसण समूहमहयस्स अमयसारस्स ।
जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥७०॥
अन्वयार्थ : [जेण विणा] जिसके बिना [लोगस्स] लोक का [ववहारो ] व्यवहार [वि] भी [सव्वहा] सर्वथा [ण] नहीं [णिव्वडइ] निष्पन्न होता है [तस्स] उस [भुवणेक्कगुरुणो] तीन लोक के अद्वितीय गुरु [अणेगंतवायस्स] अनेकान्तवाद को [णमो] नमस्कार है।
[मिच्छादंसण] मिथ्यादर्शन (मिथ्यामत वाले) [समूह] समुदाय (वर्ग) का [महयस्स] विनाश करने वाले [अमय सारस्स] अमृत सार (रूप) [संविग्ग] ममुक्षु के [सूहाहिगम्मस्स] सुख पूर्वक समझ में आने वाले [भगवओ] भगवान के [जिणवयणस्स] जिन वचन के [भद्द] कल्याण हो ।

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Incomplete

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