जैन
पूजा-पाठ












nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022

Index


अधिकार

प्रारम्भ नित्य-पूजा तीर्थंकर पर्व-पूजन
विसर्जन पाठ छहढाला स्तोत्र
ग्रंथ आरती





प्रारम्भ

1) श्री मंगलाष्टक स्तोत्र 2) दर्शनं देव देवस्य
3) दर्शन पाठ -- पं. बुधजन 4) दर्शन पाठ
5) प्रतिमा प्रक्षाल विधि पाठ 6) अभिषेक पाठ भाषा -- पं. हरजसराय
7) अभिषेक पाठ लघु 8) मैंने प्रभुजी के चरण
9) अमृत से गगरी भरो 10) महावीर की मूंगावरणी
11) विनय पाठ दोहावली 12) विनय पाठ लघु
13) मंगलपाठ 14) भजन मैं थाने पूजन आयो
15) पूजा विधि प्रारंभ 16) अर्घ
17) स्वस्ति मंगल विधान 18) स्वस्ति मंगल विधान हिंदी
19) चतुर्विंशति तीर्थंकर स्वस्ति विधान 20) अथ परमर्षि स्वस्ति मंगल विधान
21) स्तुति -- पं. बुधजन
नित्य-पूजा

1) देव शास्त्र गुरु -- पं. जुगल किशोर 2) देव शास्त्र गुरु -- पं. द्यानतराय
3) देव शास्त्र गुरु -- पं. हुकमचन्द भारिल्ल 4) देव शास्त्र गुरु -- पं. रवीन्द्रजी
5) देव शास्त्र गुरु -- पं. राजमल पवैया 6) समुच्च पूजा -- ब्रह्मचारी सरदारमल
7) पंचपरमेष्ठी -- पं. राजमल पवैया 8) नवदेवता पूजन -- पं. राजमल पवैया
9) नवदेवता पूजन -- आ. ज्ञानमती 10) सिद्धपूजा -- पं. राजमल पवैया
11) सिद्धपूजा -- पं. हुकमचन्द भारिल्ल 12) सिद्धपूजा -- पं. जुगल किशोर
13) सिद्धपूजा -- पं. हीराचंद 14) त्रिकाल चौबीसी पूजन -- पं. द्यानतराय
15) चौबीस तीर्थंकर -- पं. वृन्दावनदास 16) चौबीस तीर्थंकर -- पं. द्यानतराय
17) अनन्त तीर्थंकर पूजन -- पं. राजमल पवैया 18) श्री वीतराग पूजन -- पं. रवीन्द्रजी
19) रत्नत्रय पूजन -- पं. द्यानतराय 20) सम्यकदर्शन -- पं. द्यानतराय
21) सम्यकज्ञान -- पं. द्यानतराय 22) सम्यकचारित्र -- पं. द्यानतराय
23) दशलक्षण धर्म -- पं. द्यानतराय 24) सोलहकारण भावना -- पं. द्यानतराय
25) सरस्वती पूजन -- पं. द्यानतराय 26) सीमन्धर भगवान -- पं. राजमल पवैया
27) सीमन्धर भगवान -- पं. हुकमचन्द भारिल्ल 28) विद्यमान बीस तीर्थंकर -- पं. राजमल पवैया
29) विद्यमान बीस तीर्थंकर -- पं. द्यानतराय 30) बाहुबली भगवान -- पं. राजमल पवैया
31) बाहुबली भगवान -- ब्रह्मचारी रवीन्द्र 32) पंचमेरु पूजन -- पं. द्यानतराय
33) नंदीश्वर द्वीप पूजन -- पं. द्यानतराय 34) निर्वाणक्षेत्र -- पं. द्यानतराय
35) कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालय पूजन -- पं. राजमल पवैया 36) अष्टापद कैलाश पूजन
37) आ कुंदकुंद पूजन
तीर्थंकर

1) श्रीआदिनाथ -- पं. राजमल पवैया 2) आदिनाथ भगवान -- पं. जिनेश्वरदास
3) श्रीआदिनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 4) श्रीअजितनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
5) श्रीसंभवनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 6) श्रीअभिनन्दननाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
7) श्रीसुमतिनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 8) श्रीपद्मप्रभ पूजन -- पं. राजमल पवैया
9) श्रीपद्मप्रभ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 10) श्रीसुपार्श्वनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
11) श्रीचन्द्रप्रभनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 12) श्रीपुष्पदन्त पूजन -- पं. वृन्दावनदास
13) श्रीशीतलनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 14) श्रीश्रेयांसनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
15) श्रीवासुपूज्य पूजन -- पं. राजमल पवैया 16) श्रीवासुपूज्य पूजन -- पं. वृन्दावनदास
17) श्रीविमलनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 18) श्रीअनन्तनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
19) श्रीधर्मनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 20) श्रीशांतिनाथ पूजन -- पं. बख्तावर
21) श्रीशांतिनाथ पूजन -- पं. राजमल पवैया 22) श्रीशांतिनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
23) श्रीकुंथुनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 24) श्रीअरहनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
25) श्रीमल्लिनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 26) श्रीमुनिसुव्रतनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास
27) श्रीनमिनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 28) श्रीनेमिनाथ पूजन -- पं. राजमल पवैया
29) श्रीनेमिनाथ पूजन -- पं. वृन्दावनदास 30) श्रीपार्श्वनाथ पूजन -- पं. बख्तावर
31) श्रीपार्श्वनाथ पूजन -- पं. राजमल पवैया 32) श्रीपार्श्वनाथ पूजन पण्डित वृन्दावनदास
33) श्रीमहावीर पूजन -- पं. राजमल पवैया 34) श्रीमहावीर पूजन -- पं. वृन्दावनदास
35) श्रीमहावीर पूजन -- पं. हुकमचंद भारिल्ल
पर्व-पूजन

1) क्षमावणी 2) अक्षय तृतीया -- पं. राजमल पवैया
3) दीपावली पूजन -- पं. राजमल पवैया 4) रक्षाबंधन -- पं. राजमल पवैया
5) वीरशासन जयन्ती -- पं. राजमल पवैया 6) श्रुतपंचमी -- पं. राजमल पवैया
विसर्जन

1) अर्घ्य 2) महाअर्घ्य
3) समुच्चय महाअर्घ्य 4) शांति पाठ
5) शांति पाठ भाषा 6) विसर्जन पाठ
7) भगवान आदिनाथ चालीसा 8) भगवान महावीर चालीसा
पाठ

1) देव स्तुति -- पं. भूधरदास 2) मेरी भावना -- पं. रतनलाल मुख्तार
3) बारह भावना -- पं. जयचंद छाबडा 4) बारह भावना -- पं. भूधरदास
5) बारह भावना -- पं.. मंगतराय 6) महावीर वंदना -- पं. हुकमचंद भारिल्ल
7) समाधिमरण -- पं. द्यानतराय 8) समाधि भावना -- पं. शिवराम
9) समाधिमरण भाषा -- पं. सूरचंद 10) दर्शन स्तुति -- पं. दौलतराम
11) जिनवाणी स्तुति 12) आराधना पाठ -- पं. द्यानतराय
13) आर्हत वंदना -- पं. जुगल किशोर 14) आलोचना पाठ -- पं. जौहरिलाल
15) दुखहरन विनती -- पं. वृन्दावनदास 16) अमूल्य तत्त्व विचार -- श्रीमद राजचन्द्र
17) बाईस परीषह -- आ. ज्ञानमती 18) सामायिक पाठ -- आ. अमितगति
19) सामायिक पाठ -- पं. महाचंद्र 20) सामायिक पाठ -- पं. जुगल किशोर
21) निर्वाण कांड -- पं. भगवतीदास 22) देव शास्त्र गुरु वंदना
23) वैराग्य भावना -- पं. भूधरदास 24) भूधर शतक -- पं. भूधरदास
25) आत्मबोध शतक -- आ. पूर्णमति 26) चौबीस तीर्थंकर स्तवन -- पं. अभयकुमार
27) लघु प्रतिक्रमण 28) मृत्युमहोत्सव
29) अपूर्व अवसर -- श्रीमद राजचंद्र 30) कुंदकुंद शतक -- पं. हुकमचंद भारिल्ल
31) सिद्ध श्रुत आचार्य भक्ति 32) ध्यान सूत्र शतक -- आ. माघनंदी
33) पखवाड़ा -- पं. द्यानतराय 34) श्री गोम्टेश्वर स्तुति
35) श्रीजिनेन्द्रगुणसंस्तुति -- श्रीपात्रकेसरिस्वामि 36) रत्नाकर पंचविंशतिका -- पं. रामचरित
37) भूपाल पंचविंशतिका -- पं. भूधरदास 38) सच्चा जैन -- रवीन्द्र जी आत्मन
39) सरस्वती वंदना
छहढाला

1) छहढाला -- पं. द्यानतराय 2) छहढाला -- पं दौलतराम
3) छहढाला -- पं बुधजन
स्तोत्र

1) स्वयंभू स्तोत्र भाषा -- आ. समंतभद्र 2) स्वयंभू स्तोत्र भाषा -- पं. द्यानतराय
3) स्वयंभू स्तोत्र -- आ. विद्यासागर 4) पार्श्वनाथ स्त्रोत्र -- पं. द्यनतराय
5) महावीराष्टक स्तोत्र -- पं. भागचन्द्र 6) वीतराग स्तोत्र -- मुनि क्षमासागर
7) कल्याणमन्दिरस्तोत्रम -- आ. कुमुदचंद्र 8) कल्याणमन्दिर स्तोत्र हिंदी -- आ. चंदानामती
9) भक्तामर -- आ. मानतुंग 10) भक्तामर -- पं. हेमराज
11) भक्तामर -- मुनि श्रीरसागर 12) एकीभाव स्तोत्र -- आ. वादीराज
13) विषापहारस्तोत्रम् -- कवि धनञ्जय 14) विषापहारस्तोत्र -- पं. शांतिदास
15) अकलंक स्तोत्र 16) गणधरवलय स्तोत्र
17) मंदालसा स्तोत्र 18) श्रीमज्जिनसहस्रनाम स्तोत्र
ग्रंथ

1) तत्त्वार्थसूत्र -- आ. उमास्वामी
आरती

1) पंच परमेष्ठी आरती -- पं. द्यानतराय 2) भगवान चंदाप्रभु आरती
3) भगवान पार्श्वनाथ आरती 4) भगवान महावीर आरती
5) भगवान बाहुबली आरती





श्री-मंगलाष्टक-स्तोत्र🏠

पञ्च परमेष्ठी हमारा मंगल करें
अर्हन्तो भगवंत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा,
आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः
श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः,
पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥१॥
अन्वयार्थ : इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्धि के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढाने वाले ऐसे पूज्य उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु ये पाँचों परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करें ।


पञ्च परमेष्ठी हमारा मंगल करें
श्रीमन्नम्र - सुरासुरेन्द्र - मुकुट - प्रद्योत - रत्नप्रभा-
भास्वत्पादनखेन्दव प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः
ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः
स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥२॥
अन्वयार्थ : शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कांति से जिनके श्री चरणों के नखरूपी चन्द्रमा की ज्योति स्फ़ुरायमान हो रही है । और जो प्रवचन रूप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द्रमा हैं एवं योगिजन जिनकी स्तुति करते रहते है ऐसे अरिहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी पापों को क्षालित करें और हमें सुखी करें ॥


सच्चा रत्न त्रय धर्म,जिनवाणी,जिन बिम्ब और जिनालय हमारा मंगल करें
सम्यग्दर्शन-बोध-वृत्तममलं, रत्नत्रयं पावनं,
मुक्ति श्रीनगराधिनाथ - जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रदः
धर्म सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं, चैत्यालयं श्रयालयं,
प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी, कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥३॥
अन्वयार्थ : निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र यह पवित्र रत्नत्रय है । श्री सम्पन्न मुक्तिनगर के स्वामी भगवान् जिनदेव ने इसे अपवर्ग (मोक्ष) को देने वाला धर्म कहा है । इस प्रकार जो यह तीन प्रकार का धर्म कहा गया है वह तथा इसके साथ सूक्तिसुधा (जिनागम), समस्त जिन-प्रतिमा और लक्ष्मी का आकारभूत जिनालय मिलकर चार प्रकार का धरम कहा गया है वह हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करें ॥


मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ श्लाका पुरुष हमारा मंगल करें
नाभेयादिजिनाः प्रशस्त-वदनाः ख्याताश्चतुर्विंशतिः,
श्रीमन्तो भरतेश्वर-प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश
ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लांगलधराः सप्तोत्तराविंशतिः,
त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टि-पुरुषाः कुर्वन्तु नः मंगलम् ॥४॥
अन्वयार्थ : तीनों लोकों में विख्यात और बाह्य तथा आभ्यन्तर लक्ष्मी सम्पन्न ऋषभनाथ भगवान् आदि 24 तीर्थंकर, श्रीमान् भरतेश्वर आदि 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण और 9 बलभद्र ये 63 शलाका महापुरुष हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करें ॥


ऋद्धि धारी ऋषि महाराज हम सब का मंगल करें
ये सर्वौषध-ऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगताः पञ्च ये,
ये चाष्टाँग-महा निमित्त कुशलाः ये ऽष्टाविधाश्चारणाः ।
पञ्च ज्ञान धरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धि ऋद्धिश्वराः,
सप्तैते सकलार्चिता मुनिवराः कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥५॥
अन्वयार्थ : सभी औषधि ऋद्धिधारी, उत्तम तप ऋद्धिधारी, अवधृत क्षेत्र से भी दूरवर्ती विषय के आस्वादन, दर्शन, स्पर्शन, घ्राण और श्रवण की समर्थता की ऋद्धि के धारी, अष्टांग महानिमित्त विज्ञता की ऋद्धि के धारी, आठ प्रकार की चारण ऋद्धि के धारी, पॉच प्रकार के ज्ञान की ऋद्धि के धारी, तीन प्रकार के बलों की ऋद्धि के धारी और बुद्धि-ऋद्धीश्वर, ये सातों जगत्पूज्य गणनायक तहमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करें । बुद्धि क्रिया, विक्रिया, तप, वश, औषध रस और क्षेत्र के भेद से ऋद्धयों के आठ भेद हैं ॥


तीनों लोक के अकृत्रिम चैत्यालय हमारा मंगल करें
ज्योतिर्व्यन्तर-भवनामरग्रहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः,
जम्बूशाल्मलि-चैत्य-शाखिषु तथा वक्षार-रुप्याद्रिषु ।
इक्ष्वाकार-गिरौ च कुण्डलादि द्वीपे च नन्दीश्वरे,
शैले ये मनुजोत्तरे जिन-ग्रहाःकुर्वन्तु नो मंगलम् ॥६॥
अन्वयार्थ : ज्योतिषी, व्यन्तर भवनवासी और वैमानिकों के आवासों के, मेरुओं, कुलाचलों, जम्बू वृक्षों और शाल्मलि वृक्षों, वक्षारों, विजयार्ध पर्वतों, इक्ष्याकार पर्वतों, कुंडलपर्वत, नन्दीश्वरद्वीप और मानुषोत्तर पर्वत (तथा रुचिकवर पर्वत), के सभी अकृत्रिम जिन चैत्यालय हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करें ॥


निर्वाण क्षेत्र हम सब का मंगल करे
कैलासे वृषभस्य निर्व्रतिमही वीरस्य पावापुरे
चम्पायां वसुपूज्य सज्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम् ।
शेषाणामपि चोर्जयन्त शिखरे नेमीश्वर स्यार्हतः,
निर्वाणावनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥७॥
अन्वयार्थ : भगवान् ऋषणभदेव की निर्वाण भूमि कैलाश पर्वत पर है । महावीरस्वामी की पावापुर में है । वासुपूज्य स्वामी की चम्पापुरी में है । नेमिनाथ स्वामी की ऊर्जयन्त पर्वत के शिखर पर और शेष बीस तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि श्री सम्मेदशिखर पर्वत पर है, जिनका अतिशय और वैभव विख्यात है । ऐसी ये सभी निर्वाण भूमियाँ हमें निष्पाप बना दें और हमें सुखी करें ॥


तीर्थंकरों के पञ्च कल्याणकों की महिमा हम सब का मंगल करे
यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो,
यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक् ।
यः कैवल्यपुर-प्रवेश-महिमा सम्भावितः स्वर्गिभिः
कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥८॥
अन्वयार्थ : तीर्थंकरों के गर्भकल्याणक, जन्माभिषेक कल्याणक, दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और कैवल्यपुर प्रवेश (निर्वाण) कल्याणक के देवों द्वारा सम्भावित महोत्सव हमें सर्वदा मांगलिक रहें ॥


धर्म के प्रभाव से सब कुछ संभव है
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते,
सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः
देवाः यान्ति वश प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे,
धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगैः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥९॥
अन्वयार्थ : धर्म के प्रभाव से सर्प माला बन जाता है, तलवार फूलों के समान कोमल बन जाती है, विष अमृत बन जाता है, शत्रु प्रेम करने वाला मित्र बन जाता है और देवता प्रसन्न मन से धर्मात्मा के वश में हो जाते है । अधिक क्या कहें धर्म से ही आकाश से रत्नों की वर्षा होने लगती हैं वही धर्म हम सब का कल्याण करे ॥


पाठ पढने का फल
इत्थं श्रीजिन-मंगलाष्टकमिदं सौभाग्य-सम्पत्करम्,
कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुषः ।
ये श्रण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैः धर्मार्थ-कामाविन्ताः,
लक्ष्मीराश्रयते व्यपाय-रहिता निर्वाण-लक्ष्मीरपि ॥१०॥
अन्वयार्थ : सौभाग्य सम्पत्ति को प्रदान करने वाले इस श्री जिनेन्द्र मंगलाष्टक को जो सुधी तीर्थकरों के पंचकल्याणक के महोत्सवों के अवसर पर तथा प्रभातकाल में भावपूर्वक सुनते और पढ़ते हैं वे सज्जन धर्म, अर्थ और काम से समन्वित लक्ष्मी के आश्रय बनते हैं और पश्चात् अविनश्वर मुक्तिलक्ष्मी को भी प्राप्त करते हैं ॥




दर्शनं-देव-देवस्य🏠
दर्शनं देव-देवस्य, दर्शनं पापनाशनं
दर्शनं स्वर्ग-सोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनं ॥१॥
दर्शन श्री देवाधिदेव का, दर्शन पाप विनाशन है ।
दर्शन है सोपान स्वर्ग का, और मोक्ष का साधन है ॥१॥
अन्वयार्थ : देवों के देव(जिनेन्द्रदेव) का दर्शन पाप का नाश करने वाला,स्वर्ग जाने के लिए सीढ़ी के समान तथा मोक्ष का साधन है ।

दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च,
न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥२॥
श्री जिनेंद्र के दर्शन औ, निर्ग्रन्थ साधु के वंदन से ।
अधिक देर अघ नहीं रहै, जल छिद्र सहित कर में जैसे ॥२॥
अन्वयार्थ : श्री जिनेन्द्र देव के दर्शन करने से और साधुओं की वन्दना करने से पाप बहुत दिनों तक नहीं ठहरते, जैसे छिद्र होने से हाथों में पानी नहीं ठहरता ।

वीतराग-मुखं दृष्टवा, पद्म-राग-समप्रभं ।
जन्म-जन्म-कृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति ॥३॥
वीतराग मुख के दर्शन की, पद्मराग सम शांत प्रभा ।
जन्म-जन्म के पातक क्षण में, दर्शन से हों शांत विदा ॥३॥
अन्वयार्थ : पद्मरागमणि के समान शोभनीक श्री वीतराग भगवान का मुख देखकर अनेक जन्मों के किये हुए पाप दर्शन से नष्ट हो जाते हैं ।

दर्शनं जिन-सूर्यस्य, संसार-ध्वांत-नाशनं ।
बोधनं चित्त-पद्मस्य, समस्तार्थ-प्रकाशनं ॥४॥
दर्शन श्री जिन देव सूर्य, संसार तिमिर का करता नाश ।
बोधि प्रदाता चित्त पद्म को, सकल अर्थ का करे प्रकाश ॥४॥
अन्वयार्थ : सूर्य के समान श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शन करने से सांसारिक अंधकार नष्ट होता है, चित्तरूपी कमल खिलता है और सर्व पदार्थ प्रकाश में आते (जाने जाते) हैं ।

दर्शनं जिन चन्द्रस्य सद्धर्मामृत-वर्षणं ।
जन्मदाह-विनाशाय, वर्धनं सुख-वारिधेः ॥५॥
दर्शन श्री जिनेंद्र चंद्र का, सदधर्मामृत बरसाता ।
जन्म दाह को करे शांत औ, सुख वारिधि को विकसाता ॥५॥
अन्वयार्थ : चन्द्रमा के समान श्री जिनेन्द्रदेव का दर्शन करने से समीचीन-धर्म रूपी अमृत की वर्षा होती है, बार-बार जन्म लेने का दाह मिटता है और सुख रूपी समुद्र की वृद्धि होती है ।

जीवादि-तत्त्व-प्रतिपादकाय, सम्यक्त्व-मुख्याष्ट-गुणाश्रयाय ।
प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय, देवाधि-देवाय नमो जिनाय ॥६॥
सकल तत्व के प्रतिपादक, सम्यक्त्व आदि गुण के सागर ।
शांत दिगंबर रूप नमूँ, देवाधिदेव तुमको जिनवर ॥६॥
अन्वयार्थ : श्री देवाधिदेव जिनेन्द्र को नमस्कार हो, जो जीव आदि सात तत्त्वों के बताने वाले, सम्यक्त्व आदि गुणों के स्वामी, शान्त रूप तथा दिगम्बर हैं ।

चिदानंदैक-रूपाय, जिनाय परमात्मने ।
परमात्म-प्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः ॥७॥
चिदानंदमय एक रूप, वंदन जिनेंद्र परमात्मा को ।
हो प्रकाश परमात्म नित्य, मम नमस्कार सिद्धात्मा को ॥७॥
अन्वयार्थ : श्री सिद्धात्मा को जो चिदानन्द रूप हैं, अष्ट-कर्मों को जीतने वाले हैं, परमात्म-स्वरूप के प्रकाशित होने के लिए नित्य नमस्कार हो ।

अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात्कारुण्य-भावेन, रक्ष-रक्ष जिनेश्वर ॥८॥
अन्य शरण कोई न जगत में, तुम हीं शरण मुझको स्वामी ।
करुण भाव से रक्षा करिए, हे जिनेश अंतर्यामी ॥८॥
अन्वयार्थ : हे जिनेश्वर! आप ही मुझे शरण में रखने वाले हो, आपके सिवा और कोई शरण नहीं है । इसलिए कृपापूर्वक संसार के दुःखों से मेरी रक्षा कीजिये । मैं आपकी शरण में हूँ ।

नहि त्राता नहि त्राता, नहि त्राता जगत्त्रये ।
वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥९॥
रक्षक नहीं शरण कोई नहिं, तीन जगत में दुख त्राता ।
वीतराग प्रभु-सा न देव है, हुआ न होगा सुखदाता ॥९॥
अन्वयार्थ : तीन-लोक के बीच अपना कोई रक्षक नहीं है, यदि कोई है तो हे वीतराग देव ! आप ही हैं क्योंकि आप के समान न तो कोई देव हुआ है और न आगे होगा ।

जिने भक्तिर्जिने भक्ति-र्जिने भक्तिर्दिने-दिने ।
सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे-भवे ॥१०॥
दिन दिन पाऊँ जिनवर भक्ति, जिनवर भक्ति जिनवर भक्ति ।
सदा मिले वह सदा मिले, जब तक न मिले मुझको मुक्ति ॥१०॥
अन्वयार्थ : मैं यह आकांक्षा करता हूँ कि जिनेन्द्र भगवान में मेरी भक्ति दिन-दिन और प्रत्येक भव में बनी रहे ।

जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भवेच्चक्र वर्त्यपि ।
स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासितः ॥११॥
नहीं चाहता जैन धर्म के बिना, चक्रवर्ती होना ।
नहीं अखरता जैन धर्म से, सहित दरिद्री भी होना ॥११॥
अन्वयार्थ : जिन-धर्म-रहित चक्रवर्ती होना भी अच्छा नहीं, जिन-धर्म का धारी दास तथा दरिद्री हो तो भी अच्छा है ।

जन्म-जन्म-कृतं-पापं, जन्मकोटि-मुपार्जितं ।
जन्म-मृत्यु-जरा-रोगं, हन्यते जिनदर्शनात् ॥१२॥
जन्म जन्म के किये पाप औ, बंधन कोटि-कोटि भव के ।
जन्म-मृत्यु औ जरा रोग सब, कट जाते जिनदर्शन से ॥१२॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र के दर्शन से करोड़ों जन्मों के किये हुए पाप तथा जन्म-जरा-मृत्यु रूपी तीव्र-रोग अवश्य-अवश्य नष्ट हो जाते हैं ।

अद्याभवत सफलता नयन-द्वयस्य् ।
देव! त्वदीय-चरणाम्बुज-वीक्षणेन ॥
अद्य त्रिलोकतिलक! प्रतिभाषते मे ।
संसार-वारिधिरयं चुलुक-प्रमाणं ॥१३॥
आज 'युगल' दृग हुए सफल, तुम चरण कमल से हे प्रभुवर ।
हे त्रिलोक के तिलक! आज, लगता भवसागर चुल्लू भर ॥१३॥
अन्वयार्थ : हे देवाधिदेव! आपके कल्याणकारी चरण कमलों के दर्शन से मेरे दोनों नेत्र आज सफल हुए । हे तीनों लोकों के श्रृंगार रूप तेजस्वी लोकोत्तर पुरुषोत्तम! आपके प्रताप से, मेरा संसार रूपी समुद्र हाथ में लिये (चुल्लू भर) पानी के समान प्रतीत होता है,आपके प्रताप से मैं सहज ही संसार-समुद्र से पार हो जाऊँगा ।




दर्शन-पाठ🏠
कविश्री बुधजनजी कृत

दोहा
तुम निरखत मुझको मिली, मेरी सम्पत्ति आज
कहाँ चक्रवर्ति-संपदा, कहाँ स्वर्ग-साम्राज ॥१॥

तुम वंदत जिनदेवजी, नित-नव मंगल होय
विघ्नकोटि ततछिन टरैं, लहहिं सुजस सब लोय ॥२॥

तुम जाने बिन नाथजी, एक श्वास के माँहि
जन्म-मरण अठदस किये, साता पाई नाहिं ॥३॥

आप बिना पूजत लहे, दु:ख नरक के बीच
भूख-प्यास पशुगति सही, कर्यो निरादर नीच ॥४॥

नाम उचारत सुख लहे, दर्शनसों अघ जाय
पूजत पावे देव-पद, ऐसे हैं जिनराय ॥५॥

वंदत हूँ जिनराज मैं, धर उर समता भाव
तन धन-जन-जगजालतें, धर विरागता भाव ॥६॥

सुनो अरज हे नाथजी! त्रिभुवन के आधार
दुष्टकर्म का नाश कर, वेगि करो उद्धार ॥७॥

याचत हूँ मैं आपसों, मेरे जिय के माँहिं
राग-द्वेष की कल्पना, कबहू उपजे नाहिं ॥८॥

अति अद्भुत प्रभुता लखी, वीतरागता माँहिं
विमुख होहिं ते दु:ख लहें, सन्मुख सुखी लखाहिं ॥९॥

कल-मल कोटिक नहिं रहें, निरखत ही जिनदेव
ज्यों रवि ऊगत जगत में, हरे तिमिर स्वयमेव ॥१०॥

परमाणु – पुद्गलतणी, परमातम – संयोग
भई पूज्य सब लोक में, हरे जन्म का रोग ॥११॥

कोटि-जन्म में कर्म जो, बाँधे हुते अनंत
ते तुम छवि विलोकते, छिन में होवहिं अंत ॥१२॥

आन नृपति किरपा करे, तब कछु दे धन-धान
तुम प्रभु अपने भक्त को, करल्यो आप-समान ॥१३॥

यंत्र-मंत्र मणि-औषधि, विषहर राखत प्रान
त्यों जिनछवि सब भ्रम हरे, करे सर्व-परधान ॥१४॥

त्रिभुवनपति हो ताहि ते, छत्र विराजें तीन
सुरपति-नाग-नरेशपद, रहें चरन-आधीन ॥१५॥

भवि निरखत भव आपनो, तुव भामंडल बीच
भ्रम मेटे समता गहे, नाहिं सहे गति नीच ॥१६॥

दोई ओर ढोरत अमर, चौंसठ-चमर सफेद
निरखत भविजन का हरें, भव अनेक का खेद ॥१७॥

तरु-अशोक तुव हरत है, भवि-जीवन का शोक
आकुलता-कुल मेटिके, करैं निराकुल लोक ॥१८॥

अंतर-बाहिर-परिग्रहन, त्यागा सकल समाज
सिंहासन पर रहत है, अंतरीक्ष जिनराज ॥१९॥

जीत भई रिपु-मोह तें, यश सूचत है तास
देव-दुन्दुभिन के सदा, बाजे बजें अकाश ॥२०॥

बिन-अक्षर इच्छारहित, रुचिर दिव्यध्वनि होय
सुर-नर-पशु समझें सबै, संशय रहे न कोय ॥२१॥

बरसत सुरतरु के कुसुम, गुंजत अलि चहुँ ओर
फैलत सुजस सुवासना, हरषत भवि सब ठौर ॥२२॥

समुद्र बाघ अरु रोग अहि, अर्गल-बंध संग्राम
विघ्न-विषम सबही टरैं, सुमरत ही जिननाम ॥२३॥

श्रीपाल चंडाल पुनि, अञ्जन भीलकुमार
हाथी हरि अरि सब तरे, आज हमारी बार ॥२४॥

'बुधजन' यह विनती करे, हाथ जोड़ सिर नाय
जबलौं शिव नहिं होय तुव-भक्ति हृदय अधिकाय ॥२५॥



दर्शन-पाठ🏠
अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया
अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने ॥१॥

पाये अनंते दु:ख अब तक, जगत को निज जानकर
सर्वज्ञ भाषित जगत हितकर, धर्म नहिं पहिचान कर ॥२॥

भव बंधकारक सुखप्रहारक, विषय में सुख मानकर
निजपर विवेचक ज्ञानमय, सुखनिधि सुधा नहिं पानकर ॥३॥

तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये
निज ज्ञान कला उर जागी, रुचि पूर्ण स्वहित में लागी ॥४॥

रुचि लगी हित में आत्म के, सतसंग में अब मन लगा
मन में हुई अब भावना, तव भक्ति में जाऊँ रंगा ॥५॥

प्रिय वचन की हो टेव, गुणीगण गान में ही चितपगै
शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादन तैं भगै ॥६॥

कब समता उर में लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर
ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ वन जाकर ॥७॥

धरकर दिगम्बर रूप कब, अठ-बीस गुण पालन करूँ
दो-बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दश धारन करूँ ॥८॥

तप तपूं द्वादश विधि सुखद नित, बंध आस्रव परिहरूँ
अरु रोकि नूतन कर्मसंचित, कर्म रिपुकों निर्जरूँ ॥९॥

कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ
कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ ॥१०॥

कर दूर रागादिक निरंतर, आत्म को निर्मल करूँ
बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचरूँ ॥११॥

आनन्दकन्द जिनेन्द्रबन, उपदेश को नित उच्चरूं
आवै ‘अमर’ कब सुखद दिन, जब दु:खद भवसागर तरूँ ॥१२॥



प्रतिमा-प्रक्षाल-विधि-पाठ🏠
दोहा
परिणामों की स्वच्छता, के निमित्त जिनबिम्ब
इसीलिए मैं निरखता, इनमें निज-प्रतिबिम्ब ॥
पंच-प्रभू के चरण में, वंदन करूँ त्रिकाल
निर्मल-जल से कर रहा, प्रतिमा का प्रक्षाल ॥

अथ पौर्वाह्रिक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-स्तवन वंदनासमेतं श्री पंचमहागुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गं करोम्यहम्

नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ें

छप्पय
तीन लोक के कृत्रिम औ अकृत्रिम सारे
जिनबिम्बों को नित प्रति अगणित नमन हमारे ॥
श्रीजिनवर की अन्तर्मुख छवि उर में धारूँ
जिन में निज का, निज में जिन-प्रतिबिम्ब निहारूँ ॥

मैं करूँ आज संकल्प शुभ, जिन-प्रतिमा प्रक्षाल का
यह भाव-सुमन अर्पण करूँ, फल चाहूँ गुणमाल का ॥
ॐ ह्रीं प्रक्षाल-प्रतिज्ञायै पुष्पांजलिं क्षिपामि

प्रक्षाल की प्रतिज्ञा हेतु पुष्प क्षेपण करें

रोला
अंतरंग बहिरंग सुलक्ष्मी से जो शोभित
जिनकी मंगलवाणी पर है त्रिभुवन मोहित ॥
श्रीजिनवर सेवा से क्षय मोहादि-विपत्ति
हे जिन! 'श्री' लिख, पाऊँगा निज-गुण सम्पत्ति ॥

अभिषेक-थाल की चौकी पर केशर से 'श्री' लिखें

दोहा
अंतर्मुख मुद्रा सहित, शोभित श्री जिनराज
प्रतिमा प्रक्षालन करूँ, धरूँ पीठ यह आज ॥
ॐ ह्रीं श्री स्नपन-पीठ स्थापनं करोमि

प्रक्षाल हेतु थाल स्थापित करें

रोला
भक्ति-रत्न से जड़ित आज मंगल सिंहासन
भेद-ज्ञान जल से क्षालित भावों का आसन ॥
स्वागत है जिनराज तुम्हारा सिंहासन पर
हे जिनदेव! पधारो श्रद्धा के आसन पर ॥
ॐ ह्रीं श्री धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन्निह सिंहासने तिष्ठ! तिष्ठ!

प्रदक्षिणा देकर अभिषेक-थाल में जिनबिम्ब विराजमान करें

क्षीरोदधि के जल से भरे कलश ले आया
दृग-सुख वीरज ज्ञान स्वरूपी आतम पाया ॥
मंगल-कलश विराजित करता हूँ जिनराजा
परिणामों के प्रक्षालन से सुधरें काजा ॥
ॐ ह्रीं अर्हं कलश-स्थापनं करोमि

चारों कोनों में निर्मल जल से भरे कलश स्थापित करें, व स्नपन-पीठ स्थित जिन-प्रतिमा को अर्घ्य चढ़ायें

जल-फल आठों द्रव्य मिलाकर अर्घ्य बनाया
अष्ट-अंग-युत मानो सम्यग्दर्शन पाया ॥
श्रीजिनवर के चरणों में यह अर्घ्य समर्पित
करूँ आज रागादि विकारी-भाव विसर्जित ॥
ॐ ह्रीं श्री स्नपनपीठस्थिताय जिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

चारों कोनों के इंद्र विनय सहित दोनों हाथों में जल कलश ले प्रतिमाजी के शिर पर धारा करते हुए गावें

मैं रागादि विभावों से कलुषित हे जिनवर
और आप परिपूर्ण वीतरागी हो प्रभुवर ॥
कैसे हो प्रक्षाल जगत के अघ-क्षालक का
क्या दरिद्र होगा पालक! त्रिभुवन-पालक का ॥
भक्ति-भाव के निर्मल जल से अघ-मल धोता
है किसका अभिषेक! भ्रान्त-चित खाता गोता ॥
नाथ! भक्तिवश जिन-बिम्बों का करूँ न्हवन मैं
आज करूँ साक्षात् जिनेश्वर का पृच्छन मैं ॥

दोहा
क्षीरोदधि-सम नीर से करूँ बिम्ब प्रक्षाल
श्री जिनवर की भक्ति से जानूँ निज-पर चाल ॥
तीर्थंकर का न्हवन शुभ सुरपति करें महान्
पंचमेरु भी हो गए महातीर्थ सुखदान ॥
करता हूँ शुभ-भाव से प्रतिमा का अभिषेक
बचूँ शुभाशुभ भाव से यही कामना एक ॥

ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं कृपालसन्तं वृषभादिमहावीरपर्यन्तं चतुर्विंशति-तीर्थंकर-परमदेवम् आद्यानामाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे <,,,,,शुभे....> नाम्निनगरे मासानामुत्तमे <,,,,,शुभे....> मासे <,,,,,शुभे....> पक्षे <,,,,,शुभे....> दिने मुन्यार्यिकाश्रावकश्राविकाणां सकलकर्म – क्षयार्थं पवित्रतर-जलेन जिनमभिषेचयामि

चारों कलशों से अभिषेक करें, वादित्र-नाद करावें एवं जय-जय शब्दोच्चारण करें

दोहा
जिन-संस्पर्शित नीर यह, गन्धोदक गुणखान
मस्तक पर धारूँ सदा, बनूँ स्वयं भगवान् ॥

गंधोदक केवल मस्तक पर लगायें, अन्य किसी अंग में लगाना आस्रव का कारण होने से वर्जित है

जल-फलादि वसु द्रव्य ले, मैं पूजूँ जिनराज
हुआ बिम्ब-अभिषेक अब, पाऊँ निज-पद-राज ॥
ॐ ह्रीं श्री अभिषेकांन्ते वृषभादिवीरान्तेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्री जिनवर का धवल-यश, त्रिभुवन में है व्याप्त
शांति करें मम चित्त में, हे! परमेश्वर आप्त ॥

पुष्पांजलि क्षेपण करें

रोला
जिन-प्रतिमा पर अमृत सम जल-कण अतिशोभित
आत्म-गगन में गुण अनंत तारे भवि मोहित ॥
हो अभेद का लक्ष्य भेद का करता वर्जन
शुद्ध वस्त्र से जल कण का करता परिमार्जन ॥

प्रतिमा को शुद्ध-वस्त्र से पोंछें

दोहा
श्रीजिनवर की भक्ति से, दूर होय भव-भार
उर-सिंहासन थापिये, प्रिय चैतन्य-कुमार ॥

वेदिका-स्थित सिंहासन पर नया स्वस्तिक बना प्रतिमाजी को विराजित करें व निम्न पद गाकर अर्घ्य चढ़ायें

जल गन्धादिक द्रव्य से, पूजूँ श्री जिनराज
पूर्ण अर्घ्य अर्पित करूँ, पाऊँ चेतनराज ॥
ॐ ह्रीं श्री वेदिका-पीठस्थितजिनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा



अभिषेक-पाठ-भाषा🏠
हरजसराय कृत

जय-जय भगवंते सदा, मंगल मूल महान
वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नमौ जोरि जुगपान ॥

श्रीजिन जगमें ऐसो को बुधवंत जू
जो तुम गुण वरननि करि पावै अंत जू ॥
इंद्रादिक सुर चार ज्ञानधारी मुनी
कहि न सकै तुम गुणगण हे त्रिभुवनधनी ॥

अनुपम अमित तुम गुणनि-वारिधि,ज्यों अलोकाकाश है
किमि धरै हम उर कोषमें सो अकथ-गुण-मणि-राश है
पै निज प्रयोजन सिद्धि की तुम नाम में ही शक्ति है
यह चित्त में सरधान यातैं नाम में ही भक्ति है ॥१॥

ज्ञानावरणी दर्शन,आवरणी भने
कर्म मोहनी अंतराय चारों हने ॥
लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञान में
इंद्रादिक मुकुट नये सुरथान में ॥

तब इंद्र जान्यो अवधितैं,उठि सुरन-युत बंदत भयो
तुम पुन्यको प्रेरयो हरी ह्वै मुदित धनपतिसौं चयो ॥
अब वेगि जाय रचौ समवसृती सफल सुरपदको करौ
साक्षात् श्री अरहंत के दर्शन करौ कल्मष हरौ ॥२॥

ऐसे वचन सुने सुरपति के धनपती
चल आयो ततकाल मोद धारै अती ॥
वीतराग छवि देखि शब्द जय जय चयौ
दे प्रदच्छिना बार बार वंदत भयौ ॥

अति भक्ति-भीनों नम्र-चित ह्वै समवशरण रच्यौ सही
ताकी अनूपम शुभ गतीको,कहन समरथ कोउ नहीं ॥
प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजहीं
नग-जड़ित गन्धकुटी मनोहर मध्यभाग विराजहीं ॥३॥

सिंघासन तामध्य बन्यौ अदभूत दिपै
तापर वारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिपै ॥
तीनछत्र सिर शोभित चौसठ चमरजी
महा भक्ति ढोरत हैं तहां अमरजी ॥

प्रभु तरन तारन कमल ऊपर अन्तरीक्ष विराजिया
यह वीतराग दशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया ॥
मुनि आदि द्वादश सभाके भविजीव मस्तक नायकें
बहुभाँति बारंबार पूजैं,नमैं गुणगण गायकैं ॥४॥

परमौदारिक दिव्य देह पावन सही
क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं ॥
जन्म जरामृति अरति शोक विस्मय नसे
राग रोष निंद्रा मद मोह सबै खसे ॥

श्रमबिना श्रमजलरहित पावन अमल ज्योति-स्वरूपजी
शरणागतनिकी अशुचिता हरि,करत विमल अनूपजी ॥
ऐसे प्रभु की शान्तिमुद्रा को न्हवन जलतें करैं
'जस' भक्तिवश मन उक्ति तैं हम भानु ढिग दीपक धरें ॥५॥

तुम तौ सहज पवित्र यही निश्चय भयो
तुम पवित्रता हेत नहीं मज्जन ठयो ॥
मैं मलीन रागादिक मलतै ह्वै रह्यो
महा मलिन तनमें वसु-विधि-वश दुख सह्यो ॥

बीत्यो अनंतो काल यह मेरी अशुचिता ना गई
तिस अशुचिता-हर एक तुम ही,भरहु बांछा चित ठई ॥
अब अष्टकर्म विनाश सब मल रोष-रागादिक हरौ
तनरुप कारा-गेहतैं उद्धार शिव वासा करौ ॥६॥

मैं जानत तुम अष्टकर्म हरि शिव गये
आवागमन विमुक्त राग-वर्जित भये ॥
पर तथापि मेरो मनोरथ पुरत सही
नय-प्रमानतैं जानि महा साता लही ॥

पापाचरण तजि न्ह्वन करता चित्त में ऐसे धरुं
साक्षात श्री अरिहंतका मानों न्ह्वन परसन करूं ॥
ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तैं
विधि अशुभ नसि शुभबंधतैं ह्वै शर्म सब विधि तासतैं ॥७॥

पावन मेरे नयन,भये तुम दरसतैं
पावन पानि भये तुम चरननि परसतैं ॥
पावन मन ह्वै गयो तिहारे ध्यानतैं
पावन रसना मानी,तुम गुण गानतैं ॥

पावन भई परजाय मेरी,भयौ मैं पूरण-धनी
मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी;पूर्णभक्ति नहीं बनी ॥
धन धन्य ते बड़भागि भवि तिन नींव शिव-घरकी धरी
वर क्षीरसागर आदि जल मणि-कुंभ भक्ती करी ॥८॥

विघन-सघन-वन-दाहन-दहन प्रचंड हो
मोह-महा-तम-दलन प्रबल मारतंड हो ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश, आदि संज्ञा धरो
जगविजयी जमराज नाश ताको करो ॥

आनन्द-कारण दुख-निवारण, परम मंगल-मय सही
मोसो पतित नहिं और तुमसो, पतित-तार सुन्यौ नहीं ॥
चिंतामणी पारस कल्पतरू, एक भव सुखकार ही
तुम भक्ति-नवका जे चढ़े, ते भये भवदधि-पार ही ॥९॥

तुम भवदधितैं तरि गये, भये निकल अविकार
तारतम्य इस भक्तिको, हमैं उतारो पार ॥१०॥

इति श्री हरजसराय कृत अभिषेक पाठ




अभिषेक-पाठ-लघु🏠
मैं परम पूज्य जिनेन्द्र प्रभु को भाव से वंदन करुं
मन वचन काय त्रियोग पूर्वक, शीश चरणों में धरूं ॥

सर्वज्ञ केवल ज्ञान धारी की सु छवि उर में धरूं
निर्ग्रन्थ पावन वीतराग महान की जय उच्चरूं ॥

उज्ज्वल दिगंबर वेश दर्शन कर हृदय आनन्द भरूं
अति विनयपूर्वक नमन करके सफ़ल यह नर भव करूं ॥

मैं शुद्ध जल के कलश प्रभु के पूज्य मस्तक पर करूं
जल धार देकर हर्ष से अभिषेक प्रभुजी का करूं ॥

मैं न्हवन प्रभु का भाव से कर, सकल भव पातक हरूं
प्रभु चरण कमल पखार कर, सम्यक्त्व की सम्पत्ति वरूं ॥



मैंने-प्रभुजी-के-चरण🏠
मैंने प्रभु जी के चरण पखारे ॥टेक॥
जन्म जन्म के संचित पातक, तत्क्षण ही निरवारे ॥1॥

प्रासुक जल के कलश श्री जिन, प्रतिमा ऊपर ढारे ॥2॥

वीतराग अरिहंत देव के, गूंजे जय जयकारे ॥3॥

चरणाम्बुज स्पर्श करत ही, छाए हर्ष अपारे ॥4॥

पावन तन मन नयन भये सब, दूर भये अंधियारे ॥5॥



अमृत-से-गगरी-भरो🏠
अमृत से गगरी भरो कि न्हवन प्रभु आज करेंगे
खुशी-खुशी मिलके चलो कि न्हवन प्रभु आज करेंगे ॥

सब साथी मिल कलश सजाओ, मंगलकारी गीत सुनाओ
मन में आनंद भरो, कि न्हवन प्रभु आज करेंगे ॥

इन्द्र-इन्द्राणी हर्ष मनावें, प्रभु चरणों में शीश झुकावें
प्रभुजी की छवि निरखो, कि न्हवन प्रभु आज करेंगे ॥

स्वर्ण कलश प्रभु उदक निधारा, अंग नहावे जिनवर प्यारा
स्वामी जगत को खरो, कि न्हवन प्रभु आज करेंगे ॥

है सुखकारी, सब दुखहारी, सेवा जिन की प्यारी-प्यारी
लेकर कलश को चलो, कि न्हवन प्रभु आज करेंगे ॥



महावीर-की-मूंगावरणी🏠
महावीर की मूंगावरणी मूरत मनहारी - २
कलशा ढारो रे, ढारो रे, ढारो भर झारी

कुंडलपुर के वीर की हो रही जय-जयकारी
कलशा ढारो रे, ढारो रे, ढारो भर झारी ॥

न्हवन कराओ माता त्रिशला के लाल का,
त्रिशला के लाल का, सिद्धार्थ के गोपाल का
मां त्रिशला के लाल के देखो कैसे लगे हैं ठाठ
एक हजार आठ कलशों से न्हावें जग-सम्राट
ढारो रे, कलशा ढारो, कमा लो रे पुण्य भारी
कलशा ढारो रे, ढारो रे, ढारो भर झारी ॥

सरस दरस पा लो वीर जिनचंद्र का
ले लो आशीष पूज्य गुरुवरों का
स्वर्ण कलश, नवरत्न कलश, हर कलश का है कुछ मोल
पर जिसका अभिषेक करोगे, वो तो है अनमोल
ढारो रे, कलशा ढारो, कमा लो रे पुण्य भारी
कलशा ढारो रे, ढारो रे, ढारो भर झारी ॥



विनय-पाठ-दोहावली🏠

इह विधि ठाड़ो होय के प्रथम पढै जो पाठ
धन्य जिनेश्वर देव तुम नाशे कर्मजु आठ ॥१॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार से खड़े होकर पहिले मै यह पाठ पढ़ता हूँ!जिनेन्द्र देव आप धन्य है क्योकि आपने आठों कर्मों को नष्ट कर दिया है ।

अनंत चतुष्टय के धनी, तुमही हो सिरताज
मुक्ति-वधू के कंत तुम, तीन भुवन के राज ॥२॥
अन्वयार्थ : आप अनंत चतुष्टाय के स्वामी है, आप ही सर्वश्रेष्ठ है, आप मोक्षलक्ष्मी रुपी पत्नी के पति है, आप तीन लोक के स्वामी हैं ।

तिहुं जग की पीड़ा-हरन, भवदधि शोषणहार
ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिवसुख के करतार ॥३॥
अन्वयार्थ : आप तीनो लोक के जीवों के दुखो को हरने वाले हो, संसार रुपी सागर के शोषक हैं । आप संसार के समस्त पदार्थों के ज्ञायक है और मोक्ष सुख प्राप्त करवाने वाले है ।

हरता अघ अंधियार के, करता धर्म प्रकाश
थिरता पद दातार हो, धरता निजगुण रास ॥४॥
अन्वयार्थ : आप पाप रुपी अन्धकार के हरता हैं, धर्म रुप प्रकाश के करता हैं, मोक्षपद को देने वाले हो और आत्मा के गुणों को धारण करने वाले हो ।

धर्मामृत उर जलधि सों ज्ञानभानु तुम रूप
तुमरे चरण-सरोज को, नावत तिहुं जग भूप ॥५॥
अन्वयार्थ : आपका हृदय धर्मरुपी अमृत के समुद्र के सामान है । आपका स्वरुप ज्ञान रुपी सूर्य के सामान है । निरंतर ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित करने वाला है । आपके चरण-कमल को तीनों लोक के राजा (ऊर्ध्व लोक के राजा इंद्र, मध्य लोक के राजा-चक्रवर्ती और अधो लोक के राजा-धरणेन्द्र) नमस्कार करते हैं, निरंतर वंदना करते है !

मैं वंदौं जिनदेव को, कर अति निर्मल भाव
कर्मबंध के छेदने, और न कछु उपाव ॥६॥
अन्वयार्थ : मै जिनेन्द्र देव की अत्यंत निर्मल भाव (राग-द्वेष छोड़कर) से वंदना करता हूँ क्योंकि आत्मा के साथ लगे कर्म बंध को नष्ट करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।

भविजन को भवकूप तैं, तुम ही काढ़नहार
दीनदयाल अनाथपति, आतम गुण भंडार ॥७॥
अन्वयार्थ : आप ही भव्य जीवों को संसार रुपी कुए से निकालने वाले हैं, दीनों पर दया करने वाले, अनाथों के स्वामी और आत्मा के गुणों के भण्डार हैं । आपने अपनी आत्मा पर लगे कर्ममल रुपी धूल को धोकर / पवित्र कर संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताकर सरल कर दिया है ।

चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्मरज मैल
सरल करी या जगत में भविजन को शिवगैल ॥८॥
अन्वयार्थ : आपने अपनी आत्मा पर लगे कर्ममल रुपी धूल को धोकर / पवित्र कर संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताकर सरल कर दिया है ।

तुम पदपंकज पूजतैं, विघ्न रोग टर जाय
शत्रु मित्रता को धरै, विष निरविषता थाय ॥९॥
अन्वयार्थ : आपके चरण कमलों को पूजने से

चक्री खगधर इंद्रपद, मिलैं आपतैं आप
अनुक्रमकर शिवपद लहैं, नेम सकल हनि पाप ॥१०॥
अन्वयार्थ : आपके चरण कमलों की पूजा करने वाले को चक्रवर्ती, विद्याधर और इंद्रपद अपने आप प्राप्त होते हैं और नियम से, क्रम से सम्पूर्ण पापों को नष्ट करके मोक्ष पद भी प्राप्त होता है ।

तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जल बिन मीन
जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥
अन्वयार्थ : हे भगवान, आपके बिना मै जल के बिना मछली के समान बड़ा व्याकुल हो रहा हूँ, मेरे जन्म-बुढ़ापे को नष्ट कर मुझको स्वतंत्र कर दीजिये ।

पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव
अंजन से तारे प्रभु, जय जय जय जिनदेव ॥१२॥
अन्वयार्थ : हे भगवान, आपने बहुत से पापियों को पवित्र कर दिया है उनकी गिनती कोई नहीं कर सकता है । अंजन चोर, सप्त व्यसन करने वाले, खोटी बुद्धि वाले को भी आपने पार करवा दिया (जिसने चोरी का त्याग कर दिगंबर मुद्रा धारण कर,मोक्ष प्राप्त किया) हे जिनेन्द्र भगवान् आपकी जय हो, आपकी जय हो, आपकी जय हो ।

थकी नाव भवदधिविषै, तुम प्रभु पार करेय
खेवटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥
अन्वयार्थ : हे भगवन, मेरी नाव संसार रुपी समुद्र में अटक गयी है आप ही इसे पार कर सकते हैं । आप ही मल्लाह हो, मुझे संसार सागर को पार लगाने वाले आप ही हो (अन्य देवी-देवता तो स्वयं संसार सागर में डूबे हुए हैं, वे नहीं पार लगा सकते) आपकी जय हो, जय हो, जय हो भगवन !

रागसहित जग में रुल्यो, मिले सरागी देव
वीतराग भेंट्यो अबै, मेटो राग कुटेव ॥१४॥
अन्वयार्थ : राग (अपने शरीर, घर, स्त्री, पुत्र आदि से) सहित होने के कारण मै संसार में भटक रहा हूँ (क्योंकि मैंने अपनी आत्मा का वास्तविक ज्ञाता-द्रष्टा स्वरुप, इन से भिन्न नहीं समझा) । मुझे अभी तक रागी देव ही मिले, उनकी ही पूजा करने लगा अब मुझे वीतराग देव मिले है, आप मेरी खोटी आदत को मिटा दीजिये ।

कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच अज्ञान
आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर थान ॥१५॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र भगवान मैने कितनी पर्याय निगोद की, कितनी पर्याय नारकी की, कितनी पर्याय तिर्यच की एवं कितनी पर्याय अज्ञानावस्था में व्यतीत की । आज यह मनुष्य पर्याय धन्य हो गई जो हे जिनेन्द्र आपकी शरण प्राप्त कर
ली ॥

तुमको पूजैं सुरपति, अहिपति नरपति देव
धन्य भाग्य मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव ॥१६॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र भगवान आपकी पूजा इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती आदि करते है । आपकी सेवा-पुजा करने से मेरा भाग्य भी धन्य हो गया है ॥

अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार
मैं डूबत भवसिंधु में, खेओ लगाओ पार ॥१७॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र देव अशरण को शरण देने वाले हो । जिनके जीवन का कोई आधार नही है उन्हे आधार देने वाले हो । हे भगवान मै भव रूपी समुद्र में डूब रहा हूँ । आप मेरी नाव चलाकर पार ला दीजिए ।

इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान
अपनो विरद निहार के, कीजै आप समान ॥१८॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र भगवान, आपकी स्तुति विनती करते-करते गणधर, और इन्द्र आदि भी थक गये है तब मैं कैसे आपकी विनती कर सकता हूँ । आप अपने यश को देखकर मुझे अपने समान बना लीजिए ।

तुमरी नेक सुदृष्टितैं, जग उतरत है पार
हा हा डूब्यो जात हौं, नेक निहार निकार ॥१९॥
अन्वयार्थ : हे नाथ आपकी एक अच्छी दृष्टि से ही जीव संसार समुद्र के पार हो जाता है । हाय, हाय मै संसार समुद्र में डूब रहा हूँ एक बार सुदुष्टि से देखकर मुझे निकाल लीजिए ।

जो मैं कहहूं और सों, तो न मिटे उर भार
मेरी तो तोसों बनी, तातैं करौं पुकार ॥२०॥
अन्वयार्थ : हे भगवान यदि मै अपने अन्तर्मन की वेदना किसी और से कहूँ तो वह वेदना मिटने वाली नही है, मेरी बिगड़ी तो आप ही बना सकते हो अत: मै आप ही से अपने दुखों को मिटाने की पुकार कर रहा हूँ ।

वन्दौं पांचो परमगुरु, सुरगुरु वंदत जास
विघनहरन मंगलकरन, पूरन परम प्रकाश ॥२१॥
अन्वयार्थ : गणधर भी जिनकी वंदना करते हैं उन पांचों परमेष्ठी (पंच परमगुरु) की वदना करता हूँ । आप पूर्ण उत्कृष्ट आत्म ज्योति (ज्ञान ज्योति) से प्रकाशित हो, आप विघ्नों का नाश करने वाले हो, और मंगल के करने वाले हो ।

चौबीसों जिनपद नमौं, नमौं शारदा माय
शिवमग साधक साधु नमि, रच्यो पाठ सुखदाय ॥२२॥
अन्वयार्थ : चौबीसों तीर्थकरों को नमन करता हूँ जिनवाणी माता को नमन करता हूँ और मोक्ष मार्ग की साधना करने वाले सर्व साधु को नमन कर सुख को देने वाले इस पाठ की रचना करता हूँ ।




विनय-पाठ-लघु🏠
सफ़ल जन्म मेरा हुआ, प्रभु दर्शन से आज
भव समुद्र नहीं दीखता, पूर्ण हुए सब काज ॥१॥

दुर्निवार सब कर्म अरु, मोहादिक परिणाम
स्वयं दूर मुझसे हुए, देखत तुम्हें ललाम ॥२॥

संवर कर्मों का हुआ, शांत हुए गृह जाल
हुआ सुखी सम्पन्न मैं, नहीं आये मम काल ॥३॥

भव कारण मिथ्यात्व का, नाशक ज्ञान सुभानु
उदित हुआ मुझमें प्रभु, दीखे आप समान ॥४॥

मेरा आत्म स्वरूप जो, ज्ञानादिक गुण खान
आज हुआ प्रत्यक्ष सम, दर्शन से भगवान ॥५॥

दीन भावना मिट गई, चिंता मिटी अशेष
निज प्रभुता पाई प्रभो, रहा न दुख का लेश ॥६॥

शरण रहा था खोजता, इस संसार मंझार
निज आतम मुझको शरण, तुमसे सीखा आज ॥७॥

निज स्वरूप में मगन हो, पाऊँ शिव अभिराम
इसी हेतु मैं आपको, करता कोटि प्रणाम ॥८॥

मैं वन्दौं जिनराज को, धर उर समता भाव
तन-धन-जन जगजाल से, धरि विरागता भाव ॥९॥

यही भावना है प्रभो, मेरी परिणति माहिं
राग द्वेष की कल्पना, किंचित उपजै नाहिं ॥१०॥



मंगलपाठ🏠
मंगल मूर्ति परम पद, पंच धरौं नित ध्यान
हरो अमंगल विश्व का, मंगलमय भगवान ॥१॥
अन्वयार्थ : परम पद को धारण करने वाले पंच परमेष्ठी मंगल स्वरूप हैं (मंगल की मूर्ती है) मै इनका सदा ध्यान करता हूँ । हे मंगलमय भगवान आप संसार के सभी अमंगलों का नाश कर दीजिए ।

मंगल जिनवर पदनमौं, मंगल अर्हन्त देव
मंगलकारी सिद्ध पद, सो वन्दौं स्वयमेव ॥२॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र भगवान आपके मंगलकारी चरणों को नमन करता हूँ । अर्ह्न्त भगवान मंगलकारी हैं । सिद्ध भगवान (सिद्धपद) मंगलकारी हैं अत: मैं इनकी अपने मगल के लिए वन्दना करता हूँ ।

मंगल आचारज मुनि, मंगल गुरु उवझाय
सर्व साधु मंगल करो, वन्दौं मन वच काय ॥३॥
अन्वयार्थ : दिगम्बर आचार्य मंगल स्वरूप हैं, उपाध्याय गुरु मंगल स्वरूप हैं एवं सभी साधु मंगल के करने वाले हैं । मैं इनकी मन वचन काय से वन्दना करता हूं ।

मंगल सरस्वती मातका, मंगल जिनवर धर्म
मंगल मय मंगल करो, हरो असाता कर्म ॥४॥
अन्वयार्थ : जिनवाणी माता मंगल स्वरूप हैं जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया धर्म मंगलकारी है | हे मंगलमय जिनेन्द्र भगवान मेरे असाता कर्म का क्षय करके मुझे मंगलमय कीजिए ।

या विधि मंगल से सदा, जग में मंगल होत
मंगल नाथूराम यह, भव सागर दृढ़ पोत ॥५॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार मंगल करने से संसार में मंगल होता है । श्री नाथूराम जी कवि कहते है कि यह मंगल पाठ (विनयपाठ) भवरूपी समुद्र को पार करने के लिए मजबूत नाव के समान है ।




भजन-मैं-थाने-पूजन-आयो🏠
श्री जी मैं थाने पूजन आयो, मेरी अरज सुनो दीनानाथ ! ॥श्री जी॥

जल चन्दन अक्षत शुभ लेके ता में पुष्प मिलायो ॥श्री जी॥

चरु अरु दीप धूप फल लेकर, सुन्दर अर्घ बनायो ॥श्री जी॥

आठ पहर की साठ जु घड़ियां, शान्ति शरण तोरी आयो ॥श्री जी॥

अर्घ बनाय गाय गुणमाला, तेरे चरणन शीश झुकायो ॥श्री जी॥

मुझ सेवक की अर्ज यही है, जामन मरण मिटावो,
मेरा आवागमन छुटावो, ॥श्री जी॥



पूजा-विधि-प्रारंभ🏠
ॐ जय! जय!! जय!!!
नमोऽस्तु! नमोऽस्तु!! नमोऽस्तु!!!

णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं,
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥
अरहंतों को नमस्कार है, सिद्धों को सादर वन्दन
आचार्यों को नमस्कार है, उपाध्याय को है वन्दन ॥
और लोक के सर्वसाधुओं को है, विनय सहित वन्दन
पंच-परम-परमेष्ठी प्रभु को बार-बार मेरा वन्दन ॥
ॐ ह्रीं अनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं,
साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥
चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा,
साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ॥
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पव्वज्जामि,
सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि,
केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि ॥
मंगल चार, चार हैं उत्तम, चार शरण को मैं पाऊँ
मन, वच, काय-त्रियोगपूर्वक, शुद्ध भावना मैं भाऊँ ॥
श्री अरहंत देव मंगल हैं, श्री सिद्धप्रभु ! हैं मंगल
श्री साधु मुनि मंगल हैं, है केवलि कथित धर्म मंगल ॥
श्री अरहंत लोक में उत्तम, सिद्ध लोक में हैं उत्तम
साधु लोक में उत्तम हैं, है केवलि कथित धर्म उत्तम ॥
श्री अरहंत शरण में जाऊँ, सिद्ध शरण में मैं जाऊँ
साधु शरण में जाऊँ, केवलि कथित धर्म शरणा पाऊँ ॥
मंगल..उत्तम..शरण..लोक में श्री अरहंत सु सिद्ध महान
साधु सु केवलि कथित धर्म को भव-भव ध्या पाऊँ निर्वाण ॥
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा
ध्यायेत्पंच-नमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥
अपवित्र हो या पवित्र, जो णमोकार को ध्याता है ।
चाहे सुस्थित हो या दुस्थित, पाप-मुक्त हो जाता है ॥१॥
अन्वयार्थ : पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करने से पुरुष सब पापों से छूट जाता है चाहे ध्यान करते समय वह पवित्र हो अपवित्र हो या अच्छी जगह हो या बुरी जगह हो ।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा
यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचिः ॥२॥
हो पवित्र-अपवित्र दशा, कैसी भी क्यों नहिं हो जन की ।
परमातम का ध्यान किये, हो अन्तर-बाहर शुचि उनकी ॥२॥
अन्वयार्थ : शरीर चाहे स्नानादिक से पवित्र हो अथवा किसी अशुचिपदार्थ के स्पर्श से अपवित्र हो तथा सोती जागती उठती बैठती चलती आदि कोई भी दशा हो इन सभी दशाओं में जो पुरुष परमात्मा की (पंच परमेष्ठी) स्मरण करता है वह उस समय बाह्य और अभ्यतन्तर से (शरीर और मन) पवित्र है ।

अपराजित-मंत्रोऽयं, सर्व-विघ्न-विनाशनः
मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मतः ॥३॥
है अजेय विघ्नों का हर्ता, णमोकार यह मंत्र महा ।
सब मंगल में प्रथम सुमंगल, श्री जिनवर ने एम कहा ॥३॥
अन्वयार्थ : यह नमस्कार मंत्र किसी मंत्र से पराजित नही हो सकता इसलिए यह मंत्र अपराजित मंत्र है यह मंत्र सभी विघ्नों को नष्ट करने वाला है एवं सर्व मंगलों में यह प्रधान मंगल है ।

एसो पंच-णमोयारो, सव्व-पावप्पणासणो
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलम् ॥४॥
सब पापों का है क्षयकारक, मंगल में सबसे पहला ।
नमस्कार या णमोकार यह, मन्त्र जिनागम में पहला ॥४॥
अन्वयार्थ : यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है यह सब कार्यों के लिए मंगल रूप है और सब मगलों में पहला मगल है ।

अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः
सिद्धचक्रस्य सद् बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥५॥
अर्हं ऐसे परं ब्रह्म-वाचक, अक्षर का ध्यान करूँ ।
सिद्धचक्र का सद्बीजाक्षर, मन-वच-काय प्रणाम करूँ ॥५॥
अन्वयार्थ : अर्हं ये अक्षर परबह्म परमेष्ठी के वाचक हैं और सिद्ध समूह के सुन्दर बीजाक्षर है । मैं इनको मन वचन काय से नमस्कार करता हूं ।

कर्माष्टक-विनिर्मुक्तं मोक्ष-लक्ष्मी-निकेतनम्
सम्यक्त्वादि-गुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् ॥६॥
अष्टकर्म से रहित मुक्ति-लक्ष्मी के घर श्री सिद्ध नमूँ ।
सम्यक्त्वादि गुणों से संयुत, तिन्हें ध्यान धर कर्म वमूँ ॥६॥
अन्वयार्थ : आठ कर्मों से रहित तथा मोक्ष रूपी लक्ष्मी के मंदिर और सम्यक्, दर्शन, ज्ञान, अगु रुलघु, अवगाहना, सूक्ष्मत्व अव्याबाध, वीर्यत्व इन आठ गुणों से सहित सिद्ध भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।

विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, शाकिनी भूत पन्नगाः
विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥७॥
जिनवर की भक्ति से होते, विघ्न समूह अन्त जानो ।
भूत शाकिनी सर्प शांत हों, विष निर्विष होता मानो ॥७॥
अन्वयार्थ : अरिहंतादि पंच परमेष्ठी भगवान का स्तवन करने से विघ्नों के समूह नष्ट हो जाते हैं एवं शाकनि, डाकनी, भूत, पिशाच, सर्प, सिंह, अग्नि, आदि का भय नहीं रहता और बड़े हलाहल विष भी अपना असर त्याग देते हैं ।

(पुष्पांजलि क्षेपण करें)



अर्घ🏠

पंच कल्याणक अर्घ्य
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे कल्याणकमहं यजे ॥
अन्वयार्थ : जल, चन्दन, अक्षत्, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल व अर्घ्य से, धवल-मंगल गीतों की ध्वनि से पूरित मंदिर जी में (भगवान के) कल्याणकों की पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीभगवतो गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणकेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचपरमेष्ठी का अर्घ्य
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
अन्वयार्थ : जल, चन्दन, अक्षत्, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल व अर्घ्य से, धवल-मंगल गीतों की ध्वनि से पूरित मंदिर जी में पाँचों परमेष्ठियों की पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीअर्हंत-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्री जिनसहस्रनाम - अर्घ्य
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाममहं यजे ॥
अन्वयार्थ : जल, चन्दन, अक्षत्, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल व अर्घ्य से, धवल-मंगल गीतों की ध्वनि से पूरित मंदिर जी में श्रीजिनेंद्र देव के 1008 गुण-नामों की पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीभगवज्जिन अष्टाधिक सहस्रनामेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा



स्वस्ति-मंगल-विधान🏠
श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशम्
स्याद्वाद-नायक-मनंत-चतुष्टयार्हम् ॥
श्रीमूलसंघ-सुदृशां सुकृतैकहेतुर
जैनेन्द्र-यज्ञ-विधिरेष मयाऽभ्यधायि ॥१॥
अन्वयार्थ : मैं तीन लोक के स्वामी स्याद्वाद विध्या के नायक पदार्थों के अनेकान्त (अनेक धर्मो) को प्रकट करने में अग्रसर अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्यादि, अनंत चतुष्टायादि अन्तरंग लक्ष्मी एवं अष्ट प्रातिहार्य समवशरणादि बहिरंग लक्ष्मी से युक्त जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके मूलसंघ (श्री कुन्द कुन्द स्वामी की परम्परा के अनुसार) सम्यक् दृष्टि पुरुषों के लिए पुण्य बंध का प्रधान कारण ऐसी जिन पूजा की विधि को कहता हूँ ।

स्वस्ति त्रिलोक-गुरवे जिन-पुंगवाय
स्वस्ति स्वभाव-महिमोदय-सुस्थिताय ॥
स्वस्ति प्रकाश-सहजोर्ज्जित दृंगमयाय
स्वस्ति प्रसन्न-ललिताद्भुत-वैभवाय ॥२॥
अन्वयार्थ : तीन लोक के गुरु जिन प्रधान (कषायों को जीतने वाले मुनीश्वरों के स्वामी) के लिए कल्याण होवे । स्वाभाविक महिमा अर्थात् अनंत चतुष्टयादि में भले प्रकार ठहरे हुए भगवान के लिए मंगल होवे । स्वाभाविक प्रकाश अर्थात् केवल ज्ञान रूपी प्रकाश से बढ़े हुए केवल दर्शन से सहित जिनेन्द्र भगवान के लिए क्षेम होवे । उज्जल सुन्दर एवं अद्भुत समवशरणादि वैभव के धारक जिनेन्द्र भगवान के लिए मगलकारी होवे ।

स्वस्त्युच्छलद्विमल-बोध-सुधा-प्लवाय
स्वस्ति स्वभाव-परभाव-विभासकाय ॥
स्वस्ति त्रिलोक-विततैक-चिदुद्गमाय
स्वस्ति त्रिकाल-सकलायत-विस्तृताय ॥३॥
अन्वयार्थ : उछलते हुए निर्मल केवल ज्ञान रूपी अमृत के प्रवाह वाले जिनेन्द्र भगवान के लिए कल्याण होवे । स्वभाव और परभाव के प्रकाशक जिनेन्द्र भगवान के लिए मंगल होवे । तीनों लोकों को जानने वाले केवल ज्ञान के स्वामी जिनेन्द्र भगवान के लिए क्षेम होवे । त्रिकालवर्ती सर्व पदार्थों में ज्ञान के द्वारा फैले हुए जिनेन्द्र भगवान के लिए कल्याणकारी होवे ।

द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरुपम्
भावस्य शुद्धिमधिकामधिगंतुकामः ॥
आलंबनानि विविधान्यवलम्बय वल्गन्
भूतार्थ यज्ञ-पुरुषस्य करोमि यज्ञम् ॥४॥
अन्वयार्थ : अपने भावों की परम शुद्धता को पाने का अभिलाषी मैं देशकाल के अनुरूप जल चन्दनादि की शुद्धता को पाकर जिन स्तवन, जिन बिम्ब दर्शन, ध्यान आदि अवलम्बनों का आश्रय लेकर सच्चे पूज्य पुरुष अरहंतादिक की पूजा करता हूँ ।

अर्हत्पुराण-पुरुषोत्तम-पावनानि
वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव ॥
अस्मिन् ज्वलद्विमल-केवल-बोधवह्नौ
पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि ॥५॥
अन्वयार्थ : हे अर्हन्! हे पुराण पुरुष! हे उत्तम पुरुष यह असहाय मैं, इन पवित्र समस्त जलादिक द्रव्यों का आलम्बन लेकर अपने समस्त पुण्य को इस दैदीप्यमान निर्मल केवल ज्ञान रूपी अग्नि में एकाग्र चित्त होकर हवन करता हूँ ।

ॐ ह्रीं विधियज्ञ प्रतिज्ञायै जिनप्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि



स्वस्ति-मंगल-विधान-हिंदी🏠
स्याद्वाद वाणी के नायक, श्री जिन को मैं नमन कराय ।
चार अनंत चतुष्टयधारी, तीन जगत के ईश मनाय ॥
मूलसंघ के सम्यग्दृष्टि, उनके पुण्य कमावन काज ।
करूँ जिनेश्वर की यह पूजा, धन्य भाग्य है मेरा आज ॥१॥

तीन लोक के गुरु जिन-पुंगव, महिमा सुन्दर उदित हुई ।
सहज प्रकाशमयी दृग्-ज्योति, जग-जन के हित मुदित हुई ॥
समवशरण का अद्भुत वैभव, ललित प्रसन्न करी शोभा ।
जग-जन का कल्याण करे अरु, क्षेम कुशल हो मन लोभा ॥२॥

निर्मल बोध सुधा-सम प्रकटा, स्व-पर विवेक करावनहार ।
तीन लोक में प्रथित हुआ जो, वस्तु त्रिजग प्रकटावनहार ॥
ऐसा केवलज्ञान करे, कल्याण सभी जगतीतल का ।
उसकी पूजा रचूँ आज मैं, कर्म बोझ करने हलका ॥३॥

द्रव्य-शुद्धि अरु भाव-शुद्धि, दोनों विधि का अवलंबन कर ।
करूँ यथार्थ पुरुष की पूजा, मन-वच-तन एकत्रित कर ॥
पुरुष-पुराण जिनेश्वर अर्हन्, एकमात्र वस्तू का स्थान ।
उसकी केवलज्ञान वह्नि में, करूँ समस्त पुण्य आह्वान ॥४॥



चतुर्विंशति-तीर्थंकर-स्वस्ति-विधान🏠
श्रीवृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअजितः
श्रीसंभवः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअभिनंदनः
श्रीसुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः
श्रीसुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीचन्द्रप्रभः
श्रीपुष्पदंतः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशीतलः
श्रीश्रेयान्सः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः
श्रीविमल: स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअनंतः
श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशान्तिः
श्रीकुंथुः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअरहनाथः
श्रीमल्लिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमुनिसुव्रतः
श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः
श्रीपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः
ऋषभदेव कल्याणकराय, अजित जिनेश्वर निर्मल थाय ।
स्वस्ति करें संभव जिनराय, अभिनंदन के पूजों पाय ॥१॥
स्वस्ति करें श्री सुमति जिनेश, पद्मप्रभ पद-पद्म विशेष ।
श्री सुपार्श्व स्वस्ति के हेतु, चन्द्रप्रभ जन तारन सेतु ॥२॥
पुष्पदंत कल्याण सहाय, शीतल शीतलता प्रकटाय ।
श्री श्रेयांस स्वस्ति के श्वेत, वासुपूज्य शिवसाधन हेत ॥३॥
विमलनाथ पद विमल कराय, श्री अनंत आनंद बताय ।
धर्मनाथ शिव शर्म कराय, शांति विश्व में शांति कराय ॥४॥
कुंथु और अरजिन सुखरास, शिवमग में मंगलमय आश ।
मल्लि और मुनिसुव्रत देव, सकल कर्मक्षय कारण एव ॥५॥
श्री नमि और नेमि जिनराज, करें सुमंगलमय सब काज ।
पार्श्वनाथ तेवीसम ईश, महावीर वन्दों जगदीश ॥६॥
ये सब चौबीसों महाराज, करें भव्यजन मंगल काज ।
मैं आयो पूजन के काज, राखो श्री जिन मेरी लाज ॥७॥
इति श्रीचतुर्विंशति तीर्थंकर-स्वस्ति मंगल विधानं पुष्पांजलिं क्षिपामि



अथ-परमर्षि-स्वस्ति-मंगल-विधान🏠

18 बुद्धि ऋद्धियाँ
तर्ज : छुपा लो आँचल में प्यार
नित्याप्रकंपाद्भुत-केवलौघाः, स्फुरन्मनः पर्यय-शुद्धबोधाः
दिव्यावधिज्ञान-बलप्रबोधाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१॥
नित्य अद्भुत अचल केवलज्ञानधारी जे मुनी ।
मनःपर्यय ज्ञानधारक, यती तपसी वा गुणी ॥
दिव्य अवधिज्ञान धारक, श्री ऋषीश्वर को नमूँ ।
कल्याणकारी लोक में, कर पूज वसु विधि को वमूँ ॥१॥
अन्वयार्थ : अविनाशी अचल अद्भुत केवल ज्ञान के धारक मुनिराज, दैदीप्यमान मन: पर्यय ज्ञान रूप शुद्ध ज्ञान वाले मुनिराज और दिव्य अवधिज्ञान के बल से प्रबुद्ध महा ऋद्धि धारी ऋषि हमारा कल्याण करें ।

कोष्ठस्थ-धान्योपममेकबीजं, संभिन्न-संश्रोतृ-पदानुसारि
चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥२॥
कोष्ठस्थ धान्योपम कही, अरु एक बीज कही प्रभो ।
संभिन्न संश्रोतृ पदानुसारी, बुद्धि ऋद्धि कही विभो ॥
ये चार ऋद्धीधर यतीश्वर, जगत जन मंगल करें ।
अज्ञान-तिमिर विनाश कर, कैवल्य में लाकर धरें ॥२॥
अन्वयार्थ : कोष्ठ-बुद्धि, एक-बीज, संभिन-संश्रोतृत्व और पादानुसारणी इन चार प्रकार की बुद्धि ऋद्धि को धारण करने वाले ऋषीराज हम सबका मंगल करें ।
4) [कोष्ठ-बुद्धि ऋद्धि] - जिस प्रकार भंडार में हीरा, पन्ना पुखराज चाँदी सोना धान्य आदि जहाँ रख दिए जावे बहुत समय बीत जाने पर यदि वे निकाले जावे तो जैसे के तैसे न कम न अधिक भिन्न भिन्न उसी स्थान पर रखे मिलते हैं तैसे ही सिद्धान्त न्याय व्याकरणादि के सूत्र गद्य पद्य ग्रन्थ जिस प्रकार पढे थे सुने थे पढाये अथवा मनन किए थे बहुत समय बीत जाने पर भी यदि पूछा जाए तो न एक भी अक्षर घट कर, न बढ़कर, न पलट कर, भिन्न-भिन्न ग्रन्यों को सुना दे ऐसी शक्ति ।
5) [एक बीज ऋद्धि] - ग्रन्थों के एक बीज अर्थात् मूल पद के द्वारा उसके अनेक प्रकार के अर्थों को जान लेना ।
6)[ संभिनसंश्रोतृत्व ऋद्धि] - बारह योजन लम्बे नौ योजन चौड़े क्षेत्र में ठहरने वाली चक्रवर्ती की सेना के हाथी, घोडा, ऊँट, बैल, पक्षी, मनुष्य आदि सभी के अक्षर अनक्षर रूप नाना प्रकार के शब्दों को एक साथ अलग अलग सुनने की शक्ति ।
7) [पादानुसारणी ऋद्धि] - ग्रन्थ के आदि के, मध्य के या अन्त के एक पद को सुनकर सम्पूर्ण ग्रन्थ को कह देने की शक्ति ।
8) [दूर-स्पर्शन ऋद्धि] - मनुष्य यदि दूर से स्पर्शन करना चाहे तो अधिक से अधिक नौ योजन दूरी के पदार्थों का स्पर्शन जान सकता है । किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञानादि के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती पदार्थ का स्पर्शन कर लेते है ।

संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादन-घ्राण-विलोकनानि
दिव्यान् मतिज्ञान-बलाद्वहंतः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥३॥
दिव्य मति के बल ग्रहण, करते स्पर्शन घ्राण को ।
श्रवण आस्वादन करें, अवलोकते कर त्राण को ॥
पंच इंद्री की विजय, धारण करें जो ऋषिवरा ।
स्व-पर का कल्याण कर, पायें शिवालय ते त्वरा ॥३॥
अन्वयार्थ : दिव्य मति ज्ञान के बल से दूर से ही स्पर्शन, श्रवण, आस्वादन, घाण और अवलोकन रूप पाँच इन्द्रियों के विषयों धारण करने वाले ऋषीराज हम लोगों का कल्याण करें ।
9) [दूर-श्रवण ऋद्धि] - मनुष्य यदि दूरवर्ती शब्द को सुनना चाहे तो बारह योजन तक के दूरवर्ती शब्द सुन सकता है अधिक नहीं, किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञादि के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती शब्द सुन लेते हैं ।
10) [दूर-आस्वादन ऋद्धि] - मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर पदार्थो का रस जान सकता है किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञानादि के बल से संख्यात योजन दूर स्थित पदार्थ का रस जान लेते हैं ।
11) [दूर-घ्राण ऋद्धि] - मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर स्थित पदार्थ की गंध ले सकता है किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञानादि के बल से संख्यात योजन दूर स्थित पदार्थो की गंध जान लेते हैं ।
12) [दूरावलोकन ऋद्धि] - मनुष्य अधिकतम सैतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन दूर स्थित पदार्थ को देख सकता है, किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञानादि के बल से हजारों योजन दूर स्थित पदार्थो को देख लेते है ।

प्रज्ञा-प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः, प्रत्येकबुद्धाः दशसर्वपूर्वै:
प्रवादिनोऽष्टांग-निमित्त-विज्ञाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥४॥
प्रज्ञा प्रधाना श्रमण अरु प्रत्येक बुद्धि जो कही ।
अभिन्न दश पूर्वी चतुर्दश-पूर्व प्रकृष्ट वादी सही ॥
अष्टांग महा निमित्त विज्ञा, जगत का मंगल करें ।
उनके चरण में अहर्निश, यह दास अपना शिर धरे ॥४॥
अन्वयार्थ : प्रज्ञा, श्रमण, प्रत्येक-बुद्ध, अभिन्न-दशपूर्वी, चतुर्दश-पूर्वी, प्रवादित्व, अष्टांग-महानिमित्तज्ञ मुनिवर हमारा कल्याण करें ।
13)[ प्रज्ञा-श्रमणत्व ऋद्धि] - जिस ऋद्धि के बल से पदार्थो के अत्यन्त सूक्ष्म तत्वों को जिनको की केवली एवं श्रुत केवली ही बतला सकते हैं द्वादशांग चौदह पूर्व पढ़े बिना ही बतला देते हैं ।
14) [प्रत्येक-बुद्ध ऋद्धि] - अन्य किसी के उपदेश के बिना ही जिस शक्ति के द्वारा ज्ञान संयम व्रत का विधान निरुपण किया जाता है ।
15) [दशपूर्वित्व ऋद्धि] - दसवां पूर्व पढने से अनेक महा-विद्याओं के प्रकट होने पर भी चारित्र से चलायमान नहीं होना ।
16) [चतुर्दश-पूर्वित्व ऋद्धि] - सम्पूर्ण श्रुत ज्ञान प्राप्त हो जाना ।
17) [प्रवादित्व ऋद्धि] - जिस शक्ति के द्वारा क्षुद्रवादियों की तो क्या यदि इन्द्र भी शास्त्रार्थ करने आए तो उसे भी निरुत्तर कर दे ।
18) [अष्टांग-महानिमित्त ऋद्धि] - अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न, स्वप्न इन आठ महा-निमित्तों का ज्ञान ।


नौ चारण ऋद्धियाँ
जंघा-वह्रि-श्रेणि-फलांबु-तंतु-प्रसून-बीजांकुर-चारणाह्वाः
नभोऽगंण-स्वैर-विहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥५॥
जंघावलि अरु श्रेणि तंतु, फलांबु बीजांकुर प्रसून ।
ऋद्धि चारण धार के मुनि, करत आकाशी गमन ॥
स्वच्छंद करत विहार नभ में, भव्यजन के पीर हर ।
कल्याण मेरा भी करें, मैं शरण आया हूँ प्रभुवर ॥५॥
अन्वयार्थ : जंघा, अग्नि शिखा, श्रेणी, फल, जल, तन्तु, पुष्प, बीज, और अंकुर पर चलने वाले चारण बुद्धि के धारक तथा आकाश में स्वच्छ विहार करने वाले मुनिराज हमारा कल्याण करें ।
1) [जंघा-चारण ऋद्धि] - पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर आकाश में जंघा को बिना उठाये सैकडों योजन गमन करने की शक्ति ।
2) [अग्नि-शिखाचारण ऋद्धि] - अग्नि शिखा पर गमन करने से अग्नि शिखाओं में स्थित जीवों की विराधना नहीं होती ।
3) [श्रेणी-चारण ऋद्धि] - आकाश श्रेणी में गमन करते हुए सब जाति के जीव की रक्षा करना ।
4) [फल-चारण ऋद्धि] - आकाश में गमन करते हुए फलों पर भी चले तो भी किसी प्रकार जीवों की हानि नहीं होती ।
5) [जल-चारण ऋद्धि] - जल पर गमन करने से भी जीवों की हिंसा न हो ।
6) [तन्तु-चारण ऋद्धि] - तन्तु अर्थात् मकड़ी के जाले के समान तन्तुओं पर भी चले तो वे टूटते नहीं ।
7) [पुष्प-चारण ऋद्धि] - फूलों पर गमन करने से उनमें स्थित जीवों की विराधना नहीं होती ।
8) [बीजांकुर-चारण ऋद्धि] - बीजरूप पदार्थो एवं अंकुरों पर गमन करने से उन्हें किसी प्रकार हानि नहीं होती ।
9) [नभ-चारण ऋद्धि] - कायोत्सर्ग की मुद्रा में पद्मासन या खडगासन में गमन करना ।


तीन बल ऋद्धियाँ
अणिम्नि दक्षाः कुशलाः महिम्नि,लघिम्नि शक्ताः कृतिनो गरिम्णि
मनो-वपुर्वाग्बलिनश्च नित्यं, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥६॥
अणिमा जु महिमा और गरिमा में कुशल श्री मुनिवरा ।
ऋद्धि लघिमा वे धरें, मन-वचन-तन से ऋषिवरा ॥
हैं यदपि ये ऋद्धिधारी, पर नहीं मद झलकता ।
उनके चरण के यजन हित, इस दास का मन ललकता ॥६॥
अन्वयार्थ : अणिमा, महिमा, लघिमा और गरिमा ऋद्धि में कुशल तथा मन, वचन, काय बल ऋद्धि के धारक मुनिराज हमारा कल्याण करें ।
1) [मनो-बल ऋद्धि] - अन्तर्मुहूर्त में ही समस्त द्वादशांग के पदार्थो को विचार लेना ।
2) [वचन-बल ऋद्धि] - सम्पूर्ण श्रुत का अन्तर्मुहूर्त में पाठ कर लेना फिर जिव्हा, कंठ आदि में शुष्कता एवं थकावट न होना ।
3) [काय-बल ऋद्धि] एक मास चातुर्मासिक आदि बहुत समय तक कायोत्सर्ग करने पर भी शरीर का बल कान्ति आदि थोड़ा भी कम न होना एवं तीनों लोकों को कनिष्ठ अंगुली पर उठाने की सामर्थ्य का होना ।
1) [अणिमा ऋद्धि] - परमाणु के समान अपने शरीर को छोटा बना लेना ।
2) [महिमा ऋद्धि] - सुमेरु पर्वत सें भी बड़ा शरीर बना लेना ।
3) [लघिमा ऋद्धि] - वायु से भी हल्का शरीर बना लेना ।
4) [गरिमा ऋद्धि] - वज्र से भी भारी शरीर बना लेना ।


ग्यारह विक्रिया ऋद्धियाँ
सकामरुपित्व-वशित्वमैश्यं, प्राकाम्यमन्तर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः
तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥७॥
ईशत्व और वशित्व, अन्तर्धान आप्ति जिन कही ।
कामरूपी और अप्रतिघात, ऋषि पुंगव लही ॥
इन ऋद्धि-धारक मुनिजनों को, सतत वंदन मैं करूँ ।
कल्याणकारी जो जगत में, सेय शिव-तिय को वरूँ ॥७॥
अन्वयार्थ : कामरुपित्व, वशित्व, ईशित्व, प्राकम्य, अन्तर्धान, आप्ति तथा अप्रतिघात विक्रिया ऋद्धि से सम्पन्न मुनिराज हमारा कुशल करें ।
5) [कामरुपित्व ऋद्धि] - एक साथ अनेक आकार वाले अनेक शरीरों को बना लेना।
6) [वशित्व ऋद्धि] - तप बल से सभी जीवों को अपने वश में कर लेना।
7) [ईशित्व ऋद्धि] - तीन लोक की प्रभुता होना ।
8) [प्राकम्य ऋद्धि] - जल में पृथ्वी की तरह और पृथ्वी में जल की तरह चलना
9) [अन्तर्धान ऋद्धि] - तुरन्त अदृश्य होने की शक्ति ।
10) [आप्ति ऋद्धि] - भूमि पर बैठे हुए ही अंगुली से सुमेरू पर्वत की चोटी सूर्य और चन्द्रमा को छू लेना ।
11) [अप्रतिघात ऋद्धि] - पर्वतों के मध्य से खुले मैदान के समान आना-जाना रुकावट न आना ।


सात तप ऋद्धियाँ
दीप्तं च तप्तं च तथा महोग्रं, घोरं तपो घोर पराक्रमस्थाः
ब्रह्मापरं घोर गुणाश्चरन्तः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥८॥
दीप्ति तप्ता महा घोरा, उग्र घोर पराक्रमा ।
ब्रह्मचारी ऋद्धिधारी, वनविहारी अघ वमा ॥
ये घोर तपधारी परम गुरु, सर्वदा मंगल करें ।
भव डूबते इस अज्ञजन को, तार तीरहि ले धरें ॥८॥
अन्वयार्थ : दीप्ति, तप्त, महाउग्र, घोर तप, और घोर पराक्रम, के तथा अघोर-ब्रह्मचर्य इन सात तप ऋद्धि के धारी मुनिराज हमारा कल्याण करें ।
1) [दीप्ति ऋद्धि] - बड़े-बड़े उपवास करते हुए भी मनोबल, वचन बल का यवल का बढ़ना शरीर में सुगंधि आना, सुगंधित निश्वास निकलना, तथा शरीर में म्लानता न होकर महा कान्ति का होना ।
2) [तप्त ऋद्धि] - भोजन से मलमूत्र रक्त मांस आदि का न बनना गरम कढ़ाही में पानी की तरह सूख जाना ।
3) [महाउग्र ऋद्धि] - एक दो चार छह पक्ष मास उपवास आदि में से किसी एक को धारण करके मरण पर्यन्त न छोड़ना ।
4) [घोर तप ऋद्धि] - भयानक रोगों से पीड़ित होने पर भी उपवास व काय क्लेश आदि से नहीं हटना ।
5) [घोर-पराक्रम ऋद्धि] - दुष्ट राक्षस पिशाच के निवास स्थान भयानक जानवरों से व्याप्त पर्वत, गुफा श्मशान सूनें गाँव में निवास करने वाले समुद्र के जल को सुखा देना एवं तीनों लोकों को उठा के फैंक देने की सामर्थ्य ।
6) [महाघोर ऋद्धि] - सिंह निक्रीडित आदि महा उपवासों को करते रहना ।
7) [अघोर ब्रह्मचर्य ऋद्धि] - चिरकाल तक तपश्चरण करने के कारण स्वप्न में भी ब्रह्मचर्य से न डिगना आदि विकार परिस्थिति मिलने पर भी ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहना ।


आठ औषधि ऋद्धियाँ
आमर्ष-सर्वौषधयस्तथाशीर्विषाविषा दृष्टिविषाविषाश्च
स-खिल्ल-विड्ज्जल-मलौषधीशाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥९॥
आमर्ष औषधि आषि विष, अरु दृष्टि विष सर्वौषधि ।
खिल्ल औषधि जल्ल औषधि, विडौषधि मल्लौषधि ॥
ये ऋद्धिधारी महा मुनिवर, सकल संघ मंगल करें ।
जिनके प्रभाव सभी सुखी हों, और भव-जलनिधि तरें ॥९॥
अन्वयार्थ : आमर्शोषधि, सर्वोषधि, आशीअविष, दृष्टि विष, क्ष्वेलौषधि, विडौषधि, जल्लौषधि, मलौषधि, आशीविष रस, दृष्टि विष रस के धारी परम ऋषि हमारा कल्याण करें ।
1) [आमर्शोषधि ऋद्धि] - जिनके हाथ पैर आदि को छूने से एवं समीप आने मात्र से ही सब रोग दूर हो जाए ।
2) [सर्वोषधि ऋद्धि] - जिनके समस्त शरीरके स्पर्श करने वाली वायु ही समस्त रोगो को दूर कर देती है ।
3) [आशीअविष ऋद्धि] - महाविष व्याप्त पुरुष भी जिनके आशीर्वाद रूप शब्द सुनने से निरोग या निर्विष हो जाता है ।
4) [दृष्टि (दष्टिनिर्विष) विष ऋद्धि] - महाविष व्याप्त पुरुष भी जिनकी दृष्टि से निर्विष हो जाए ।
5) [क्ष्वेलौषधि ऋद्धि] - जिनके थूक, कफ आदि से लगी हुई हवा के स्पर्श से ही रोग दूर हो जावे ।
6) [विडौषधि ऋद्धि] - जिनके मल (विष्ठा) से स्पर्श की हुई वायु ही रोग नाशक हो ।
7) [जल्लौषधि ऋद्धि] - जिनके शरीर के पसीने में लगी हुई धूल महारोग नाशक होती है ।
8) [मलौषधि ऋद्धि] - जिनके दांत, कान, नाक, नेत्र आदि का मैल सर्व रोग नाशक होता है ।
1) [आशीविष रस ऋद्धि] - जिन मुनि के कर्म उदय से क्रोधपूर्वक मर जाओ शब्द निकल जाय तो वह व्यक्ति तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।
2) [दृष्टि विष रस ऋद्धि] - मुनि की क्रोध पूर्ण दृष्टि जिस व्यक्ति पर पड़ जाये वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।


छह रस ऋद्धियाँ एवं दो अक्षीण ऋद्धियाँ
क्षीरं स्रवंतोऽत्र घृतं स्रवंतः, मधु स्रवंतोऽप्यमृतं स्रवंतः
अक्षीणसंवास-महानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१०॥
क्षीरस्रावी मधुस्रावी घृतस्रावी मुनि यशी ।
अमृतस्रावी ऋद्धिवर, अक्षीण संवास महानसी ॥
ये ऋद्धिधारी सब मुनीश्वर, पाप-मल को परिहरैं ।
पूजा-विधि के प्रथम अवसर, आ सफल पूजा करें ॥१०॥
अन्वयार्थ : क्षीरस्रावी, घृतस्रावी, मधुस्रावि, अमृतस्रावि तथा अक्षीण संवास और अक्षीण महानस ऋद्धि धारी मुनिवर हमारे लिए मंगल करें ।
3) [क्षीरस्रावी ऋद्धि] - नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही दूध के समान गुणकारी हो जावे अथवा जिनके वचन सुनने से क्षीण पुरुष भी दूध के समान बल को प्राप्त करे ।
4) [घृतस्रावी ऋद्धि] - नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही घी के समान बलवर्धक हो जाए एवं जिनके वचन घृत के समान तृप्ति करें ।
5) [मधुस्रावि ऋद्धि] - नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही मधुर हो जाए अथवा जिनके वचन सुनकर दुःखी प्राणी भी साता का अनुभव करे ।
6) [अमृतस्रावि ऋद्धि] - नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही अमृत के समान पुष्टि कारक हो जाए अथवा जिनके वचन अमृत के समान आरोग्य कारी हो ।
1) [अक्षीण संवास ऋद्धि] - जिनके निवास स्थान में इन्द्र, देव, चक्रवर्ती की सेना भी बिना किसी परस्पर विरोध के ठहर सके उसे अक्षीण संवास ऋद्धि कहते है ।
2) [अक्षीण महानस ऋद्धि] - ऋद्धिधारी मुनिराज जिस पात्र आहार करे उस दिन उस पात्र में बचा हुआ आहार चक्रवर्ती की सेना भी कर जाये तब भी आहार कम नहीं पड़े ।




स्तुति🏠
प्रभु पतितपावन मैं अपावन, चरण आयो शरण जी ।
यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरण जी ॥१॥

तुम ना पिछान्या अन्य मान्या, देव विविध प्रकार जी ।
या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी ॥२॥

भव विकट वन में करम बैरी, ज्ञानधन मेरो हरयो ।
सब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिरयो ॥३॥

धन्य घड़ी यो, धन्य दिवस यो ही, धन्य जनम मेरो भयो ।
अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु को लख लयो ॥४॥

छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरैं ।
वसु प्रातिहार्य अनन्त गुण युत, कोटि रवि छवि को हरैं ॥५॥

मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय रवि आतम भयो ।
मो उर हर्ष ऐसो भयो, मनो रंक चिंतामणि लयो ॥६॥

मैं हाथ जोड़ नवाऊं मस्तक, वीनऊं तुव चरणजी ।
सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहु तारण तरण जी ॥७॥

जाचूं नहीं सुर-वास पुनि, नर-राज परिजन साथ जी ।
'बुध' जाचहूं तुव भक्ति भव भव, दीजिए शिवनाथ जी ॥८॥



देव-शास्त्र-गुरु🏠
युगलजी कृत
केवल-रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर ।
उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुंदरतम दर्शन ॥
सद्दर्शन-बोध-चरण पथ पर, अविरल जो बढते हैं मुनि-गण ।
उन देव परम आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

इन्द्रिय के भोग मधुर-विष सम, लावण्यमयी कंचन काया ।
यह सब-कुछ जड़ की क्रीडा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ॥
मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर-ममता में अटकाया हूँ ।
अब निर्मल सम्यक् नीर लिए, मिथ्या-मल धोने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु, अपने-अपने में होती है ।
अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है ॥
प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढाया है ।
संतप्त हृदय प्रभु चंदन सम, शीतलता पाने आया है ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा

उज्ज्वल हूँ कुंद धवल हूँ प्रभु, पर से न लगा हूँ किंचित भी ।
फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरंतर ही ॥
जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, की मार्दव की खंडित काया ।
निज शाश्वत अक्षत निधि पाने, अब दास चरण-रज में आया ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नही ।
निज अंतर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नही ॥
चिन्तन कुछ फिर संभाषण कुछ, किरिया कुछ की कुछ होती है ।
स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जो, अंतर-कालुश धोती है ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शांत हुई ।
तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ॥
युग-युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूँ ।
पंचेन्द्रिय मन के षटरस तज, अनुपम रस पीने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा ।
झंझा के एक झकोरे में, जो बनता घोर तिमिर कारा ॥
अतएव प्रभो ! यह नश्वर-दीप, समर्पित करने आया हूँ ।
तेरी अंतर-लौ से निज अंतर, दीप जलाने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

जड-कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या-भ्रांति रही मेरी ।
मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी ॥
यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ ।
निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड मुझे चल देता है ।
मैं आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥
मैं शांत निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचर मेरी ।
यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

क्षण-भर निज-रस को पी चेतन, मिथ्या-मल को धो देता है ।
काषायिक-भाव विनष्ट किये, निज आनन्द-अमृत पीता है ॥
अनुपम-सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जगमग करता है ।
दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हन्त अवस्था है ॥
यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, निज-गुण का अर्घ्य बनाऊंगा ।
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाउंगा ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
तर्ज : छू लेने दो नाजुक होंटों को
फ़िज़ा भी है जवाँ जवाँ


भव-वन में जी-भर घूम चुका, कण कण को जी भर-भर देखा ।
मृग सम मृग-तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ॥

झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएं ।
तन जीवन यौवन अस्थिर है, क्षणभंगुर पल में मुरझाए ॥

सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या ।
अशरण मृत काया में हर्षित, निज-जीवन डाल सकेगा क्या ?

संसार महा दुख-सागर के, प्रभु दुखमय सुख-आभासों में ।
मुझको न मिला सुख क्षणभर भी, कंचन कामिनी प्रासादों में ॥

मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते ।
तन-धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड चले जाते ॥

मेरे न हुए ये मैं इनसे, अति भिन्न अखंड निराला हूँ ।
निज में पर से अन्यत्व लिये, निज समरस पीने वाला हूँ ॥

जिसके श्रंगारों में मेरा, यह महंगा जीवन घुल जाता ।
अत्यन्त अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता ॥

दिन रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता ।
मानस वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता ॥

शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल ।
शीतल समकित किरणें फूटें, सँवर से जागे अन्तर्बल ॥

फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें ।
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें ॥

हम छोड चलें यह लोक तभी, लोकान्त विराजें क्षण में जा ।
निज-लोक हमारा वासा हो, शोकान्त बनें फिर हमको क्या ॥

जागे मम दुर्लभ बोधी प्रभो, दुर्नयतम सत्वर टल जावे ।
बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊं, मद-मत्सर-मोह विनश जावे ॥

चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर-साथी ।
जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी ॥

चरणों में आया हूँ प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे
मुरझाई ज्ञानलता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे ॥

सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला ।
परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक में घी डाला ॥

तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय-सुख की ही अभिलाषा ।
अब तक न समझ ही पाया प्रभु, सच्चे-सुख की भी परिभाषा ॥

तुम तो अविकारी हो प्रभुवर, जग में रहते जग से न्यारे ।
अतएव झुकें तव-चरणों में, जग के माणिक मोती सारे ॥

स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभ-नय के झरने झरते हैं ।
उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं ॥

हे गुरुवर शाश्वत-सुख दर्शक, यह नग्न-स्वरूप तुम्हारा है ।
जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन कराने वाला है ॥

जब जग विषयों में रच-पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो ।
अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष-कन्टक बोता हो ॥

हो अर्ध-निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों ।
तब शांत निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिन्तन करते हो ॥

करते तप शैल नदी तट पर, तरुतल वर्षा की झड़ियों में ।
समता रस पान किया करते, सुख-दुख दोनों की घडियों में ॥

अन्तर्ज्वाला हरती वाणी, मानों झरती हों फुलझडियाँ ।
भव-बंधन तड-तड टूट पड़ें, खिल जावें अंतर की कलियां ॥

तुम-सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियां ।
दिन-रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियाँ ॥

ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

हे निर्मल देव तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञान-दीप आगम प्रणाम !
हे शांति त्याग के मूर्तिमान, शिव-पथ-पंथी गुरुवर प्रणाम ॥

इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



देव-शास्त्र-गुरु🏠
द्यानतरायजी कृत
प्रथम देव अरहंत, सुश्रुत सिद्धांत जू
गुरु निर्ग्रन्थ महन्त, मुकतिपुर पन्थ जू ॥
तीन रतन जग मांहि सो ये भवि ध्याइये
तिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाइये ॥

पूजौं पद अरहंत के, पूजौं गुरुपद सार
पूजौं देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
अन्वयार्थ : प्रथम देव अरिहंत भगवान्, जिनवाणी माता, और महान निस्पृही (अपरिग्रही) गुरु-साधु, मोक्ष-मार्ग (को बताने वाले) है । संसार के भव्य जीव जो इन तीन रत्नों को ध्याते (भक्ति से) हैं उन्हें इनकी भक्ति के प्रसाद से परम पद (मोक्ष) मिलता है ।
मैं अष्ट विधि से नित्य अरिहंत भगवन् के चरणों की पूजा करता हूँ, फिर सार-भूत गुरुओं के चरणों की पूजा करता हूँ और फिर जिनवाणी माता (सरसवती देवी) को पूजता हूँ ।

सुरपति उरग नरनाथ तिनकर, वन्दनीक सुपद-प्रभा ।
अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा ॥
वर नीर क्षीरसमुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धांत, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभाव मल छीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! इंद्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती आपके चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं इसलिए आपके चरण निर्मल स्वर्ण के समान शोभायमान प्रतीत होते हैं, इनकी छवि (कान्ति) देखकर समवशरण की सभाएं मोहित हो जाती है । क्षीर सागर के पवित्र जल का कलश भरकर आपके समक्ष नृत्य कर जल अर्पित करते है । मैं इस प्रकार अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरुओं की नित्य पूजा करता हूँ ।
जल का स्वभाव सभी मलिन पदार्थों के मल को नष्ट करने का है; इसलिए देव, शास्त्र, गुरु के श्रेष्ठ पदों की पूजा के लिए जल अर्पित करता हूँ ।

जे त्रिजग उदर मंझार प्राणी तपत अति दुद्धर खरे
तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ॥
तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घिसि सचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

चंदन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! तीनों लोक के प्राणी दुखों के ताप से अत्यंत दुखी हैं, आपके प्रवचन इन दुखी प्राणियों के दुखों को हर कर शीतलता / शांति प्रदान करते हैं । इसलिए अत्यंत सुगन्धित चन्दन को घिस कर लाया हूँ, जिस की पवित्र सुगंध सूंघ कर भंवरे लोभित हो रहे है । उस चंदन से अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और गुरु की पूजा करता हूँ ।
चन्दन तप्ती हुई वस्तु को शीतलता प्रदान करने में सामर्थ्यवान है; इसलिए देव, शास्त्र और गुरु की चन्दन से पूजा करता हूँ ।

यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई
अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही
उज्ज्वल अखंडित शालि तंदुल पुंज धरि त्रय गुण जचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

तंदुल शालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! यह संसार रुपी समुद्र अपार है; इसको पार करने के लिए आपकी अत्यंत दृढ़, परम-पवित्र और सच्ची भक्ति रुपी नाव ही सामर्थ्यवान है । इसलिए मैं ताज़े और स्वच्छ चमकते हुए अखंडित शालि-वन के चावलों के पुंजो को अर्पित कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों गुणों की याचना करता हूँ । इस प्रकार अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और गुरु की की नित्य पूजा करता हूँ ।
मैं शालीधान के अत्यंत सुगन्धित, अखण्डित, श्रेष्ठ चावलों को एक-एक बीन कर, देव शास्त्र गुरु तीन परम पदों की पूजा करता हूँ ।

जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज प्रकाशन भान हैं
जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं ॥
लहि कुंद कमलादिक पुहुप, भव भव कुवेदनसों बचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

विविध भांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र देव ! आप भक्ति कर रहे भव्य जीवों के हृदय रूपी कमलों को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के सामान है, जो प्रधानता से चारित्र का उपदेश देते है, वे तीनो लोकों में सर्व श्रेष्ठ हैं, इसलिए मैं कुंद, कमल आदि पुष्पों को लेकर अनेक जन्मों के खोटे वेदों (तीनों वेद पुरुष, स्त्री और नपुंसक) काम विकार के कष्टों से बचने के लिए मैं अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रथ गुरु की नित्य पूजा करता हूँ ।
मेरे पास भिन्न भिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्प से जिनकी सुगंध वश भवरे हो जाते है, मैं तीनो परम पदों; देव, शास्त्र और गुरु की पूजा करता हूँ ।

अति सबल मद-कंदर्प जाको क्षुधा-उरग अमान है
दुस्सह भयानक तासु नाशन को सु गरुड़ समान है ॥
उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अत्यंत बलवान मद के वेग को धारण करने वाला महान क्षुधारूपी सर्प का विष असहनीय और भयंकर है । उस का नाश करने के लिए आप गरूड़ के सामान हैं, इसलिए मैं उत्तम छ: रसों युक्त, घी में पकाये नैवद्य से अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु तीनों की नित्य पूजा करता हूँ ।
मैं नाना प्रकार के विभिन्न रसों से युक्त, ताज़े नैवैद्य (पकवान) से देव, शास्त्र और गुरु, की पूजा करता हूँ ।

जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, मोहतिमिर महाबली
तिंहि कर्मघाती ज्ञानदीप प्रकाश ज्योति प्रभावली ॥
इह भांति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजन में खचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! तीनों लोक के जीवों के पुरुषार्थ को नष्ट करने वाला मोह रूपी अन्धकार अत्यंत बलवान है । उस मोहनीय कर्म को नाश करने के लिए आपके ज्ञान रुपी दीपक की ज्योति / प्रकाश सामर्थ्यवान है । इस प्रकार में दीपक को प्रज्जवलित कर सोने के पात्र में सजाकर ,अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु की नित्य पूजा करता हूँ ।
इस (केवल) ज्ञान रुपी दीपक से मैं देव शास्त्र और गुरु तीनों परम पदों की पूजा करता हूँ, जिस की ज्योति अन्धकार रहित, स्व और पर पदार्थों की प्रकाशक है ।

जे कर्म-ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै
वर धूप तासु सुगन्धता करि, सकल परिमलता हंसै ॥
इह भांति धूप चढ़ाय नित भव ज्वलनमाहिं नहीं पचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

अग्निमांहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! कर्मरुपी ईंधन को जलाने के लिए आप अग्नि के सामान प्रकाशित है । अच्छी धुप की सुगंध से सभी सुगंधिया मंद हो जाती है । इसी तरह देव ! प्रतिदिन धुप अर्पित करता हूँ जिससे मै संसार रुपी अग्नि से दूर रह सकूँ; इस प्रकार नित्य तीनों, देव, जिनवाणी और अपरिग्रही गुरु की पूजा करता हूँ ।
चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों सहित धुप को अग्नि में जला कर देव, शास्त्र और गुरु ,तीनों परम पदों की पूजा करता हूँ ।

लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं
मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं ॥
सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

जे प्रधान फल फलविषैं, पंचकरण-रस लीन ।
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : भगवन मैं, नेत्रों, जीव्हा, नासिका और मन को उत्साहित करने वाले अनुपम और समस्त श्रेष्ठ गुणों वाले फलों को अर्पित कर हर्षित होता हुआ श्रेष्ठ मोक्ष-रस को प्राप्त करने की भावना से नित्य अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु की पूजा करता हूँ ।
जो फलों में प्रधान है, जिन के रस में पाँचों इन्द्रिय लीन हो रही है, ऐसे फलों से तीनों परम पद, देव शास्त्र और गुरु की पूजा करता हूँ ।

जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरुं
वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनम के पातक हरुं ॥
इहि भांति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥

वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : भगवन ! मैंने श्रेष्ठ उज्जवल जल, चन्दन से सुगन्धित जल, अक्षत, पुष्प, नैवद्य, दीपक, श्रेष्ट धुप और विविध प्रकार के निर्मल फलों को मिलाकर, अनेक जन्मों के पापों को नष्ट करने के लिए अर्घ बना कर लाया हूँ । इस प्रकार नित्य अर्घ्य अर्पित कर मैं मोक्ष की पंक्ति में लगता हूँ । मै तीनों अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और अपरिग्रही गुरु की नित्य पूजा करता हूँ ।
आठ प्रकार के अर्घ्य से, मन से अत्यंत उत्साहपूर्वक तीनों परम-पद देव शास्त्र और गुरु कि पूजा करता हूँ ।


जयमाला
देव शास्त्र गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार
भिन्न भिन्न कहुं आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥१॥
अन्वयार्थ : सच्चे देव से सम्यक्त्व को, सच्चे शास्त्र सम्यग्ज्ञान को, और सच्चे निर्ग्रन्थ गुरु से सम्यक चारित्र को देने वाले हैं । मैं अल्प बुद्धि वाला हूँ किन्तु संक्षेप में उनकी बहुत गुण वाली आरती कहता हूँ ।

पद्धरि छन्द
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर ॥२॥
अन्वयार्थ : जिन्होंने कर्मों की ६३ प्रकृतियों (चार घातिया कर्मों की ४७ और आयुकर्म-३, नामकर्म की-१३) का क्षय कर लिया है, अठारह दोषों के समूह को जीत लिया है । जो अनंत श्रेष्ठ गुणों को धारण करते है, यद्यपि कहने में छयालीस (जन्म-१०, केवलज्ञान-१०, देवकृत-१४, अनंत चतुष्टाय-४ और प्रतिहार्य-८) गुण आते हैं ।

शुभ समवशरण शोभा अपार, शत इंद्र नमत कर सीस धार
देवाधिदेव अरहंत देव, वंदौं मन-वच-तन करि सुसेव ॥३॥
अन्वयार्थ : आपके शुभ समवशरण की शोभा अपरम्पार है । सौ इंद्र (भवनवासी-४०, व्यंतर देव-३२, वैमानिक देव-२४ , ज्योतिष्क-२ चन्द्र और सूर्य, तिर्यंच-१ सिंह , मनुष्य-१ चक्रवर्ती) अपने मस्तक पर हाथ रख कर आपको नमस्कार करते हैं ।

जिनकी ध्वनि ह्वै ओंकाररुप, निर-अक्षर मय महिमा अनूप
दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥४॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र भगवान् की ओंकार रूप, अक्षर रहित, अनुपम महिमा वाली दिव्यध्वनि, जो १८ महा-भाषा और ७०० लघु (स्थानिय) भाषा सहित है ।

सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअंग
रवि शशि न हरें सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय ॥५॥
अन्वयार्थ : जिनवाणी स्याद्वादमयी और सप्त भंगी (अस्ति-नास्ति आदि) है । इसको गणधर देवों ने १२ अंगों में गूंथा है । सूर्य और चन्द्र भी जिस अन्धकार को नहीं हर सकते किन्तु ये सच्चे शास्त्र हर लेते है, इसीलिए मै उन सच्चे शास्त्रों को बड़ी प्रीती / भक्ति भाव से नमस्कार करता हूँ ।

गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रय-निधि अगाध
संसारदेह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिवपद निहार ॥६॥
अन्वयार्थ : सच्चे गुरु -- आचार्य ,उपाध्याय और साधु नग्न होते हैं, किन्तु रत्नत्रय रुपी खज़ाना भरा हुआ होता है । संसार और शरीर से वैराग्य धारण करके वांच्छा रहित होकर मोक्ष पद की ओर लक्ष्य रखते हुए तप तपते हैं ।

गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भवतारन तरन जिहाज ईस
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरु-नाम जपौं मन-वचन-काय ॥७॥
अन्वयार्थ : आचार्य परमेष्ठी के ३६, उपाध्याय परमेष्ठी के २५, और साधू परमेष्ठी के २८ मूल गुण होते हैं । ये तीनो संसार से स्वयं तथा अन्यों को पार लगाने के लिए जहाज के समान हैं । सच्चे गुरु की महिम का वर्णन नहीं किया जा सकता, मैं उन सच्चे गुरुओं के नाम को मन-वचन-काय से जपता हूँ ।

सोरठा
कीजै शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरे
द्यानत सरधावान, अजर अमरपद भोगवे ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : शक्ति के अनुसार व्रत धारण करना चाहिए और शक्ति नहीं होने पर श्रद्धा ही रखनी चाहिए क्योंकि ध्यायनतराय जी कहते है कि श्रद्धावान भी बुढ़ापे, मरण रहित पद (मोक्ष) को भोगने वाले होते है ।

श्रीजिन के परसाद तें, सुखी रहें सब जीव
या तें तन मन वचन तें, सेवो भव्य सदीव ॥
इत्याशीर्वादः - पुष्पांजलिं क्षेपत्



देव-शास्त्र-गुरु🏠
पण्डित हुकमचन्द भारिल्ल कृत
दोहा
शुद्ध ब्रह्म परमात्मा, शब्दब्रह्म जिनवाणी ।
शुद्धातम साधक दशा, नमो जोड़ जुग पाणि ।
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

आशा की प्यास बुझाने को, अब तक मृग तृष्णा में भटका ।
जल समझ विषय-विष भोगों को, उनकी ममता में था अटका ॥
लख सौम्यदृष्टि तेरी प्रभुवर, समता रस पीने आया हूँ ।
इस जल ने प्यास बुझाई ना, इस को लौटाने लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

क्रोधानल से जब जला हृदय, चन्दन ने कोई न काम किया ।
तन को तो शान्त किया इसने, मन को न मगर आराम दिया ।
संसार ताप से तप्त हृदय, संताप मिटाने आया हूँ ।
चरणों में चन्दन अर्पण कर, शीतलता पाने आया हूँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा

अभिमान किया अब तक जड़ पर, अक्षय निधि को ना पहचाना ।
'मैं जड़ का हूँ' 'जड़ मेरा है' यह, सोच बना था मस्ताना॥
क्षत में विश्वास किया अब तक, अक्षत को प्रभुवर ना जाना ।
अभिमान की आन मिटाने को, अक्षय निधि तुमको पहचाना॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

दिन-रात वासना में रहकर, मेरे मन ने प्रभु सुख माना ।
पुरुषत्व गंवाया पर प्रभुवर, उसके छल को ना पहचाना॥
माया ने डाला जाल प्रथम, कामुकता ने फिर बाँध लिया ।
उसका प्रमाण यह पुष्प-बाण, लाकर के प्रभुवर भेंट किया॥
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यो: काम-बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

पर पुद्गल का भक्षण करके, यह भूख मिटाना चाही थी ।
इस नागिन से बचने को प्रभु, हर चीज बनाकर खाई थी॥
मिष्टान्न अनेक बनाये थे, दिन-रात भखे न मिटी प्रभुवर ।
अब संयम-भाव जगाने को, लाया हूँ ये सब थाली भर॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो: क्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा

पहिले अज्ञान मिटाने को, दीपक था जग में उजियाला ।
उससे न हुआ कुछ तो युग ने, बिजली का बल्ब जला डाला॥
प्रभु भेद-ज्ञान की आंख न थी, क्या कर सकती थी यह ज्वाला?
यह ज्ञान है कि अज्ञान कहो, तुमको भी दीप दिखा डाला॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ-कर्म कमाऊँ सुख होगा, अब तक मैंने यह माना था ।
पाप-कर्म को त्याग पुण्य को, चाह रहा अपनाना था॥
किन्तु समझकर शत्रु कर्म को, आज जलाने आया हूँ ।
लेकर दशांग यह धूप, कर्म की धूम उड़ाने आया हूँ ।
ॐ ह्रीं श्री देव–शास्त्र-गुरुभ्यः अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

भोगों को अमृत फल जाना, विषयों में निश-दिन मस्त रहा ।
उनके संग्रह में हे प्रभुवर ! मैं व्यस्त-त्रस्त-अभ्यस्त रहा॥
शुद्धात्म प्रभा जो अनुपम फल, मैं उसे खोजने आया हूँ ।
प्रभु सरस सुवासित ये जड़ फल, मैं तुम्हें चढ़ाने लाया हूँ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः मोक्ष-फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता ।
अरे पूर्णता पाने में, इसकी क्या है आवश्यकता ?
मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ्य मेरी माया ।
बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ्य लिये, अर्पण के हेतु चला आया॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्योऽनर्घ्य पदप्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
दोहा
समयसार जिनदेव हैं, जिन-प्रवचन जिनवाणी ।
नियमसार निर्ग्रन्थ गुरु, करें कर्म की हानि ।

वीरछन्द
हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अब तक पहिचाना ।
अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर, चौरासी के चक्कर खाना ॥
करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा ।
भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खड़ा रहा ॥
तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना ।
तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहचाना ॥
प्रभु वीतराग की वाणी में, जैसा जो तत्व दिखाया है ।
जो होना है वह निश्चित है, केवलज्ञानी ने गाया है ॥
उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया ।
बनकर पर का कर्ता अब तक, सत् का न प्रभो सम्मान किया॥
भगवान तुम्हारी वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है ।
स्याद्वाद-नय, अनेकान्त-मय, समयसार समझाया है ॥
उस पर तो ध्यान दिया न प्रभो, विकथा में समय गंवाया है ।
शुद्धात्म रुचि न हुई मन में, ना मन को उधर लगाया है ॥
मैं समझ न पाया था अब तक, जिनवाणी किसको कहते हैं ।
प्रभु वीतराग की वाणी में, कैसे क्या तत्व निकलते हैं ॥
राग धर्ममय धर्म रागमय, अब तक ऐसा जाना था ।
शुभ-कर्म कमाते सुख होगा, बस अब तक ऐसा माना था ॥
पर आज समझ में आया है, कि वीतरागता धर्म अहा ।
राग-भाव में धर्म मानना, जिनमत में मिथ्यात्व कहा ॥
वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है ।
यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हमको जो दिखलाती है॥
उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओं ने पहिचाना है ।
उन गुरुवर्यों के चरणों में, मस्तक बस हमें झुकाना है ॥
दिन-रात आत्मा का चिन्तन, मृदु-सम्भाषण में वही कथन ।
निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रगट हो रहा अन्तर्मन ॥
निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो ।
ज्ञानी ध्यानी समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो ॥
चलते फिरते सिद्धों से गुरु, चरणों में शीश झुकाते हैं ।
हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं ॥
हो नमस्कार शुद्धातम को, हो नमस्कार जिनवर वाणी ।
हो नमस्कार उन गुरुओं को, जिनकी चर्या समरससानी ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला महाअर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
दर्शन दाता देव हैं, आगम सम्यग्ज्ञान ।
गुरु चारित्र की खानि हैं, मैं वंदों धरि ध्यान ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि



देव-शास्त्र-गुरु🏠
बाल ब्रह्मचारी रवीन्द्र जी आत्मन कृत

देव-शास्त्र-गुरुवर अहो! मम स्वरूप दर्शाय ।
किया परम उपकार मैं, नमन करूँ हर्षाय ॥
जब मैं आता आप ढिंग, निज स्मरण सु आय ।
निज प्रभुता मुझमें प्रभो! प्रत्यक्ष देय दिखाय ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

शंभू छन्द
जब से स्व-सन्मुख दृष्टि हुई, अविनाशी ज्ञायक रूप लखा ।
शाश्वत अस्तित्व स्वयं का लखकर, जन्म-मरणभय दूर हुआ ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

निज परमतत्त्व जब से देखा, अद्भुत शीतलता पाई है ।
आकुलतामय संतप्त परिणति, सहज नहीं उपजाई है ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

निज अक्षयप्रभु के दर्शन से ही, अक्षयसुख विकसाया है ।
क्षत् भावों में एकत्वपने का, सर्व विमोह पलाया है ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

निष्काम परम ज्ञायक प्रभुवर, जब से दृष्टि में आया है ।
विभु ब्रह्मचर्य रस प्रकट हुआ, दुर्दान्त काम विनशाया है ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

मैं हुआ निमग्न तृप्ति सागर में, तृष्णा ज्वाल बुझाई है ।
क्षुधा आदि सब दोष नशें, वह सहज तृप्ति उपजाई है ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

ज्ञान-भानु का उदय हुआ, आलोक सहज ही छाया है ।
चिरमोह महातम हे स्वामी, इस क्षण ही सहज विलाया है ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

द्रव्य-भाव-नोकर्म शून्य, चैतन्य प्रभु जब से देखा ।
शुद्ध परिणति प्रकट हुई, मिटती परभावों की रेखा ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

अहो पूर्ण निज वैभव लख, नहीं कामना शेष रही ।
हो गया सहज मैं निर्वांछक, निज में ही अब मुक्ति दिखी ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

निज से उत्तम दिखे न कुछ भी, पाई निज अनर्घ्य माया ।
निज में ही अब हुआ समर्पण, ज्ञानानन्द प्रकट पाया ॥
श्री देव- शास्त्र -गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो ।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला

दोहा
ज्ञान मात्र परमात्मा, परम प्रसिद्ध कराय ।
धन्य आज मैं हो गया, निज स्वरूप को पाय ॥

हरिगीता छन्द
चैतन्य में ही मग्न हो, चैतन्य दरशाते अहो ।
निर्दोष श्री सर्वज्ञ प्रभुवर, जगत्साक्षी हो विभो ॥

सच्चे प्रणेता धर्म के, शिवमार्ग प्रकटाया प्रभो ।
कल्याण वाँछक भविजनों, के आप ही आदर्श हो ॥

शिवमार्ग पाया आप से, भवि पा रहे अरु पायेंगे ।
स्वाराधना से आप सम ही, हुए, हो रहे, होयेंगे ॥

तव दिव्यध्वनि में दिव्य-आत्मिक, भाव उद्घोषित हुए ।
गणधर गुरु आम्नाय में, शुभ शास्त्र तब निर्मित हुए ॥

निर्ग्रंथ गुरु के ग्रन्थ ये, नित प्रेरणाएं दे रहे ।
निजभाव अरु परभाव का, शुभ भेदज्ञान जगा रहे ॥

इस दुषम भीषण काल में, जिनदेव का जब हो विरह ।
तब मात सम उपकार करते, शास्त्र ही आधार हैं ॥

जग से उदास रहें स्वयं में, वास जो नित ही करें ।
स्वानुभव मय सहज जीवन, मूल गुण परिपूर्ण हैं ॥

नाम लेते ही जिन्हों का, हर्षमय रोमाँच हो ।
संसार-भोगों की व्यथा, मिटती परम आनन्द हो ॥

परभाव सब निस्सार दिखते, मात्र दर्शन ही किए ।
निजभाव की महिमा जगे, जिनके सहज उपदेश से ॥

उन देव-शास्त्र-गुरु प्रति, आता सहज बहुमान है ।
आराध्य यद्यपि एक, ज्ञायकभाव निश्चय ज्ञान है ॥

अर्चना के काल में भी, भावना ये ही रहे ।
धन्य होगी वह घड़ी, जब परिणति निज में रहे ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
अहो कहाँ तक मैं कहूँ, महिमा अपरम्पार ।
निज महिमा में मगन हो, पाऊं पद अविकार ॥
॥पुष्पाजलिं क्षिपामि॥



देव-शास्त्र-गुरु🏠
पण्डित राजमल पवैया कृत

वीतराग अरिहंत देव के पावन चरणों में वन्दन ।
द्वादशांग श्रुत श्री जिनवाणी जग कल्याणी का अर्चन ॥
द्रव्य भाव संयममय मुनिवर श्री गुरु को मैं करूँ नमन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

आवरण ज्ञान पर मेरे है, हूँ जन्म-मरण से सदा दुखी ।
जबतक मिथ्यात्व हृदय में है, यह चेतन होगा नहीं सुखी ॥
ज्ञानावरणी के नाश हेतु चरणों में जल करता अर्पण ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

दर्शन पर जब तक छाया है, संसार ताप तब तक ही है ।
जब तक तत्वों का ज्ञान नहीं, मिथ्यात्व पाप तब तक ही है ॥
सम्यक्श्रद्धा के चंदन से मिट जायेगा दर्शनावरण ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा

निज स्वभाव चैतन्य प्राप्ति हित, जागे उर में अन्तरबल ।
अव्याबाधित सुख का घाता वेदनीय है कर्म प्रबल ॥
अक्षत चरण चढ़ाकर प्रभुवर वेदनीय का करूं दमन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

मोहनीय के कारण यह चेतन अनादि से भटक रहा ।
निज स्वभाव तज पर-द्रव्यों की ममता में ही अटक रहा ॥
भेदज्ञान की खड़ग उठाकर मोहनीय का करूँ हनन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

आयु-कर्म के बंध उदय में सदा उलझता आया हूँ ।
चारों गतियों में डोला हूँ, निज को जान न पाया हूँ ॥
अजर-अमर अविनाशी पदहित आयु कर्म का करूँ शमन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

नाम कर्म के कारण मैंने, जैसा भी शरीर पाया ।
उस शरीर को अपना समझा, निज चेतन को विसराया ॥
ज्ञानदीप के चिर प्रकाश से, नामकर्म का करूँ दमन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

उच्च-नीच कुल मिला बहुत पर निज कुल जान नहीं पाया ।
शुद्ध-बुद्ध चैतन्य निरंजन सिद्ध स्वरूप न उर भाया ॥
गोत्र-कर्म का धूम्र उड़ाऊँ निज परिणति में करूँ नमन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

दान-लाभ भोगोपभोग बल मिलने में जो बाधक है ।
अन्तराय के सर्वनाश का, आत्मज्ञान ही साधक है ॥
दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख, पाऊँ निज आराधक बन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

कर्मोदय में मोह रोष से, करता है शुभ-अशुभ विभाव ।
पर में इष्ट-अनिष्ट कल्पना, राग-द्वेष विकारी भाव ॥
भाव-कर्म करता जाता है, जीव भूल निज आत्मस्वभाव ।
द्रव्य-कर्म बंधते हैं तत्क्षण, शाश्वत सुख का करे अभाव ॥
चार-घातिया चउ अघातिया अष्ट-कर्म का करूँ हनन ।
देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
हे जगबन्धु जिनेश्वर तुमको अब तक कभी नहीं ध्याया ।
श्री जिनवाणी बहुत सुनी पर कभी नहीं श्रद्धा लाया ॥

परम वीतरागी सन्‍तों का भी उपदेश न मन भाया ।
नरक तिर्यञ्च देव नरगति में भ्रमण किया बहु दुख पाया ॥

पाप-पुण्य में लीन हुआ निज शुद्ध-भाव को बिसराया ।
इसीलिये प्रभुवर अनादि से, भव अटवी में भरमाया ॥

आज तुम्हारे दर्शन कर, प्रभु मैंने निज दर्शन पाया ।
परम शुद्ध चैतन्य ज्ञानघन, का बहुमान हृदय आया ॥

दो आशीष मुझे हे जिनवर, जिनवाणी गुरुदेव महान ।
मोह महातम शीघ्र नष्ट हो, जाये करूँ आत्म कल्याण ॥

स्वपर विवेक जगे अन्तर में, दो सम्यक्‌ श्रद्धा का दान ।
क्षायक हो उपशम हो हे प्रभु, क्षयोपशम सद्दर्शन ज्ञान ॥

सात तत्व पर श्रद्धा करके देव शास्त्र गुरु को मानूँ ।
निज-पर भेद जानकर केवल निज में ही प्रतीत ठानूँ ॥

पर-द्रव्यों से मैं ममत्व तज आत्म-द्रव्य को पहिचानूं ।
आत्म-द्रव्य को इस शरीर से पृथक भिन्न निर्मल जानूँ ॥

समकित रवि की किरणें, मेरे उर अन्तर में करें प्रकाश ।
सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर स्वामी, पर-भावों का करूँ विनाश ॥

सम्यक्चारित को धारण कर, निज स्वरूप का करूँ विकास ।
रत्नत्रय के अवलम्बन से, मिले मुक्ति निर्वाण निवास ॥

जय जय जय अरहन्त देव, जय जिनवाणी जग कल्याणी ।
जय निर्ग्रन्थ महान सुगुरु, जय जय शाश्वत शिवसुखदानी ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
देव शास्त्र गुरु के वचन भाव सहित उरधार ।
मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



समुच्च-पूजा🏠
ब्र. सरदारमलजी कृत
देव-शास्त्र-गुरु नमन करि, बीस तीर्थंकर ध्याय
सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूँ चित्त हुलसाय ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री सिद्ध परमेष्ठि समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री सिद्ध परमेष्ठि समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री सिद्ध परमेष्ठि समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

अनादिकाल से जग में स्वामिन, जल से शुचिता को माना
शुद्ध निजातम सम्यक् रत्नत्रय, निधि को नहीं पहचाना ॥
अब निर्मल रत्नत्रय जल ले, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

भव-आताप मिटावन की, निज में ही क्षमता समता है
अनजाने में अबतक मैंने, पर में की झूठी ममता है ॥
चन्दन-सम शीतलता पाने, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तान्तसिद्धपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अक्षय पद बिन फिरा, जगत की लख चौरासी योनी में
अष्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं ॥
अक्षयनिधि निज की पाने अब, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पुष्प सुगन्धी से आतम ने, शील स्वभाव नशाया है
मन्मथ बाणों से विंन्ध करके, चहुँगति दु:ख उपजाया है ॥
स्थिरता निज में पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तान्तसिद्धपरमेष्ठिभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

षटरस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शांत हुई
आतम रस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई ॥
सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु भ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

जड़दीप विनश्वर को अबतक, समझा था मैंने उजियारा
निज गुण दरशायक ज्ञानदीप से, मिटा मोह का अँधियारा ॥
ये दीप समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी
निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग-द्वेष नशायेगी ॥
उस शक्ति दहन प्रकटाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

पिस्ता बदाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया
आतमरस भीने निज गुण फल, मम मन अब उनमें ललचाया
अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये
सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये ॥
ये अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु भगवान
अब वरणूँ जयमालिका, करूँ स्तवन गुणगान ॥

नशे घातिया कर्म अरहन्त देवा ।
करें सुर-असुर-नर-मुनि नित्य सेवा ॥
दरशज्ञान सुखबल अनन्त के स्वामी ।
छियालीस गुणयुत महाईशनामी ॥

तेरी दिव्यवाणी सदा भव्य मानी ।
महामोह विध्वंसिनी मोक्ष-दानी ॥
अनेकांतमय द्वादशांगी बखानी ।
नमो लोक माता श्री जैनवाणी ॥

विरागी अचारज उवज्झाय साधू ।
दरश-ज्ञान भण्डार समता अराधू ॥
नगन वेशधारी सु एका विहारी ।
निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी ॥

विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बीस राजें ।
विरहमान वंदूँ सभी पाप भाजें ॥
नमूँ सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी ।
अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देव-शास्त्र-गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध हृदय बिच धर ले रे
पूजन ध्यान गान गुण करके, भवसागर जिय तर ले रे ॥
पुष्पांजलिं क्षिपेत्



पंचपरमेष्ठी🏠
पवैयाजी कृत
अरहन्त सिद्ध आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन
जय पंच परम परमेष्ठी जय, भवसागर तारणहार नमन ॥
मन-वच-काया पूर्वक करता हूँ, शुद्ध हृदय से आह्वानन
मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ, सन्निकट होहु मेरे भगवन ॥
निज आत्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु, ले अष्ट द्रव्य करता पूजन
तुम चरणों की पूजन से प्रभु, निज सिद्ध रूप का हो दर्शन ॥
ॐ ह्रीं श्री अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन! अत्र तिष्ठ, तिष्ठ, ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधि करणं

मैं तो अनादि से रोगी हूँ, उपचार कराने आया हूँ
तुम सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ ॥
मैं जन्म-जरा-मृतु नाश करूँ, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

संसार-ताप में जल-जल कर, मैंने अगणित दु:ख पाये हैं
निज शान्त स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाये हैं ॥
शीतल चंदन है भेंट तुम्हें, संसार-ताप नाशो स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

दु:खमय अथाह भवसागर में, मेरी यह नौका भटक रही
शुभ-अशुभ भाव की भँवरों में चैतन्य शक्ति निज अटक रही ॥
तन्दुल है धवल तुम्हें अर्पित, अक्षयपद प्राप्त करूँ स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

मैं काम-व्यथा से घायल हूँ, सुख की न मिली किंचित् छाया
चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ, तुमको पाकर मन हर्षाया ॥
मैं काम-भाव विध्वंस करूँ, ऐसा दो शील हृदय स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

मैं क्षुधा-रोग से व्याकुल हूँ, चारों गति में भरमाया हूँ
जग के सारे पदार्थ पाकर भी, तृप्त नहीं हो पाया हूँ ॥
नैवेद्य समर्पित करता हूँ, यह क्षुधा-रोग मेटो स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोहान्ध महा-अज्ञानी मैं, निज को पर का कर्त्ता माना
मिथ्यातम के कारण मैंने, निज आत्मस्वरूप न पहिचाना ॥
मैं दीप समर्पण करता हूँ, मोहान्धकार क्षय हो स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

कर्मों की ज्वाला धधक रही, संसार बढ़ रहा है प्रतिपल
संवर से आस्रव को रोकूँ, निर्जरा सुरभि महके पल-पल ॥
यह धूप चढ़ाकर अब आठों कर्मों का हनन करूँ स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

निज आत्मतत्त्व का मनन करूँ, चिंतवन करूँ निज चेतन का
दो श्रद्धा-ज्ञान-चरित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का ॥
उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल चन्दन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ
अबतक के संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ ॥
यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दो स्वामी
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, निज ध्यान लीन गुणमय अपार
अष्टादश दोष रहित जिनवर, अरहन्त देव को नमस्कार ॥१॥
अविकल अविकारी अविनाशी, निजरूप निरंजन निराकार
जय अजर अमर हे मुक्तिकंत, भगवंत सिद्ध को नमस्कार ॥२॥

छत्तीस सुगुण से तुम मण्डित, निश्चय रत्नत्रय हृदय धार
हे मुक्तिवधू के अनुरागी, आचार्य सुगुरु को नमस्कार ॥३॥
एकादश अंग पूर्व चौदह के, पाठी गुण पच्चीस धार
बाह्यान्तर मुनि मुद्रा महान, श्री उपाध्याय को नमस्कार ॥४॥

व्रत समिति गुप्ति चारित्र धर्म, वैराग्य भावना हृदय धार
हे द्रव्य-भाव संयममय मुनिवर, सर्व साधु को नमस्कार ॥५॥
बहु पुण्यसंयोग मिला नरतन, जिनश्रुत जिनदेव चरण दर्शन
हो सम्यग्दर्शन प्राप्त मुझे, तो सफल बने मानव जीवन ॥६॥

निज-पर का भेद जानकर मैं, निज को ही निज में लीन करूँ
अब भेदज्ञान के द्वारा मैं, निज आत्म स्वयं स्वाधीन करूँ ॥७॥
निज में रत्नत्रय धारण कर, निज परिणति को ही पहचानूँ
पर-परिणति से हो विमुख सदा, निज ज्ञानतत्त्व को ही जानूँ ॥८॥

जब ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता विकल्प तज, शुक्लध्यान मैं ध्याऊँगा
तब चार घातिया क्षय करके, अरहन्त महापद पाऊँगा ॥९॥
है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा, हे प्रभु! कब इसको पाऊँगा
सम्यक् पूजा फल पाने को, अब निजस्वभाव में आऊँगा ॥१०॥

अपने स्वरूप की प्राप्ति हेतु, हे प्रभु! मैंने की है पूजन
तबतक चरणों में ध्यान रहे, जबतक न प्राप्त हो मुक्ति सदन ॥११॥
ॐ ह्रीं श्री अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन! अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

हे मंगल रूप अमंगल हर, मंगलमय मंगल गान करूँ
मंगल में प्रथम श्रेष्ठ मंगल, नवकार मंत्र का ध्यान करूँ ॥१२॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



नवदेवता-पूजन🏠
श्री अरहंत सिद्ध, आचार्योपाध्याय, मुनि साधु महान ।
जिनवाणी, जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्मदेव नव जान ॥
ये नवदेव परम हितकारी रत्नत्रय के दाता हैं ।
विध्न विनाशक संकटहर्ता तीन लोक विख्याता हैं ॥
जल फलादि वसु द्रव्य सजाकर हे प्रभु नित्य करूँ पूजन ।
मंगलोत्तम शरण प्राप्त कर मैं पाऊँ सम्यक्दर्शन ॥
आत्मतत्व का अवलम्बन ले पूर्ण अतीन्द्रिय सुख पाऊँ ।
नवदेवों की पूजन करके फिर न लौट भव में आऊँ ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

परम भाव जल की धारा से जन्म मरण का नाश करूँ ।
मिथ्यातम का गर्व चूर कर रवि सम्यक्त्व प्रकाश करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजन्म-जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

परमभाव चंदन के बल से भव आतप का नाश करूँ ।
अन्धकार अज्ञान मिटाऊँ सम्यक्ज्ञान प्रकाश करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योसंसार-ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

परम भाव अक्षत के द्वारा अक्षय पद को प्राप्त करूँ ।
मोह-क्षोभ से रहित बनूँ मैं सम्यक्चारित प्राप्त करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

परम भाव पुष्पों से दुर्धर काम-भाव को नाश करूँ ।
तप-संयम की महाशक्ति से निर्मल आत्म प्रकाश करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योकाम-बाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

परम भाव नैवेद्य प्राप्तकर क्षुधा व्याधि का हास करूँ ।
पंचाचार आचरण करके परम तृप्त शिववास करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योक्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेध्यं निर्वपामीति स्वाहा

परम भाव मय दिव्य ज्योति से पूर्ण मोह का नाश करूँ ।
पाप-पुण्य आस्रव विनाशकर केवलज्ञान प्रकाश करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोह-अन्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

परम भाव मय शुक्लध्यान से अष्टकर्म का नाश करूँ ।
नित्य-निरंजन शिवपदपाऊँ सिद्धस्वरूप विकास करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअष्ट-कर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

परम भाव संपत्ति प्राप्त कर मोक्ष भवन में वास करूँ ।
रत्नत्रय की मुक्ति शिला पर सादि अनंत निवास करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योमहा-मोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामीति स्वाहा

परम भाव के अर्ध्य चढ़ाऊँ उर अनर्घ पद व्याप्त करूँ ।
भेदज्ञान रवि हृदय जगाकर शाश्वत जीवन प्राप्त करूँ ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म ।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअनर्घ पद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
नवदेवों को नमन कर, करूँ आत्म कल्याण ।
शाश्वत सुख की प्राप्ति हित, करूँ भेद विज्ञान ॥

जय जय पंच परम परमेष्ठी, जिनवाणी जिन धर्म महान ।
जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, नवदेवों को, नित वन्दूं धर ध्यान ॥

श्री अरहंत देव मंगलमय, मोक्ष मार्ग के नेता हैं ।
सकल ज्ञेय के ज्ञाता दृष्टा कर्म शिखर के भेत्ता हैं ॥

हैं लोकाग्र शिखर पर सुस्थित सिद्धशिला पर सिद्धअनंत ।
अष्टकर्म रज से विहीन प्रभु सकल सिद्धदाता भगवंत ॥

हैं छत्तीस गुणों से शोभित श्री आचार्य देव भगवान ।
चार संघ के नायक ऋषिवर करते सबको शान्ति प्रदान ॥

ग्यारह अंग पूर्व चौदह के ज्ञाता उपाध्याय गुणवन्त ।
जिन आगम का पठन और पाठन करते हैं महिमावन्त ॥

अठ्ठाईस मूलगूण पालक, ऋषिमुनि साधु परम गुणवान ।
मोक्षमार्ग के पथिक श्रमण, करते जीवों को करुणादान ॥

स्याद्वादमय द्वादशांग, जिनवाणी है जग कल्याणी ।
जो भी शरण प्राप्त करता है, हो जाता केवलज्ञानी ॥

जिनमंदिर जिन समवशरणसम, इसकी महिमा अपरम्पार ।
गंध कुटी में नाथ विराजे, हैं अरहंत देव साकार ॥

जिन प्रतिमा अरहंतों की, नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी ।
जिन दर्शन से निज दर्शन, हो जाता तत्क्षण ज्ञानमयी ॥

श्री जिनधर्म महा मंगलमय, जीव मात्र को सुख दाता ।
इसकी छाया में जो आता, हो जाता दृष्टा ज्ञाता ॥

ये नवदेव परम उपकारी, वीतरागता के सागर ।
सम्यक्दर्शन ज्ञान चरित से, भर देते सबकी गागर ॥

मुझको भी रत्नत्रयनिधि दो, मैं कर्मों का भार हरूं ।
क्षीणमोह जितराग जितेन्द्रिय, हो भव सागर पार करूँ ॥

सदा-सदा नवदेव शरण पा, मैं अपना कल्याण करूँ ।
जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ, हे प्रभु पूजन ध्यान करूँ ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

मंगलोत्तम शरण हैं नव देवता महान ।
भाव-पूर्ण जिन भक्ति से होता दुख अवसान ॥
इत्याशिर्वाद ॥पुष्पांजलि क्षिपेत॥



नवदेवता-पूजन🏠
आर्यिका ज्ञानमती कृत

अरिहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु त्रिभुवनवन्द्य हैं
जिनधर्म जिनागम जिनेश्वर मूर्ति जिनग्रह वन्द्य हैं ॥
नवदेवता ये मान्य जग में, हम सदा अर्चा करें
आहवन कर थापें यहाँ, मन में अतुल श्रद्धा धरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

गंगानदी का नीर निर्मल बाह्य मल धोवे सदा
अंतर मलों के क्षालने को नीर से पूजूं मुदा ॥
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजन्म-जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

करपूर मिश्रित गंध चन्दन, देह ताप निवारता
तुम पाद पंकज पूजते, मन ताप तुरन्त ही वारता
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योसंसार-ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

क्षीरोदधि के फेन सम, सित तन्दुलों को लायके
उत्तम अखंडित सौख्य हेतु, पुंज नव सुचढाय के
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

चंपा चमेली केवडा, नाना सुगन्धित ले लिए
भव के विजेता आपको, पूजत सुमन अर्पण किये
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योकाम-बाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

पायस मधुर पकवान मोदक, आदि को भर थाल में
निज आत्म अमृत सौख्य हेतु, पूजहूँ नत भाल मैं
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योक्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेध्यं निर्वपामीति स्वाहा

करपूर ज्योति जगमगे दीपक, लिया निज हाथ में
तुअ आरती तम वारती, पाऊं सुज्ञान प्रकाश मैं
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योमोह-अन्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

दश गंध धूप अनूप सुरभित, अग्नि में खेऊं सदा
निज आत्मगुण सौरभ उठे, हो कर्म सब मुझसे विदा
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअष्ट-कर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

अंगूर अमरख आम अमृत, फल भराऊँ थाल में
उत्तम अनुपम मोक्ष फल के, हेतु पूजूं आज मैं
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योमहा-मोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामीति स्वाहा

जल गंध अक्षत पुष्प चरू, दीपक सुधूप फलार्घ ले
वर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अर्घ से पूजत मिले
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअनर्घ पद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
जलधारा से नित्य मैं, जग में शांति हेत
नव देवों को पूजहूँ, श्रद्धा भक्ति समेत ॥
शान्तये शांतिधारा

नानाविधि के सुमन ले, मन में बहु हर्षाय
मैं पूजूं नव देवता पुष्पांजलि चढ़ाय ॥
दिव्य पुष्पांजलि

जाप्य ९ / २७ या १०८ बार
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योनमः

जयमाला
चिच्चिन्तामणी रत्न, तीन लोक में श्रेष्ठ हो
गाऊं गुण मणिमाल, जयवन्ते वंदो सदा ॥१॥

जय जय श्री अरिहंत देव देव हमारे
जय घातिया को घात सकल जंतु उबारे ॥
जय जय प्रसिद्ध सिद्ध की मैं वंदना करूं
जय अष्ट कर्म मुक्ति की मैं अर्चना करूं ॥२॥

आचार्य देव गुण छत्तीस धार रहे हैं
दीक्षादि दे असंख्य भव्य तार रहे हैं ॥
जैवन्त उपाध्याय गुरु ज्ञान के धनी
सन्मार्ग के उपदेश की वर्षा करे घनी ॥३॥

जय साधु अठाईस गुणों को धरें सदा
निज आत्मा की साधना से च्युत न हो कदा ॥
ये पञ्च परम देव सदा वन्द्य हमारे
संसार विषम सिन्धु से हमको भी उबारें ॥४॥

जिन धर्म चक्र सर्वदा चलता ही रहेगा
जो इसकी शरण ले वो सुलझता ही रहेगा ॥
इसकी ध्वनि पियूष का जो पान करेंगे
भव रोग दूर कर वो मुक्ति कान्त बनेंगे ॥५॥

जिन चैत्य की जो वंदना त्रिकाल करे हैं
वे चित्स्वरूप नित्य आत्म लाभ करे हैं ॥
कृत्रिम व अकृत्रिम जिनालयों को जो भजे
वे कर्म-शत्रु जीत शिवालय में जा बसे ॥६॥

नव-देवताओं की जो नित आराधना करे
वे मृत्युराज की भी तो विराधना करे ॥
मैं कर्म-शत्रु जीतने के हेतु ही जजूं
सम्पूर्ण 'ज्ञानमती' सिद्धि हेतु ही भजूं ॥७॥

दोहा
नव देवों को भक्तिवश, कोटि-कोटि प्रणाम ।
भक्ति का फल मैं चहुँ, निज पद में विश्राम ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से नव देवताओं की भक्ति करे
वे सब अमंगल दोष हर, सुख शांति में झूला करें ॥
नवनिधि अतुल भण्डार ले, फिर मोक्ष सुख भी पावते
सुख सिन्धु में हो मग्न फिर, यहाँ पर कभी न आवते ॥
इत्याशिर्वाद ॥पुष्पांजलि क्षिपेत॥



सिद्धपूजा🏠
हे सिद्ध तुम्हारे वंदन से उर में निर्मलता आती है ।
भव-भव के पातक कटते हैं पुण्यावलि शीश झुकाती है ॥
तुम गुण चिन्तन से सहज देव होता स्वभाव का भान मुझे ।
है सिद्ध समान स्वपद मेरा हो जाता निर्मल ज्ञान मुझे ॥
इसलिये नाथ पूजन करता, कब तुम समान मैं बन जाऊँ ।
जिसपथ पर चल तुम सिद्ध हुए, मैं भी चल सिद्ध स्वपद पाऊँ ॥
ज्ञानावणादिक अष्टकर्म को नष्ट करूँ ऐसा बल दो ।
निज अष्ट स्वगुण प्रगटें मुझमें, सम्यक् पूजन का यह फल हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

कर्म मलिन हूँ जन्म जरा मृतु को कैसे कर पाऊँ क्षय ।
निर्मल आत्म ज्ञान जल दो प्रभु जन्म-मृत्यु पर पाऊँ जय ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा

शीतल चंदन ताप मिटाता, किन्तु नहीं मिटता भव ताप ।
निज स्वभाव का चंदन दो, प्रभु मिटे राग का सब संताप ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा

उलझा हूँ संसार चक्र में कैसे इससे हो उद्धार ।
अक्षय तन्दुल रत्नत्रय दो हो जाऊँ भव सागर पार ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

काम व्यथा से मैं घायल हूँ कैसे करूँ काम मद नाश ।
विमलदृष्टि दो ज्ञानपुष्प दो, कामभाव हो पूर्ण विनाश ॥
अजर, अमर, अविकलअविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा

क्षुधा रोग के कारण मेरा तृप्त नहीं हो पाया मन ।
शुद्धभाव नैवेद्य मुझे दो सफल करूँ प्रभु यह जीवन ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा

मोहरूप मिथ्यात्व महातम अन्तर में छाया घनघोर ।
ज्ञानद्वीप प्रज्वलित करो प्रभु प्रकटे समकित रवि का भोर ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा

कर्म शत्रु निज सुख के घाता इनको कैसे नष्ट करूँ ।
शुद्ध धूप दो ध्यान अग्नि में इन्हें जला भव कष्ट हरूँ ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा

निज चैतन्य स्वरूप न जाना, कैसे निज में आऊँगा ।
भेदज्ञान फल दो हे स्वामी स्वयं मोक्ष फल पाऊँगा ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा

अष्ट द्रव्य का अर्घ्य चढ़ाऊँ, अष्टकर्म का हो संहार ।
निजअनर्घ पद पाऊँ भगवन्‌, सादि अनंत परम सुखकार ।
अजर, अमर, अविकल अविकारी, अविनाशी अनंत गुणधाम ।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन, ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
मुक्तिकन्त भगवन्त सिद्ध को मनवच काया सहित प्रणाम ।
अर्ध चन्द्र सम सिद्ध शिला पर आप विराजे आठों याम ॥

ज्ञानावरण दर्शनावरणी, मोहनीय अन्तराय मिटा ।
चार घातिया नष्ट हुए तो फिर अरहन्त रूप प्रगटा ॥

वेदनीय अरु आयु नाम अर गोत्र कर्म का नाश किया ।
चऊ अघातिया नाश किये तो स्वयं स्वरूप प्रकाश किया ॥

अष्टकर्म पर विजय प्राप्त कर अष्ट स्वगुण तुमने प्राये ।
जन्म-मृत्यु का नाश किया निज सिद्ध स्वरूप स्वगुण भाये ॥

निज स्वभाव में लीन विमल चैतन्य स्वरूप अरूपी हो ।
पूर्ण ज्ञान हो पूर्ण सुखी हो पूर्ण बली चिद्रूपी हो ॥

वीतराग हो सर्व हितैषी राग-द्वेष का नाम नहीं ।
चिदानन्द चैतन्य स्वभावी कृतकृत्य कुछ काम नहीं ॥

स्वयं सिद्ध हो, स्वयं बुद्ध हो, स्वयं श्रेष्ठ समकित आगार ।
गुण अनन्त दर्शन के स्वामी तुम अनन्त गुण के भण्डार ॥

तुम अनन्त-बल के हो धारी ज्ञान अनन्तानन्त अपार ।
बाधा रहित सूक्ष्म हो भगवन्‌ अगुरुलघु अवगाह उदार ॥

सिद्ध स्वगुण के वर्णन तक की मुझ में प्रभुवर शक्ति नहीं ।
चलूँ तुम्हारे पथ पर स्वामी ऐसी भी तो भक्ति नहीं ॥

देव तुम्हारी पूजन करके हृदय कमल मुस्काया है ।
भक्ति भाव उर में जागा है मेरा मन हर्षाया है ॥

तुम गुण का चिन्‍तवन करे जो स्वयं सिद्ध बन जाता है ।
हो निजात्म में लीन दुखों से छुटकारा पा जाता है ॥

अविनश्वर अविकारी सुखमय सिद्ध स्वरूप विमल मेरा ।
मुझमें है मुझसे ही प्रगटेगा स्वरूप अविकल मेरा ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध स्वभावी आत्मा निश्चय सिद्ध स्वरूप ।
गुण अनन्तयुत ज्ञानमय है त्रिकाल शिवभूप ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



सिद्धपूजा🏠
दोहा
चिदानंद स्वातम रसी, सत शिव सुंदर जान ।
ज्ञाता दृष्टा लोक के, परम सिद्ध भगवान ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

वीर छंद
ज्यों-ज्यों प्रभुवर जलपान किया, त्यों त्यों तृष्णा की आग जली ।
थी आस कि प्यास बुझेगी अब, पर यह सब मृगतृष्णा निकली ॥
आशा तृष्णा से जला ह्रदय, जल लेकर चरणों में आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

तन का उपचार किया अब तक, उस पर चंदन का लेप किया ।
मलमल कर खूब नहा कर के, तन के मल का विक्षेप किया ॥
अब आतम के उपचार हेतु, तुमको चंदन सम है पाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर, तुम ही अखंड अविनाशी हो ।
तुम निराकार अविचल निर्मल, स्वाधीन सफल सन्यासी हो ॥
ले शालिकणों का अवलंबन , अक्षयपद तुमको अपनाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

जो शत्रु जगत का प्रबल काम, तुमने प्रभुवर उसको जीता ।
हो हार जगत के बैरी की, क्यों नहीं आनंद बढ़े सब का ॥
प्रमुदित मन विकसित सुमन नाथ, मनसिज को ठुकराने आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

मैं समझ रहा था अब तक प्रभु, भोजन से जीवन चलता है ।
भोजन बिन नरकों में जीवन, भरपेट मनुज क्यों मरता है?
तुम भोजन बिन अक्षय सुखमय, यह समझ त्यागने हूं आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा

आलोक ज्ञान का कारण है, इंद्रिय से ज्ञान उपजता है ।
यह मान रहा था पर क्यों कर, जड़ चेतन सर्जन करता है ॥
मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी, यह भेदज्ञान पा हर्षाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

मेरा स्वभाव चेतनमय है, इसमें जड़ की कुछ गंध नहीं ।
मैं हूँ अखंड चिदपिण्ड चंड, पर से कुछ भी संबंध नहीं ॥
यह धूप नहीं जड़ कर्मों की रज, आज उड़ाने मैं आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ कर्मों का फल विषय भोग, भोगों में मानस रमा रहा ।
नित नई लालसाएं जागी, तन्मय हो उनमें समा रहा ॥
रागादि विभाव किये जितने, आकुलता उनका फल पाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल पिया और चंदन चर्चा, मालाएं सुरभित सुमनों की ।
पहनी तंदुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ॥
सुरभि धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया ॥
आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ॥
जब दृष्टि पड़ी प्रभु जी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ ।
सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ ॥
जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूं आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥9 ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
दोहा
आलोकित हो लोक में, प्रभु परमात्म प्रकाश ।
आनंदामृत पान कर, मिटे सभी की प्यास ॥

पद्धरि
जय ज्ञानमात्र ज्ञायक स्वरूप, तुम हो अनंत चैतन्य भूप ।
तुम हो अखंड आनंद पिंड मोहारि दलन को तुम प्रचंड ॥
राग आदि विकारी भाव जार, तुम हुए निरामय निर्विकार ।
निर्द्वंद निराकुल निराधार, निर्मम निर्मल हो निराकार ॥

नित करत रहत आनंद रास, स्वाभाविक परिणति में विलास ।
प्रभु शिव रमणी के हृदय हार, नित करत रहत निज में विहार ॥
प्रभु भवदधि यह गहरो अपार, बहते जाते सब निराधार ।
निज परिणति का सत्यार्थ भान, शिव पद दाता जो तत्वज्ञान ॥

पाया नहीं मैं उसको पिछान, उल्टा ही मैंने लिया मान ।
चेतन को जड़-मय लिया जान, पर में अपनापा लिया मान ॥
शुभ-अशुभ राग जो दुःखखान, उसमें माना आनंद महान ।
प्रभु अशुभ कर्म को मान हेय, माना पर शुभ को उपादेय ॥

जो धर्म ध्यान आनंद रूप, उसको माना मैं दुख स्वरूप ।
मनवांछित चाहे नित्य भोग, उनको ही माना है मनोज्ञ ॥
इच्छा निरोध की नहीं चाह, कैसे मिटता भव विषय दाह ।
आकुलतामय संसार सुख, जो निश्चय से है महा दुख ॥

उसकी ही निशदिन करी आस, कैसे कटता संसार पास ।
भव दुख का पर को हेतु जान, पर से ही सुख को लिया मान ॥
मैं दान दिया अभिमान ठान, उसके फल पर नहीं दिया ध्यान ।
पूजा कीनी वरदान मांग, कैसे मिटता संसार स्वांग?

तेरा स्वरूप लख प्रभु आज, हो गए सफल संपूर्ण काज ।
मो उर प्रगट्यो प्रभु भेद ज्ञान, मैंने तुमको लीना पिछान ॥
तुम पर के कर्ता नहीं नाथ, ज्ञाता हो सबके एक साथ ।
तुम भक्तों को कुछ नहीं देत, अपने समान बस बना लेत ॥

यह मैंने तेरी सुनी आन, जो लेवे तुमको बस पिछान ।
वह पाता है कैवल्य ज्ञान, होता परिपूर्ण कला निधान ॥
विपदामय पर-पद है निकाम, निज पद ही है आनंद धाम ।
मेरे मन में बस यही चाह, निज पद को पाऊं हे जिनाह ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अनर्घ्य पद प्राप्ताय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
पर का कुछ नहीं चाहता, चाहूं अपना भाव ।
निज स्वभाव में थिर रहूं, मेटो सकल विभाव ॥
पुष्पांजलिम् क्षिपामि



सिद्धपूजा🏠
श्री युगलजी कृत
निज वज्र पौरुष से प्रभो! अन्तर-कलुष सब हर लिये
प्रांजल प्रदेश-प्रदेश में, पीयूष निर्झर झर गये ॥
सर्वोच्च हो अत एव बसते, लोक के उस शिखर रे!
तुमको हृदय में स्थाप, मणि-मुक्ता चरण को चूमते ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

शुद्धातम-सा परिशुद्ध प्रभो! यह निर्मल नीर चरण लाया
मैं पीड़ित निर्मम ममता से, अब इसका अंतिम दिन आया ॥
तुम तो प्रभु अंतर्लीन हुए, तोड़े कृत्रिम सम्बन्ध सभी
मेरे जीवन-धन तुमको पा, मेरी पहली अनुभूति जगी ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा

मेरे चैतन्य-सदन में प्रभु! धू-धू क्रोधानल जलता है
अज्ञान-अमा के अंचल में, जो छिपकर पल-पल पलता है ॥
प्रभु! जहाँ क्रोध का स्पर्श नहीं, तुम बसो मलय की महकों में
मैं इसीलिए मलयज लाया, क्रोधासुर भागे पलकों में ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा

अधिपति प्रभु! धवल भवन के हो, और धवल तुम्हारा अन्तस्तल
अंतर के क्षत सब विक्षत कर, उभरा स्वर्णिम सौंदर्य विमल ॥
मैं महामान से क्षत-विक्षत, हूँ खंड-खंड लोकांत-विभो
मेरे मिट्टी के जीवन में, प्रभु! अक्षत की गरिमा भर दो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

चैतन्य-सुरभि की पुष्पवाटिका, में विहार नित करते हो
माया की छाया रंच नहीं, हर बिन्दु सुधा की पीते हो ॥
निष्काम प्रवाहित हर हिलोर, क्या काम काम की ज्वाला से
प्रत्येक प्रदेश प्रमत्त हुआ, पाताल-मधु मधुशाला से
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा

यह क्षुधा देह का धर्म प्रभो! इसकी पहिचान कभी न हुई
हर पल तन में ही तन्मयता, क्षुत्-तृष्णा अविरल पीन हुई ॥
आक्रमण क्षुधा का सह्य नहीं, अतएव लिये हैं व्यंजन ये
सत्वर तृष्णा को तोड़ प्रभो! लो, हम आनंद-भवन पहुँचे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा

विज्ञान नगर के वैज्ञानिक, तेरी प्रयोगशाला विस्मय
कैवल्य-कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव ॥
पर तुम तो उससे अति विरक्त, नित निरखा करते निज निधियाँ
अतएव प्रतीक प्रदीप लिये, मैं मना रहा दीपावलियाँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा

तेरा प्रासाद महकता प्रभु! अति दिव्य दशांगी धूपों से
अतएव निकट नहिं आ पाते, कर्मो के कीट-पतंग अरे ॥
यह धूप सुरभि-निर्झरणी, मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ
छक गया योग-निद्रा में प्रभु! सर्वांग अमी है बरस रहा ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा

निज लीन परम स्वाधीन बसो, प्रभु! तुम सुरम्य शिव-नगरी में
प्रति पल बरसात गगन से हो, रसपान करो शिव-गगरी में ॥
ये सुरतरुओं के फल साक्षी, यह भव-संतति का अंतिम क्षण
प्रभु! मेरे मंडप में आओ, है आज मुक्ति का उद्घाटन ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा

तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु! मुक्ता-मोदक से सघन हुए
अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूति अनुभूति लिये ॥
हे नाथ! मुझे भी अब प्रतिक्षण, निज अंतर-वैभव की मस्ती
है आज अर्घ्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती ॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
चिन्मय हो, चिद्रूप प्रभु! ज्ञाता मात्र चिदेश
शोध-प्रबंध चिदात्म के, सृष्टा तुम ही एक ॥

जगाया तुमने कितनी बार! हुआ नहिं चिर-निद्रा का अन्त
मदिर सम्मोहन ममता का, अरे! बेचेत पड़ा मैं सन्त ॥
घोर-तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान
निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ॥

ज्ञान की प्रतिपल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम
अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम ॥
किन्तु पर सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी गहल अनन्त
अरे! पाकर खोया भगवान, न देखा मैनें कभी बसंत ॥

नहीं देखा निज शाश्वत देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति
क्षम्य कैसे हों ये अपराध? प्रकृति की यही सनातन रीति ॥
अत: जड़-कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म प्रदेश
और फिर नरक-निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे सर्वेश ॥

घटा घन विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा मेरे शीश
नरक में पारद-सा तन टूक, निगोदों मध्य अनंती मीच ॥
करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव!
अंत में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उसको देव!

दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान
शरण जो अपराधी को दे, अरे! अपराधी वह भगवान ॥
अरे! मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव
शुभाशुभ की जड़ता तो दूर, पराया ज्ञान वहाँ परकीय ॥

अहो चित् परम अकर्त्तानाथ, अरे! वह निष्क्रिय तत्त्व विशेष
अपरिमित अक्षय वैभव-कोष, सभी ज्ञानी का यह परिवेश ॥
बताये मर्म अरे! यह कौन, तुम्हारे बिन वैदेही नाथ?
विधाता शिव-पथ के तुम एक, पड़ा मैं तस्कर दल के हाथ ॥

किया तुमने जीवन का शिल्प, खिरे सब मोहकर्म और गात
तुम्हारा पौरुष झंझावात, झड़ गये पीले-पीले पात ॥
नहीं प्रज्ञा-आवर्त्तन शेष, हुए सब आवागमन अशेष
अरे प्रभु! चिर-समाधि में लीन, एक में बसते आप अनेक ॥

तुम्हारा चित्-प्रकाश कैवल्य, कहें तुम ज्ञायक लोकालोक
अहो! बस ज्ञान जहाँ हो लीन, वही है ज्ञेय, वही है भोग ॥
योग-चांचल्य हुआ अवरुद्ध, सकल चैतन्य निकल निष्कंप
अरे! ओ योगरहित योगीश! रहो यों काल अनंतानंत ॥

जीव कारण-परमात्म त्रिकाल, वही है अंतस्तत्त्व अखंड
तुम्हें प्रभु! रहा वही अवलंब, कार्य परमात्म हुए निर्बन्ध ॥
अहो! निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल पुनीत
अतीन्द्रिय सौख्य चिरंतन भोग, करो तुम धवलमहल के बीच ॥

उछलता मेरा पौरुष आज, त्वरित टूटेंगे बंधन नाथ!
अरे! तेरी सुख-शय्या बीच, होगा मेरा प्रथम प्रभात ॥
प्रभो! बीती विभावरी आज, हुआ अरुणोदय शीतल छाँव
झूमते शांति-लता के कुंज, चलें प्रभु! अब अपने उस गाँव ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

चिर-विलास चिद्ब्रह्म में, चिर-निमग्न भगवंत
द्रव्य-भाव स्तुति से प्रभो!, वंदन तुम्हें अनंत ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



सिद्धपूजा🏠
कविश्री हीराचंद कृत
अडिल्ल छन्द
अष्ट-करम करि नष्ट अष्ट-गुण पाय के,
अष्टम-वसुधा माँहिं विराजे जाय के
ऐसे सिद्ध अनंत महंत मनाय के,
संवौषट् आह्वान करूँ हरषाय के ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

छन्द त्रिभंगी
हिमवन-गत गंगा आदि अभंगा, तीर्थ उतंगा सरवंगा
आनिय सुरसंगा सलिल सुरंगा, करि मन चंगा भरि भृंगा ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

हरिचंदन लायो कपूर मिलायो, बहु महकायो मन भायो
जल संग घिसायो रंग सुहायो, चरन चढ़ायो हरषायो ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल उजियारे शशि-दुति टारे, कोमल प्यारे अनियारे
तुष-खंड निकारे जल सु-पखारे, पुंज तुम्हारे ढिंग धारे ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

सुरतरु की बारी प्रीति-विहारी, किरिया प्यारी गुलजारी
भरि कंचनथारी माल संवारी, तुम पद धारी अतिसारी ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

पकवान निवाजे स्वाद विराजे, अमृत लाजे क्षुध भाजे
बहु मोदक छाजे घेवर खाजे, पूजन काजे करि ताजे ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

आपा-पर भासे ज्ञान प्रकाशे, चित्त विकासे तम नासे
ऐसे विध खासे दीप उजासे, धरि तुम पासे उल्लासे ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

चुंबत अलिमाला गंधविशाला, चंदन काला गरुवाला
तस चूर्ण रसाला करि तत्काला, अग्नि-ज्वाला में डाला ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्ट-कर्म-विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल अतिभारा, पिस्ता प्यारा, दाख छुहारा सहकारा
रितु-रितु का न्यारा सत्फल सारा, अपरंपारा ले धारा ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल-फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा
मेटो भवफंदा सब दु:खदंदा, 'हीराचंदा' तुम वंदा ॥
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला

दोहा
ध्यान-दहन विधि-दारु दहि, पायो पद-निरवान
पंचभाव-जुत थिर थये, नमूं सिद्ध भगवान् ॥१॥

त्रोटक छन्द
सुख सम्यक्-दर्शन-ज्ञान लहा, अगुरु-लघु सूक्षम वीर्य महा
अवगाह अबाध अघायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥२॥
असुरेन्द्र सुरेन्द्र नरेन्द्र जजें, भुवनेन्द्र खगेन्द्र गणेन्द्र भजें
जर-जामन-मर्ण मिटायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥३॥

अमलं अचलं अकलं अकुलं, अछलं असलं अरलं अतुलं
अबलं सरलं शिवनायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥४॥
अजरं अमरं अघरं सुधरं, अडरं अहरं अमरं अधरं
अपरं असरं सब लायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥५॥

वृषवृंद अमंद न निंद लहें, निरदंद अफंद सुछंद रहें
नित आनंदवृंद बधायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥६॥
भगवंत सुसंत अनंत गुणी, जयवंत महंत नमंत मुनी
जगजंतु तणे अघ घायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥७॥

अकलंक अटंक शुभंकर हो, निरडंक निशंक शिवंकर हो
अभयंकर शंकर क्षायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥८॥
अतरंग अरंग असंग सदा, भवभंग अभंग उतंग सदा
सरवंग अनंग नसायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥९॥

ब्रह्मंड जु मंडल मंडन हो, तिहुँ-दंड प्रचंड विहंडन हो
चिद्पिंड अखंड अकायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१०॥
निरभोग सुभोग वियोग हरे, निरजोग अरोग अशोक धरे
भ्रमभंजन तीक्षण सायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥११॥

जय लक्ष अलक्ष सुलक्षक हो, जय दक्षक पक्षक रक्षक हो
पण अक्ष प्रतक्ष खपायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१२॥
अप्रमाद अनाद सुस्वाद-रता, उनमाद विवाद विषाद-हता
समता रमता अकषायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१३॥

निरभेद अखेद अछेद सही, निरवेद अवेदन वेद नहीं
सब लोक-अलोक के ज्ञायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१४॥
अमलीन अदीन अरीन हने, निजलीन अधीन अछीन बने
जम को घनघात बचायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१५॥

न अहार निहार विहार कबै, अविकार अपार उदार सबै
जगजीवन के मनभायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१६॥
असमंध अधंद अरंध भये, निरबंध अखंद अगंध ठये
अमनं अतनं निरवायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१७॥

निरवर्ण अकर्ण उधर्ण बली, दु:ख हर्ण अशर्ण सुशर्ण भली
बलिमोह की फौज भगायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१८॥
अविरुद्ध अक्रुद्ध अजुद्ध प्रभू, अति-शुद्ध प्रबुद्ध समृद्ध विभू
परमातम पूरन पायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥१९॥

विरूप चिद्रूप स्वरूप द्युती, जसकूप अनूपम भूप भुती
कृतकृत्य जगत्त्रय-नायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥२०॥
सब इष्ट अभीष्ट विशिष्ट हितू, उत्कृष्ट वरिष्ट गरिष्ट मितू
शिव तिष्ठत सर्व-सहायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥२१॥

जय श्रीधर श्रीकर श्रीवर हो, जय श्रीकर श्रीभर श्रीझर हो
जय रिद्धि सुसिद्धि-बढ़ायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ॥२२॥

दोहा
सिद्ध-सुगुण को कहि सके, ज्यों विलसत नभमान
'हीराचंद' ता ते जजे, करहु सकल कल्यान ॥२३॥
ॐ ह्रीं श्री अनाहतपराक्रमाय सकलकर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परिमेष्ठिने जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

अडिल्ल छन्द
सिद्ध जजैं तिनको नहिं आवे आपदा
पुत्र-पौत्र धन-धान्य लहे सुख-संपदा ॥
इंद्र चंद्र धरणेद्र नरेन्द्र जु होय के
जावें मुकति मँझार करम सब खोय के ॥२४॥
इत्याशीर्वाद: - पुष्पांजलिं क्षिपेत्



त्रिकाल-चौबीसी-पूजन🏠
श्री निर्वाण आदि तीर्थंकर भूतकाल के तुम्हें नमन ।
श्री वृषभादिक वीर जिनेश्वर वर्तमान के तुम्हें नमन ॥
महापद्म अनंतवीर्य तीर्थंकर भावी तुम्हें नमन ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकर समूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकर समूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकर समूह ! अत्र मम सभिहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

सात तत्त्व श्रद्धा के जल से मिथ्या मल को दूर करूं ।
जन्म जरा भय मरण नाश हित पर विभाव चकचूर करूँ ॥
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

नव पदार्थ को ज्यों का त्यों लख वस्तु तत्त्व पहचान करूँ ।
भव आताप नशाऊँ मैं निज गुण चंदन बहुमान करूँ ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

षट्द्रव्यों से पूर्ण विश्व में आत्म द्रव्य का ज्ञान करूँ ।
अक्षय पद पाने को अक्षत गुण से निज कल्याण करूँ ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

जानूँ मैं पंचास्ति काया को पंच महाव्रत शील धरूँ ।
काम-व्याधि का नाश करूँ निज आत्म पृष्प की सुरभि वरूँ ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव नैवेद्य ग्रहण कर क्षुधा रोग को विजय करूँ ।
तीन लोक चौदह राजु ऊँचे में मोहित अब न फिरूँ ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो ्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

ज्ञान दीप की विमल ज्योति से मोह तिमिर क्षय कर मानूँ ।
त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्य गुण पर्यायें युगपत जानूँ ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

निज समान सब जीव जानकर षट कायक रक्षा पालूँ ।
शुक्ल ध्यान की शुद्ध धूप से अष्ट कर्म क्षय कर डालूँ ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

पंच समिति त्रय गुप्ति पंच इन्द्रिय निरोध व्रत पंचाचार ।
अट्ठाईस मूल गुण पालूँ पंच लब्धि फल मोक्ष अपार ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो महामोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

छियालीस गुण सहित दोष अष्टादश रहित बनूँ अरहन्त ।
गुण अनन्त सिद्धों के पाकर लूँ अनर्घ पद हे भगवन्त ।
भूत भविष्यत्‌ वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ ।
क्रोध लोभ मद माया हर कर मोह क्षोभ को शमन करूँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, भविष्य, वर्तमान जिनतीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्री भूतकाल चौबीसी
जय निर्वाण, जयति सागर, जय महासाधु, जय विमल, प्रभो ।
जय शुद्धाभ, देव जय श्रीधर, श्रीदत्त सिद्धाभ, विभो ॥
जयति अमल प्रभु, जय उद्धार, देव जय अग्नि देव संयम ।
जय शिवगण, पुष्पांजलि, जय उत्साह, जयति परमेश्वर नम ॥
जय ज्ञानेश्वर, जय विमलेश्वर, जयति यशोधर, प्रभु जय जय
जयति कृष्णमति, जयति ज्ञानमति, जयति शुद्धमति जय जय जय ॥
जय श्रीभद्र, अनंतवीर्य जय भूतकाल चौबीसी जय ।
जंबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के जिन तीर्थंकर की जय जय ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूतकाल चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

श्री वर्तमान काल चौबीसी
ऋषभदेव, जय अजितनाथ, प्रभु संभव स्वामी, अभिनन्‍दन ।
सुमतिनाथ, जय जयति पद्मप्रभु, जय सुपार्श्व, चंदा प्रभु जिन ॥
पुष्पदंत, शीतल, जिन स्वामी जय श्रेयांस नाथ भगवान ।
वासुपूज्य, प्रभु विमल, अनंत, सु धर्मनाथ, जिन शांति महान ॥
कुनथुनाथ, अरनाथ, मल्लि, प्रभु मुनिसुव्रत, नमिनाथ जिनेश ।
नेमिनाथ, प्रभु पार्श्वनाथ, प्रभु महावीर, प्रभु महा महेश ॥
पूज्य पंच कल्याण विभूषित वर्तमान चौबीसी जय ।
जंबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के तीर्थंकरेभ्यो प्रभु की जय जय ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी वर्तमान काल चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

श्री भविष्य काल चौबीसी
जय प्रभु महापद्म सुरप्रभ, जय सुप्रभ, जयति स्वयंप्रभु, नाथ ।
सर्वायुध, जयदेव, उदयप्रभ, प्रभादेव, जय उदंक नाथ ॥
प्रश्नकीर्ति, जयकीर्ति जयति जय पूर्ण बुद्धि, निःकषाय जिनेश ।
जयति विमल प्रभु जयति बहुल प्रभु, निर्मल, चित्र गुप्ति, परमेश ॥
जयति समाधि गुप्ति, जय स्वयंप्रभु, जय कंदर्प, देव जयनाथ ।
जयति विमल, जय दिव्यवाद, जय जयति अनंतवीर्य, जगन्नाथ ॥
जंबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के तीर्थंकरेभ्यो प्रभु की जय जय ।
भूत, भविष्यत्‌ वर्तमान त्रय चौबीसी की जय जय जय ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भविष्यकाल चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
तीनकाल त्रय चौबीसी के नमूँ बहत्तर तीर्थंकर ।
विनयभक्ति से श्रद्धापूर्वक पाऊँ निज पद प्रभु सत्वर ॥
मैंने काल अनादि गंवाया पर-पदार्थ में रच पचकर ।
पर-भावों में मग्न रहा मैं निज भावों से बच बचकर ॥

इसीलिये चारों गतियों के कष्ट अनंत सहे मैंने ।
धर्म मार्ग पर द्वष्टि न डाली कर्म कुपंथ गहे मैंने ॥
आज पुण्य संयोग मिला प्रभु शरण आपकी मैं आया ।
भव-भव के अघ नष्ट हो गये मानों चितांमणि पाया ॥

हे प्रभु मुझको विमल ज्ञान दो सम्यक् पथ पर आ जाऊँ ।
रत्नत्रय की धर्म-नाव चढ़ भव सागर से तर जाऊँ ॥
सम्यक् दर्शन अष्ट अंग सह अष्टभेद सह सम्यक् ज्ञान ।
तेरह विध चारित्र धार लूँ द्वादश तप भावना प्रधान ॥

हे जिनवर ! आशीर्वाद दो निज स्वरूप में रम जाऊँ ।
निज स्वभाव अवलम्बन द्वारा शाश्वत निज-पद प्रगटाऊँ ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूत, वर्तमान, भविष्य काल चतुर्विंशति पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

तीनकाल की त्रय चौबीसी की महिमा है अपरम्पार ।
मन-वच-तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते भव से पार ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



चौबीस-तीर्थंकर🏠
कविवर वृन्दावनदास कृत
वृषभ अजित सम्भव अभिनन्दन, सुमति पदम सुपार्श्व जिनराय
चन्द पुहुप शीतल श्रेयांस जिन, वासुपूज्य पूजित सुरराय ॥
विमल अनन्त धर्म जस-उज्जवल, शांति कुंथु अर मल्लि मनाय
मुनिसुव्रत नमि नेमि पार्श्व प्रभु, वर्धमान पद पुष्प चढ़ाय ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

मुनि-मन-सम उज्ज्वल नीर, प्रासुक गन्ध भरा
भरि कनक-कटोरी धीर, दीनी धार धरा ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

गोशीर कपूर मिलाय, केशर-रंग भरी
जिन-चरनन देत चढ़ाय, भव-आताप हरी ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तन्दुल सित सोम -समान सुन्दर अनियारे
मुक्ता फल की उनमान पुञ्ज धरों प्यारे ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

वर-कंज कदम्ब कुरण्ड, सुमन सुगन्ध भरे
जिन-अग्र धरों गुन-मण्ड, काम-कलंक हरे ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

मन-मोदन मोदक आदि, सुन्दर सद्य बने
रस-पूरित प्रासुक स्वाद, जजत क्षुधादि हने ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

तम-खण्डन दीप जगाय, धारों तुम आगै
सब तिमिर मोहक्षय जाय, ज्ञान-कला जागै ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

दशगन्ध हुताशन माहिं, हे प्रभु! खेवत हों
मिस-धूम करम जर जाहिं, तुम पद सेवत हों ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

शुचि पक्व सुरस फल सार, सब ऋतु के ल्यायो
देखत दृग-मनको प्यार, पूजत सुख पायो ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ्य करों
तुमको अरपों भवतार, भव तरि मोक्ष वरों ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द-कन्द सही
पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष-मही ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
श्रीमत तीरथनाथ-पद, माथ नाय हित हेत
गाऊँ गुणमाला अबै, अजर अमर पद देत ॥

जय भव-तम भंजन, जन-मन-कंजन, रंजन दिन-मनि, स्वच्छ करा
शिव-मग-परकाशक, अरिगण-नाशक, चौबीसों जिनराज वरा ॥

जय ऋषभदेव रिषि-गन नमन्त,
जय अजित जीत वसु-अरि तुरन्त ।
जय सम्भव भव-भय करत चूर,
जय अभिनन्दन आनन्द-पूर ॥१॥

जय सुमति सुमति-दायक दयाल,
जय पद्म पद्म द्युति तनरसाल ।
जय जय सुपार्श्व भव-पास नाश,
जय चन्द चन्द-तनद्युति प्रकाश ॥२॥

जय पुष्पदन्त द्युति-दन्त-सेत,
जय शीतल शीतल-गुननिकेत ।
जय श्रेयनाथ नुत-सहसभुज्ज,
जय वासव-पूजित वासुपुज्ज ॥३॥

जय विमल विमल-पद देनहार,
जय जय अनन्त गुन-गण अपार ।
जय धर्म धर्म शिव-शर्म देत,
जय शान्ति शान्ति पुष्टी करेत ॥४॥

जय कुन्थु कुन्थुवादिक रखेय,
जय अरजिन वसु-अरि छय करेय ।
जय मल्लि मल्ल हत मोह-मल्ल,
जय मुनिसुव्रत व्रत-शल्ल-दल्ल ॥५॥

जय नमि नित वासव-नुत सपेम,
जय नेमिनाथ वृष-चक्र नेम ।
जय पारसनाथ अनाथ-नाथ,
जय वर्द्धमान शिव-नगर साथ ॥६॥

धत्ता
चौबीस जिनन्दा, आनन्द-कन्दा, पाप-निकन्दा, सुखकारी
तिन पद-जुग-चन्दा, उदय अमन्दा, वासव-वन्दा, हितकारी ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

भुक्ति-मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर
तिन-पद मन-वच-धार, जो पूजै सो शिव लहै ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



चौबीस-तीर्थंकर🏠
भरत क्षेत्र की वर्तमान जिन चौबीसी को करूँ नमन ।
वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर के पद पंकज में वन्दन ॥
भक्ति भाव से नमस्कार कर विनय सहित करता पूजन।
भव सागर से पार करो प्रभु यही प्रार्थना है भगवन ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति जिनसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति जिनसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति जिनसमूह ! अत्र मम सभिहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

आत्मज्ञान वैभव के जल से यह भव तृषा बुझाऊँगा ।
जन्मजरा हर चिदानन्द चिन्मयकी ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव के चन्दन से भवताप नशाऊँगा ।
भवबाधा हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव के अक्षत से अक्षय पद पाऊँगा।
भवसमुद्र तिर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव के पुष्पों से मैं काम नशाऊँगा।
शीलोदधि पा चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव के चरु ले क्षुधा व्याधि हर पाऊँगा ।
पूर्ण तृप्ति पा चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव दीपक से भेद ज्ञान प्रगटाऊँगा ।
मोहतिमिर हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव को निज में शुचिमय धूप चढ़ाऊँगा ।
अष्टकर्म हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव के फल से शुद्ध मोक्ष फल पाऊँगा ।
राग-द्वेष हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो महामोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

आत्मज्ञान वैभव का निर्मल अर्घ्य अपूर्व बनाऊँगा ।
पा अनर्घ्य पद चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारुंगा ।
पर-द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारुंगा ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
भव्य दिगम्बर जिन प्रतिमा नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी ।
जिन दर्शन पूजन अघ-नाशक भव-भव में कल्याणमयी ॥
वृषभदेव के चरण पखारूं मिथ्या तिमिर विनाश करूँ ।
अजितनाथ पद वन्दन करके पंच पाप मल नाश करूँ ॥

सम्भव जिन का दर्शन करके सम्यक्दर्शन प्राप्त करूँ ।
अभिनन्दन प्रभु पद अर्चन कर सम्यक्ज्ञान प्रकाश करूँ ॥
सुमतिनाथ का सुमिरण करके सम्यकचारित हृदय धरूँ ।
श्री पदम प्रभु का पूजन कर रत्नत्रय का वरण करूँ ॥

श्री सुपार्श्व की स्तुति करके मैं मोह ममत्व अभाव करूँ ।
चन्दाप्रभु के चरण चित्त धर चार कषाय अभाव करूँ ॥
पुष्पदंत के पद कमलों में बारम्बार प्रणाम करूँ ।
शीतल जिनका सुयशगान कर शाश्वत शीतल धाम वरूँ ॥

प्रभु श्रेयांसनाथ को बन्दू श्रेयस पद की प्राप्ति करूँ ।
वासुपूज्य के चरण पूज कर मैं अनादि की भ्रांति हरूँ ॥
विमल जिनेश मोक्षपद दाता पंच महाव्रत ग्रहण करूँ ।
श्री अनन्तप्रभु के पद बन्दू पर परणति का हरण करूँ ॥

धर्मनाथ पद मस्तक धर कर निज स्वरूप का ध्यान करूँ।
शांतिनाथ की शांत मूर्ति लख परमशांत रस पान करूँ ॥
कुंथनाथ को नमस्कार कर शुद्ध स्वरूप प्रकाश करूँ ।
अरहनाथ प्रभु सर्वदोष हर अष्टकर्म अरि नाश करूँ ॥

मल्लिनाथ की महिमा गाऊँ मोह मल्ल को चूर करूँ ।
मुनिसुव्रत को नित प्रति ध्याऊं दोष अठारह दूर करूँ ॥
नमि जिनेश को नमन करूँ मैं निजपरिणति में रमण करूँ ।
नेमिनाथ का नित्य ध्यान धर भाव शुभा-शुभ शमन करूँ ॥

पार्श्वनाथ प्रभु के चरणाम्बुज दर्शन कर भव भार हरूँ ।
महावीर के पथ पर चलकर मैं भव सागर पार करूँ ॥
चौबीसों तीर्थंकर प्रभु का भाव सहित गुणगान करूँ ।
तुम समान निज पद पाने को शुद्धातम का ध्यान करूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्री चौबीस जिनेश के चरण कमल उर धार ।
मन, वच, तन, जो पूजते वे होते भव पार ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



अनन्त-तीर्थंकर-पूजन🏠
ढाई द्वीप के भूतकाल में हुए अनंतों तीर्थंकर ।
वर्तमान में भी होते हैं ढाई द्वीप में तीर्थंकर ॥
अरु भविष्य में भी अनंत तीर्थंकर होंगे मंगलकर ।
इन सबको वन्दन करता हूँ विनयभाव उर में धर कर ॥
भक्तिभाव से अनन्त तीर्थंकर की करता हूँ पूजन ।
सकल तीर्थंकर वन्दन कर पाऊँ प्रभु सम्यक् दर्शन ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

अष्टक -- वीरछंद
रत्नत्रय रूपी सम्यक् जल की धारा उर लाऊँ आज ।
जन्म जरा मरणादि रोग हर मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी सम्यक् चंदन का तिलक लगाऊँ आज ।
भवातापज्वर पूर्ण नाश कर मैं भी पाऊँ निज-पद राज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी सम्यक्‌ अक्षत्‌ प्रभु चरण चढ़ाऊँ आज ।
अक्षयपद की प्राप्ति करूँ प्रभु मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी गुण पुष्पों से निज हृदय सजाऊँ आज ।
कामबाण की व्यथा विनाशू मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी अनुभव रसमय चरू चरण चढ़ाऊँ आज ।
अनाहार सुख प्राप्त करूँ प्रभु मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी दीपक की जग मग ज्योति जगाऊँ आज ।
मोह तिमिर मिथ्यात्व नष्ट कर मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्‍दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी स्वध्यानमय धूप हृदय में लाऊँ आज ।
अष्टकर्म सम्पूर्ण नष्ट कर मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी तरु के फल ज्ञान शक्ति से लाऊँ आज ।
पूर्ण मोक्षफल प्राप्त करूँ प्रभु मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा

रत्नत्रय रूपी गुण अर्ध्य बनाऊँ प्रभु निज हित के काज ।
पद अनर्ध्य प्रगटाऊँ शाश्वत मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥
भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त ।
विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

महाअर्ध्य
वीरछंद
तीन लोक में मध्य लोक है मध्य लोक में जम्बू द्वीप ।
द्वितीय धातकीखंड द्वीप है जो भव्यों के सदा समीप ॥
तीजे पुष्कर का है आधा पुष्करार्ध नाम विख्यात ।
ये ही ढ़ाई द्वीप कहाते पंचमेरू इनमें प्रख्यात ॥

मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदर, विधुन्माली क्रमक्रम ।
इनके दक्षिण भरत तथा उत्तर में ऐरावत अनुपम ॥
इन पाँचों के पूरब पश्चिम नाम विदेह क्षेत्र विख्यात ।
इन सबमें तीर्थंकर होते कर्म भूमि हैं ये प्रख्यात ॥

इन सब में पाँचों कल्याणक वाले तीर्थंकर होते ।
गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष कल्याण ये पाँचों होते ॥
पर विदेह में तीन कल्याणक वाले भी प्रभु होते हैं ।
तप अरु ज्ञान, मोक्ष कल्याणक वाले जिनवर होते हैं ॥

दो कल्याणक वाले तीर्थंकर भी इनमें होते हैं ।
ज्ञान और मोक्ष कल्याणक पवित्र इनके होते हैं ॥
अरु भविष्य में भी अनंत तीर्थंकर होंगे इसी प्रकार ।
स्वयं तिरेंगे अन्यों को भी तारेंगे ले जा भव पार ॥

त्रिकालवर्ती अनंत तीर्थंकर प्र्भुओं को है विनय प्रणाम ।
नाम अनंतानंत आपके कैसे जपूँ आपके नाम ॥
तीन लोक के सकल तीर्थंकर पूजन का जागा भाव ।
पूजन का फ़ल यही चाहता मैं भी दुख का करूँ अभाव ॥
दोहा
महा अर्घ्य अर्पण करूँ तीर्थंकर जिनराज ।
नमूँ अनंतानंत प्रभु॒ त्रिकालवर्ती आज ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
छंद-दिग्वधू
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ।
अतएव अनंते दुख सहते आये हो तुम ॥

मिथ्या भ्रम मद पीकर चहुँगति में भ्रमण किया ।
भव-पीड़ा हरने को निज ज्ञान न हृदय लिया ॥
भवदुख धारा में ही बहते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

सुख पाना चाहो तो सत्पथ पर आ जाओ ।
तत्त्वाभ्यास करके निज निर्णय उर लाओ ॥
भव-ज्वाला के भीतर जलते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

पहिले समकित धन लो उर भेद ज्ञान करके ।
मिथ्यात्व मोह नाशो अज्ञान सर्व हर के ॥
शुभ अशुभ जाल में ही जलते आए हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

फिर अविरति जय करके अणुव्रत धारण करना ।
फिर तीन चौकडी हर संयम निज उर धरना ॥
बिन व्रत खोटी गति में जाते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

अब दुष्ट प्रमाद नहीं आयेगा जीवन भर ।
मिल जायेगा तुमको अनुभव रस का सागर ॥
निज अनुभव बिन जग में थमते आए हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

झट धर्म-ध्यान उर धर आगे बढ़ते जाना ।
उर शुक्ल-ध्यान लेकर श्रेणी पर चढ़ जाना ॥
कर भाव मरण प्रतिपल मरते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

फिर यथाख्यात लेकर घातिया नाश करना ।
कैवल्य ज्ञान रवि पा सर्वज्ञ स्वपद वरना ॥
निज ज्ञान बिना सुध-बुध खोते आए हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

फिर अघातिया क्षय हित योगों को विनशाना ।
कर शेष कर्म सब क्षय सिद्धत्व स्वगुण पाना ॥
ध्रुवध्यान बिना भव में भ्रमते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

इस विधि से ही चेतन निज शिव सुख पाओगे ।
शिव पथ खुलते ही झट शिवपुर में जाओगे ॥
पर घर में रह बहुदुख पाते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

निज मुक्ति-वधु के संग परिणय होगा पावन ।
पाओगे सौख्य अतुल तुम मोक्ष मध्य प्रतिक्षण ॥
शिवसुख भी भव जल में धोते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ।

लौटोगे फ़िर न कभी ध्रुव सिद्ध-शिला पाकर ।
ध्रुवधाम राज्य पाकर हो जाओगे शिवकर ॥
अपने अनंत गुण बिन रोते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

आनन्द अतीन्द्रिय की धारा है महामनोज्ञ ।
सिद्धों समान सब ही प्राणी हैं पूरे योग्य ॥
अपना स्वरूप भूले क्यों बौराये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

निजज्ञान क्रिया से ही मिलता है सिद्ध स्वपद ।
तब ही त्रिकालवर्ती जिन तजते सकल अपद ॥
निज पद तज पर पद ही भजते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

जितने तीर्थेश हुए सबने पर पद त्यागे ।
अपने स्वभाव में ही प्रतिपल प्रतिक्षण लागे ॥
अब तक आस्रव को ही ध्याते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

अवसर अपूर्व पाया निज का चिन्तन करलो ।
तीर्थंकर दर्शन कर सारे बन्धन हरलो ॥
जब भी अवसर आया खोते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

मैं बार-बार क्‍न्दूँ तीर्षेश अनंतानंत ।
चहुँगति दुख हर पाऊँ पंचमगति सुख भगवंत ।
पर के ही गीत सदा गाते आये हो तुम ।
रागें की हवेली में रहते आये हो तुम ॥

सद्गुरु की सीख सुनो फिर कभी न उलझोगे ।
बोलो कब चेतोगे कब तक तुम सुलझोगे ॥
कब से कल कल कल कल कहते आये हो तुम ।
रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

आशीर्वाद -- वीरछन्द
ढाईद्वीप के मध्य हुए हो रहे तथा होंगे जिनराज ।
भूत विद्य भावी अनंत तीर्थंकर मैंने पूजे आज ॥
तीर्थंकर प्रभु के चरणों में प्रभु पाऊँ सम्यक् दर्शन ।
रत्नत्रय को धारण करके नाश करूँ भव के बंधन ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



श्री-वीतराग-पूजन🏠
ब्र. श्री रवीन्द्रजी 'आत्मन' कृत
दोहा
शुद्धातम में मगन हो, परमातम पद पाय ।
भविजन को शुद्धात्मा, उपादेय दरशाय ॥
जाय बसे शिवलोक में, अहो अहो जिनराज ।
वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, आयो पूजन काज ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री ववीतराग देव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री ववीतराग देव! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

ज्ञानानुभूति ही परमामृत है, ज्ञानमयी मेरी काया ।
है परम पारिणामिक निष्क्रिय, जिसमें कुछ स्वांग न दिखलाया ॥
मैं देख स्वयं के वैभव को, प्रभुवर अति ही हर्षाया हूँ ।
अपनी स्वाभाविक निर्मलता, अपने अन्तर में पाया हूँ ॥
थिर रह न सका उपयोग प्रभो, बहुमान आपका आया है ।
समतामय निर्मल जल ही प्रभु, पूजन के योग्य सुहाया है ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

है सहज अकर्ता ज्ञायक प्रभु, ध्रुव रूप सदा ही रहता है ।
सागर की लहरों सम जिसमें, परिणमन निरन्तर होता है ॥
हे शान्ति सिन्धु ! अवबोधमयी, अदृभुत तृप्ति उपजाई है ।
अब चाह दाह प्रभु शमित हुई, शीतलता निज में पाई है ॥
विभु अशरण जग में शरण मिले, बहुमान आपका आया है ।
चैतन्य सुरभिमय चन्दन ही, पूजन के योग्य सुहाया है ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अब भान हुआ अक्षय पद का, क्षत् का अभिमान पलाया है ।
प्रभु निष्कलंक निर्मल ज्ञायक, अविचल अखण्ड दिखलाया है ॥
जहाँ क्षायिक भाव भी भिन्न दिखे, फिर अन्यभाव की कौन कथा ।
अक्षुण्ण आनन्द निज में विलसे, निःशेष हुई अब सर्व व्यथा ॥
अक्षय स्वरूप दातार नाथ, बहुमान आपका आया है ।
निरपेक्ष भावमय अक्षत ही, पूजन के योग्य सुहाया है ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

चैतन्य ब्रह्म की अनुभूतिमय, ब्रह्मचर्य रस प्रगटाया ।
भोगों की अब मिटी वासना, दुर्विकल्प भी नहीं आया ॥
भोगों के तो नाम मात्र से भी, कम्पित मन हो जाता ।
मानों आयुध से लगते हैं, तब त्राण स्वयं में ही पाता ॥
हे कामजयी निज में रम जाऊँ, यही भावना मन आनी।
श्रद्धा सुमन समर्पित जिनवर, कामबुद्धि सब विसरानी ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

निज आत्म अतीन्द्रियरस पीकर, तुम तृप्त हुए त्रिभुवनस्वामी ।
निज में ही सम्यक दृष्टि की, विधि तुम से सीखी ज़गनामी ॥
अब कर्ता भोक्ता बुद्धि छोड, ज्ञाता रह निज रस पान करूँ ।
इन्द्रिय विषयों की चाह मिटी, सर्वांग सहज आनन्दित हूँ ॥
निज में ही ज्ञानानन्द मिला, बहुमान आपका आया है ।
परम तृप्तिमय अकृतबोध ही, पूजन के योग्य सुहाया है ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोहान्धकार में भटका था, सम्यक प्रकाश निज में पाया ।
प्रतिभासित होता हुआ स्वज्ञायक, सहज स्वानुभव में आया ॥
इन्द्रिय बिन सहज निरालम्बी प्रभु, सम्यकज्ञान ज्योति प्रगटी ।
चिरमोह अंधेरी हे जिनवर, अब तुम समीप क्षण में विघटी ॥
अस्थिर परिणति में हे भगवन ! बहुमान आपका आया है ।
अविनाशी केवलज्ञान जगे, प्रभु ज्ञानप्रदीप जलाया है ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

निष्क्रिय निष्कर्ष परम ज्ञायक, ध्रुव ध्येय स्वरूप अहो पाया ।
तब ध्यान अग्नि प्रज्जवलित हुई, विघटी परपरिणति की माया ॥
जागी प्रतीति अब स्वयं सिद्ध, भव भ्रमण भ्रान्ति सब दूर हुई ।
असंयुक्त निर्बन्ध सुनिर्मल, धर्म परिणति प्रकट हुई ॥
अस्थिरताजन्य विकार मिटे, मैं शरण आपकी हूँ आया ।
बहुमानभावमय धूप धरूँ, निष्कर्म तत्त्व मैने पाया ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

है परिपूर्ण सहज ही आतम, कमी नहीं कुछ दिखलावे ।
गुण अनन्त संपन्न प्रभु, जिसकी दृष्टि में आ जावे ॥
होय अयाची लक्ष्मीपति, फिर वांछा ही नहीं उपजावे ।
स्वात्मोपलब्धिमय मुक्तिदशा का, सत्पुरषार्थ सु प्रगटावै ॥
अफलदृष्टि प्रगटी प्रभुवर, बहुमान आपका आया है ।
निष्काम भावमय पूजन का, विभु परमभाव फल पाया है ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

निज अविचल अनर्घ्य पद पाया, सहज प्रमोद हुआ भारी ।
ले भावर्घ्य अर्चना करता, निज अनर्घ्य वैभव धारी ।
चक्री इंद्रादिक के पद भी, नहीं आकर्षित कर सकते ।
अखिल विश्व के रम्य भोग भी, मोह नहीं उपजा सकते ॥
निजानन्द में तृप्तिमय ही , होवे काल अनन्त प्रभो! ।
ध्रुव अनुपम शिव पदवी प्रगटे, निश्चय ही भगवंत अहो ! ॥
ॐ ह्रीं वीतराग देव! अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला --छन्द-चामर
प्रभो आपने एक ज्ञायक बताया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥

यही रूप मेरा मुझे आज भाया,
महानंद मैंने स्वयं में ही पाया ॥
भव-भव भटकते बहुत काल बीता,
रहा आज तक मोह-मदिरा ही पीता ॥
फिरा ढूँढता सुख विषयों के माहीं,
मिली किन्तु उनमें असह्य वेदना ही ॥
महाभाग्य से आपको देव पाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥

कहाँ तक कहूँनाथ महिमा तुम्हारी,
निधि आत्मा की सु दिखलाई भारी ॥
निधि प्राप्ति की प्रभु सहज विधि बताई,
अनादि की पामरता बुद्धि पलाई ॥
परमभाव मुझको सहज ही दिखाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥

विस्मय से प्रभुवर भी तुमको निरखता,
महामूढ दुखिया स्वयं को समझता ॥
स्वयं ही प्रभु हूँ दिखे आज मुझको,
महा हर्ष मानों मिला मोक्ष ही हो ॥
मैं चिन्मात्र ज्ञायक हूँ अनुभव में आया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥

अस्थिरता जन्य प्रभो दोष भारी,
खटकती है रागादि परिणति विकारी ॥
विश्वास है शीघ्र ये भी मिटेगी,
स्वभाव के सन्मुख यह कैसे टिकेगी ॥
नित्य-निरंजन का अवलम्ब पाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥

दृष्टि हुई आप सम ही प्रभो जब,
परिणति भी होगी तुम्हारे ही सम तब ॥
नहीं मुझको चिंता मैं निर्दोष ज्ञायक,
नहीं पर से सम्बन्ध मैं ही ज्ञेय ज्ञायक ॥
हुआ दुर्विकल्पों का जिनवर सफाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥

सर्वांग सुखमय स्वयं सिद्ध निर्मल,
शक्ति अनन्तमयी एक अविचल ॥
बिन्मूर्ति चिन्मूर्ति भगवान आत्मा,
तिहूँजग में नमनीय शाश्वत चिदात्मा ॥
हो अद्वैत वन्दन प्रभो हर्ष छाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥
ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
दोहा
आपही ज्ञायक देव हैं, आप आपका ज्ञेय ।
अखिल विश्व में आपही, ध्येय ज्ञेय श्रद्धेय ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



रत्नत्रय-पूजन🏠
पं द्यानतरायजी कृत
चहुंगति-फनि-विष-हरन-मणि, दुख-पावक-जल-धार
शिव-सुख-सुधा-सरोवरी, सम्यक्-त्रयी निहार ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

अष्टक - सोरठा छन्द
क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहनो
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय जन्म जरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

चंदन-केशर गारि, परिमल-महा-सुगंध-मय
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल अमल चितार, वासमती-सुखदास के
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

महके फूल अपार, अलि गुंजै ज्यों थुति करैं
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसानाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीप रतनमय सार, जोत प्रकाशै जगत में
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

धूप सुवास विथार, चंदन अगर कपूर की
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

फल शोभा अधिकाय, लौंग छुहारे जायफल
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

आठ दरब निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूं ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

सम्यक् दरशन ज्ञान, व्रत शिव-मग तीनों मयी
पार उतारन यान, 'द्यानत' पूजौं व्रत सहित ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
इत्याशीर्वादः - पुष्पांजलिं क्षिपेत्



सम्यकदर्शन🏠
द्यानतरायजी कृत
सिद्ध अष्ट-गुणमय प्रगट, मुक्त-जीव-सोपान
ज्ञान चरित जिंह बिन अफल, सम्यक् दर्श प्रधान ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शन! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

नीर सुगंध अपार, तृषा हरे मल छय करे
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करे
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अछत अनूप निहार, दारिद नाशे सुख भरे
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नेवज विविध प्रकार, छुधा हरे थिरता करे
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीप-ज्योति तमहार, घट पट परकाशे महा
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

धूप घ्रान-सुखकार, रोग विघन जड़ता हरे
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल आदि विथार, निहचे सुर-शिव-फल करै
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
आप आप निहचै लखे, तत्त्व-प्रीति व्योहार
रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अष्ट गुन सार ॥
सम्यक् दरशन-रत्न गहीजै, जिन-वच में संदेह न कीजै
इह भव विभव-चाह दुखदानी, पर-भव भोग चहे मत प्रानी ॥
प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरम गुरु प्रभु परखिये
पर-दोष ढकिये, धरम डिगते को सुथिर कर, हरखिये ॥
चहुं संघ को वात्सल्य कीजै, धरमकी परभावना
गुन आठ सों गुन आठ लहिके, इहां फेर न आवना ॥

ॐ ह्रीं अष्टांगसहित पंचविंशति दोषरहित सम्यग्दर्शनाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
इत्याशीर्वादः - पुष्पांजलिं क्षिपेत्



सम्यकज्ञान🏠
पंच भेद जाके प्रकट, ज्ञेय-प्रकाशन-भान
मोह-तपन हर चंद्रमा सोई सम्यक् ज्ञान ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञान! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञान! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

नीर सुगंध अपार, तृषा हरे मल छय करे
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करे
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यरग्ज्ञानाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा

अछत अनूप निहार, दारिद नाशे सुख भरे
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नेवज विविध प्रकार, छुधा हरे थिरता करे
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीप-ज्योति तम-हार, घट-पट परकाशे महा
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

धूप घ्रान-सुखकार रोग विघन जड़ता हरे
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल आदि विथार निहचे सुर-शिव फल करे
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
आप आप जाने नियत, ग्रन्थ पठन व्यौहार
संशय विभ्रम मोह बिन, अष्ट अंग गुनकार ॥

सम्यक् ज्ञान-रतन मन भाया, आगम तीजा नैन बताया
अक्षर शुद्ध अर्थ पहिचानो, अक्षर अरथ उभय संग जानो ॥
जानो सुकाल-पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये
तप रीति गहि बहु मौन देके, विनय गुण चित लाइये ॥
ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान-दर्पण देखना
इस ज्ञान ही सों भरत सीझे, और सब पटपेखना ॥

ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
इत्याशीर्वादः -- पुष्पांजलिं क्षिपेत्



सम्यकचारित्र🏠
विषय-रोग औषध महा, दव-कषाय जल-धार
तीर्थंकर जाको धरे सम्यक् चारित्र सार ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

नीर सुगन्ध अपार, तृषा हरे मल छय करे
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा

जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करे
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय चदनं निर्वपामीति स्वाहा

अछत अनूप निहार, दारिद नाशे सुख भरे
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नेवज विविध प्रकार, छुधा हरे थिरता करे
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीप-ज्योति तम-हार, घट-पट परकाशे महा
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

धूप घ्रान-सुखकार रोग विघन जड़ता हरे
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल आदि विथार निहचे सुर-शिव फल करे
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु
सम्यक् चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
आप आप थिर नियत नय, तप संजम व्यौहार
स्व-पर-दया दोनों लिये, तेरहविध दुखहार ॥

चौपाई मिश्रित गीता छन्द
सम्यक् चारित रतन संभालो, पांच पाप तजिके व्रत पालो ।
पंचसमिति त्रय गुपति गहिजे, नरभव सफल करहु तन छीजे ॥
छीजे सदा तन को जतन यह, एक संजम पालिये ।
बहु रुल्यो नरक-निगोद माहीं, विषय-कषायनि टालिये ॥
शुभ करम जोग सुघाट आयो, पार हो दिन जात है ।
'द्यानत' धरम की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥

ॐ ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

समुच्चय-जयमाला
सम्यक् दरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय
अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जलैं दव-लोय ॥

चौपाई 16 मात्रा
जापै ध्यान सुथिर बन आवे, ताके करम-बंध कट जावें
तासों शिव-तिय प्रीति बढ़ावे, जो सम्यक् रत्न-त्रय ध्यावें ॥।१॥
ताको चहुं गति के दुख नाहीं, सो न परे भव-सागर माहीं
जनम-जरा-मृतु दोष मिटावे, जो सम्यक् रत्न-त्रय ध्यावे ॥२॥
सोई दश लक्षनको साधे, सो सोलह कारण आराधे
सो परमातम पद उपजावे, जो सम्यक् रत्न-त्रय ध्यावे ॥३॥
सो शक्र-चक्रिपद लेई, तीन लोक के सुख विलसेई
सो रागादिक भाव बहावै, जो सम्यक् रत्न-त्रय ध्यावे ॥४॥
सोई लोकालोक निहारे, परमानंद दशा विस्तारे
आप तिरै औरन तिरवावे, जो सम्यक् रत्न-त्रय ध्यावे ॥५॥

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्रेभ्यः महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

एक स्वरुप-प्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय
तीन भेद व्योहार सब, 'द्यानत' को सुखदाय ॥
इत्याशीर्वादः -- पुष्पांजलिं क्षिपेत्




दशलक्षण-धर्म🏠
द्यानतरायजी कृत
उत्तम क्षमा मारदव आरजव भाव हैं,
सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं,
चहुँगति-दुखतैं काढ़ि मुकति करतार हैं ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
अन्वयार्थ : उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव ये जीव के भाव हैं, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग ये मोक्ष प्राप्ति के उपाय हैं, उत्तम आकिंचन, उत्तम ब्रह्मचर्य ये दस धर्म में सार है अर्थात् उत्कृष्ट हैं । ये दश धर्म चारों गतियों के दुःखों से निकालकर मोक्ष सुख को करने वाले हैं ।

हेमाचल की धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्माय जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हिमवन पर्वत से निकलने वाली धारा के जल (गंगा नदी का जल) मुनिराजों के मन के समान निर्मल शीतल और सुगंधित जल से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की सदा पूजा करता हूँ ।

चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : दशो दिशाओं को सुगंधित करने वाले चन्दन और केशर को घिसकर संसार की ताप को नष्ट करने के लिए दश लक्षण धर्म की पूजा करता हूं ।

अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : मलरहित अखण्ड, (जो टूटे हुए न हो) उत्कृष्ट चन्द्रमा के समान श्वेत उज्जवल चावलों से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की हमेशा पूजा करता हूँ ।

फूल अनेक प्रकार, महकें ऊरध-लोकलों
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार के पुष्पों से जिनकी सुगंधी ऊर्ध्व लोक तक फैल रही है । भव की ताप को नष्ट करने के लिए 'दश लक्षण' धर्म की पूजा करता हूँ ।

नेवज विविध निहार, उत्तम षट्-रस-संजुगत
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार के उत्कृष्ट छहों रसों से युक्त नैवेद्य से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।

बाति कपूर सुधार, दीपक-ज्योति सुहावनी
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : कपूर की बत्ती बनाकर सुन्दर लगने वाले दीपक को धारण कर भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।

अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अगर आदि से धूप को तैयार कर उसकी सुगंधि को सर्व दिशाओं मे फैलाकर भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।

फल की जाति अपार, घ्रान-नयन-मन-मोहने
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार के नासिका को, नेत्रो को और मन को मोहित करने वाले आर्थात् अच्छे लगने वाले फलों से भव की ताप नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।

आठों दरब सँवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसौं
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : जल चन्दन आदि आठों द्रव्यों को सजाकर अत्यन्त उल्साह पूर्वक भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूं ।


उत्तम क्षमा
पीड़ैं दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करैं
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा ॥
अन्वयार्थ : बहुत दुर्जन लोग दुख देवें, बांधकर अनेक प्रकार से मारपीट करे । यातनायें दे वहाँ हे पवित्र आत्मा क्रोध को न करके विवेक् पूर्वक उत्तम क्षमा को धारण कीजिए ।

उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस, पर-भव सुखदाई
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो ॥
कहि है अयानो वस्तु छीनै, बाँध मार बहुविधि करै
घर तैं निकारै तन विदारै, वैर जो न तहाँ धरै ॥
ते करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा
अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयरा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भाई उत्तमक्षमा को ग्रहण करो यह क्षमा इस भव में यश और अगले भव में सुख को देने वाली है, कोई अज्ञानी गुणों को अवगुण रूप भी कहता है गालियाँ (अपशब्द) भी देता है तो भी मन में खेद (दुःख) नहीं करना चाहिए । ऐसा वह अज्ञानी अपशब्द कहता हुआ हमारी कोई वस्तु छीन लेवे, बांध देवे, अनेक प्रकार से मारे, घर मे निकाल देवे, शरीर का छेदन करे (विदारण करे) तब भी वहां उससे बैर भाव धारण नहीं करना चाहिए । किन्तु चिन्तन करना चाहिए कि पूर्व भवों में मैंने जो पाप कर्मों का संचय किया या जो पाप कर्म किये हे जीव अब उन्हें क्यों नहीं सहन करोगे (भोगोगे) । अत्यन्त भीषण क्रोध रूपी अग्नि को हे जीव समता रूपी अत्यन्त शीतल जल से बुझाओ । अर्थात् क्रोध के समय समता धाराण करो ।


उत्तम मार्दव
मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥
अन्वयार्थ : मान महा विष के समान है यह मान (नीच गति) संसार में नरक गति को करने वाला है | कोमलता (मृदुता) रूपी अनुपम अमृत को ग्रहण करने वाले जीव हमेशा सुख प्राप्त करते हैं ।
मान करने से नीच गोत्र का आस्रव करते हैं और संसार में नीच जातियों में जन्म लेते हैं ।

उत्तम मार्दव गुन मन-माना, मान करन को कौन ठिकाना
बस्यो निगोद माहिं तैं आया, दमरी रूँकन भाग बिकाया ॥
रूँकन बिकाया भाग वशतैं, देव इक-इन्द्री भया
उत्तम मुआ चाण्डाल हूवा, भूप कीड़ों में गया ॥
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करै जल-बुदबुदा
करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम मार्दव गुण मन को अच्छा लगने वाला है, मान करने का क्या आधार है क्योंकि अनंत: काल से निगोद में रहता था वहाँ से आकर स्थावर में वनस्थति काय का जीव हुआ कभी दमरी (सबसे छोटी मुद्रा) के भाव बिक गया कभी रुकन अर्थात् बिना मूल्य के ही बिक गया भाग्य उदय से यह जीव देव हुआ और देव पर्याय से आकर एकेन्द्री हो गया, उत्तम पर्याय से चांडाल हुआ, राजा भी, कीड़ों में जाकर उत्पन्न हो गया हे आत्मा, क्या जीवन, युवावस्था और धन का घमंड करता है । ये सब जल के बुलबुले के समान क्षणभर में नष्ट होने वाले है । जिनमें बहुत गुण है अर्थात् गुणवान है जिनकी बड़ी आयु है ऐसे माता-पिता आदि की विनय करना चाहिए जिससे ज्ञान की प्राप्ति होती है ।


उत्तम आर्जव
कपट न कीजै कोय, चोरन के पुर ना बसै
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु-सम्पदा ॥
अन्वयार्थ : छल कपट नहीं करना चाहिए धन सम्पत्ति चोरों के यहाँ नहीं होती वे हमेशा निर्धन ही होते है (इसीलिये चोरों के शहर नहीं बसते हैं) किन्तु जिनका स्वभाव सरल होता है उनके यहाँ बहुत धन सम्पदा होती है ।

उत्तम आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी
मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये ॥
करिये सरल तिहुँ जोग अपने देख निरमल आरसी
मुख करै जैसा लखै तैसा, कपट-प्रीति अँगार-सी ॥
नहिं लहै लक्ष्मी अधिक छल करि, करम-बन्ध विशेषता
भय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा नहिं देखता ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तम-आर्जवधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम आर्जव सरल स्वभाव को कहते हैं । रंचमात्र भी दगा दुख को देने वाला है, जो विचार मन में हो वही वचन में रहना और जो वचन से कहा जाय वही काय से किया जाना चाहिए । इस प्रकार से तीनों योगों को सरल करना चाहिए जैसे निर्मल स्वच्छ दर्पण में जैसा अपना मुँह करोगे वैसा ही दिखेगा । छल कपट की प्रीति अंगारों से प्रीति करने के समान है (जैसे अंगारों में ऊपर राख दिखती है और अन्दर अग्नि दहकती रहती है) । अधिक छल करके कोई भी धन सम्पदा प्राप्त नहीं कर सकता बल्कि अधिक कर्म बंध करता है उस कर्मबंध का ध्यान नहीं करता और छल करता रहता है जैसे - बिल्ली आख बंद करके दूध पीते समय भय का त्याग करती है और पीछे मार पड़ेगी ध्यान नही रखती उसी प्रकार छल करने वाला कर्म बंध का ध्यान नहीं करते हुए छल करता रहता है ।


उत्तम शौच
धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देह सों
शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसार में ॥
अन्वयार्थ : हृदय में संतोष धारण कर शरीर से तपस्या करना चाहिए । दोष रहित शौच धर्म ही संसार में सबसे बड़ा धर्म है ।

उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना
आशा-फांस महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ॥
प्रानी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावतैं
नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष सुभावतैं ॥
ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन-विधि घट शुचि कहै
बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधू लहै ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम शौच धर्म सर्व जगत में विख्यात है, यह लोभ कषाय के अभाव में होता है । लोभ सर्व पापों को (उत्पन्न) करने वाला है । आशा-इच्छा रूपी पाश भयानक दुःखों को देने वाली है अत: संतोष को धारण करने वाले जीव सुख को प्राप्त करते हैं । इस जीव की शुचिता (पवित्रता) शील, जप, तप, ज्ञान, ध्यान के प्रभाव से होती है हमेशा गंगा, यमुना आदि नदियों में एवं समुद्र में भी स्नान करने से शुचिता अर्थात् पवित्रता नहीं होती क्योकि इस शरीर का स्वभाव ही अपवित्र है । यह ऊपर तो अत्यन्त निर्मल दिखता है परन्तु इसके अन्दर मल भरा हुआ है । ऐसे शरीर को किस प्रकार पवित्र कहा जा सकता है । जिनका शरीर तो मलिन है पर जो गुणों के भडार है ऐसे महाव्रती साधु ही इस शौच गुण को प्राप्त करते है ।


उत्तम सत्य
कठिन वचन मति बोल, पर-निन्दा अरु झूठ तज
साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ॥
अन्वयार्थ : कठोर वचन, पर निंदा, और झूठ वचनों का त्याग करना सत्य धर्म है । सत्य रूपी जवाहर रत्न का उपयोग करना चाहिए क्योकि सत्यवादी प्राणी संसार में सुखी रहते हैं ।

उत्तम सत्य-बरत पालीजै, पर-विश्वासघात नहिं कीजै
साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो ॥
पेखो तिहायत पुरुष साँचे को दरब सब दीजिये
मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लख लीजिये ॥
ऊँचे सिंहासन बैठि वसु नृप, धरम का भूपति भया
वच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमसत्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम सत्य धर्म पालन करना चाहिए, दूसरों का विश्वासघात नहीं करना चाहिए । सत्यवादी और झूठे मनुष्यों को देखो, झूठ बोलने वाले पुत्र पर भी विश्वास नही किया जाता अर्थात् झूठे व्यक्तियो पर कोई विश्वास नही करता । (हमने अभी तक सच्चे और झूठे मनुष्य ही देखे है लोकन अपने आत्मा के पवित्र स्वभाव के पास जाकर नहीं देखा यह निश्चय सत्य धर्म का लक्षण है । साचे झूठे मनुष्यों को तो देखता है किन्तु अपने अन्तर में स्थित शुद्ध आत्म स्वरूप को नहीं देखता जो आत्मा का सत् स्वरूप है )
निस्वार्थ सत्यवादी का सभी विश्वास करते हैं और अमानत स्वरूप धन भी देते हैं । मुनिराजों की और श्रावकों की प्रतिष्ठा (इज्जत) सत्य गुण से (सत्य धर्म से) ही है । राजा बसु ऊँचे सिंहासन पर बैठकर न्याय करता था झूठ बोलने के कारण से नरक में गया और सत्य को बोलने वाला नारद स्वर्ग गया ।


उत्तम संयम
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो
संजम-रतन सँभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ॥
अन्वयार्थ : छह काय के जीवों की रक्षा करना और पांच इन्द्रियों और मन को वश में करना उत्तम संयम धर्म है । संयम रूपी रत्न को संभाल कर रखना चाहिए क्योंकि विषय वासना रूपी बहुत चोर घूम रहे हैं ।

उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजैं अघ तेरे
सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाँहीं ॥
ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो
सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ॥
जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में
इक घरी मत विसरो करो नित, आयु जम-मुख बीच में ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

अन्वयार्थ : उत्तम संयम धर्म को हे मन धारण करो इसे धारण करने से अनेक भवों के पाप नष्ट हो जाते हैं । यह संयम स्वर्ग, नरक और पशु (तिर्यंच) गति में नहीं है । यह संयम आलस का हरण करने वाला और सुख को करने वाला है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये स्थावर और त्रस इन छह काय के जीवों पर दयाभाव धारण कर स्पर्शन, रसना, घान, चक्षु कान और मन को वश करना संयम धर्म है । इस संयम के बिना तीर्थकर भी मोक्ष को प्राप्त नही हुए और जिसके नहीं धारण करने से ही यह आत्मा संसार रूपी कीचड़ में फंसा रहता है । हमें इस संयम को एक क्षण को भी नही भूलना चाहिए हम जम अर्थात् मृत्यु के मुँह में आ रहे हैं ।


उत्तम तप
तप चाहैं सुरराय, करम-शिखर को वज्र है
द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकतिसम ॥
अन्वयार्थ : उत्तम तप को देवो के राजा इन्द्र भी चाहते हैं | यह तप कर्म रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए वज्र के समान है । यह सुख देने वाला तप बारह प्रकार का है । इन तपों को अपनी शक्ति अनुसार क्यो धारण नही करते हो ?

उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना
बस्यो अनादि निगोद मँझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ॥
धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता
श्रीजैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ॥
अति महा दुरलभ त्याग विषय-कषाय जो तप आदरैं
नर-भव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरैं ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम तप धर्म का सब ग्रन्थों मे वर्णन मिलता है । कर्म रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए यह वज्र के समान है । अनादिकाल से यह जीव निगोद मे रह रहा है । वहाँ से निकलकर पृथ्वी आदि स्थावर हुआ स्थावर के बाद त्रस पयाय में विकलेन्द्री हुआ और फिर पशुओं के शरीर को धारण किया अब दुर्लभ यह मनुष्य पर्याय प्राप्त कीया है । उसमे भी उच्चकुल, पूर्ण आयु, निरोग शरीर, जिनवाणी का संयोग, तत्त्व ज्ञान, आत्म चिन्तन मे उपयोग अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त किया है जो व्यक्ति अत्यन्त महा दुर्लभ विषय और कषाय का त्याग कर तप को आदरपूर्वक ग्रहण करते है वे मनुष्यभव रूपी स्वर्ण गृह पर रत्नमयी कलशा चढाते है अर्थात् नर जन्म धन्य करते है ।


उत्तम त्याग
दान चार परकार, चार संघ को दीजिए
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए ॥
अन्वयार्थ : दान चार प्रकार के होते हैं । चारों दान चार संघ अर्थात् मुनि , आर्यिका, श्रावक, श्राविका को देना चाहिए । धन, सम्पत्ति, वैभव बिजली की चमक की तरह है अत: मनुष्य भव का लाभ लेना चाहिए ।

उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा
निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान सँभारै ॥
दोनों सँभारै कूप-जल सम, दरब घर में परिनया
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ॥
धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को
बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाहीं बोध को ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम त्याग समस्त संसार मे श्रेष्ठ है । ये दान औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान और आहारदान के भेद से चार प्रकार का है । यह तो व्यवहार त्याग है । निश्चय त्याग, राग द्वेष के त्याग को कहते हैं । ज्ञानीजन दोनों दान (निश्चय और व्यवहार) करते हैं । कुए का पानी यदि खर्च न हो तो खराब हो जाता है और यदि खर्च होता रहे तो खराब नही होता । उसी प्रकार घर में धन सम्पत्ति वैभव हो तो दान करना चाहिए जो श्रेष्ठ है नही तो नष्ट हो जायेगा लेकिन रहने वाला नही है । धन्य है वे साधु जो शास्त्र दान, अभय दान के देने वाले है और राग द्वेष का त्याग करने वाले है । बिना दान के श्रावक और साधु दोनों ही सम्यक् ज्ञान को प्राप्त नहीं होते ।


उत्तम आकिंचन्य
परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करैं मुनिराजजी
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए ॥
अन्वयार्थ : परिग्रह चौबीस भेद, यह व्यवहार आकिंचन्य धर्म है और तिसना भाव उछेद, यह निश्चय आकिंचन्य धर्म है ।
परिग्रह के २४ भेद (अंतरंग १४ और बाह्य १०)
अंतरंग - मिथ्यात्व + चार कषाय + नौ कषाय = १४
बाह्य - खेत + मकान + रुपया + सोना + गोधन आदि + अनाज + दासी + दास + कपड़े + बर्तन व मसाले आदि = १०
परिग्रह के चौबीस भेद है उनका त्याग (व्यवहार आकिंचन्य) मुनिराज करते हैं और तृष्णा भाव को नष्ट करते है (निश्चय आकिंचन्य) । श्रावक को भी धीरे-धीरे दोनो प्रकार के परिग्रहों को घटाना चाहिए ।

उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो
फाँस तनक-सी तन में सालै, चाह लँगोटी की दुख भालै ॥
भालै न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरैं
धनि नगन पर तन-नगन ठाड़े, सुर-असुर पायनि परैं ॥
घर माहिं तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसार सौं
बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर-उपगार सौं ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम आकिंचन्य श्रेष्ठ गुण है । परिग्रह चिन्ता-दुख के ही पर्याय है । छोटी सी फ़ांस भी पूरे शरीर को दुखी कर देती है उसी प्रकार लंगोटी का आवरण या लंगोटी की चाह दुख को देने वाली होती है । यह मनुष्य, महाव्रत अर्थात निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि की मुद्रा को धारण किये बिना समता और सुख को प्राप्त नही कर सकता । वे मुनिराज धन्य हैं जो पर्वतो पर नग्न खडे रहकर तप करते है उनके चरणो की पूजा सुर-असुर आदि सभी करते हैं । घर मे रहते हुए भी जो तृष्णा को घटाते हैं, तथा जिनको संसार में रूचि नही है, ऐसे जीवों का धन, यद्यपि धन बुरा ही होता है, परोपकार में लगने के कारण फिर भी अच्छा कहा गया है ।


उत्तम ब्रह्मचर्य
शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ॥
अन्वयार्थ : धन्य है वे मुनिराज जो अन्तर से नग्न है (अंतरंग परिग्रह से रहित) शरीर से भी नग्न (बाह्य परिग्रह से रहित) खडे रहते है ।
शील की रक्षक नौ बाढे - १ स्त्री-राग वर्धक कथा न सुनना, २ स्त्रियों के मनोहर अगों को न देखना, ३ पहले भोगे हुए भोगों को याद न करना, ४ गरिष्ठ व स्वादिष्ट भोजन न करना, ५ अपने शरीर को श्रंगारित न करना, ६ स्त्रियों की शैया-आसन पर न बैठना, ७ स्त्रियों से घुल-मिल कर बातें न करना, ८ भर-पेट भोजन न करना, १ कामोत्तेचक नृत्य , फिल्म, टीवी न देखना ।

उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ
सहैं बान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-बान लखि कूरे ॥
कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करैं
बहु मृतक सड़हिं मसान माहीं, काग ज्यों चोंचैं भरैं ॥
संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा
’द्यानत' धरम दश पैड़ि चढ़ि कै, शिव-महल में पग धरा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : शील को नौ बाडें लगाकर सुरक्षित रखना चाहिए (व्यवहार ब्रह्मचर्य) और अन्तर में ब्रह्म अर्थात् आत्म चिन्तन करना चाहिए (निश्य बह्मचर्य) शील की नौ बाड़ों की एवं आत्म चिन्तन डन दोनों की प्राप्ति के अभिलाषी बनके मनुष्य जन्म सफल करना चाहिए ।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन मे धारण का स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री के रूप में देखना चहिये । यह जीव रणभूमि में शूरवीरों द्वारा की जाने वाली बाणों की वर्षा को सहन कर लेता है । परन्तु स्त्रीयों के क्रूर नेत्र रूपी बाण को सहन नहीं कर पाता ऐसा काम रोग से पीड़ित स्त्री के अपवित्र शरीर में रति (प्रेम) करता है जिस प्रकार श्मशान में मरे हुए सडे हुए शरीर में कौआ प्रेम करके चौंचों से मृत शरीर को खाता है । संसार में स्त्री विष बेल के समान है । इसलिए सभी मुनिराजों ने स्त्रियों का त्याग कर दिया ।
श्री द्यानत राय जी कहते हैं कि ये दस धर्म रूपी सीढ़ियां चढ़कर मोक्ष रूपी महल में प्रवेश हो जाता है ।


जयमाला
दश लच्छन वन्दौं सदा, मनवांछित फलदाय
कहों आरती भारती, हम पर होहु सहाय ॥
अन्वयार्थ : दशलक्षण धर्म की सदा वदना करता हूँ । इससे मन के अनुकूल फल की प्राप्ति होती है दशलक्षण धर्म की आगमानुकूल आरती कहता हूं हे भगवान मेरी सहायता कीजिए |

उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहिर शत्रु न कोई
उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नाना भेद ज्ञान सब भासे॥
उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागि सुगति उपजावे
उत्तम शौच लोभ-परिहारी, सन्तोषी गुण-रतन भण्डारी ॥
उत्तम सत्य-वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले
उत्तम संजम पाले ज्ञाता, नर-भव सफल करै, ले साता ॥
उत्तम तप निरवांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले
उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ॥
उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि दशा विसतारे
उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकति-फल पावे ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्माय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम क्षमा जिनके मन मे होती है उनके मन मे राग द्वेष आदि विकारभाव अंतर और बाह्य मे भी कोई शत्रु नही रहता । उत्तम मार्दव धर्म, विनयगुण का प्रकाशन करके अनेक प्रकार से भेद-विज्ञान करवाता है । उत्तम आर्जव धर्म छलकपट को नाश करता है एवं खोटी गतियों से छुडाकर श्रेष्ठ गतियों मे उत्पन्न करवाता है । जो उत्तम सत्य वचन मुख से बोलते है वे जीव संसार में परिभ्रमण नही करते । उत्तम शौच धर्म लोभ कषाय का नाश करता है, जिनके संतोष है वे गुणों के भंडार होते है । उत्तम संयम धर्म को जो ज्ञानी जन धारण करते है वे साता को प्राप्त करके मनुष्य भव को सफल करते है । इच्छा रहित उत्तम तप धर्म का पालन करने से मनुष्यों के कर्म रूपी शत्रुओं का नाश हो जाता है । जो व्यक्ति उत्तम त्याग करते है वे भोग भूमि और स्वर्ग के सुख भोग कर मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं । जो उत्तम आकिंचन्य धर्म को धारण करते है वे परम समाधि को प्राप्त होते है । उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म को जो मन में धारण करते है वे मनुष्य देव गति को प्राप्त कर मोक्षफल प्राप्त करते हैं ।
द्यानत राय जी - यह दस लक्षण धर्म कर्म की निर्जरा कर भव रूपी पिंजरा को नष्ट कर अजर-अमर पद को प्राप्त कर सुख की राशि अर्थात् अनंत सुख की प्राप्ति कराते हैं ।

करै करम की निरजरा, भव पींजरा विनाशि
अजर अमर पद को लहैं, 'द्यानत' सुख की राशि ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



सोलहकारण-भावना🏠
द्यानतरायजी कृत

सोलह कारण भाय तीर्थंकर जे भये
हरषे इन्द्र अपार मेरुपै ले गये ॥
पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चावसौं
हमहू षोडश कारन भावैं भावसौं ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणानि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणानि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणानि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

कंचन-झारी निरमल नीर पूजों जिनवर गुन-गंभीर
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतीचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद् भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचनवात्सल्य इतिषोडशकारणेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा

चंदन घसौं कपूर मिलाय पूजौं श्रीजिनवरके पाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल धवल सुंगध अनूप पूजौं जिनवर तिहुं जग-भूप
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

फूल सुगन्ध मधुप-गुंजार पूजौं-जिनवर जग-आधार
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरू हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह, तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरू हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

सद नेवज बहुविधि पकवान पूजौं श्रीजिनवर गुणखान
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीपक-ज्योति तिमिर छयकार पूजूं श्रीजिन केवलधार
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगर कपूर गंध शुभ खेय श्रीजिनवर आगे महकेय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल आदि बहुत फलसार पूजौं जिन वांछित-दातार
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल फल आठों दरव चढ़ाय 'द्यानत' वरत करौं मन लाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

प्रत्येक भावना के अर्घ्य -- सवैया तेईसा
दर्शन शुद्ध न होवत जो लग, तो लग जीव मिथ्याती कहावे
काल अनंत फिरे भव में, महादुःखनको कहुं पार न पावे ॥
दोष पचीस रहित गुण-अम्बुधि, सम्यग्दरशन शुद्ध ठरावे
'ज्ञान' कहे नर सोहि बड़ो, मिथ्यात्व तजे जिन-मारग ध्यावे ॥
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देव तथा गुरुराय तथा, तप संयम शील व्रतादिक-धारी
पापके हारक कामके छारक, शल्य-निवारक कर्म-निवारी ॥
धर्म के धीर कषाय के भेदक, पंच प्रकार संसार के तारी
'ज्ञान' कहे विनयो सुखकारक, भाव धरो मन राखो विचारी ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

शील सदा सुखकारक है, अतिचार-विवर्जित निर्मल कीजे
दानव देव करें तसु सेव, विषानल भूत पिशाच पतीजे ॥
शील बड़ो जग में हथियार, जू शीलको उपमा काहे की दीजे
'ज्ञान' कहे नहिं शील बराबर, तातें सदा दृढ़ शील धरीजे ॥
ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

ज्ञान सदा जिनराज को भाषित, आलस छोड़ पढ़े जो पढ़ावे
द्वादश दोउ अनेकहुँ भेद, सुनाम मती श्रुति पंचम पावे ॥
चारहुँ भेद निरन्तर भाषित, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे
'ज्ञान' कहे श्रुत भेद अनेक जु, लोकालोक हि प्रगट दिखावे ॥
ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

भ्रात न तात न पुत्र कलत्र न, संगम दुर्जन ये सब खोटो
मन्दिर सुन्दर, काय सखा सबको, हमको इमि अंतर मोटो ॥
भाउ के भाव धरी मन भेदन, नाहिं संवेग पदारथ छोटो
'ज्ञान' कहे शिव-साधन को जैसो, साह को काम करे जु बणोटो ॥
ॐ ह्रीं संवेग भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पात्र चतुर्विध देख अनूपम, दान चतुर्विध भावसुं दीजे
शक्ति-समान अभ्यागत को, अति आदर से प्रणिपत्य करीजे ॥
देवत जे नर दान सुपात्रहिं, तास अनेकहिं कारण सीझें
बोलत 'ज्ञान' देहि शुभ दान जु, भोग सुभूमि महासुख लीजे ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कर्म कठोर गिरावन को निज, शक्ति-समान उपोषण कीजे
बारह भेद तपे तप सुन्दर, पाप जलांजलि काहे न दीजे ॥
भाव धरी तप घोर करी, नर जन्म सदा फल काहे न लीजे
'ज्ञान' कहे तप जे नर भावत, ताके अनेकहिं पातक छीजे ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

साधुसमाधि करो नर भावक, पुण्य बड़ो उपजे अघ छीजे
साधु की संगति धर्मको कारण, भक्ति करे परमारथ सीजे ॥
साधुसमाधि करे भव छूटत, कीर्ति-छटा त्रैलोक में गाजे
'ज्ञान' कहे यह साधु बड़ो, गिरिश्रृंग गुफा बिच जाय विराजे ॥
ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कर्म के योग व्यथा उदये, मुनि पुंगव कुन्त सुभेषज कीजे
पित्त-कफानिल वात साँस, भगन्दर, ताप को शूल महागद छीजे ॥
भोजन साथ बनाय के औषध, पथ्य कुपथ्य विचार के दीजे
'ज्ञान' कहे नित वैय्यावृत्य करे तस देव पतीजे ॥
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देव सदा अरिहन्त भजो जई, दोष अठारा किये अति दूरा
पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किए चकचूरा ॥
दिव्य-अनन्त-चतुष्टय शोभित, घोर मिथ्यान्ध-निवारण सूरा
'ज्ञान' कहे जिनराज अराधो, निरन्तर जे गुण-मन्दिर पूरा ॥
ॐ ह्रीं अर्हद् भक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देवत ही उपदेश अनेक सु, आप सदा परमारथ-धारी
देश विदेश विहार करें, दश धर्म धरें भव-पार- उतारी ॥
ऐसे अचारज भाव धरी भज, सो शिव चाहत कर्म निवारी
'ज्ञान' कहे गुरू-भक्ति करो नर, देखत ही मनमांहि विचारी ॥
ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

आगम छन्द पुराण पढ़ावत, साहित तर्क वितर्क बखाने
काव्य कथा नव नाटक पूजन, ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाने ॥
ऐसे बहुश्रुत साधु मुनीश्वर, जो मन में दोउ भाव न आने
बोलत 'ज्ञान' धरी मन सान जु, भाग्य विशेष तें ज्ञानहि साने ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

द्वादश अंग उपांग सदागम, ताकी निरंतर भक्ति करावे
वेद अनूपम चार कहे तस, अर्थ भले मन मांहि ठरावे ॥
पढ़ बहुभाव लिखो निज अक्षर, भक्ति करी बड़ि पूज रचावे
'ज्ञान कहे जिन आगम-भक्ति, करे सद्-बुद्धि बहुश्रुत पावे ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

भाव धरे समता सब जीवसु, स्तोत्र पढ़े मुख से मनहारी
कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसु, वंदन देव-तणों भव तारी ॥
ध्यान धरी मद दूर करी, दोउ बेर करे पड़कम्मन भारी
'ज्ञान' कहे मुनि सो धनवन्त जु, दर्शन ज्ञान चरित्र उघारी ॥
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जिन-पूजा रचे परमारथसूं जिन आगे नृत्य महोत्सव ठाणे
गावत गीत बजावत ढोल, मृदंगके नाद सुधांग बखाणे ॥
संग प्रतिष्ठा रचे जल-जातरा, सद् गुरू को साहमो कर आणे
'ज्ञान' कहे जिन मार्ग-प्रभावन, भाग्य-विशेषसु जानहिं जाणे ॥
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

गौरव भाव धरो मन से मुनि-पुंगव को नित वत्सल कीजे
शीलके धारक भव्य के तारक, तासु निरंतर स्नेह धरीजे ॥
धेनु यथा निजबालक को, अपने जिय छोड़ि न और पतीजे
'ज्ञान' कहे भवि लोक सुनो, जिन वत्सल भाव धरे अघ छीजे ॥
ॐ ह्रीं प्रवचन-वात्सल्य भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जाप्य मंत्र :-
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयै नमः,
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नतायै नमः,
ॐ ह्रीं शीलव्रताय नमः,
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगाय नमः,
ॐ ह्रीं संवेगाय नमः,
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागाय नमः,
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे नमः,
ॐ ह्रीं साधुसमाध्यै नमः,
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरणाय नमः,
ॐ ह्रीं अर्हद् भक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं आचार्यभक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाण्यै नमः,
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावनायै नमः,
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यै नमः

जयमाला
षोडश कारण गुण करै, हरै चतुरगति-वास
पाप पुण्य सब नाशके, ज्ञान-भान परकाश॥

दरश विशुद्धि धरे जो कोई, ताको आवागमन न होई
विनय महाधारे जो प्राणी, शिव-वनिता की सखी बखानी ॥
शील सदा दृढ़ जो नर पाले, सो औरनकी आपद टाले
ज्ञानाभ्यास करै मनमाहीं, ताके मोह-महातम नाहीं ॥

जो संवेग-भाव विस्तारे, सुरग-मुकति-पद आप निहारे
दान देय मन हरष विशेषे, इह भव जस परभव सुख पेखे ॥
जो तप तपे खपे अभिलाषा, चूरे करम-शिखर गुरु भाषा
साधु-समाधि सदा मन लावे, तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावे ॥

निश-दिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया
जो अरहंत-भगति मन आने, सो जन विषय कषाय न जाने ॥
जो आचारज-भगति करै है, सो निर्मल आचार धरै है
बहुश्रुतवंत-भगति जो करई, सो नर संपूरन श्रुत धरई ॥

प्रवचन-भगति करै जो ज्ञाता, लहे ज्ञान परमानंद-दाता
षट् आवश्य काल सों साधे, सोही रत्न-त्रय आराधे ॥
धरम-प्रभाव करे जे ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी
वत्सल अंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थंकर पदवी पावै ॥

एही सोलह भावना, सहित धरे व्रत जोय
देव-इन्द्र-नर-वंद्य पद, 'द्यानत' शिव-पद होय ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यः पूणार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

सुन्दर षोडशकारण भावना निर्मल चित्त सुधारक धारे
कर्म अनेक हने अति दुर्द्धर जन्म जरा भय मृत्यु निवारे ॥
दुःख दरिद्र विपत्ति हरे भव-सागर को पार उतारे
'ज्ञान' कहे यही षोडशकारण, कर्म निवारण, सिद्ध सु धारें ॥
इत्याशीर्वाद - पुष्पांजलिं क्षिपेत्



सरस्वती-पूजन🏠
कविश्री द्यानतराय कृत

दोहा
जनम-जरा-मृतु क्षय करे, हरे कुनय जड़-रीति
भवसागर सों ले तिरे, पूजे जिनवच-प्रीति ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै पुष्पांजलिं क्षिपामि
थाली में विराजमान शास्त्रजी के समक्ष पुष्पांजलि धरें

त्रिभंगी
क्षीरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अभंगा सुख संगा
भरि कंचनझारी, धार निकारी, तृषा निवारी हित चंगा ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

करपूर मंगाया, चंदन आया, केशर लाया रंग भरी
शारदपद वंदूं, मन अभिनंदूं, पाप निकंदूं दाह हरी ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा

सुखदास कमोदं, धारक मोदं, अति अनुमोदं चंद समं
बहु भक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई मात ममं ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

बहु फूल सुवासं, विमल प्रकाशं, आनंदरासं लाय धरे
मम काम मिटायो, शील बढ़ायो, सुख उपजायो दोष हरे ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विध भाया मिष्टमहा
पूजूँ थुति गाऊँ, प्रीति बढ़ाऊँ, क्षुधा नशाऊँ हर्ष लहा ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै क्षुधरोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

कर दीपक जोतं, तमक्षय होतं, ज्योति उदोतं तुमहिं चढ़े
तुम हो परकाशक भरमविनाशक, हम घट भासक ज्ञान बढ़े ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभगंध दशों कर, पावक में धर, धूप मनोहर खेवत हैं
सब पाप जलावें, पुण्य कमावें, दास कहावें सेवत हैं ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

बादाम छुहारे, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी ल्यावत हैं
मनवाँछित दाता, मेट असाता, तुम गुन माता ध्यावत हैं ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

नयनन सुखकारी, मृदु गुनधारी, उज्ज्वल भारी मोलधरें
शुभगंध सम्हारा, वसन निहारा, तुम तन धारा ज्ञान करें ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै दिव्यज्ञान-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जल चंदन अक्षत, फूल चरु अरु, दीप धूप अति फल लावे
पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर 'द्यानत' सुखपावे ॥
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई
सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला

सोरठा छन्द
ओंकार ध्वनिसार, द्वादशांग वाणी विमल
नमूं भक्ति उर धार, ज्ञान करे जड़ता हरे ॥

चौपाई
पहलो 'आचारांग' बखानो, पद अष्टादश-सहस प्रमानो
दूजो 'सूत्रकृतं' अभिलाषं, पद छत्तीस सहस गुरुभाषं ॥
तीजो 'ठाना अंग' सुजानं, सहस बयालिस पद सरधानं
चौथो 'समवायांग' निहारं, चौंसठ सहस लाख-इक धारं ॥

पंचम 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' दरसं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं
छट्ठो 'ज्ञातृकथा' विस्तारं, पाँच लाख छप्पन हज्जारं ॥
सप्तम 'उपासकाध्ययनांगं', सत्तर सहस ग्यारलख भंगं
अष्टम 'अंतकृतं' दस ईसं, सहस अठाइस लाख तेईसं ॥

नवम 'अनुत्तरदश' सुविशालं, लाख बानवे सहस चवालं
दशम 'प्रश्नव्याकरण' विचारं, लाख तिरानवे सोल हजारं ॥
ग्यारम 'सूत्रविपाक' सु भाखं, एक कोड़ चौरासी लाखं
चार कोड़ि अरु पंद्रह लाखं, दो हजार सब पद गुरु भाखं ॥

द्वादश 'दृष्टिवाद' पन भेदं, इकसौ आठ कोड़ि पन वेदं
अड़सठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंचपद मिथ्याहन हैं॥
इक सौ बारह कोड़ि बखानो, लाख तिरासी ऊपर जानो
ठावन सहस पंच अधिकाने, द्वादश अंग सर्व पद माने ॥

कोड़ि इकावन आठ हि लाखं, सहस चुरासी छह सौ भाखं
साढ़े इकीस श्लोक बताये, एक-एक पद के ये गाये ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
दोहा
जा बानी के ज्ञान तें, सूझे लोकालोक
'द्यानत' जग-जयवंत हो, सदा देत हूँ धोक ॥
इत्याशीर्वाद - पुष्पांजलिं क्षिपेत्



सीमन्धर-भगवान🏠
जय जयति जय श्रेयांस नृप सुत सत्यदेवी नन्‍दनम्‌ ।
चऊ घाति कर्म विनष्ट कर्ता ज्ञान सूर्य निरन्‍जनम्‌ ॥
जय जय विदेहीनाथ जय जय धन्य प्रभु सीमन्धरम्‌ ।
सर्वज्ञ केवलज्ञानधारी जयति जिन तीर्थंकरम् ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

यह जन्म मरण का रोग, हे प्रभु नाश करूँ ।
दो समरस निर्मल नीर, आत्म प्रकाश करूँ ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

चन्दन हरता तन ताप, तुम भव ताप हरो ।
निज समशीतल हे नाथ मुझको आप करो ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

इस भव समुद्र से नाथ, मुझको पार करो ।
अक्षय पद दे जिनराज, अब उद्धार करो ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

कन्दर्प दर्प हो चूर, शील स्वभाव जगे ।
भव सागर के उस पार मेरी नाव लगे ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

यह क्षुधा ज्वाल विकराल, हे प्रभु शांत करूँ ।
वर चरण चढ़ाऊँ देव मिथ्या भ्रांति हरूँ ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मद मोह कुटिल विष रूप, छाया अंधियारा ।
दो सम्यक्ज्ञान प्रकाश, फैले उजियारा ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

कर्मों की शक्ति विनष्ट, अब प्रभुवर कर दो ।
मैं धूप चढ़ाऊँ नाथ, भव बाधा हर दो ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

फल चरण चढ़ाऊँ नाथ, फल निर्वाण मिले ।
अन्तर में केवलज्ञान, सूर्य महान खिले ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जब तक अनर्घ पद प्राप्त हो न मुझे सत्वर ।
मैं अर्घ चढ़ाऊँ नित्य चरणों में प्रभुवर ॥
शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ।
सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्री कल्याणक अर्घ्यावली
जम्बू द्वीप सुमेरु सुदर्शन पूर्व दिशा में क्षेत्र विदेह ।
देश पुष्कलावती राजधानी है पुण्डरीकिणी गेह ॥
रानी सत्यवती माता के उर में स्वर्ग त्याग आये ।
सोलह स्वप्न लखे माता ने रत्न सुरों ने वर्षाये ॥
ॐ ह्रीं गर्भमंगलमण्डिताय श्रीसीमंधर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

नृप श्रेयांसराय के गृह में तुमने स्वामी जन्म लिया ।
इन्द्रसुरों ने जन्म-महोत्सव कर निज जीवन धन्य किया ॥
गिरि सुमेरु पर पांडुक वन में रत्नशिला सुविराजित कर ।
क्षीरोदधि से न्हवन किया प्रभु दशों दिशा अनुरंजित कर ॥
ॐ ह्रीं जन्ममंगलमण्डिताय श्रीसीमंधर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

एक दिवस नभ में देखे बादल क्षणभर में हुए विलीन ।
बस अनित्य संसार जान वैराग्य भाव में हुए सुलीन ॥
लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने आकर जय-जयकार किया ।
अतुलित वैभव त्याग आपने वन में जा तप धार लिया ॥
ॐ ह्रीं तपमंगलमण्डिताय श्रीसीमंधर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

आत्म ध्यानमय शुक्ल-ध्यान धर कर्मघातिया नाश किया ।
त्रेसठ कर्म प्रकृतियाँ नाशी केवलज्ञान प्रकाश लिया ॥
समवसरण में गंध-कुटि में अंतरीक्ष प्रभु रहे विराज ।
मोक्षमार्ग सन्देश दे रहे भव्य प्राणियों को जिनराज ॥
ॐ ह्रीं केवलज्ञानमंगलमण्डिताय श्रीसीमंधर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
शाश्वत विधमान तीर्थंकर सीमन्धर प्रभु दया निधान ।
दे उपदेश भव्य जीवों को करते सदा आप कल्याण ॥
कोटि पूर्व की आयु पाँच सौ धनुष स्वर्ण सम काया है ।
सकल ज्ञेय ज्ञाता होकर भी निज स्वरूप ही भाया है ॥

देव तुम्हारे दर्शन पाकर जागा है उर में उल्लास ।
चरण-कमल में नाथ शरण दो सुनो प्रभो मेरा इतिहास ॥
मैं अनादि से था निगोद में प्रतिपल जन्म मरण पाया ।
अग्नि, भूमि, जल, वायु, वनस्पति कायक थावर तन पाया ॥

दो इंद्रिय त्रस हुआ भाग्य से पार न कष्टों का पाया ।
जन्म तीन इंद्रिय भी धारा दुख का अन्त नहीं आया ॥
चौ इंद्रियधारी बनकर मै विकलत्रय में भरमाया ।
पंचेद्रिय पशु सैनी और असैनी हो बहु दुख पाया ॥

बड़े भाग्य से प्रबल पुण्य से फ़िर मानव पर्याय मिली ।
मोह महामद के कारण ही नहीं ज्ञान की कली खिली ॥
अशुभ पाप आस्रव के द्वारा नर्क आयु का बन्ध गहा ।
नारकीय बन नरकों में रह उष्ण शीत दुख द्वन्द सहा ॥

शुभ पुण्यास्रव के कारण मैं स्वर्गलोक तक हो आया ।
ग्रैवेयक तक गया किन्तु शाश्वत सुख चैन नहीं पाया ॥
देख दूसरों के वैभव को आर्त्त रौद्र परिणाम किया ।
देव आयु क्षय होने पर एकेन्द्रिय तक में जन्म लिया ॥

इसप्रकार धर-धर अनन्त भव चारों गतियों में भटका ।
तीव्र-मोह मिथ्यात्व पाप के कारण इस जग में अटका ॥
महापुण्य के शुभ संयोग से फ़िर यह तन मन पाया है ।
देव आपके चरणों को पाकर यह मन हर्षाया है ॥

जनम जनम तक भक्ति तुम्हारी रहे हृदय में हे जिनदेव ।
वीतराग सम्यक् पथ पर चल पाऊँ सिद्ध स्वपद स्वयमेव ॥
भरतक्षेत्र के कुन्द-कुन्द मुनि ने विदेह को किया प्रयाण ।
प्रभु तुम्हारे समवसरण में दर्शन कर हो गये महान ॥

आठ दिवस चरणों में रह कर ॐकार ध्वनि सुनी प्रधान ।
भरत क्षेत्र में लौटे मुनिवर बनकर वीतराग विज्ञान ॥
करुणा जागी जीवों के प्रति रचा शास्त्र श्री प्रवचनसार ।
समयसार पंचास्तिकाय श्रुत नियमसार प्राभृत सुखकार ॥

रचे देव चौरासी पाहुड़ प्रभु वाणी का ले आधार ।
निश्चयनय भूतार्थ बताया अभूतार्थ सारा व्यवहार ॥
पाप पुण्य दोनों बन्धन हैं जग में भ्रमण कराते हैं ।
राग मात्र को हेय जान ज्ञानी निज ध्यान लगाते हैं ॥

निज का ध्यान लगाया जिसने उसको प्रगटा केवलज्ञान ।
परम समाधि महासुखकारी निश्चय पाता पद निर्वाण ॥
इस प्रकार इस भरत क्षेत्र के जीवों पर अनन्त उपकार ।
हे सीमन्धरनाथ आपके, करो देव मेरा उद्धार ॥
समकित ज्योति जगे अन्तर में हो जाऊँ मैं आप समान ।
पूर्ण करो मेरी अभिलाषा हे प्रभु सीमन्धर भगवान ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सीमन्धर प्रभु के चरण भाव सहित उर धार ।
मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



सीमन्धर-भगवान🏠
पं हुक्मचन्दजी कृत
भव-समुद्र सीमित कियो, सीमन्धर भगवान ।
कर सीमित निजज्ञान को, प्रगट्यो पूरण ज्ञान ॥
प्रकट्यो पूरण ज्ञान-वीर्य-दर्शन सुखधारी,
समयसार अविकार विमल चैतन्य-विहारी ।
अंतर्बल से किया प्रबल रिपु-मोह पराभव,
अरे भवान्तक ! करो अभय हर लो मेरा भव ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

प्रभुवर ! तुम जल-से शीतल हो, जल-से निर्मल अविकारी हो ।
मिथ्यामल धोने को जिनवर, तुम ही तो मल-परिहारी हो ॥
तुम सम्यग्ज्ञान जलोदधि हो, जलधर अमृत बरसाते हो ।
भविजन-मन-मीन प्राणदायक, भविजन मन-जलज खिलाते हो ॥
हे ज्ञानपयोनिधि सीमन्धर ! यह ज्ञान प्रतीक समर्पित है ।
हो शान्त ज्ञेयनिष्ठा मेरी, जल से चरणाम्बुज चर्चित है ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

चंदन-सम चन्द्रवदन जिनवर, तुम चन्द्रकिरण से सुखकर हो ।
भव-ताप निकंदन हे प्रभुवर ! सचमुच तुम ही भव-दुख-हर हो ॥
जल रहा हमारा अन्तःस्तल, प्रभु इच्छाओं की ज्वाला से ।
यह शान्त न होगा हे जिनवर रे ! विषयों की मधुशाला से ॥
चिर-अंतर्दाह मिटाने को, तुम ही मलयागिरि चन्दन हो ।
चंदन से चरचूँ चरणांबुज, भव-तप-हर ! शत-शत वन्दन हो ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

प्रभु ! अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी हूँ ।
क्षत-विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी हूँ ॥
अक्षत का अक्षत-संबल ले, अक्षत-साम्राज्य लिया तुमने ।
अक्षत-विज्ञान दिया जग को, अक्षत-ब्रह्माण्ड किया तुमने ॥
मैं केवल अक्षत-अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया ।
निर्वाण-शिला के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

तुम सुरभित ज्ञान-सुमन हो प्रभु, नहिं राग-द्वेष दुर्गन्ध कहीं ।
सर्वांग सुकोमल चिन्मय तन, जग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं ॥
निज अंतर्वास सुवासित हो, शून्यान्तर पर की माया से ।
चैतन्य-विपिन के चितरंजन, हो दूर जगत की छाया से ॥
सुमनों से मन को राह मिली, प्रभु कल्पबेलि से यह लाया ।
इनको पा चहक उठा मन-खग, भर चोंच चरण में ले आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

आनंद-रसामृत के द्रह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं ।
तुम मुक्त-क्षुधा के वेदन से, षट्-रस का नाम-निशान नहीं ॥
विध-विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शान्त हुई मेरी ।
आनंद-सुधारस-निर्झर तुम, अतएव शरण ली प्रभु तेरी ॥
चिर-तृप्ति-प्रदायी व्यंजन से, हो दूर क्षुधा के अंजन ये ।
क्षुत्पीड़ा कैसे रह लेगी ? जब पाये नाथ निरंजन ये ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

चिन्मय-विज्ञान-भवन अधिपति, तुम लोकालोक-प्रकाशक हो ।
कैवल्य किरण से ज्योतित प्रभु ! तुम महामोहतम नाशक हो ॥
तुम हो प्रकाश के पुंज नाथ ! आवरणों की परछाँह नहीं ।
प्रतिबिंबित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को आँच नहीं ॥
ले आया दीपक चरणों में, रे ! अन्तर आलोकित कर दो ।
प्रभु तेरे मेरे अन्तर को, अविलंब निरन्तर से भर दो ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

धू-धू जलती दु:ख की ज्वाला, प्रभु त्रस्त निखिल जगतीतल है ।
बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है ॥
यह धूम घूमरी खा-खाकर, उड़ रहा गगन की गलियों में ।
अज्ञान-तमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंग-रलियों में ॥
सन्देश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुए ऊर्ध्वगामी जग से ।
प्रकटे दशांग प्रभुवर ! तुम को, अन्तःदशांग की सौरभ से ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ-अशुभ वृत्ति एकान्त दुःख अत्यन्त मलिन संयोगी है ।
अज्ञान विधाता है इसका, निश्चित चैतन्य विरोधी है ॥
काँटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य-सदन के आँगन में ।
चंचल छाया की माया-सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में ॥
तेरी फल-पूजा का फल प्रभु ! हों शान्त शुभाशुभ ज्वालायें ।
मधुकल्प फलों-सी जीवन में, प्रभु ! शान्ति-लतायें छा जायें ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए ।
भव-ताप उतरने लगा तभी, चन्दन-सी उठी हिलोर हिये ॥
अभिराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने ।
क्षुत् तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने ॥
मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए ।
फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
वैदही हो देह में, अतः विदेही नाथ ।
सीमन्धर निज सीम में, शाश्वत करो निवास ॥
श्री जिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरहन्त ।
वीतराग सर्वज्ञ श्री, सीमन्धर भगवन्त ॥
हे ज्ञानस्वभावी सीमन्धर ! तुम हो असीम आनन्दरूप ।
अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप ॥
मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अति प्रचण्ड ।
हो स्वयं अखंडित कर्म शत्रु को, किया आपने खंड-खंड ॥
गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान ।
आतमस्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान ॥
तुम दर्शन ज्ञान दिवाकर हो, वीरज मंडित आनन्दकन्द ।
तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्णचन्द ॥
पूरब विदेह में हे जिनवर ! हो आप आज भी विद्यमान ।
हो रहा दिव्य उपदेश, भव्य पा रहे नित्य अध्यात्म ज्ञान ॥
श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव को, मिला आपसे दिव्य ज्ञान ।
आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान ॥
पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार ।
समझाया उनने समयसार, हो गये स्वयं वे समयसार ॥
दे गये हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार ।
है समयसार बस एक सार, है समयसार बिन सब असार ॥
मैं हूँ स्वभाव से समयसार, परिणति हो जाये समयसार ।
है यही चाह, है यही राह, जीवन हो जाये समयसार ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
समयसार है सार, और सार कुछ है नहीं ।
महिमा अपरम्पार, समयसारमय आपकी ॥
पुष्पांजलिं क्षिपेत्



विद्यमान-बीस-तीर्थंकर🏠
सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, सुजात स्वयंप्रभु देव ।
ऋषभानन, अनन्तवीर्य, सौरीप्रभु, विशालकीर्ति, सुदेव ॥
श्री वज्रधर, चन्द्रानन प्रभु चन्द्रबाहु, भुजंगम ईश ।
जयति ईश्वर जयतिनेम प्रभु वीरसेन महाभद्र महीश ॥
पूज्य देवयश अजितवीर्य जिन बीस जिनेश्वर परम महान ।
विचरण करते हैं विदेह में शाश्वत्‌ तीर्थंकर भगवान ॥
नहीं शक्ति जाने की स्वामी यहीं वन्दना करूँ प्रभो ।
स्तुति पूजन अर्चन करके शुद्ध भाव उर भरूं प्रभो ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरा:! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विंशति तीर्थंकरा:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विंशति तीर्थंकरा: अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् सन्निधि करणं

निर्मल सरिता का प्रासुक जल लेकर चरणों में आऊँ ।
जन्म जरादिक क्षय करने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति विद्यमान तीर्थंकरेभ्य भवातापविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

शीतल चंदन दाह निकन्दन लेकर चरणों में आऊँ ।
भव सन्ताप दाह हरने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ।
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

स्वच्छ अखण्डित उज्ज्वल तंदुल लेकर चरणों में आऊँ ।
अनुपम अक्षय पद पाने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

शुभ्र शील के पुष्प मनोहर लेकर चरणों में आऊँ ।
काम शत्रु का दर्प नशाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

परम शुद्ध नैवेद्य भाव उर लेकर चरणों में आऊँ ।
क्षुधा रोग का मूल मिटाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

जगमग अंतर दीप प्रज्ज्वलित लेकर चरणों में आऊँ ।
मोह तिमिर अज्ञान हटाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

कर्म प्रकृतियों का ईंधन अब लेकर चरणों में आऊँ ।
ध्यान अग्नि में इसे जलाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा

निर्मल सरस विशुद्ध भाव फल लेकर चरणों में आऊँ ।
परम मोक्ष फल शिव सुख पाने श्रीजिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

अर्घ पुंज वैराग्य भाव का लेकर चरणों में आऊँ ।
निज अनर्घ पदवी पाने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
सीमंधर, युगमंधर, आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ ।
विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
मध्यलोक में असंख्यात सागर, अरु असंख्यात हैं द्वीप ।
जम्बूद्वीप धातकीखण्ड अरु, पुष्करार्ध यह ढ़ाई द्वीप ॥
ढ़ाई द्वीप में पंचमेरु हैं, तीनों लोकों में अति ख्यात्‌ ।
मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदर विद्युन्माली विख्यात ॥

एक एक में है बत्तीस, विदेह क्षेत्र अतिशय सुन्दर ।
एक शतक अर साठ क्षेत्र हैं, चौथा काल जहाँ सुखकर ॥
पाँच भरत अरु पंच ऐरावत कर्म भूमियाँ दस गिनकर ।
एक साथ हो सकते हैं तीथंकर एक शतक सत्तर ॥

किन्तु न्यूनतम बीस, तीर्थंकर विदेह में होते हैं ।
सदा शाश्वत विद्यमान, सर्वत्र जिनेश्वर होते हैं ॥
एक मेरु के चार विदेहों, में रहते तीर्थंकर चार ।
बीस विदेहों में तीर्थंकर, बीस सदा ही मंगलकार ॥

कोटि पूर्व की आयु पूर्ण कर, होते पूर्ण सिद्ध भगवान ।
तभी दूसरे इसी नाम के, होते हैं अरहन्त महान ॥
श्री जिनदेव महा मंगलमय, वीतराग सर्वज्ञ प्रधान ।
भक्ति भाव से पूजन करके, मैं चाहूँ अपना कल्याण ॥

विरहमान श्री बीस जिनेश्वर, भाव सहित गुणगान करूँ ।
जो विदेह में विद्यमान हैं, उनका जय जय गान करूँ ॥
सीमन्धर को वन्दन करके, मैं अनादि मिथ्यात्व हरूँ ।
जुगमन्दर की पूजन करके, समकित अंगीकार करूँ ॥

श्री बाहु का सुमिरण करके, अविरत हर व्रत ग्रहण करूँ ।
श्री सुबाहु पद अर्चन करके, तेरह विधि चारित्र धरूँ ॥
प्रभु सुजात के चरण पूजकर, पंच प्रमाद अभाव करूँ ।
देव स्वयंप्रभ को प्रणाम कर, दुखमय सर्व विभाव हरूँ ॥

ऋषभानन की स्तुति करके, योग कषाय निवृत्ति करूँ ।
पूज्य अनन्तवीर्य पद वन्दूँ, पथ निर्ग्नन्थ प्रवृत्ति करूँ ॥
देव सौरप्रभ चरणाम्बुज, दर्शन कर पाँचों बन्ध हरूँ ।
परम विशालकीर्ति की जय हो, निज को पूर्ण अबन्ध करूँ ॥

श्री वज्रधर सर्व दोष हर, सब संकल्प विकल्प हरूँ ।
चन्द्रानन के चरण चित्त धर, निर्विकल्पता प्राप्त करूँ ॥
चन्द्रबाहु को नमस्कार कर, पाप-पुण्य सब नाश करूँ ।
श्री भुजंग पद मस्तक धर कर, निज चिद्रूप प्रकाश करूँ ॥

ईश्वर प्रभु की महिमा गाऊँ, आत्म द्रव्य का भान करूँ ।
श्री नेमिप्रभु के चरणों में, चिदानन्द का ध्यान धरूँ ॥
वीरसेन के पद कमलों में, उर चंचलता दूर करूँ ।
महाभद्र की भव्य सुछवि लख, कर्मघातिया चूर करूँ ॥

श्री देवयश सुयश गान कर, शुद्ध भावना हृदय धरूँ ।
अजितवीर्य का ध्यान लगाकर, गुण अनन्त निज प्रगट करूँ ॥
बीस जिनेश्वरः समवसरण लख, मोहमयी संसार हरूँ ।
निज स्वभाव साधन के द्वारा, शीघ्र भवार्णव पार करूँ ॥

स्वगुण अनन्त चतुष्टयधारी, वीतराग को नमन करूँ ।
सकल सिद्ध मंगल के दाता, पूर्ण अर्ध के सुमन धरूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति विद्यमान तीर्थंकरेभ्य अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जो विदेह के बीस जिनेश्वर, की महिमा उर में धरते ।
भाव सहित प्रभु पूजन करते, मोक्ष लक्ष्मी को वरते ॥
इत्याशीवाद: -- पुष्पांजलिं क्षिपेत्



विद्यमान-बीस-तीर्थंकर🏠
पं. द्यानतरायजी कृत

द्वीप अढ़ाई मेरु पन, अरु तीर्थंकर बीस
तिन सबकी पूजा करूँ, मन-वच-तन धरि सीस ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरा:! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विंशति तीर्थंकरा:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विंशति तीर्थंकरा: अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् सन्निधि करणं

इन्द्र-फणीन्द्र-नरेन्द्र-वंद्य पद निर्मल धारी
शोभनीक संसार सार गुण हैं अविकारी ॥
क्षीरोदधि-सम नीर सों हो पूजों तृषा निवार
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति विद्यमान तीर्थंकरेभ्य भवातापविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

तीन लोक के जीव पाप-आताप सताये
तिनकों साता दाता शीतल वचन सुहाये ॥
बावन चंदन सों जजूँ हो भ्रमन-तपत निरवार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

यह संसार अपार महासागर जिनस्वामी
तातैं तारे बड़ी भक्ति-नौका जगनामी ॥
तंदुल अमल सुगंध सों हों पूजों तुम गुणसार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

भविक-सरोज-विकाश निंद्य-तम हर रवि-से हो
जति-श्रावक आचार कथन को तुमही बड़े हो ॥
फूल सुवास अनेक सों हो पूजों मदन-प्रहार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

काम-नाग विषधाम नाश को गरुड़ कहे हो
छुधा महा दव-ज्वाल तास को मेघ लहे हो ॥
नेवज बहुघृत मिष्ट सों हों पूजों भूखविडार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

उद्यम होन न देत सर्व जगमांहि भर्यो है
मोह-महातम घोर नाश परकाश कर्यो है ॥
पूजों दीप प्रकाश सों हो ज्ञान-ज्योति करतार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

कर्म आठ सब काठ भार विस्तार निहारा
ध्यान अगनि कर प्रकट सर्व कीनो निरवारा ॥
धूप अनूपम खेवतें हो दु:ख जलैं निरधार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा

मिथ्यावादी दुष्ट लोभऽहंकार भरे हैं
सबको छिन में जीत जैन के मेरु खड़े हैं ॥
फल अति उत्तम सों जजों हों वांछित फल-दातार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल-फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है
गणधर-इन्द्रनि हू तैं थुति पूरी न करी है ॥
'द्यानत' सेवक जानके हो जग तैं लेहु निकार ॥
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मँझार
श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
ज्ञान-सुधाकर चन्द, भविक-खेत हित मेघ हो
भ्रम-तम भान अमन्द, तीर्थंकर बीसों नमों ॥

सीमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी
बाहु बाहु जिन जग-जन तारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे ॥
जात सुजातं केवलज्ञानं, स्वयंप्रभू प्रभु स्वयं प्रधानं
ऋषभानन ऋषि भानन दोषं, अनंतवीरज वीरज कोषं ॥

सौरीप्रभ सौरीगुणमालं, सुगुण विशाल विशाल दयालं
वज्रधार भवगिरि वज्जर हैं, चन्द्रानन चन्द्रानन वर हैं ॥
भद्रबाहु भद्रनि के करता, श्रीभुजंग भुजंगम हरता
ईश्वर सबके ईश्वर छाजैं, नेमिप्रभु जस नेमि विराजैं ॥

वीरसेन वीरं जग जानैं, महाभद्र महाभद्र बखानै ॥
नमों जसोधर जसधरकारी, नमों अजित वीरज बलधारी ॥
धनुष पाँचसै काय विराजै, आयु कोटि पूर्व सब छाजै
समवशरण शोभित जिनराजा, भवजल-तारन-तरन जिहाजा ॥

सम्यक् रत्नत्रय-निधि दानी, लोकालोक-प्रकाशक ज्ञानी
शत-इन्द्रनि करि वंदित सोहैं, सुर-नर-पशु सबके मन मोहैं ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति विद्यमान तीर्थंकरेभ्य अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

तुमको पूजें वंदना, करैं धन्य नर सोय
'द्यानत' सरधा मन धरैं, सो भी धर्मी होय ॥
पुष्पांजलिं क्षिपेत्



बाहुबली-भगवान🏠
पवैयाजी कृत
जयति बाहुबलि स्वामी, जय जय करूँ वंदना बारम्बार
निज स्वरूप का आश्रय लेकर, आप हुए भवसागर पार ॥
हे त्रैलोक्यनाथ त्रिभुवन में, छाई महिमा अपरम्पार
सिद्धस्वपद की प्राप्ति हो गई, हुआ जगत में जय-जयकार ॥
पूजन करने मैं आया हूँ, अष्ट द्रव्य का ले आधार
यही विनय है चारों गति के, दु:ख से मेरा हो उद्धार ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

उज्ज्वल निर्मल जल प्रभु पद-पंकज में आज चढ़ाता हूँ
जन्म-मरण का नाश करूँ, आनन्दकन्द गुण गाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

शीतल मलय सुगन्धित पावन, चन्दन भेंट चढ़ाता हूँ
भव आताप नाश हो मेरा, ध्यान आपका ध्याता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

उत्तम शुभ्र अखण्डित तन्दुल, हर्षित चरण चढ़ाता हूँ
अक्षयपद की सहज प्राप्ति हो, यही भावना भाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

काम शत्रु के कारण अपना, शील स्वभाव न पाता हूँ
काम भाव का नाश करूँ मैं, सुन्दर पुष्प चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

तृष्णा की भीषण ज्वाला में, प्रतिपल जलता जाता हूँ
क्षुधा-रोग से रहित बनूँ मैं, शुभ नैवेद्य चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोह ममत्व आदि के कारण, सम्यक् मार्ग न पाता हूँ
यह मिथ्यात्व तिमिर मिट जाये, प्रभुवर दीप चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

है अनादि से कर्म बन्ध दु:खमय, न पृथक् कर पाता हूँ
अष्टकर्म विध्वंस करूँ, अत एव सु-धूप चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

सहज भाव सम्पदा युक्त होकर, भी भव दु:ख पाता हूँ
परम मोक्षफल शीघ्र मिले, उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

पुण्य भाव से स्वर्गादिक पद, बार-बार पा जाता हूँ
निज अनर्घ्य पद मिला न अब तक, इससे अर्घ्य चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिव सुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
आदिनाथ सुत बाहुबलि प्रभु, मात सुनन्दा के नन्दन
चरम शरीरी कामदेव तुम, पोदनपुर पति अभिनन्दन ॥
छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर, भरत चढ़े वृषभाचल पर
अगणित चक्री हुए नाम लिखने को मिला न थल तिल भर ॥

मैं ही चक्री हुआ, अहं का मान धूल हो गया तभी
एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी, लिखी प्रशस्ति स्व हस्त जभी ॥
चले अयोध्या किन्तु नगर में, चक्र प्रवेश न कर पाया
ज्ञात हुआ लघु भ्रात बाहुबलि सेवा में न अभी आया ॥

भरत चक्रवर्ती ने चाहा, बाहुबलि आधीन रहे
ठुकराया आदेश भरत का, तुम स्वतंत्र स्वाधीन रहे ॥
भीषण युद्ध छिड़ा दोनों भाई के मन संताप हुए
दृष्टि-मल्ल-जल युद्ध भरत से करके विजयी आप हुए ॥

क्रोधित होकर भरत चक्रवर्ती, ने चक्र चलाया है
तीन प्रदक्षिणा देकर कर में, चक्र आपके आया है ॥
विजय चक्रवर्ती पर पाकर, उर वैराग्य जगा तत्क्षण
राज्यपाट तज ऋषभदेव के, समवशरण को किया गमन ॥

धिक्-धिक् यह संसार और, इसकी असारता को धिक्कार
तृष्णा की अनन्त ज्वाला में, जलता आया है संसार ॥
जग की नश्वरता का तुमने, किया चिंतवन बारम्बार
देह भोग संसार आदि से, हुई विरक्ति पूर्ण साकार ॥

आदिनाथ प्रभु से दीक्षा ले, व्रत संयम को किया ग्रहण
चले तपस्या करने वन में, रत्नत्रय को कर धारण ॥
एक वर्ष तक किया कठिन तप, कायोत्सर्ग मौन पावन
किन्तु शल्य थी एक हृदय में, भरत-भूमि पर है आसन ॥

केवलज्ञान नहीं हो पाया, एक शल्य ही के कारण
परिषह शीत ग्रीष्म वर्षादिक, जय करके भी अटका मन ॥
भरत चक्रवर्ती ने आकर, श्री चरणों में किया नमन
कहा कि वसुधा नहीं किसी की, मान त्याग दो हे भगवन् ॥

तत्क्षण शल्य विलीन हुई, तुम शुक्ल ध्यान में लीन हुए
फिर अन्तर्मुहूर्त में स्वामी, मोह क्षीण स्वाधीन हुए ॥
चार घातिया कर्म नष्ट कर, आप हुए केवलज्ञानी
जय जयकार विश्व में गूँजा, सारी जगती मुसकानी ॥

झलका लोकालोक ज्ञान में, सर्व द्रव्य गुण पर्यायें
एक समय में भूत भविष्यत्, वर्तमान सब दर्शायें ॥
फिर अघातिया कर्म विनाशे, सिद्ध लोक में गमन किया
अष्टापद से मुक्ति हुई, तीनों लोकों ने नमन किया ॥

महा मोक्ष फल पाया तुमने, ले स्वभाव का अवलंबन
हे भगवान बाहुबलि स्वामी, कोटि-कोटि शत-शत वंदन ॥
आज आपका दर्शन करने, चरण-शरण में आया हूँ
शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको, यही भाव भर लाया हूँ ॥

भाव शुभाशुभ भव निर्माता, शुद्ध भाव का दो प्रभु दान
निज परिणति में रमण करूँ प्रभु, हो जाऊँ मैं आप समान ॥
समकित दीप जले अन्तर में, तो अनादि मिथ्यात्व गले
राग-द्वेष परिणति हट जाये, पुण्य पाप सन्ताप टले ॥

त्रैकालिक ज्ञायक स्वभाव का, आश्रय लेकर बढ़ जाऊँ
शुद्धात्मानुभूति के द्वारा, मुक्ति शिखर पर चढ़ जाऊँ ॥
मोक्ष-लक्ष्मी को पाकर भी, निजानन्द रस लीन रहूँ
सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊँ, सदा सुखी स्वाधीन रहूँ ॥

आज आपका रूप निरख कर, निज स्वरूप का भान हुआ
तुम-सम बने भविष्यत् मेरा, यह दृढ़ निश्चय ज्ञान हुआ
हर्ष विभोर भक्ति से पुलकित, होकर की है यह पूजन
प्रभु पूजन का सम्यक् फल हो, कटें हमारे भव बंधन ॥

चक्रवर्ति इन्द्रादिक पद की नहीं कामना है स्वामी
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम पद पायें हे! अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

घर-घर मंगल छाये जग में वस्तु स्वभाव धर्म जानें
वीतराग विज्ञान ज्ञान से, शुद्धातम को पहिचानें ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



बाहुबली-भगवान🏠
ब्र.श्री रविन्द्र जी 'आत्मन्' कृत
हे बाहुबली! अद्भुत अलौकिक, ज्ञान मुद्रा राजती ।
प्रत्यक्ष दिखता आत्मप्रभुता, शील महिमा जागती ॥
तुम भक्तिवश वाचाल हो गुणगान प्रभुवर मैं करूँ ।
निरपेक्ष हो पर से सहज पूजूँ स्वपद दृष्टि धरूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

स्वयंसिद्ध सुख निधान आत्मदृष्टि लायके,
जन्म-मरण नाशि हों मोह को नशायिके ।
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

कल्पना, अनिष्ट-इष्ट की तजूँ अज्ञानमय,
परिणति प्रवाहरूप होय शान्त ज्ञानमय ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

पराभिमान त्याग के, सु भेदज्ञान भायके,
लहूँ विभव सु अक्षयं, निजात्म में रमाय के ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

छोड़ भोग रोग सम सु ब्रह्मरूप ध्याऊँगा,
काम हो समूल नष्ट सुख-अनंत पाऊँगा ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

तोषसुधा पान करूँ आशा तृष्णा त्याग के,
मग्न स्वयं में ही रहूँ चित्स्वरूप भाय के ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

चेतना प्रकाश में चित् स्वरूप अनुभवूँ,
पाऊँगा कैवल्यज्योति कर्म घातिया दलूँ ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

आत्म ध्यान अग्नि में विभाव सर्व जारीहों,
देव आपके समान सिद्ध रूप धारि हों ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

इन्द्र चक्रवर्ति के भी पद अपद नहीं चहूँ,
त्रिकाल मुक्त पद अराध मुक्तपद लहूँ लहूँ ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

अनर्घ्य प्रभुता आपकी सु आप में निहारिके,
नाथ भाव माँहिं में, अनर्घ्य अर्घ्य धारिके ॥
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूँ सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
मोहजयी इन्द्रियजयी, कर्मजयी जिनराज ।
भावसहित गुण गावहुँ, भाव विशुद्धि काज ॥

जोगीरासा
अहो बाहुबलि स्वामी पाऊँ, सहज आत्मबल ऐसा ।
निर्मम होकर साधूँ निजपद, नाथ आप ही जैसा ॥
धन्य सुनन्दा के नन्दन प्रभु, स्वाभिमान उर धारा ।
चक्री को नहिं शीस झुकाया, यद्यपि अग्रज प्यारा ॥

कर्मोदय की अद्भुत लीला, युद्ध प्रसंग पसारा ।
युद्ध क्षेत्र में ही विरक्त हो, तुम वैराग्य विचारा ॥
कामदेव होकर भी प्रभु, निष्काम तत्त्व आराधा ।
प्रचुर विभव, रमणीय भोग भी, कर न सके कुछ बाधा ॥

विस्मय से सब रहे देखते, क्षमा भाव उर धारे ।
जिनदीक्षा ले शिवपद पाने, वन में आप पधारे ॥
वस्त्राभूषण त्यागे लख निस्सार, हुए अविकारी ।
केशलौंच कर आत्म -मग्न हो, सहज साधुव्रत धारी ॥

हुए आत्म-योगीश्वर अद्भुत, आसन अचल लगाया ।
नहिं आहार-विहार सम्बन्धी, कुछ विकल्प उपजाया ॥
चरणों में बन गई वाँमि, चढ़ गई सु तन पर बेलें ।
तदपि मुनीश्वर आनन्दित हो, मुक्तिमार्ग में खेलें ॥

नित्यमुक्त निर्ग्रन्थ ज्ञान-आनन्दमयी शुद्धात्म ।
अखिल विश्व में ध्येय एक ही, निज शाश्वत परमातम ॥
निजानन्द ही भोग नित्य, अविनाशी वैभव अपना ।
सारभूत है, व्यर्थ ही मोही, देखे झूठा सपना ॥

यों ही चिंतन चले हृदय में, आप वर्तते ज्ञाता ।
क्षण-क्षण बढ़ती भाव-विशुद्धि, उपशमरस छलकाता ॥
एक वर्ष छद्मस्थ रहे प्रभु, हुआ न श्रेणी रोहण ।
चक्री शीश नवाया तत्क्षण, हुआ सहज आरोहण ॥

नष्ट हुआ अवशेष राग भी, केवल-लक्ष्मी पाई ।
अहो अलौकिक प्रभुता निज की, सब जग को दरशाई ॥
हुए अयोगी अल्प समय में, शेष कर्म विनशाए ।
ऋषभदेव से पहले ही प्रभु, सिद्ध शिला तिष्ठाए ॥

आप समान आत्मदृष्टि धर, हम अपना पद पावें ।
भाव नमन कर प्रभु चरणों में, आवागमन मिटावें ॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णांर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

सोरठा
बाहुबली भगवान, दर्शाया जग स्वार्थमय ।
जागे आत्मज्ञान, शिवानन्द मैं भी लहूँ ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



पंचमेरु-पूजन🏠
पं द्यानतरायजी कृत
गीता छन्द
तीर्थंकरोंके न्हवन - जलतें भये तीरथ शर्मदा,
तातें प्रदच्छन देत सुर - गन पंच मेरुन की सदा
दो जलधि ढाई द्वीप में सब गनत-मूल विराजहीं,
पूजौं असी जिनधाम - प्रतिमा होहि सुख दुख भाजहीं ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमा-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमा-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमा-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

शीतल-मिष्ट-सुवास मिलाय, जल सों पूजौं श्रीजिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं सुदर्शन-विजय-अचल-मन्दर-विद्युन्मालि-पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा

जल केशर करपूर मिलाय, गंध सों पूजौं श्रीजिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छत सों पूजौं जिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

वरन अनेक रहे महकाय, फूल सों पूजौं श्रीजिनराय
महासुख होय देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

मन वांछित बहु तुरत बनाय, चरू सों पूजौं श्रीजिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

तम-हर उज्जवल ज्योति जगाय, दीप सों पूजौं श्रीजिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा

खेऊं अगर अमल अधिकाय, धूपसों पूजौं श्रीजिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा

सरस सुवर्ण सुगंध सुभाय, फलसों पूजौं श्री जिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा

आठ दरबमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा
विद्युन्माली नामि, पंच मेरु जग में प्रगट ॥

प्रथम सुदर्शन मेरु विराजे, भद्रशाल वन भू पर छाजे
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥१॥
ऊपर पंच-शतकपर सोहे, नंदन-वन देखत मन मोहे
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥२॥

साढ़े बांसठ सहस ऊंचाई, वन सुमनस शोभे अधिकाई
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥३॥
ऊंचा जोजन सहस-छतीसं, पाण्डुक-वन सोहे गिरि-सीसं
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥४॥

चारों मेरु समान बखाने, भू पर भद्रशाल चहुं जाने
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥५॥
ऊंचे पांच शतक पर भाखे, चारों नंदनवन अभिलाखे
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥६॥

साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन सोमनस चार बहुरंगा
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥७॥
उच्च अठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥८॥

सुर नर चारन वंदन आवें, सो शोभा हम किंह मुख गावें
चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ॥९॥
दोहा
पंचमेरु की आरती, पढ़े सुनें जो कोय
'द्यानत' फल जाने प्रभू, तुरत महासुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत्



नंदीश्वर-द्वीप-पूजन🏠
द्यानतरायजी कृत
सरव परव में बड़ो अठाई परव है
नन्दीश्वर सुर जाहिं लेय वसु दरब है
हमैं सकति सो नाहिं इहां करि थापना
पूजैं जिनगृह-प्रतिमा है हित आपना
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
अन्वयार्थ : सब पर्वों में सबसे बड़ा पर्व अष्टान्हिका पर्व है इस पर्व में चतुर्णिकाय (चारो निकाय के) के देव अष्ठ द्रव्य को लेकर अकृत्रिम चैत्यालय में जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने नंदीश्वर द्वीप जाते हैं । हमारी शक्ति नंदीश्वर द्वीप तक जाने की नहीं है । अत: हम यहीं पर नंदीश्वर द्वीप के जिनालयों की स्थापना कर जिनालय और जिनालयों मे स्थित जिन बिम्बों की अपने हित के लिए पूजा करते हैं ।

कंचन-मणि मय-भृंगार, तीरथ-नीर भरा
तिहुं धार दई निरवार, जामन मरन जरा
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे पूर्व-पश्चिमोत्तर-दक्षिण दिक्षु द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाश नाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान स्वर्ण के रत्न जडित मूंग (कलश) में तीर्थ का जल भरकर जन्म जरा और मृत्यु को नष्ट करने को आपके चरणों के समक्ष तीन धार देता हूँ । नंदीश्वर द्वीप के बावन जिन मंदिरो की प्रतिमाओं की आठ दिन तक आनंदित होता हुआ उत्साह को धारण कर पूजा करता हूँ । नंदीश्वर द्वीप महान है चारों दिशाओं में सुन्दरता को धारण किये हुए है वहाँ बावन जिन मंदिर है जो देवों और मनुष्यों के मन मोहित करने वाले हैं ।

भव-तप-हर शीतल वास, सो चंदन नाहीं
प्रभु यह गुन कीजै सांच, आयो तुम ठाहीं
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो संसार ताप विनाश नाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान भव की ताप को नष्ट करने के लिए शीतल सुगंधित चन्दन समर्थ नहीं है यह गुण तो आप में ही है, अर्थात् (भव की ताप नष्ट करने में आप ही समर्थ हो) । इसलिए चंदन लेकर आपके समीप आया हूँ । नंदीश्वर द्वीप के बावन जिन मदिरों की आठ दिन सुन्दर प्रतिमाओं की, आनंदित होता हुआ उत्साह से पूजा करता हूँ ।

उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहै
सब जीते अक्ष-समाज, तुम सम अरु को है
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र देव श्रेष्ठ अक्षतों का पुंज आपके समक्ष रखा हुआ बड़ा सुशोभित हो रहा है । आपने सभी इन्द्रिय समूह को जीत लिया है । आपके समान और कोई नही है । नंदीश्वर द्वीप के बावन जिन मंदिरों की आठ दिन सुन्दर प्रतिमाओं की आनंदित होता हुआ उत्साह से पूजा करता हूँ ।

तुम काम विनाशक देव, ध्याऊं फूलनसौं
लहुं शील लच्छमी एव, छूटों सूलनसों
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र भगवान आप काम को नष्ट करने वाले हो, पुष्पों से आपकी पूजा करता हूँ । शील रूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर संसार के दुःखों से छूटना चाहता हूँ । नंदीश्वर द्वीप के बावन जिन मंदिरों की आठ दिन सुन्दर प्रतिमाओं की आनंदित होता हुआ उत्साह से पूजा करता हूँ ।

नेवज इन्द्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा
चरु तुम ढिग सोहै सार, अचरज है पूरा
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : इन्द्रियों को बलवान बनाने वाला नैवद्य है, हे भगवान उन इन्द्रियों को आपने समाप्त कर दिया है (अब आप अहार नहीं लेते) जो अत्यन्त आश्चर्य की बात है इसीलिए श्रेष्ठ नैवेद्य आपके निकट सुशोभित हो रहा है ।

दीपक की ज्योति प्रकाश, तुम तन मांहि लसै
टूटे करमन की राश, ज्ञान कणी दरशे
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान! दीपक की ज्योति का प्रकाश आपके शरीर में सुशोभित हो रहा है । आपकी दीपक से पूजा करने से कर्म नष्ट हो जाते हैं और केवल-ज्ञान की किरण फूट पड़ती है ।

कृष्णा गरु धूप सुवास, दश दिशि नारि वरैं
अति हरष भाव परकाश, मानों नृत्य करैं
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो अष्ट कर्म दह नाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : कृष्ण अगर आदि सुगंधित धूप की सुगंधि दशों दिशाओं को इस प्रकार सुगंधित कर रही है मानो दश दिशा रूपी स्त्रियों का वरण ही कर रही हो और अत्यन्त हर्षित होकर हर्ष को प्रकाशित करने को नृत्य ही कर रही हो ।

बहु विधि फल ले तिहुं काल, आनंद राचत हैं
तुम शिव फल देहु दयाल, तुहि हम जाचत हैं
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : बहुत प्रकार के तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले अर्थात् छहों ऋतुओं के, आनंद को देने वाले फलों से आपकी पूजा करता हूँ । हे दीनदयाल प्रभु ! आप मुझे मोक्ष रूपी फल प्रदान करें ऐसी हम आपसे याचना करते हैं ।

यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हों
‘द्यानत’ कीज्यो शिव खेत, भूमि समरपतु हों
नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों
वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों
नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : यह अष्ट द्रव्यमय अर्घ्य मैने अपने कल्याण के लिए किया है जिसे आपके चरणों में अर्पित कर रहा हूँ । श्री द्यानत राय जी कहते हैं कि हे नाथ मैने मोक्ष की खेती की है । उसकी भूमि में बीज स्वरूप यह अर्ध्य समर्पित कर रहा हूँ ।


जयमाला
कार्तिक फागुन साढके, अंत आठ दिन माहिं
नंदीश्वर सुर जात हैं, हम पूजैं इह ठाहिं
अन्वयार्थ : कार्तिक, फाल्गुन, और आषाढ़ माह के अंतिम आठ दिनों में देव गण नंदीश्वर द्वीप पूजा करने जाते है । हम असमर्थ होने के कारण (इसी स्थान पर) यहाँ ही पूजा करते है ।

एकसौ त्रेसठ कोडि जोजन महा,
लाख चौरासिया इक दिश में लहा
आठमों द्वीप नंदीश्वरं भास्वरं,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥

चार दिशि चार अंजन गिरी राजहीं,
सहस चौरासिया एक दिश छाजहीं
ढोल सम गोल ऊपर तले सुन्दरं,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥

एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी,
एक इक लाख जोजन अमल-जल भरी
चहु दिशा चार वन लाख जोजन वरं,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥

सोल वापीन मधि सोल गिरि दधि-मुखं,
सहस दश महा-जोजन लखत ही सुखं
बावरी कौन दो माहि दो रति करं,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥

शैल बत्तीस इक सहस जोजन कहे,
चार सोलै मिले सर्व बावन लहे
एक इक सीस पर एक जिन मन्दिरं,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥

बिंब अठ एक सौ रतन-मयि सोहहीं,
देव देवी सरव नयन मन मोहहीं
पांच सै धनुष तन पद्म आसन परम,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥

लाल नख-मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं,
स्याम-रंग भौंह सिर केश छबि देत हैं
बचन बोलत मनों हंसत कालुष हरं,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥

कोटि शशि भानु दुति तेज छिप जात है,
महा-वैराग परिणाम ठहरात है
वयन नहिं कहै लखि होत सम्यक धरं,
भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुख करं ॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : नंदीश्वर द्वीप की एक दिशा का विस्तार चौड़ाई एक सौ त्रेसठ करोड चौरासी लाख महा योजन है । आगम में नंदीश्वर द्वीप आठवां द्वीप कहा गया है सुख को करने वाली बावन जिनालयों में स्थित सर्व प्रतिमाओं को नमस्कार करता हूँ ।

नंदीश्वर जिन धाम, प्रतिमा महिमा को कहै
'द्यानत' लीनो नाम, यही भगति शिव सुख करै
अन्वयार्थ : नंदीश्वर द्वीप के जिन मंदिरों, एवं प्रतिमाओं की महिमा को कौन कह सकता है द्यानतराय जी कहते हैं कि इनका नाम लेना मात्र ही भक्ति है जो मोक्ष सुख को करने वाली है ।




निर्वाणक्षेत्र🏠
पण्डित द्यानतरायजी कृत

परम पूज्य चौबीस, जिहँ जिहँ थानक शिव गये
सिद्धभूमि निश-दीस, मन-वच-तन पूजा करौं ॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र मम सन्निहितानि भवत् भवत् वषट् सन्निधि करणं

शुचि क्षीर-दधि-समनीर निरमल, कनक-झारी में भरौं
संसार पार उतार स्वामी, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा

केशर कपूर सुगन्ध चन्दन, सलिल शीतल विस्तरौं
भव-ताप कौ सन्ताप मेटो, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्य: चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

मोती-समान अखण्ड तन्दुल, अमल आनन्द धरि तरौं
औगुन-हरौ गुन करौ हमको, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्य: अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

शुभ फूल-रास सुवास-वासित, खेद सब मन के हरौं
दु:ख-धाम काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नेवज अनेक प्रकार जोग मनोग धरि भय परिहरौं
यह भूख-दूखन टार प्रभुजी, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीपक-प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिरसेती नहिं डरौं
संशय-विमोह-विभरम-तम-हर, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ-धूप परम-अनूप पावन, भाव पावन आचरौं
सब करम पुञ्ज जलाय दीज्यो, जोर-कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा

बहु फल मँगाय चढ़ाय उत्तम, चार गतिसों निरवरौं
निहचैं मुकति-फल-देहु मोको, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल गन्ध अच्छत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं
'द्यानत' करो निरभय जगतसों, जोर कर विनती करौं ॥
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
श्रीचौबीस जिनेश, गिरि कैलाशादिक नमों
तीरथ महाप्रदेश, महापुरुष निरवाणतैं ॥

नमों ऋषभ कैलासपहारं, नेमिनाथ गिरनार निहारं
वासुपूज्य चम्पापुर वन्दौं, सन्मति पावापुर अभिनन्दौं ॥
वन्दौं अजित अजित-पद-दाता, वन्दौं सम्भव भव-दु:ख घाता
वन्दौं अभिनन्दन गण-नायक, वन्दौं सुमति सुमति के दायक ॥

वन्दौं पद्म मुकति-पद्माकर, वन्दौं सुपास आश-पासहर
वन्दौं चन्द्रप्रभ प्रभु चन्दा, वन्दौं सुविधि सुविधि-निधि-कन्दा ॥
वन्दौं शीतल अघ-तप-शीतल, वन्दौं श्रेयांस श्रेयांस महीतल
वन्दौं विमल-विमल उपयोगी, वन्दौं अनन्त-अनन्त सुखभोगी ॥

वन्दौं धर्म-धर्म विस्तारा, वन्दौं शान्ति, शान्ति मनधारा
वन्दौं कुन्थु, कुन्थु रखवालं, वन्दौं अर अरि हर गुणमालं ॥
वन्दौं मल्लि काम मल चूरन, वन्दौं मुनिसुव्रत व्रत पूरन
वन्दौं नमि जिन नमित सुरासुर, वन्दौं पार्श्व-पास भ्रमजगहर ॥

बीसों सिद्धभूमि जा ऊपर, शिखर सम्मेद महागिरि भू पर
एक बार वन्दै जो कोई, ताहि नरक पशुगति नहिं होई ॥
नरपति नृप सुर शक्र कहावै, तिहुँ जग भोग भोगि शिव पावै
विघन विनाशन मंगलकारी, गुण-विलास वन्दौं भवतारी ॥
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
धत्ता
जो तीरथ जावै, पाप मिटावै, ध्यावै गावै, भगति करै
ताको जस कहिये, संपति लहिये, गिरि के गुण को बुध उचरै ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्



कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालय-पूजन🏠
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालय को वन्दन ।
उर्ध्व मध्य पाताल लोक के जिन भवनों को करूं नमन ॥
हैं अकृत्रिम आठ कोटि अरु छप्पन लाख परम पावन ।
संतानवे सहस्त्र चार सौ इक्यासी गृह मन भावन ॥
कृत्रिम अकृत्रिम जो असंख्य चैत्यालय हैं उनको वन्दन ।
विनय भाव से भक्ति पूर्वक नित्य करूँ मैं जिन पूजन ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

सम्यक् जल की निर्मल उज्ज्वलता से जन्म जरा हर लूँ ।
मूल धर्म का सम्यक्‌ दर्शन हे प्रभु हृदयंगम कर लूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

सम्यक्‌ चन्दन पावन की शीतलता से भव-भय हर लूँ ।
वस्तु स्वभाव धर्म है सम्यक्‌ ज्ञान आत्मा में भर लूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

सम्यक्चारित की अखंडता से अक्षयपद आदर लूँ ।
साम्यभाव चारित्र धर्म पा वीतरागता को वर लूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

शील स्वभावी पुष्प प्राप्त कर कामशत्रु को क्षय करलूँ ।
अणुव्रत शिक्षाव्रत गुणव्रत धर पंच महाव्रत आचरलूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

संतोषामृत के चरु लेकर क्षुधा व्याधि को जय कर लूँ ।
सत्य शौच तप त्याग क्षमा से भाव शुभाशुभ सब हर लूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

ज्ञानदीप के चिर प्रकाश से मोह ममत्व तिमिर हर लूँ ।
रत्नत्रय का साधन लेकर यह संसार पार कर लूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

ध्यान-अग्नि में कर्म धूप धर अष्टकर्म अघ को हरलूँ ।
धर्म श्रेष्ठ मंगल को पा शिवमय सिद्धत्व प्राप्त करलूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन करलूँ ।
ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हरलूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

भेद-ज्ञान विज्ञान ज्ञान से केवलज्ञान प्राप्त करलूँ ।
परमभाव सम्पदा सहजशिव महामोक्षफल को वरलूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

द्वादश विधितप अर्ध संजोकर जिनवर पद अनर्घ वरलूँ ।
मिथ्या अविरति पंच प्रमाद कषाय योग बन्धन हरलूँ ॥
तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ ।
ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
इस अनन्त आकाश बीच में, तीन लोक हैं पुरुषाकार ।
तीनों वातवलय से वेष्टित, सिंधु बीच ज्यों बिन्दु प्रसार ॥
उर्ध्व सात हैं, अधों सात हैं, मध्य एक राजु विस्तार ।
चौदह राजु उतंग लोक हैं, त्रस नाड़ी त्रस का आधार ॥

तीनलोक में भवन अकृत्रिम आठ कोटि अरुछप्पन लाख ।
संतानवे सहस्त्र चार सौ इक्‍यासी जिन आगम साख ॥
उर्ध्व लोक में कल्पवासियों के जिनगृह चौरासी लक्ष ।
संतानवे सहस्त्र तेईस जिनालय हैं शाश्वत प्रत्यक्ष ॥

अधोलोक में भवनवासि के लाख बहत्तर, करोड़ सात ।
मध्यलोक के चार शतक अठ्ठावन चैत्यालय विख्यात ॥
जम्बूधातकी पुष्करार्ध में पंचमेरु के जिनगृह ख्यात ।
जम्बूवृक्ष शाल्मलितरु अरू विजयारध के अति विख्यात ॥

वक्षारों गजदंतों ईष्वाकारों के पावन जिनगेह ।
सर्व कुलाचल मानुषोत्तर पर्वत के वन्दू धर नेह ॥
नन्‍दीश्वर कुण्डलवर द्वीप रुचकवर के जिन चैत्यालय ।
ज्योतिष व्यंतर स्वर्गलोक अरु भवनवासि के जिनआलय ॥

एक-एक में एक शतक अरु आठ-आठ जिन मूर्ति प्रधान ।
अष्ट प्रातिहार्यों वसु मंगल द्रव्यों से अति शोभावान ॥
कुल प्रतिमा नौ सौ पच्चीस करोड़ तिरेपन लाख महान ।
सत्ताइस सहस्त्र अरु नौ सौ अड़तालिस अकृत्रिम जान ॥

उन्नत धनुष पांच सौ पद्मासन है रत्नमयी प्रतिमा ।
वीतराग अर्हन्त मूर्ति की है पावन अचिन्त्य महिमा ॥
असंख्यात संख्यात जिन-भवन तीन-लोक में शोभित हैं ।
इंद्रादिक सुर नर विद्याधर मुनि वन्‍दन कर मोहित हैं ॥

देव रचित या मनुज रचित, हैं भव्यजनों द्वारा वंदित ।
कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय को पूजन कर मैं हूँ हर्षित ॥
ढाईद्वीप में भूत भविष्यत वर्तमान के तीर्थंकर ।
पंचवर्ण के मुझे शक्ति दें मैं निज पद पाऊँ जिनवर ॥

जिनगुण सम्पत्ति मुझे प्राप्त दो परम समाधिमरण हो नाथ ।
सकलकर्म क्षय हो प्रभु मेरे बोधिलाभ हो हे जिननाथ ॥
ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा



अष्टापद-कैलाश-पूजन🏠
अष्टापद कैलाश शिखर पर्वत को बन्दु बारम्बार ।
ऋषभदेव निर्वाण धरा की गूंज रही है जय-जयकार ॥
बाली महाबालि मुनि आदिक मोक्ष गये श्री नागकुमार ।
इस पर्वत की भाव वंदना कर सुख पाऊँ अपरम्पार ॥
वर्तमान के प्रथम तीर्थंकर को सविनय नमन करूँ ।
श्री कैलाश शिखर पूजन कर सम्यक्दर्शन ग्रहण करूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा सम्यक जल से है परिपूर्ण ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली आश्रय से हो जन्म-मरण सब चूर्ण ।
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥1॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा में है चित्चमत्कार की गंध ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होता कभी न बंध ।
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥2॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो संसारताप विनाशनाय चदनं निर्वपामीति स्वाहा

सहजानंद स्वरूप आत्मा में अक्षय गुण का भंडार ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से मिट जाता संसार ॥
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥3॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्रापताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

सहजानंद स्वरूप आत्मा मे हैं शिव-सुख सुरभि अपार ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से जाती काम विकार
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥4॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

पुर्णानन्द स्वरूप आत्मा में है परम भाव नैवेद्य ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से हो जाता निर्वेद ॥
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥5॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

पूर्णानन्द स्वरूप आत्मा पूर्ण ज्ञान का सिंधु महान ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होते कर्म विनाश ॥
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥6॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

नित्यानंद स्वरूप आत्मा में है ध्यान धूप की वास ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होते कर्म विनाश ।
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥7॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो दुष्टाष्टकर्मविध्वसनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा

सिद्धानंद स्वरूप आत्मा में तो शिव फल भरे अनन्त ।
ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होता मोक्ष तुरन्त ॥
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥8॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्धानन्द स्वरूप आत्मा है अनर्घ्य पद का स्वामी ।
धुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से हो त्रिभुवन नामी ॥
ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश ।
नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥9॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्धपद प्राप्ताय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
अष्टापद कैलाश से आदिनाथ भगवान ।
मुक्त हुए निज ध्यानधर हुआ मोक्ष कल्याण ॥1॥

श्री कैलाश शिखर अष्टापद तीन लोक में है विख्यात ।
प्रथम तीर्थंकर स्वामी ने पाया अनुपम मुक्ति प्रभात ॥2॥
इसी धरा पर ऋषभदेव को प्रगट हुआ था केवलज्ञान ।
समवशरण में आदिनाथ की खिरी दिव्यध्वनि महामहान ॥3॥

राग मात्र को हेय जान जो द्रव्य दृष्टि बन जायेगा ।
सिद्ध स्वपद की प्राप्ति करेगा शुद्ध मोक्ष पद पायेगा ॥4॥
सम्यक्दर्शन की महिमा को जो अंतर में लायेगा ।
रत्नत्रय की नाव बैठकर भव-सागर तर जायेगा ॥5॥

गुणस्थान चौदहवाँ पाकर तीजा शुक्ल-ध्यान ध्याया ।
प्रकृति बहत्तर द्विचरम समय में क्षयकर अनुपमपद पाया ॥6॥
अंतिम समय ध्यान चौथा ध्या देह-नाश कर मुक्त हुए ।
जा पहुँचे लोकाग्र शीश पर मुक्ति-वधू से युक्त हुए ॥7॥

तन परमाणु खिरे कपूरवत शेष रहे नख केश प्रधान ।
मायामय तन रच देवों ने किया अग्नि संस्कार महान ॥8॥
बालि महाबालि मुनियों ने तप कर यहाँ स्वपद पाया ।
नागकुमार आदि मुनियों ने सिद्ध स्वपद को प्रगटाया ॥9॥

यह निर्वाण भूमि अति पावन अति पवित्र अतिसुखदायी ।
जिसने द्रव्य दृष्टि पाई उसको ही निज महिमा आयी ॥10॥
भरत चक्रवर्ती के द्वारा बने बहत्तर जिन मन्दिर ॥
भूत भविष्यत् वर्तमान भारत की चौबीसी सुन्दर ॥11॥

प्रतिनारायण रावण की दुष्टेच्छा हुई न किंचित पूर्ण ।
बाली मुनि के एक अंगूठे से हो गया गर्व सब चूर्ण ॥12॥
मंदोदरी सहित रावण ने क्षमा प्रार्थना की तत्क्षण ।
जिन मुनियों के क्षमा भाव से हुआ प्रभावित अंतर मन ॥१३॥

मैं अब प्रभु चरणों की पूजन करके निज स्वभाव ध्याऊँ ।
आत्मज्ञान की प्रचुर शाक्ति पा निज-स्वभाव में मुस्काऊँ ॥14॥
राग-मात्र को हेय जानकर शद्ध भावना ही पाऊँ।
एक दिवस ऐसा आए प्रभु तुम समान मैं बन जाऊँ ॥15॥

अष्टापद कैलाश शिखर को बार-बार मेरा वंदन ।
भाव शुभाशुभ का अभाव कर नाश करूँ भव दुख क्रन्दन ॥16॥
आत्म-तत्त्व का निर्णय करके प्राप्त करूं सम्यक्दर्शन ।
रत्नत्रय की महिमा पाऊँ धन्य-धन्य हो यह जीवन ॥17॥
ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाशतीर्थ क्षेत्रेभ्यो पूर्गाय निर्वपामीति स्वाहा

अष्टापद कैलाश की महिमा अगम अपार ।
निज स्वरूप जो साधते हो जाते भवपार ॥
इत्याशीर्वाद
जाप्यमंत्र - ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:



आ-कुंदकुंद-पूजन🏠
कवियत्री अरुणा जैन 'भारती'
मूलसंघ को दृढ़तापूर्वक, किया जिन्होंने रक्षित है ।
कुंदकुंद आचार्य गुरु वे, जिनशासन में वन्दित हैं ॥
काल-चतुर्थ के अंतिम-मंगल, महावीर-गौतम गणधर ।
पंचम में प्रथम महामंगल, श्री कुंदकुंद स्वामी गुरुवर ॥
उन महागुरु के चरणों में, अपना शीश झुकाता हूँ ।
आह्वानन करके त्रियोग से, निज-मन में पधराता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

भूलकर निजभाव को, भव-भव किया मैंने भ्रमण ।
है समर्पित जल चरण में, मिटे अब जामन-मरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

संतप्त हूँ भव-ताप से, तन-मन सहे दु:सह जलन ।
मिले शीतलता प्रभो! अब, दु:ख हों सारे शमन ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

ले अखंडित शुभ्र-तंदुल, पूजता हूँ तुम चरण ।
मिले मेरा पद मुझे अब, इसलिए आया शरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

मिले शील-स्वभाव मेरा, नष्ट हो शत्रु-मदन ।
मिटें मन की वासनायें, पुष्प हैं अर्पित चरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे, भी इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

यह भूख की ज्वाला प्रभो! बढ़ती रही हर एक क्षण ।
नैवेद्य अर्पित कर रहा, हो क्षुधा-व्याधि का हरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोह-ममता से सदा, मिथ्यात्व में होता रमण ।
मार्ग सम्यक् अब मिले, यह दीप है अर्पण चरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अष्ट कर्म-प्रकृतियों में, ही उलझता है ये मन ।
ऐसा हो पुरुषार्थ अब, हो जाए कर्मादि-दहन ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

मोक्षफल पाने को हो, रत्नत्रय की अब लगन ।
आत्मा बलवान हो, फल से अत: करता यजन ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

अर्घ्य मनहारी बना, अष्टांग से करता नमन ।
पद-अनर्घ्य की प्राप्ति को अब, हो सदा स्वातम-रमण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
जोगीरासा छन्द
साक्षात् सीमन्धर-वाणी, सुनी जिन्होंने क्षेत्र-विदेह ।
योगिराज सम्राट् स्वयं वे, ऋद्धिधारी गए सदेह ॥1॥

सरस्वती के वरदपुत्र वे, उनकी प्रतिभा अद्भुत थी ।
सीमंधर-दर्शन में उनकी, आत्मश​क्ति ही सक्षम थी ॥2॥

चौरासी पाहुड़ लिखकर के, जिन-श्रुत का भंडार भरा ।
ऐसे ज्ञानी-ध्यानी मुनि ने, इस जग का अज्ञान हरा ॥3॥

श्री कुंदकुंद आचार्य यदि, हमको सुज्ञान नहीं देते ।
कैसे होता ज्ञान निजातम, हम भी अज्ञानी रहते ॥4॥

बहुत बड़ा उपकार किया जो, परम्परा-श्रुत रही अचल ।
वर्ना घोर-तिमिर मोह में ही, रहते जग में जीव सकल ॥5॥

'समयसार' में परमातम, बनने का साधन-सार भरा ।
'पंचास्तिकाय' में श्री गुरुवर ने, द्रव्यों का निर्देश करा ॥6॥

'प्रवचनसार' रचा स्वामी ने, भेदज्ञान बतलाने को ।
'मूलाचार' लिखा मुनि-हित, आचार-मार्ग दर्शाने को ॥7॥

'नियमसार' अरु 'रयणसार' में, आत्मज्ञान के रत्न महान ।
सिंह-गर्जना से गुरुवर की, हुआ प्राणियों का कल्याण ॥8॥

हैं उपलब्ध अष्टपाहुड़ ही, लेकिन वे भी हैं अनमोल ।
ताड़पत्र पर हस्तलिखित हैं, कौन चुका सकता है मोल ॥9॥

भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलि, क्रमश: उनके शिष्य हुए ।
शास्त्रदान और माँ की लोरी, से ही स्वाश्रित मुनि हुए ॥10॥

वीर समान ही पाँच नाम हैं, इन महिमाशाली गुरु के ।
कुंदकुंद वक्रग्रीव गृद्धपिच्छ, एलाचार्य पद्मनन्दि ये ॥11॥

ऐसे देव-स्वरूपी साधु, यदा कदा ही होते हैं ।
जिनके पथ पर चलकर, लाखों जीव मुक्त हो जाते हैं ॥12॥

उन महान गुरु के चरणों में, श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं ।
गुरु-आज्ञा से पूजा रचकर, 'अरुणा' मन में हर्षित है ॥13॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
आचार्य कुंदकुंद गुरुवर का, जीवन सार महान् ।
जो भी यह पूजा पढ़ें उनका हो कल्याण ॥
॥ इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥



श्रीआदिनाथ🏠
जय आदिनाथ जिनेन्द्र जय जय प्रथम जिन तीर्थंकरम्‌ ।
जय नाभि सुत मरुदेवी नन्‍दन ऋषभप्रभु जगदीश्वरम् ॥
जय जयति त्रिभुवन तिलक चूड़ामणि वृषभ विश्वेश्वरम्‌ ।
देवाधि देव जिनेश जय जय, महाप्रभु परमेश्वरम् ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सभिहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

समकित जल दो प्रभु आदि निर्मल भाव धरूँ ।
दुख जन्म मरण मिट जाय जल से धार करूँ ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

समकित चंदन दो नाथ भव संताप हरूँ ।
चरणों में मलय सुगन्ध हे प्रभु भेंट करूँ ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

समकित तंदुल की चाह मन में मोद भरे ।
अक्षत से पूजूँ देव अक्षय पद संवरे ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

समकित के पुष्प सुरम्य दे दो हे स्वामी ।
यह काम भाव मिट जाय हे अन्तर्यामी ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

समकित चरु करो प्रदान मेरी भूख मिटे ।
भव भव की तृष्णा ज्वाल उर से दूर हटे ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

समकित दीपक की ज्योति मिथ्यातम भागे ।
देखूं निज सहज स्वरूप निज परिणति जागे ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

समकित की धूप अनूप कर्म विनाश करे ।
निज ध्यान अग्नि के बीच आठों कर्म जरे ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

समकित फल मोक्ष महान पाऊँ आदि प्रभो ।
हो जाऊँ सिद्ध समान सुखमय ऋषभ विभो ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय महामोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

वसु द्रव्य अर्घ जिनदेव चरणों में अर्पित ।
पाऊँ अनर्घपद नाथ अविकल सुख गर्भित ॥
जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता ।
तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंच कल्याणक
शुभ आषाढ़ कृष्ण द्वितीया को मरुदेवी उर में आये ।
देवों ने छह मास पूर्व से रत्न अयोध्या बरसाये ॥
कर्म भूमि के प्रथम जिनेश्वर तज सर्वार्थसिद्ध आये ।
जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर तीन लोक ने सुख पाये ॥
ॐ ह्रीं श्री आषढ़कृष्णद्वीतिया दिने गर्भमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

चैत्र कृष्ण नवमी को राजा नाभिराय गृह जन्म लिया ।
इन्द्रादिक ने गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेक किया ॥
नरक तिर्यञ्च सभी जीवों ने सुख अन्तर्मुहुर्त पाया ।
जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर जग में पूर्ण हर्ष छाया ॥
ॐ ह्रीं श्री चैत्रकृष्णनवमीदिने जन्ममंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

चैत्र कृष्ण नवमी को ही वैराग्य भाव उर छाया था ।
लौकान्तिक सुर इंद्रादिक ने तप कल्याण मनाया था ॥
पंच महाव्रत धारण करके पंच मुष्टि कच लोच किया ।
जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर तुमने मुनि पद धार लिया ॥
ॐ ह्रीं श्री चैत्रकृष्णनवमीदिने तपमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

एकादशी कृष्ण फागुन को कर्म घातिया नष्ट हुए ।
केवलज्ञान आप कर स्वामी वीतराग भगवन्त हुए ॥
दर्शन, ज्ञान, अनन्तवीर्य, सुख पूर्ण चतुष्टय को पाया ।
जय प्रभु ऋषभदेव जगती ने समवशरण लख सुख पाया ॥
ॐ ह्रीं श्री फाल्गुनवदी एकादशीदिने ज्ञानमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

माघ वदी की चतुर्दशी को गिरि कैलाश हुआ पावन ।
आठों कर्म विनाशे पया परम सिद्ध पद मन भावन ॥
मोक्ष लक्ष्मी पाई गिरि कैलाश शिखर निर्वाण हुआ ।
जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर भव्य मोक्ष कल्याण हुआ ॥
ॐ ह्रीं श्री माघवदी चतुर्दश्याम् महामोक्षमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
जम्बूद्वीप सु भरतक्षेत्र में नगर अयोध्यापुरी विशाल ।
नाभिराय चौदहवें कुलकर के सुत मरुदेवी के लाल ॥
सोलह स्वप्न हुए माता को पंद्रह मास रत्न बरसे ।
तुम आये सर्वार्थसिद्धि से माता उर मंगल सरसे ॥

मतिश्रुत अवधिज्ञान के धारी जन्मे हुए जन्म कल्याण ।
इंद्र सुरों ने हर्षित हो पाण्डुक शिला किया अभिषेक महान ॥
राज्य अवस्था में तुमने जन जन के कष्ट मिटाये थे ।
असि, मसि कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या षट्कर्म सिखाये थे ॥

एक दिवस जब नृत्यलीन सुरि नीलांजना विलीन हुई ।
है पर्याय अनित्य आयु उसकी पल भर में क्षीण हुई ॥
तुमने वस्तु स्वरूप विचारा जागा उर वैराग्य अपार ।
कर चिंतवन भावना द्वादश त्यागा राज्य और परिवार ॥

लौकान्तिक देवों ने आकर किया आपका जय जयकार ।
आस्रव हेय जानकर तुमने लिया हृदय में संवर धार ॥
वन सिद्धार्थ गये वट तरु नीचे वस्त्रों को त्याग दिया ।
'ऊँ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर मौन हुए तप ग्रहण किया ॥

स्वयं बुद्ध बन कर्मभूमि में प्रथम सुजिन दीक्षा धारी ।
ज्ञान मनःपर्यय पाया धर पंच महाव्रत सुख कारी ॥
धन्‍य हस्तिनापुर के राजा श्रैयांस ने दान दिया ।
एक वर्ष पश्चात्‌ इक्षुरस से तुमने पारणा किया ॥

एक सहस्त्र वर्ष तप कर प्रभु शुक्ल-ध्यान में हो तल्‍लीन ।
पाप-पुण्य आस्रव विनाश कर हुए आत्मरस में लवलीन ॥
चार-घातिया कर्म विनाशे पाया अनुपम केवलज्ञान ।
दिव्य-ध्वनि के द्वारा तुमने किया सकलजग का कल्याण ।

चौरासी गरणधर थे प्रभु के पहले वृषभसेन गणधर ।
मुख्य आर्यिका श्री ब्राम्ही श्रोता मुख्य भरत नृपवर ॥
भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में नाथ आपका हुआ विहार ।
धर्मचक्र का हुआ प्रवर्तन सुखी हुआ सारा संसार ॥

अष्टापद कैलाश धन्य हो गया तुम्हारा कर गुणगान ।
बने अयोगी कर्म अघातिया नाश किये पाया निर्वाण ॥
आज तुम्हारे दर्शन करके मेरे मन आनन्द हुआ ।
जीवन सफल हुआ है स्वामी नष्ट पाप दुख द्वंद्व हुआ ॥

यही प्रार्थना करता हूँ प्रभु उर में ज्ञान प्रकाश भरो ।
चारों गतियों के भव संकट का, हे जिनवर नाश करो ॥
तुम सम पद पा जाऊँ मैं भी यही भावना भाता हूँ ।
इसीलिए यह पूर्ण अर्घ चरणों में नाथ चढ़ाता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री श्रीऋषभदेव जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

वृषभ चिन्ह शोभित चरण ऋषभदेव उर धार।
मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
इत्याशीर्वाद



आदिनाथ-भगवान🏠
जिनेश्वरदासजी कृत
नाभिराय मरूदेवि के नंदन, आदिनाथ स्वामी महाराज
सर्वार्थ सिद्धितैं आप पधारे, मध्यलोक माहि जिनराज
इंद्रदेव सब मिलकर आये, जन्म महोत्सव करने काज
आह्वानन सबविधि मिल करके, अपने कर पूजें प्रभुपाय
अन्वयार्थ : आदिनाथ स्वामी महाराज नाभिराय और मरू देवि के (नंदन) पुत्र हैं, आप सर्वार्थ सिद्धि से इस मध्य लोक में पधारे हैं, इंद्र आदि देव जन्मोत्सव मानाने के लिए आये! हम सब मिलकर विधि पूर्वक आवाहनन, स्थापना करके, मन में विराजमान, सन्निधिकरण पूर्वक भगवान् के चरणों की पूजा करते हैं

ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

क्षीरोदधि को उज्जवल जल ले, श्री जिनवर पद पूजन जाय
जनम जरा दुःख मेटन कारन, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभु जी के पाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : मैं क्षीरसागर के स्वच्छ जल को लेकर श्री जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को पूजने के लिए जाता हूँ । जन्म और बुढ़ापे के कष्टों के निवारण हेतु प्रभु जी के कमल चरणो पर जल अर्पित करता हूँ । मैं श्री आदिनाथ के चरणों में मन वचन काय से (बलि बलि) सर्वस्व अर्पण करता हूँ । हे करुणानिधि, आप मेरे सांसारिक दुखों का निवारण कर दीजिये, इसलिए मैं प्रभु आप के चरणों की पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

मलयागिरी चंदन दाह निकंदन, कंचन झारी में भर ल्याय !!
श्री जी के चरण चढ़ावो भविजन, भव आताप तुरत मिट जाय !
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय!
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय !!
अन्वयार्थ : मलयागिरि का सर्वश्रेष्ठ, जलन का निवारक चंदन स्वर्ण की झारी में भरकर लाया हूँ । हेभव्य जीवों! इसको श्रीजी के चरणों में अर्पित करो, इससे संसार के दुखों का तुरंत निवारण हो जाता है । श्री आदिनाथ के कमल चरणों पर मैं मन वचन काय से सर्वस्व अर्पण करता हूँ । हे करुणानिधि, आप मेरे सांसारिक दुखों का निवारण कर दीजिये, इसलिए मैं प्रभु आप के चरणों की पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

शुभशालि अखंडित सौरभ मंडित, प्रासुक जलसों धोकर ल्याय
श्री जी के चरण चढ़ावो भविजन, अक्षय पद को तुरत उपाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : (शुभ) अच्छे शाली वन के (अखंडित) साबुत, सुगन्धित अक्षतों को प्रासुक जल से धोकर लाया हूँ । हे भव्य जीवों ! अक्षतों को श्रीजी के चरणों में अर्पित करना ही (अक्षय-पद) मोक्ष-पद की प्राप्ति का तुरंत उपाय है । श्री आदिनाथ के कमल चरणों पर मैं मन वचन काय से सर्वस्व अर्पण करता हूँ । हे करुणानिधि,आप मेरे सांसारिक दुखों का निवारण कर दीजिये,इसलिए मैं प्रभु आप के चरणों की पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

कमल केतकी बेल चमेली, श्री गुलाब के पुष्प मंगाय
श्री जी के चरण चढ़ावो भविजन, कामबाण तुरत नसि जाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : हे भव्य जीवों ! कमल, केतकी, बेल,चमेली और गुलाब के पुष्प मंगाकर भगवान् के चरणों में अर्पित करने से कामवासनाओं का तुरंत नाश होता है ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नेवज लीना षट्-रस भीना, श्री जिनवर आगे धरवाय
थाल भराऊँ क्षुधा नसाऊँ, जिन गुण गावत मन हरषाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : मैं षट् रसों से [भीना] परिपूर्ण नैवेद्य से भरा थाल, क्षुधा रोग को नष्ट करने के लिए भगवान् के समक्ष रख/अर्पित कर रहा हूँ जिनेन्द्र भगवान् के गुणो का गान करते हुए मेरा मन अत्यंत प्रसन्न हो रहा है ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा

जगमग जगमग होत दशोंदिश, ज्योति रही मंदिर में छाय
श्रीजी के सन्मुख करत आरती, मोहतिमिर नासै दुखदाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : मै दीपक लेकर आया हूँ जिसकी ज्योति मंदिर जी को जगमगा कर दसो दिशाओ मे फैलकर प्रकाशित कर रही है । ऐसे दीपक से भगवान् के समक्ष आरती करने से अत्यंत दुखदायी मोहरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगर कपूर सुगंध मनोहर, चंदन कूट सुगंध मिलाय
श्री जी के सन्मुख खेय धूपायन, कर्मजरे चहुँगति मिटि जाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : मैंने अगर, कपूर और मनोहर सुगन्धित चंदन और अन्य सुगन्धित पदार्थों को कूट कर धूप बनायी है । भगवान् के सम्मुख धूपायन में इनको मैं खे रहा हूँ जिस से मेरे कर्म नष्ट हो जाए और मेरा चतुर गति रूप संसार समाप्त हो जाए ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल और बादाम सुपारी, केला आदि छुहारा ल्याय
महा मोक्षफल पावन कारन, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभु जी के पाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : मैं श्री फल, बादाम, सुपारी, केला, छुहारा आदि सभी प्रकार के फल लेकर आया हूँ, उन्हें महा मोक्षफल प्राप्त करने के लिए,प्रभु आपके चरणों में अर्पित करता हूँ ।

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हरषाय
दीप धूप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
अन्वयार्थ : पवित्र शुद्ध, स्वच्छ जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य लेकर प्रसन्न चित मन से दीप, धुप और फलों के अर्घ को हाथ में लेकर नाचते हुए, ताली बजाते हुए और ढोल बजते हुए भगवान् की पूजा करता हूँ

ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

पञ्च कल्याणक के अर्घ
सर्वारथ सिद्धितैं चये, मरुदेवी उर आय
दोज असित आषाढ़ की, जजूँ तिहारे पाय ॥
अन्वयार्थ : सर्वार्थ सिद्धि से चय कर (वहाँ आयु पूर्ण कर) आप मरुदेवी माता के उदर / गर्भ में आषाढ़ बदी / कृष्णा पक्ष के द्वितीया को आये थे! मैं आपके चरणों की पूजा करता हूँ !

ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण द्वितीयायं गर्भ कल्याणक प्राप्ताये श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

चैतवदी नौमी दिना, जन्म्या श्री भगवान्
सुरपति उत्सव अति करा, मैं पूजौं धरी ध्यान ॥
अन्वयार्थ : चैत वदी/ कृष्णा के नवमी को भगवान् आदिनाथ का जन्म हुआ था, उस समय (सुरपति) इंद्र ने अति उत्साह पूर्वक उत्सव मनाया था ! मैं आपकी ध्यान पूर्वक पूजा करता हूँ !

ॐ ह्रीं चैतकृष्ण नवम्यां जन्मकल्याणक प्राप्ताये श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

तृणवत् ऋद्धि सब छांड़ि के, तप धार्यो वन जाय
नौमी चैत असेत की, जजूँ तिहारे पाय ॥
अन्वयार्थ : भगवन आपने समस्त वैभव को तृण के सामान छोड़कर वन में जाकर चैत वदी नवमी को तप धारण कर लिया !हम आपके चरणों की पूजा करते है

ॐ ह्रीं चैत कृष्ण नवम्यां तप कल्याणक प्राप्ताये श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

फाल्गुन वदि एकादशी, उपज्यो केवलज्ञान
इंद्र आय पूजा करी, मैं पूजो यह थान ॥
अन्वयार्थ : फाल्गुन कृष्ण एकादशी को आपको केवल ज्ञान उत्पान होने के कारण इंद्र ने यहाँ आकर आपकी पूजा करी थी, मैं भी इस(थान) स्थान पर आकर आपके ज्ञान कल्याणक की पूजा करता हूँ

ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण एकादश्म्यां ज्ञान कल्याणक प्राप्ताये श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

माघ चतुर्दशी कृष्ण को, मोक्ष गए भगवान्
भवि जीवों को बोधिके, पहुँचे शिवपुर थान ॥
अन्वयार्थ : माघ कृष्ण (वदि) चतुर्दशी को भगवान् आदिनाथ भव्य जीवों को उपदेश देकर मोक्ष (शिवपुर थान), सिद्धालय पधारे थे

ॐ ह्रीं माघ कृष्णचतुर्दश्यां मोक्ष कल्याणक प्राप्ताये श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
आदीश्वर महाराज, मैं विनती तुम से करूँ
चारों गति के माहिं, मैं दु:ख पायो सो सुनो ॥

लावनी छन्द
कर्म अष्ट मैं हूँ एकलो, ये दुष्ट महादु:ख देत हो
कबहूँ इतर-निगोद में, मोकूँ पटकत करत अचेत हो
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥1॥

प्रभु! कबहुँक पटक्यो नरक में, जठे जीव महादु:ख पाय हो
निष्ठुर निरदई नारकी, जठै करत परस्पर घात हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥2॥

प्रभु नरक तणा दुःख अब कहूँ, जठै जीव महादुख पाय हो
कोइयक बांधे खंभ सों पापी दे मुग्दर की मार हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥3॥

कोइयक काटे करौत सों पापी अंगतणी देय फाड़ हो
प्रभु! इहविधि दु:ख भुगत्या घणां, फिर गति पाई तिरियंच हो
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥4॥

हिरणा बकरा बाछला पशु दीन गरीब अनाथ हो
पकड़ कसाई जाल में पापी काट-काट तन खांय हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥5॥

प्रभु! मैं ऊँट बलद भैंसा भयो, जा पे लाद्यो भार अपार हो
नहीं चाल्यो जब गिर पड़्यो, पापी दें सोंटन की मार हो
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥6॥

प्रभु! कोइयक पुण्य-संयोग सूं, मैं तो पायो स्वर्ग-निवास हो
देवांगना संग रमि रह्यो, जठै भोगनि को परिताप हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥7॥

प्रभु! संग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर अति-अनुराग हो
कबहुँक नंदन-वन विषै, प्रभु कबहुँक वनगृह-माँहिं हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥8॥

प्रभु! यहि विधिकाल गमायकैं, फिर माला गई मुरझाय हो
देव-थिति सब घट गई, फिर उपज्यो सोच अपार हो
सोच करत तन खिर पड्यो,फिर उपज्यो गरभ में जाय हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥9॥

प्रभु! गर्भतणा दु:ख अब कहूँ, जठै सकुड़ाई की ठौर हो
हलन चलन नहिं कर सक्यो, जठै सघन-कीच घनघोर हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥10॥

प्रभु! माता खावे चरपरो, फिर लागे तन संताप हो
प्रभु! जो जननी तातो भखे, फिर उपजे तन संताप हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥11॥

प्रभु! औंधे-मुख झूल्यो रह्यो, फेर निकसन कौन उपाय हो
कठिन-कठिन कर नीसर्यो, जैसे निसरे जंत्री में तार हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥12॥

प्रभु! निकसत ही धरत्यां पड्यो, फिर लागी भूख अपार हो
रोय-रोय बिलख्यो घनो, दु:ख-वेदन को नहिं पार हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥13॥

प्रभु! दु:ख-मेटन समरथ धनी, यातें लागूँ तिहारे पांय हो
सेवक अर्ज करे प्रभु मोकूँ, भवदधि-पार उतार हो ॥
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ॥14॥
दोहा
श्री जी की महिमा अगम है, कोई न पावे पार
मैं मति-अल्प अज्ञान हूँ, कौन करे विस्तार ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

विनती ऋषभ जिनेश की, जो पढ़सी मन ल्याय
सुरगों में संशय नहीं, निश्चय शिवपुर जाय ॥
॥इत्याशीर्वाद: - पुष्पांजलिं क्षिपेत् -॥



श्रीआदिनाथ-पूजन🏠
परमपूज्य वृषभेष स्वयंभू देवजू
पिता नाभि मरुदेवि करें सुर सेवजू ॥
कनक वरण तन-तुंग धनुष पनशत तनो
कृपासिंधु इत आइ तिष्ठ मम दुख हनो ॥
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

हिमवनोद् भव वारि सु धारिके, जजत हौं गुनबोध उचारिके
परमभाव सुखोदधि दीजिये, जन्ममृत्यु जरा क्षय कीजिये ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

मलय चन्दन दाहनिकन्दनं, घसि उभै कर में करि वन्दनं
जजत हौं प्रशमाश्रय दीजिये, तपत ताप तृषा छय कीजिये ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अमल तन्दुल खंडविवर्जितं, सित निशेष महिमामियतर्जितं
जजत हौं तसु पुंज धरायजी, अखय संपति द्यो जिनरायजी ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

कमल चंपक केतकि लीजिये, मदनभंजन भेंट धरीजिये
परमशील महा सुखदाय हैं, समरसूल निमूल नशाय हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

सरस मोदनमोदक लीजिये, हरनभूख जिनेश जजीजिये
सकल आकुल अंतकहेतु हैं, अतुल शांत सुधारस देतु हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय क्षुधादिरोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

निविड़ मोह महातम छाइयो, स्वपर भेद न मोहि लखाइयो
हरनकारण दीपक तासके, जजत हौं पद केवल भासके ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगर चन्दन आदिक लेय के, परम पावन गंध सु खेय के
अगनिसंग जरें मिस धूम के, सकल कर्म उड़े यह घूम के ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

सुरस पक्व मनोहर पावने, विविध ले फल पूज रचावने
त्रिजगनाथ कृपा अब कीजिये, हमहिं मोक्ष महाफल दीजिये ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जलफलादि समस्त मिलायके, जजत हौं पद मंगल गायके
भगत वत्सल दीन दयालजी, करहु मोहि सुखी लखि हालजी ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
असित दोज आषाढ़ सुहावनो, गरभ मंगल को दिन पावनो
हरि सची पितुमातहिं सेवही, जजत हैं हम श्री जिनदेव ही ॥
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णा द्वितीयादिने गर्भमगंलप्राप्ताय श्री वृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
असित चैत सु नौमि सुहाइयो, जनम मंगल ता दिन पाइयो
हरि महागिरिपे जजियो तबै, हम जजें पद पंकज को अबै ॥
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने जन्ममगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
असित नौमि सु चैत धरे सही, तप विशुद्ध सबै समता गही
निज सुधारस सों भर लाइके, हम जजें पद अर्घ चढ़ाइके ॥
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने दीक्षामगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
असित फागुन ग्यारसि सोहनों, परम केवलज्ञान जग्यो भनौं
हरि समूह जजें तहँ आइके, हम जजें इत मंगल गाइके ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
असित चौदसि माघ विराजई, परम मोक्ष सुमंगल साजई
हरि समूह जजें कैलाशजी, हम जजें अति धार हुलास जी ॥
ॐ ह्रीं माघकृष्णा चतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जयमाला
धत्ता
जय जय जिनचन्दा आदि जिनन्दा, हनि भवफन्दा कन्दा जू
वासव शतवंदा धरि आनन्दा, ज्ञान अमंदा नन्दा जू

त्रिलोक हितंकर पूरन पर्म, प्रजापति विष्णु चिदातम धर्म
जतीसुर ब्रह्मविदांबर बुद्ध, वृषंक अशंक क्रियाम्बुधि शुद्ध
जबै गर्भागम मंगल जान, तबै हरि हर्ष हिये अति आन
पिता जननी पद सेव करेय, अनेक प्रकार उमंग भरेय ॥

जन्मे जब ही तब ही हरि आय, गिरेन्द्र विषैं किय न्हौन सुजाय
नियोग समस्त किये तित सार, सु लाय प्रभू पुनि राज अगार
पिता कर सौंपि कियो तित नाट, अमंद अनंद समेत विराट
सुथान पयान कियो फिर इंद, इहां सुर सेव करें जिनचन्द

कियौ चिरकाल सुखाश्रित राज, प्रजा सब आनँद को तित साज
सुलिप्त सुभोगिनि में लखि जोग, कियो हरि ने यह उत्तम योग
निलंजन नाच रच्यो तुम पास, नवों रस पूरित भाव विलास
बजै मिरदंग दृम दृम जोर, चले पग झारि झनांझन जोर

घना घन घंट करे धुनि मिष्ट, बजै मुहचंग सुरान्वित पुष्ट
खड़ी छिनपास छिनहि आकाश, लघु छिन दीरघ आदि विलास
ततच्छन ताहि विलै अविलोय, भये भवतैं भवभीत बहोय
सुभावत भावन बारह भाय, तहां दिव ब्रह्म रिषीश्वर आय

प्रबोध प्रभू सु गये निज धाम, तबे हरि आय रची शिवकाम
कियो कचलौंच प्रयाग अरण्य, चतुर्थम ज्ञान लह्यो जग धन्य
धर्यो तब योग छमास प्रमान, दियो श्रेयांस तिन्हें इखु दान
भयो जब केवलज्ञान जिनेंद्र, समोसृत ठाठ रच्यो सु धनेंद्र

तहां वृष तत्त्व प्रकाशि अशेष, कियो फिर निर्भय थान प्रवेश
अनन्त गुनातम श्री सुखराश, तुम्हें नित भव्य नमें शिव आश
धत्ता
यह अरज हमारी सुन त्रिपुरारी, जन्म जरा मृतु दूर करो
शिवसंपति दीजे ढील न कीजे, निज लख लीजे कृपा धरो
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जो ऋषभेश्वर पूजे, मनवचतन भाव शुद्ध कर प्रानी
सो पावै निश्चै सों, भुक्ति औ मुक्ति सार सुख थानी
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीअजितनाथ-पूजन🏠
त्याग वैजयन्त सार सार-धर्म के अधार,
जन्मधार धीर नम्र सुष्टु कौशलापुरी
अष्ट दुष्ट नष्टकार मातु वैजयाकुमार,
आयु लक्षपूर्व दक्ष है बहत्तरैपुरी ॥
ते जिनेश श्री महेश शत्रु के निकन्दनेश,
अत्र हेरिये सुदृष्टि भक्त पै कृपा पुरी
आय तिष्ठ इष्टदेव मैं करौं पदाब्जसेव,
परम शर्मदाय पाय आय शर्न आपुरी ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

गंगाह्रदपानी निर्मल आनी, सौरभ सानी सीतानी
तसु धारत धारा तृषा निवारा, शांतागारा सुखदानी ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

शुचि चंदन बावन ताप मिटावन, सौरभ पावन घसि ल्यायो
तुम भवतमभंजन हो शिवरंजन, पूजन रंजन मैं आयो ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

सितखंड विवर्जित निशिपति तर्जित, पुंज विधर्जित तंदुल को
भवभाव निखर्जित शिवपदसर्जित, आनंदभर्जित दंदल को ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

मनमथ-मद-मंथन धीरज-ग्रंथन, ग्रंथ-निग्रंथन ग्रंथपति
तुअ पाद कुसेसे आधि कुशेसे, धारि अशेसे अर्चयती ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

आकुल कुलवारन थिरताकारन, क्षुधाविदारन चरु लायो
षट् रस कर भीने अन्न नवीने, पूजन कीने सुख पायो ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीपक-मनि-माला जोत उजाला, भरि कनथाला हाथ लिया
तुम भ्रमतम हारी शिवसुख कारी, केवलधारी पूज किया
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगरादिक चूरन परिमल पूरन, खेवत क्रूरन कर्म जरें
दशहूं दिश धावत हर्ष बढ़ावत, अलि गुण गावत नृत्य करें ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

बादाम नारंगी श्रीफल पुंगी आदि अभंगी सों अरचौं
सब विघनविनाशे सुख प्रकाशै, आतम भासै भौ विरचौं ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जलफल सब सज्जे, बाजत बज्जै, गुनगनरज्जे मनमज्जे
तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै, ते भवभज्जै निजकज्जै ॥
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंच कल्याणक अर्घ्यावली
जेठ असेत अमावशि सोहे, गर्भदिना नँद सो मन मोहे
इंद फनिंद जजे मनलाई, हम पद पूजत अर्घा चढ़ाई ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-अमावस्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
माघ सुदी दशमी दिन जाये, त्रिभुवन में अति हरष बढ़ाये
इन्द फनिंद जजें तित आई, हम इत सेवत हैं हुलशाई ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्ला दशमीदिने जन्मंगलप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
माघ सुदी दशमी तप धारा, भव तन भोग अनित्य विचारा
इन्द फनिंद जजैं तित आई, हम इत सेवत हैं सिरनाई ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्ला दशमीदिने दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
पौषसुदी तिथि ग्यारस सुहायो, त्रिभुवनभानु सु केवल जायो
इन्द फनिंद जजैं आई, हम पद पूजत प्रीति लगाई ॥
ॐ ह्रीं पौषशुक्लाएकादशीदिनेज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
पंचमि चैतसुदी निरवाना, निजगुनराज लियो भगवाना
इन्द फनिंद जजैं तित आई, हम पद पूजत हैं गुनगाई ॥
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला पंचमीदिने निर्वाणमंगलप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
दोहा
अष्ट दुष्टको नष्ट करि इष्टमिष्ट निज पाय
शिष्ट धर्म भाख्यो हमें पुष्ट करो जिनराय

जय अजित देव तुअ गुन अपार, पै कहूँ कछुक लघु बुद्धि धार
दश जनमत अतिशय बल अनन्त, शुभ लच्छन मधुबचन भनंत
संहनन प्रथम मलरहित देह, तन सौरभ शोणित स्वेत जेह
वपु स्वेदबिना महरुप धार, समचतुर धरें संठान चार

दश केवल, गमन अकाशदेव, सुरभिच्छ रहै योजन सतेव
उपसर्गरहित जिनतन सु होय, सब जीव रहित बाधा सुजोय
मुख चारि सरबविद्या अधीश, कवलाअहार सुवर्जित गरीश
छायाबिनु नख कच बढ़ै नाहिं, उन्मेश टमक नहिं भ्रकुटि माहिं

सुरकृत दशचार करों बखान, सब जीवमित्रता भाव जान
कंटक विन दर्पणवत सुभूम, सब धान वृच्छ फल रहै झूम
षटरितु के फूल फले निहार, दिशि निर्मल जिय आनन्द धार
जंह शीतल मंद सुगंध वाय, पद पंकज तल पंकज रचाय

मलरहित गगन सुर जय उचार, वरषा गन्धोदक होत सार
वर धर्मचक्र आगे चलाय, वसु मंगलजुत यह सुर रचाय
सिंहासन छत्र चमर सुहात, भामंडल छवि वरनी न जात
तरु उच्च अशोक रु सुमनवृष्टि, धुनि दिव्य और दुन्दुभि सुमिष्ट

दृग ज्ञान चर्ण वीरज अनन्त, गुण छियालीस इम तुम लहन्त
इन आदि अनन्ते सुगुनधार, वरनत गनपति नहिं लहत पार
तब समवशरणमँह इन्द्र आय, पद पूजन बसुविधि दरब लाय
अति भगति सहित नाटक रचाय, ताथेई थेई थेई धुनि रही छाय

पग नूपुर झननन झनननाय, तननननन तननन तान गाय
घननन नन नन घण्टा घनाय, छम छम छम छम घुंघरु बजाय
द्रम द्रम द्रम द्रम द्रम मुरज ध्वान, संसाग्रदि सरंगी सुर भरत तान
झट झट झट अटपट नटत नाट, इत्यादि रच्यो अद्भुत सुठाट

पुनि वन्दि इन्द्र सुनुति करन्त, तुम हो जगमें जयवन्त सन्त
फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग निरोध्यो परम इष्ट
सम्मेदथकी तिय मुकति थान, जय सिद्धशिरोमन गुननिधान
'वृन्दावन' वन्दत बारबार, भवसागरतें मोहि तार तार
धत्ता
जय अजित कृपाला गुणमणिमाला, संजमशाला बोधपति
वर सुजस उजाला हीरहिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जो जन अजित जिनेश जजें हैं, मनवचकाई
ताकों होय अनन्द ज्ञान सम्पति सुखदाई ॥
पुत्र मित्र धनधान्य, सुजस त्रिभुवनमहँ छावे
सकल शत्रु छय जाय अनुक्रमसों शिव पावे
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीसंभवनाथ-पूजन🏠
जय संभव जिनचन्द्र सदा हरिगनचकोरनुत
जयसेना जसु मातु जैति राजा जितारिसुत ॥
तजि ग्रीवक लिय जन्म नगर श्रावस्ती आई
सो भव भंजन हेत भगत पर होहु सहाई
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

मुनि मन सम उज्ज्वल जल लेकर, कनक कटोरी में धार
जनम जरा मृतु नाश करन कों, तुम पदतर ढारों धारा ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

तपत दाह को कन्दन चंदन मलयागिरि को घसि लायो
जगवंदन भौफंदन खंदन समरथ लखि शरनै आयो ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

देवजीर सुखदास कमलवासित, सित सुन्दर अनियारे
पुंज धरौं जिन चरनन आगे, लहौं अखयपद कों प्यारे ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

कमल केतकी बेल चमेली, चंपा जूही सुमन वरा
ता सों पूजत श्रीपति तुम पद, मदन बान विध्वंस करा ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

घेवर बावर मोदन मोदक, खाजा ताजा सरस बना
ता सों पद श्रीपति को पूजत, क्षुधा रोग ततकाल हना ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

घटपट परकाशक भ्रमतम नाशक, तुमढिग ऐसो दीप धरौं
केवल जोत उदोत होहु मोहि, यही सदा अरदास करौं ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगर तगर कृष्नागर श्रीखंडादिक चूर हुतासन में
खेवत हौं तुम चरन जलज ढिग, कर्म छार जरिह्रै छन में ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला पिस्ता दाख रमैं
लै फल प्रासुक पूजौं तुम पद देहु अखयपद नाथ हमैं ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया
तुमको अरपौं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया ॥
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
माता गर्भ विषै जिन आय, फागुन सित आठैं सुखदाय
सेयो सुर-तिय छप्पन वृन्द, नाना विधि मैं जजौं जिनन्द ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुन शुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
कार्तिक सित पूनम तिथि जान, तीन ज्ञान जुत जनम प्रमाण
धरि गिरि राज जजे सुरराज, तिन्हें जजौं मैं निज हित काज ॥
ॐ ह्रीं कार्तिक शुक्ला पूर्णिमायां जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
मंगसिर सित पून्यों तप धार, सकल संग तजि जिन अनगार
ध्यानादिक बल जीते कर्म, चर्चों चरन देहु शिवशर्म ॥
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षपूर्णिमायां तपकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
कार्तिक कलि तिथि चौथ महान, घाति घात लिय केवल ज्ञान
समवशरनमंह तिष्ठे देव, तुरिय चिह्न चर्चों वसुभेव ॥
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाचतुर्थी ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चैतशुक्ल तिथि षष्ठी चोख, गिरिसम्मेदतें लीनों मोख
चार शतक धनु अवगाहना, जजौं तास पद थुति कर घना ॥
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ला षष्ठीदिने मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
श्री संभव के गुन अगम, कहि न सकत सुरराज
मैं वश भक्ति सु धीठ ह्वै, विनवौं निजहित काज ॥

जिनेश महेश गुणेश गरिष्ट, सुरासुर सेवित इष्ट वरिष्ट
धरे वृषचक्र करे अघ चूर, अतत्त्व छपातम मर्द्दन सूर ॥
सुतत्त्व प्रकाशन शासन शुद्ध, विवेक विराग बढ़ावन बुद्ध
दया तरु तर्पन मेघ महान, कुनय गिरि गंजन वज्र समान ॥

सुगर्भरु जन्म महोत्सव मांहि, जगज्जन आनन्दकन्द लहाहिं
सुपूरब साठहि लच्छ जु आय, कुमार चतुर्थम अंश रमाय ॥
चवालिस लाख सुपूरब एव, निकंटक राज कियो जिनदेव
तजे कछु कारन पाय सु राज, धरे व्रत संजम आतम काज ॥

सुरेन्द्र नरेन्द्र दियो पयदान, धरे वन में निज आतम ध्यान
किया चव घातिय कर्म विनाश, लयो तब केवलज्ञान प्रकाश ॥
भई समवसृति ठाट अपार, खिरै धुनि झेलहिं श्री गणधार
भने षट्-द्रव्य तने विसतार, चहूँ अनुयोग अनेक प्रकार ॥

कहें पुनि त्रेपन भाव विशेष, उभै विधि हैं उपशम्य जुभेष
सुसम्यकचारित्र भेद-स्वरूप, भये इमि छायक नौ सु अनूप ॥
दृगौ बुधि सम्यक चारितदान, सुलाभ रु भोगुपभोगप्रमाण
सुवीरज संजुत ए नव जान, अठार छयोपशम इम प्रमान ॥

मति श्रुत औधि उभै विधि जान, मनःपरजै चखु और प्रमान
अचक्खु तथा विधि दान रु लाभ, सुभोगुपभोग रु वीरजसाभ ॥
व्रताव्रत संजम और सु धार, धरे गुन सम्यक चारित भार
भए वसु एक समापत येह, इक्कीस उदीक सुनो अब जेह ॥

चहुँ गति चारि कषाय तिवेद, छह लेश्या और अज्ञान विभेद
असंजम भाव लखो इस माहिं, असिद्धित और अतत्त कहाहिं ॥
भये इकबीस सुनो अब और, सुभेदत्रियं पारिनामिक ठौर
सुजीवित भव्यत और अभव्व, तरेपन एम भने जिन सव्व ॥

तिन्हो मँह केतक त्यागन जोग, कितेक गहे तें मिटे भव रोग
कह्यो इन आदि लह्यो फिर मोख, अनन्त गुनातम मंडित चोख ॥
जजौं तुम पाय जपौं गुनसार, प्रभु हमको भवसागर तार
गही शरनागत दीनदयाल, विलम्ब करो मति हे गुनमाल ॥
धत्ता
जै जै भव भंजन जन मन रंजन, दया धुरंधर कुमतिहरा
वृन्दावन वंदत मन आनन्दित, दीजै आतम ज्ञान वरा ॥
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जो बांचे यह पाठ सरस संभव तनो
सो पावे धनधान्य सरस सम्पति घनो ॥
सकल पाप छय जाय सुजस जग में बढ़े
पूजत सुर पद होय अनुक्रम शिव चढ़े
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीअभिनन्दननाथ-पूजन🏠
अभिनन्दन आनन्दकंद, सिद्धारथनन्दन
संवर पिता दिनन्द चन्द, जिहिं आवत वन्दन ॥
नगर अयोध्या जनम इन्द, नागिंद जु ध्यावें
तिन्हें जजन के हेत थापि, हम मंगल गावें ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र मम सभिहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

पदमद्रहगत गंगचंग, अंभग-धार सु धार है
कनकमणि नगजड़ित झारी, द्वार धार निकार है ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

शीतल चन्दन कदलि नन्दन, जल सु संग घसाय के
होय सुगंध दशों दिशा में, भ्रमें मधुकर आय के ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

हीर हिम शशि फेन मुक्ता सरिस तंदुल सेत हैं
तास को ढिग पुञ्ज धारौं अक्षयपद के हेत हैं ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

समर सुभट निघटन कारन सुमन सु मन समान
सुरभि तें जा पे करें झंकार मधुकर आन हैं ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

सरस ताजे नव्य गव्य मनोज्ञ चितहर लेय जी
छुधाछेदन छिमा छितिपति के चरन चरचेय जी ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

अतत तम-मर्दन किरनवर, बोधभानु-विकाश है
तुम चरनढिग दीपक धरौं, मो कों स्वपर प्रकाश है ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

भुर अगर कपूर चुर सुगंध, अगिनि जराय है
सब करमकाष्ठ सु काटने मिस, धूम धूम उड़ाय है ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

आम निंबु सदा फलादिक, पक्व पावन आन जी
मोक्षफल के हेत पूजौं, जोरि के जुग पान जी ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही
नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही ॥
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
शुकल छट्ट वैशाख विषै तजि, आये श्री जिनदेव
सिद्धारथा माता के उर में, करे सची शुचि सेव ॥
रतन वृष्टि आदिक वर मंगल, होत अनेक प्रकार
ऐसे गुननिधि को मैं पूजौं, ध्यावौं बारम्बार ॥
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
माघ शुकल तिथि द्वादशि के दिन, तीन लोक हितकार
अभिनन्दन आनन्दकंद तुम, लिनो जग अवतार ॥
एक महूरत नरकमांहि हू, पायो सब जिय चैन
कनकवरन कपि-चिह्न-धरन पद जजौं तुम्हें दिन रैन ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्ला द्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
साढ़े छत्तिस लाख सुपूरब, राज भोग वर भोग
कछु कारन लखि माघ शुकल, द्वादशि को धार्यो जोग ॥
षष्टम नियम समापत करि, लिय इंद्रदत्त घर छीर
जय धुनि पुष्प रतन गंधोदक, वृष्टि सुगंध समीर ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्ला द्वादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
पौष शुक्ल चौदशि को घाते, घाति करम दुखदाय
उपजायो वर बोध जास को, केवल नाम कहाय ॥
समवसरन लहि बोधि धरम कहि, भव्य जीव सुखकन्द
मो कों भवसागर तें तारो, जय जय जय अभिनन्द ॥
ॐ ह्रीं पौषशुक्ला चतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जोग निरोग अघातिघाति लहि, गिर समेद तें मोख
मास सकल सुखरास कहे, बैशाख शुकल छठ चोख ॥
चतुरनिकाय आय तित कीनी, भगति भाव उमगाय
हम पूजत इत अरघ लेय जिमि, विघन सघन मिट जाय ॥
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

दोहा
तुंग सु तन धनु तीन सौ, औ पचास सुख धाम
कनक वरन अवलौकि के, पुनि पुनि करुं प्रणाम
जयमाला
सच्चिदानन्द सद्ज्ञान सद्दर्शनी, सत्स्वरुपा लई सत्सुधा सर्सनी
सर्वाआनन्दाकंदा महादेवा, जास पादाब्ज सेवैं सबै देवता
गर्भ औ जन्म निःकर्म कल्यान में, सत्व को शर्म पूरे सबै थान में
वंश इक्ष्वाकु में आप ऐसे भये, ज्यों निशा शर्द में इन्दु स्वेच्छै ठये

होत वैराग लौकांतुर बोधियो, फेरि शिविकासु चढ़ि गहन निज सोधियो
घाति चौघातिया ज्ञान केवल भयो, समवसरनादि धनदेव तब निरमयो
एक है इन्द्र नीली शिला रत्न की, गोल साढ़ेदशै जोजने रत्न की
चारदिश पैड़िका बीस हज्जार है, रत्न के चूर का कोट निरधार है

कोट चहुंओर चहुंद्वार तोरन खँचे, तास आगे चहूं मानथंभा रचे
मान मानी तजैं जास ढिग जाय के, नम्रता धार सेवें तुम्हें आय के
बिंब सिंहासनों पै जहां सोहहीं, इन्द्रनागेन्द्र केते मने मोहहीं
वापिका वारिसों जत्र सोहे भरी, जास में न्हात ही पाप जावै टरी

तास आगे भरी खातिका वारि सों, हंस सूआदि पंखी रमैं प्यार सों
पुष्प की वाटिका बाग वृक्षें जहां, फूल औ श्री फले सर्व ही हैं तहां
कोट सौवर्ण का तास आगे खड़ा, चार दर्वाज चौ ओर रत्नों जड़ा
चार उद्यान चारों दिशा में गना, है धुजापंक्ति और नाट्यशाला बना

तासु आगें त्रिती कोट रुपामयी, तूप नौ जास चारों दिशा में ठयी
धाम सिद्धान्त धारीनके हैं जहां, औ सभाभूमि है भव्य तिष्ठें तहां
तास आगे रची गन्धकूटी महा, तीन है कट्टिनी चारु शोभा लहा
एक पै तौ निधैं ही धरी ख्यात हैं, भव्य प्रानी तहां लो सबै जात हैं

दूसरी पीठ पै चक्रधारी गमै, तीसरे प्रातिहारज लशै भाग में
तास पै वेदिका चार थंभान की, है बनी सर्व कल्यान के खान की
तासु पै हैं सुसिंघासनं भासनं, जासु पै पद्म प्राफुल्ल है आसनं
तासु पै अन्तरीक्षं विराजै सही, तीन छत्रे फिरें शीस रत्ने यही

वृक्ष शोकापहारी अशोकं लसै, दुन्दुभी नाद औ पुष्प खंते खसै
देह की ज्योतिसों मण्डलाकार है, सात सौ भव्य ता में लखेंसार है
दिव्य वानी खिरे सर्व शंका हरे, श्री गनाधीश झेलें सु शक्ति धरे
धर्मचक्री तुही कर्मचक्री हने, सर्वशक्री नमें मोद धारे घने

भव्य को बोधि सम्मेदतें शिव गये, तत्र इन्द्रादि पूजै सु भक्तिमये
हे कृपासिंधु मो पै कृपा धारिये, घोर संसार सों शीघ्र मो तारिये
धत्ता
जय जय अभिनन्दा आनंदकंदा, भव समुन्द्र वर पोत इवा
भ्रम तम शतखंडा, भानुप्रचंडा, तारि तारि जग रैन दिवा
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीअभिनन्दन पाप निकन्दन तिन पद जो भवि जजै सु धहर
ता के पुन्य भानु वर उग्गे दुरित तिमिर फाटै दुखकार ॥
पुत्र मित्र धन धान्य कमल यह विकसै सुखद जगतहित प्यार
कछुक काल में सो शिव पावै, पढ़ै सुने जिन जजै निहार ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीसुमतिनाथ-पूजन🏠
संजम रतन विभूषन भूषित, दूषन वर्जित श्री जिनचन्द
सुमति रमा रंजन भवभंजन, संजययंत तजि मेरु नरिंद ॥
मातु मंगला सकल मंगला, नगर विनीता जये अमंद
सो प्रभु दया सुधा रस गर्भित आय तिष्ठ इत हरो दुःख दंद
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

पंचम उदधितनों सम उजज्वल, जल लीनों वरगंध मिलाय
कनक कटोरी माहिं धारि करि, धार देहु सुचि मन वच काय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

मलयागर घनसार घसौं वर, केशर अर करपूर मिलाय
भवतपहरन चरन पर वारौं, जनम जरा मृतु ताप पलाय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

शशिसम उज्ज्वल सहित गंधतल, दोनों अनी शुद्ध सुखदास
सौ लै अखय संपदा कारन, पुञ्ज धरौं तुम चरनन पास
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

कमल केतकी बेल चमेली, करना अरु गुलाब महकाय
सो ले समरशूल छयकारन, जजौं चरन अति प्रीति लगाय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नव्य गव्य पकवान बनाऊँ, सुरस देखि दृग मन ललचाय
सौ लै छुधारोग, धरौं चरण ढिग मन हरषाय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

रतन जड़ित अथवा घृतपूरित, वा कपूरमय जोति जगाय
दीप धरौं तुम चरनन आगे जातें केवलज्ञान लहाय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगर तगर कृष्णागरु चंदन, चूरि अगनि में देत जराय
अष्टकरम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम धूम यह तासु उड़ाय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल मातुलिंग वर दाड़िम, आम निंबु फल प्रासुक लाय
मोक्ष महाफल चाखन कारन, पूजत हौं तुमरे जुग पाय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय
नाचि राचि शिरनाय समरचौं, जय जय जय 2 जिनराय ॥
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
संजयंत तजि गरभ पधारे, सावनसेत दुतिय सुखकारे
रहे अलिप्त मुकुर जिमि छाया, जजौं चरन जय जय जिनराया ॥
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला द्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चैत सुकल ग्यारस कहँ जानो, जनमे सुमति त्रयज्ञानों
मानों धर्यो धरम अवतारा, जजौं चरनजुग अष्ट प्रकासा ॥
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
बैशाख सुकल नौमि भाखा, ता दिन तप धरि निज रस चाखा
पारन पद्म सद्म पय कीनों, जजत चरन हम समता भीनों ॥
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला नवम्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सुकल चैत एकादश हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने
समवसरनमँह कहि वृष सारं, जजहुं अनंत चतुष्टयधारं ॥
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञान कल्याणकप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चैत सुकल ग्यारस निरवानं, गिरि समेद तें त्रिभुवन मानं
गुन अनन्त निज निरमल धारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी ॥
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
सुमति तीन सौ छत्तीसौं, सुमति भेद दरसाय
सुमति देहु विनती करौं, सु मति विलम्ब कराय
दयाबेलि तहँ सुगुननिधि, भविक मोद-गण-चन्द
सुमतिसतीपति सुमति कों, ध्यावौं धरि आनन्द
पंच परावरतन हरन, पंच सुमति सिर देन
पंच लब्धि दातार के, गुन गाऊँ दिन रैन

पिता मेघराजा सबै सिद्ध काजा, जपें नाम ता को सबै दुःखभाजा
महासुर इक्ष्वाकुवंशी विराजे, गुणग्राम जाकौ सबै ठौर छाजै ॥
तिन्हों के महापुण्य सों आप जाये, तिहुँलोक में जीव आनन्द पाये
सुनासीर ताही धरी मेरु धायो, क्रिया जन्म की सर्व कीनी यथा यों ॥

बहुरि तातकों सौंपि संगीत कीनों, नमें हाथ जोरी भलीभक्ति भीनों
बिताई दशै लाख ही पूर्व बालै, प्रजा उन्तीस ही पूर्व पालै ॥
कछु हेतु तें भावना बारा भाये, तहाँ ब्रह्मलोकान्त देव आये
गये बोधि ताही समै इन्द्र आयो, धरे पालकी में सु उद्यान ल्यायो ॥

नमः सिद्ध कहि केशलोंचे सबै ही, धर्यो ध्यान शुद्धं जु घाती हने ही
लह्यो केवलं औ समोसर्न साजं, गणाधीश जु एक सौ सोल राजं ॥
खिरै शब्द ता में छहौं द्रव्य धारे, गुनौपर्ज उत्पाद व्यय ध्रौव्य सारे
तथा कर्म आठों तनी थिति गाजं, मिले जासु के नाश तें मोच्छराजं ॥

धरें मोहिनी सत्तरं कोड़कोड़ी, सरित्पत्प्रमाणं थिति दीर्घ जोड़ी
अवर्ज्ञान दृग्वेदिनी अन्तरायं, धरें तीस कोड़ाकुड़ि सिन्धुकायं ॥
तथा नाम गोतं कुड़ाकोड़ि बीसं, समुद्र प्रमाणं धरें सत्तईसं
सु तैतीस अब्धि धरें आयु अब्धिं, कहें सर्व कर्मों तनी वृद्धलब्धिं ॥

जघन्यं प्रकारे धरे भेद ये ही, मुहूर्तं वसू नामं-गोतं गने ही
तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं, सुअन्तर्मुहूर्त्तं धरें थित्ति गायं ॥
तथा वेदनी बारहें ही मुहुर्तं, धरैं थित्ति ऐसे भन्यो न्यायजुत्तं
इन्हें आदि तत्वार्थ भाख्यो अशेसा, लह्यो फेरि निर्वाण मांहीं प्रवेसा ॥

अनन्तं महन्तं सुरंतं सुतंतं, अमन्दं अफन्दं अनन्तं अभन्तं
अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं, अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्षं ॥
अवर्णं सुवर्णं अमर्णं अकर्णं, अभर्णं अतर्णं अशर्णं सुशर्णं
अनेकं सदेकं चिदेकं विवेकं, अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं सदेकं ॥

सुपर्मं सुधर्मं सुशर्मं अकर्मं, अनन्तं गुनाराम जयवन्त धर्मं
नमें दास वृन्दावनं शर्न आई, सबै दुःख तें मोहि लीजे छुड़ाई ॥
धत्ता
तुम सुगुन अनन्ता घ्यावत सन्ता, भ्रमतम भंजन मार्तंडा
सतमत करचंडा भवि कज मंडा, कुमति-कुबल-भन गन हंडा ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

सुमति चरन जो जजैं भविक जन मनवचकाई
तासु सकल दुख दंद फंद ततछिन छय जाई ॥
पुत्र मित्र धन धान्य शर्म अनुपम सो पावै
'वृन्दावन' निर्वाण लहे निहचै जो ध्यावै ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीपद्मप्रभ-पूजन🏠
जय जय पद्म जिनेश पद्मप्रभ पावन पद्माकर परमेश ।
वीतराग सर्वज्ञ हितंकर पद्मनाथ प्रभु पूज्य महेश ॥
भवदुख हर्ता मंगलकर्ता षष्टम तीर्थंकर पद्मेश ।
हरो अमंगल प्रभु अनादि का पूजन का है यह उद्देश्य ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्रावतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

शुद्ध भाव का धवल नीर लेकर जिन चरणों में आऊँ ।
जन्म मरण की व्याधि मिटाऊँ नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ॥
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव का शीतल चंदन ले प्रभु चरणों में आऊँ ।
भव आताप व्याधि को नाशूँ नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ।
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव के उज्ज्वल अक्षत ले, जिन चरणों में आऊँ ।
अक्षय पद अखंड मैं पाऊँ, नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ।
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव के पुष्प सुरभिमय ले, प्रभु चरणों में आऊँ ।
कामबाण की व्याधि नशाऊँ नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ।
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव के पावन चरु लेकर, प्रभु चरणों में आऊँ ।
क्षुधा व्याधि का बीज मिटाऊँ, नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ।
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव की ज्ञान ज्योति लेकर प्रभु चरणों में आऊँ ।
मोहनीय भ्रम तिमिर नशाऊँ नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ।
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव की धूप सुगन्धित, ले प्रभु चरणों में आऊँ ।
अष्टकर्म विध्वंस करूँ मैं, नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ।
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव सम्यक्त्व सुफल पाने, प्रभु चरणों में आऊँ ।
शिवमय महामोक्ष फल पाऊँ, नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ ॥
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध भाव का अर्थ अष्टविध, ले प्रभु चरणों में आऊँ ।
शाश्वत निज अनर्घपद पाऊँ, नाचूँ गाऊं हर्षाऊं ॥
परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ ।
रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिव पद पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंच कत्याणक
शुभदिन माघ कृष्ण षष्ठी को मात सुसीमा हर्षाएं ।
उपरिम ग्रैवेयक विमान प्रीतिंकर तज उर में आए ॥
नव बारह योजन नगरी रच रत्न इन्द्र ने बरसाये ।
जय श्री पद्मनाथ तीर्थंकर जगती ने मंगल गाए ॥
ॐ ह्रीं माघकृष्णा षष्ठीदिने गर्भ मंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को कोशाम्बी में जन्म लिया ।
गिरि सुमेरु पर इन्द्रादिक ने क्षीरोदधि से नव्हन किया ॥
राजा धरणराज आंगन में सुर सुरपति से नृत्य किया ।
जय जय पद्मनाथ तीर्थंकर जग ने जय जय नाद किया ॥
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को तुमको जाति स्मरण हुआ ।
जागा उर वैराग्य तभी लौकान्तिक सुर आगमन हुआ ॥
तरु प्रियंगु मन हर वन में दीक्षा धारी तप ग्रहण हुआ ।
जय जय पद्मनाथ तीर्थंकर अनुपम तप कल्याण हुआ ॥

ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा त्रयोदश्यां तपो मंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मनोहर कर्म घाति अवसान किया ।
कौशाम्बी वन शुक्ल ध्यान धर निर्मल केवलज्ञान लिया ॥
समवसरण में द्वादश सभा जुड़ी अनुपम उपदेश दिया ।
जय जय पद्मनाथ तीर्थंकर जग को शिव संदेश दिया ॥
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला पूर्णिमायां केवलज्ञान प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोहन कूट शिखर सम्मेदाचल से योग विनाश किया ।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को प्रभु भव-बंधन का नाश किया ॥
अष्टकर्म हर ऊर्ध्व गमन कर सिद्ध-लोक आवास लिया ।
जयति पद्मप्रभु जिनतीर्थंकर शाश्वत आत्मविकास किया ॥

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा चतुर्थीदिने मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
परम श्रेष्ठ पावन परमेष्ठी पुरुषोत्तम प्रभु परमानन्द
परमध्यानरत परमब्रह्ममय प्रशान्तात्मा पद्मानन्द ।
जय जय पद्मनाथ तीर्थंकर जय जय जय कल्याणमयी ।
नित्य निरंजन जनमन रंजन प्रभु अनंत गुण ज्ञानमयी ॥

राजपाट अतुलित वैभव को तुमने क्षण में ठुकराया ।
निज स्वभाव का अवलम्बन ले परम शुद्ध-पद को पाया ॥
भव्य जनों को समवसरण में वस्तु-तत्त्व विज्ञान दिया ।
चिदानन्द चैतन्य आत्मा परमात्मा का ज्ञान दिया ॥

गणधर एक शतक ग्यारह थे मुख्य वज्रचामर ऋषिवर ।
प्रमुख रात्रिषेणा सुआर्या श्रोता पशु नर सुर मुनिवर ॥
सात तत्व छह द्रव्य बताए मोक्ष मार्ग सन्देश दिया ।
तीन लोक के भूले भटके जीवों को उपदेश दिया ॥

निःशंकादिक अष्ट अंग सम्यक्दर्शन के बतलाये ।
अष्ट प्रकार ज्ञान सम्यक्‌ बिन मोक्ष मार्ग ना मिल पाये ॥
तेरह विधि सम्यक् चारित का सत्स्वरूप है दिखलाया ।
रत्नत्रय ही पावन शिवपथ सिद्ध स्वपद को दर्शाया ॥

हे प्रभु यह उपदेश ग्रहण कर मैं निज का कल्याण करूँ ।
निजस्वरूप की सहज प्राप्ति कर पद निर्ग्रन्थ महान वरूँ ॥
इष्ट अनिष्ट संयोगों में भी कभी न हर्ष विषाद करूँ ।
साम्यभाव धर उर अन्तर में भव का वाद विवाद हरूँ ॥

तीन लोक में सार स्वयं के आत्म द्रव्य का भान करूँ ।
पर पदार्थ की महिमा त्यागूं सुखमय भेद विज्ञान करूँ ॥
द्रव्य भाव पूजन करके मैं आत्म चिंतवन मनन करूँ ।
नित्य भावना द्वादश भाऊँ राग द्वेष का हनन करूँ ॥

तुम पूजन से पुण्यसातिशय हो भव-भव तुमको पाऊँ ।
जब तक मुक्ति स्वपद ना पाऊँ तब तक चरणों में आऊँ ॥
संवर और निर्जरा द्वारा पाप पुण्य सब नाश करूं ।
प्रभु नव केवल लब्धि रमा पा आर्ठों कर्म विनाश करूँ ॥

तुम प्रसाद से मोक्ष लक्ष्मी पाऊँ निज कल्याण करूँ ।
सादि अनन्त सिद्ध-पद पाऊँ परम-शुद्ध निर्वाण वरूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष पञ्चकल्याण प्राप्ताय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कमल चिन्ह शोभित चरण, पद्मनाथ उर धार ।
मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीपद्मप्रभ-पूजन🏠
पदम-राग-मनि-वरन-धरन, तनतुंग अढ़ाई
शतक दंड अघखंड, सकल सुर सेवत आई ॥
धरनि तात विख्यात सु सीमाजू के नंदन
पदम चरन धरि राग सुथापूँ इत करि वंदन ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्रावतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद सार, पूजूँ भाव सों
गंगाजल अतिप्रासुक लीनो, सौरभ सकल मिलाय
मन-वच-तन त्रयधार देत ही, जनम-जरा-मृतु जाय
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

मलयागिर कपूर चंदन घसि, केशर रंग मिलाय
भव-तप-हरन चरन पर वारूं, मिथ्याताप मिटाय ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल उज्ज्वल गंध अनी जुत, कनक-थार भर लाय
पुंज धरूं तुव चरनन आगे, मोहि अखयपद दाय ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पारिजात मंदार कलपतरु, जनित सुमन शुचि लाय
समरशूल निरमूल-करन को, तुम पद-पद्म चढ़ाय ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

घेवर बावर आदि मनोहर, सद्य सजे शुचि लाय
क्षुधारोग निर्वारन कारन, जजूं हरष उर लाय ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीपक ज्योति जगाय ललित वर, धूम रहित अभिराम
तिमिर मोह नाशन के कारन, जजूं चरन गुनधाम ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

कृष्णागर मलयागिर चंदन, चूर सुगंध बनाय
अगनि मांहि जारौं तुम आगे, अष्टकर्म जरि जाय ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

सुरस-वरन रसना मनभावन, पावन फल अधिकार
ता सों पूजौं जुगम-चरन यह, विघन करम निरवार ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल फल आदि मिलाय गाय गुन, भगति भाव उमगाय
जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय ॥
पूजूँ भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजूँ भाव सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
छंद द्रुतविलंबिता तथा सुन्दरी -- मात्रा 16
असित माघ सु छट्ट बखानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये
ऊरध ग्रीवक सों चये राज जी, जजत इन्द्र जजैं हम आज भी ॥
ॐ ह्रीं माघकृष्णा षष्ठीदिने गर्भ मंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

आसित कार्तिक तेरस को जये, त्रिजग जीव सुआनंद को लये
नगर स्वर्ग समान कुसंबिका, जजतु हैं हरिसंजुत अंबिका ॥
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

असित तेरस कार्तिक भावनी, तप धर्यो वन षष्टम पावनी
करत आतमध्यान धुरंधरो, जजत हैं हम पाप सबै हरो ॥
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा त्रयोदश्यां तपो मंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

शुकल-पूनम चैत सुहावनी, परम केवल सो दिन पावनी
सुर-सुरेश नरेश जजें तहां, हम जजें पद पंकज को इहां ॥
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला पूर्णिमायां केवलज्ञान प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

असित फागुन चौथ सुजानियो, सकलकर्म महारिपु हानियो
गिरसमेद थकी शिव को गये, हम जजें पद ध्यानविषै लये ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा चतुर्थीदिने मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
धत्ता
जय पद्मजिनेशा शिवसद्मेशा, पाद पद्म जजि पद्मेशा
जय भव तम भंजन, मुनिमन कंजन, रंजन को दिव साधेसा

जय-जय जिन भविजन हितकारी, जय जय जिन भव सागर तारी
जय जय समवसरन धन धारी, जय जय वीतराग हितकारी
जय तुम सात तत्त्व विधि भाख्यौ, जय जय नवपदार्थ लखिआख्यो
जय षट्द्रव्य पंचजुतकाय, जय सब भेद सहित दरशाया

जय गुनथान जीव परमानो, पहिले महिं अनंत-जिव जानो
जय दूजे सासादन माहीं, तेरह कोड़ि जीव थित आहीं
जय तीजे मिश्रित गुणथाने, जीव सु बावन कोड़ि प्रमाने
जय चौथे अविरतिगुन जीवा, चार अधिक शत कोड़ि सदीवा

जय जिय देशावरत में शेषा, कोड़ि सात सा है थित वेशा
जय प्रमत्त षट्शून्य दोय वसु, नव तीन नव पांच जीवलसु
जय जय अपरमत्त दुइ कोरं, लक्ष छानवै सहस बहोरं
निन्यानवे एकशत तीना, ऐते मुनि तित रहहिं प्रवीना

जय जय अष्टम में दुइ धारा, आठ शतक सत्तानों सारा
उपशम में दुइ सौ निन्यानों, छपक माहिं तसु दूने जानों
जय इतने इतने हितकारी, नवें दशें जुगश्रेणी धारी
जय ग्यारें उपशम मगगामी, दुइ सौ निन्यानौं अधगामी

जयजय छीनमोह गुनथानो, मुनि शत पांच अधिक अट्ठानों
जय जय तेरह में अरिहंता, जुग नभपन वसु नव वसु तंता
एते राजतु हैं चतुरानन, हम वंदें पद थुतिकरि आनन
हैं अजोग गुन में जे देवा, मन सों ठानों करों सुसेवा

तित तिथि अ इ उ ऋ लृ भाषत, करिथित फिर शिव आनंद चाखत
ऐ उतकृष्ट सकल गुनथानी, तथा जघन मध्यम जे प्रानी
तीनों लोक सदन के वासी, निजगुन परज भेदमय राशी
तथा और द्रव्यन के जेते, गुन परजाय भेद हैं तेते

तीनों कालतने जु अनंता, सो तुम जानत जुगपत संता
सोई दिव्य वचन के द्वारे, दे उपदेश भविक उद्धारे
फेरी अचल थल बासा कीनो, गुन अनंत निजआनंद भीनो
चरम देह तें किंचित ऊनो, नर आकृति तित ह्वै नित गूनो

जय जय सिद्धदेव हितकारी, बार बार यह अरज हमारी
मोकों दुखसागर तें काढ़ो, 'वृन्दावन' जांचतु है ठाड़ो
धत्ता
जय जय जिनचंदा पद्मानंदा, परम सुमति पद्माधारी
जय जनहितकारी दयाविचारी, जय जय जिनवर अविकारी ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जजत पद्म पद पद्म सद्म ताके सुपद्म अत
होत वृद्धि सुत मित्र सकल आनंदकंद शत ॥
लहत स्वर्गपदराज, तहाँ तें चय इत आई
चक्री को सुख भोगि, अंत शिवराज कराई ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीसुपार्श्वनाथ-पूजन🏠
जय जय जिनिंद गनिंद इन्द, नरिंद गुन चिंतन करें
तन हरीहर मनसम हरत मन, लखत उर आनन्द भरें ॥
नृप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ठ शिष्ट पृथी प्रिया
तिन नन्दके पद वन्द वृन्द, अमंद थापत जुतक्रिया ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

उज्ज्वल जल शुचि गंध मिलाय, कंचनझारी भरकर लाय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

मलयागिर चंदन घसि सार, लीनो भवतप भंजनहार
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

देवजीर सुखदास अखंड, उज्ज्वल जलछालित सित मंड
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

प्रासुक सुमन सुगंधित सार, गुंजत अलि मकरध्वजहार
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

छुधाहरण नेवज वर लाय, हरौं वेदनी तुम्हें चढ़ाय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

ज्वलित दीप भरकरि नवनीत, तुम ढिग धारतु हौं जगमीत
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

दशविधि गन्ध हुताशन माहिं, खेवत क्रूर करम जरि जाहिं
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल केला आदि अनूप, ले तुम अग्र धरौं शिवभूप
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
सुकल भादव छट्ठ सु जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये
करत सेव शची रचि मात की, अरघ लेय जजौं वसु भांत की ॥
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाषष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सुकल जेठ दुवादशि जन्मये, सकल जीव सु आनन्द तन्मये
त्रिदशराज जजें गिरिराजजी, हम जजें पद मंगल साजजी ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जनम के तिथि पे श्रीधर ने धरी, तप समस्त प्रमादन को हरी
नृप महेन्द्र दियो पय भाव सौं, हम जजें इत श्रीपद चाव सों ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
भ्रमर फागुन छट्ठ सुहावनो, परम केवलज्ञान लहावनो
समवसर्न विषैं वृष भाखियो, हम जजें पद आनन्द चाखनो ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा षष्ठीदिने केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
असित फागुन सातय पावनो, सकल कर्म कियो छय भावनो
गिरि समेदथकी शिव जातु हैं, जजत ही सब विघ्न विलातु हैं ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तमीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
तुंग अंग धनु दोय सौ, शोभा सागरचन्द
मिथ्यातपहर सुगुनकर, जय सुपास सुखकंद

जयति जिनराज शिवराज हितहेत हो,
परम वैराग आनन्द भरि देत हो ॥
गर्भ के पूर्व षट्मास धनदेव ने,
नगर निरमापि वाराणसी सेव में ॥

गगन सों रतन की धार बहु वरषहीं,
कोड़ि त्रैअर्द्ध त्रैवार सब हरषहीं ॥
तात के सदन गुनवदन रचना रची,
मातु की सर्वविधि करत सेवा शची ॥

भयो जब जनम तब इन्द्र-आसन चल्यो,
होय चकित तब तुरित अवधितैं लखि भल्यो ॥
सप्त पग जाय शिर नाय वन्दन करी,
चलन उमग्यो तबै मानि धनि धनि घरी ॥

सात विधि सैन गज वृषभ रथ बाज ले,
गन्धरव नृत्यकारी सबै साज ले ॥
गलित मद गण्ड ऐरावती साजियो,
लच्छ जोजन सुतन वदन सत राजियो ॥

वदन वसुदन्त प्रतिदन्त सरवर भरे,
ता सु मधि शतक पनबीस कमलिनि खरे ॥
कमलिनी मध्य पनवीस फूले कमल,
कमल-प्रति-कमल मँह एक सौ आठ दल ॥

सर्वदल कोड़ शतबीस परमान जू,
ता सु पर अपछरा नचहिं जुतमान जू ॥
तततता तततता विततता ताथई,
धृगतता धृगतता धृगतता में लई ॥

धरत पग सनन नन सनन नन गगन में,
नूपुरे झनन नन झनन नन पगन में ॥
नचत इत्यादि कई भाँति सों मगन में,
केई तित बजत बाजे मधुर पगन में ॥

केई दृम दृम दुदृम दृम मृदंगनि धुनै,
केई झल्लरि झनन झंझनन झंझनै ॥
केई संसाग्रते सारंगि संसाग्र सुर,
केई बीना पटह बंसि बाजें मधुर ॥

केई तनतन तनन तनन ताने पुरैं,
शुद्ध उच्चारि सुर केई पाठैं फुरैं ॥
केइ झुकि झुकि फिरे चक्र सी भामिनी,
धृगगतां धृगगतां पर्म शोभा बनी ॥

केई छिन निकट छिन दूर छिन थूल-लघु,
धरत वैक्रियक परभाव सों तन सुभगु ॥
केई करताल-करताल तल में धुनें,
तत वितत घन सुषिरि जात बाजें मुनै ॥

इन्द्र आदिक सकल साज संग धारिके,
आय पुर तीन फेरी करी प्यार तें ॥
सचिय तब जाय परसूतथल मोद में,
मातु करि नींद लीनों तुम्हें गोद में ॥

आन-गिरवान नाथहिं दियो हाथ में,
छत्र अर चमर वर हरि करत माथ में ॥
चढ़े गजराज जिनराज गुन जापियो,
जाय गिरिराज पांडुक शिला थापियो ॥

लेय पंचम उदधि-उदक कर कर सुरनि,
सुरन कलशनि भरे सहित चर्चित पुरनि ॥
सहस अरु आठ शिर कलश ढारें जबै,
अघघ घघ घघघ घघ भभभ भभ भौ तबै ॥

धधध धध धधध धध धुनि मधुर होत है,
भव्य जन हंस के हरस उद्योत है ॥
भयो इमि न्हौन तब सकल गुन रंग में,
पोंछि श्रृंगार कीनों शची अंग में ॥

आनि पितुसदन शिशु सौंपि हरि थल गयो,
बाल वय तरुन लहि राज सुख भोगियो ॥
भोग तज जोग गहि, चार अरि कों हने,
धारि केवल परम धरम दुइ विध भने ॥

नाशि अरि शेष शिवथान वासी भये,
ज्ञानदृग अरि शेष शिवथान वासी भये
दीन जन की करुण वानि सुन लीजिये,
धरम के नन्द को पार अब कीजिये ॥

धत्ता
जय करुनाधारी, शिवहितकारी, तारन तरन जिहाजा हो
सेवत नित वन्दे, मनआंनदे, भवभय मेटनकाजा हो
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्री सुपार्श्व पदजुगल जो जजें पढ़े यह पाठ
अनुमोदें सो चतुर नर पावें आनन्द ठाठ ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीचन्द्रप्रभनाथ-पूजन🏠
छप्पय
चारुचरन आचरन, चरन चितहरन चिह्नचर
चंद-चंद-तनचरित, चंदथल चहत चतुर नर ॥
चतुक चंड चकचूरि, चारि चिद्चक्र गुनाकर
चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र-धनुरधर ॥
अन्वयार्थ : [चारु] सुन्दर चरणों और आचरण वाले, चित्त को हरने वाले चंद्रमा के चिन्ह से सुशोभित चरण, परम पवित्र चंद्रमा के सामान स्वच्छ [तनचरित] शरीर और चारित्र के धारक चन्द्रप्रभ भगवान, उन [चंदथल] चन्द्रप्रभ की शरण भक्त / धर्मात्मा चाहते हैं, जिन्होनें चार [चंड] निर्दयी (घातिया कर्म) कर्म को नष्ट कर दिया है, [चिदचक्र] चैतन्य समूह के चार गुणों (अनंत चतुष्टय) के भंडार / धारक हैं, जिन्हे निरंतर इंद्र, चक्रवर्ती, धनुषधारी [चूलनत] सभी नमस्कार करते हैं, ऐसे भगवान आप हैं ।

चर अचर हितू तारन तरन, सुनत चहकि चिर नंद शुचि
जिनचंद चरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रच्चि रुचि ॥
अन्वयार्थ : आप [चर] त्रस व [अचर] स्थावर जीवों के [हितू] हितकारी है (क्योकि उनकी अहिंसा का निरंतर आप उपदेश देते है) आप संसार को [तारन] स्वयं पार करने तथा [तरन] अन्यों को पार कराने वाले है । आपके [शुचि] पवित्र [चिरनंद] अनंतसुख की चर्चा सुनकर भव्य जीव प्रसन्न हो जाते है । ऐसे चन्द्रप्रभ भगवान् के चरणों की [चरच्यो] पूजा करने को [चहत] इच्छा रखता हुआ मेरा चित रुपी चकोर नाच / (प्रसन्न हो) रहा है । अर्थात ऐसे चन्द्र प्रभु भगवान् की मैं हृदय से पूजा कर रहा हूँ ।

धनुष डेढ़ सौ तुङ्ग तनु, महासेन नृपनंद ।
मातु लछमना उर जये, थापौं चंद जिनंद ॥
अन्वयार्थ : शरीर डेढ़सौ धनुष [तुंग] ऊंचा, महासेन [नृप] राजा के [नंद] पुत्र, माता लछमना के उर से उत्पन्न चन्द्रप्रभ भगवान् की मैं यहाँ स्थापना करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

गंगाहृद निरमल नीर, हाटक भृंग भरा
तुम चरन जजौं वरवीर, मेटो जनम जरा ॥
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : हे [वर] श्रेष्ठ वीर ! [गंगाहृद] गंगा नदी का स्वच्छ [नीर] जल, [हाटक] स्वर्ण के [भृंग] घड़े में भरकर, मैं आपके चरणों की [जजों] पूजा करता हूँ । आप मेरे जन्म और बुढ़ापे को नष्ट कर दीजिये । श्री चन्द्रप्रभ भगवान् की [दुति] कांति [चंद] चंद्रमा समान है, उनके चरणों में [चंद] चंद्रमा का चिन्ह है, मैं मनवचनकाय और [अमंद] अच्छे/शुद्ध भावों से अपनी आत्मा का प्रकाश जागृत करने के लिये / आत्मा के भान के लिए उनकी [जजत] पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीखण्ड कपूर सुचंग, केशर रंग भरी
घसि प्रासुक जल के संग, भवआताप हरी
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मैं [श्रीखण्ड] चंदन और [सुचंग] श्रेष्ठ कपूर लेकर केशर के रंग से परिपूर्ण, प्रासुक जल में घिस कर आपको, अपने संसार के दुखों के निवारण हेतु, अर्पित करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल सित सोम समान, सम लय अनियारे
दिये पुंज मनोहर आन, तुम पदतर प्यारे
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : [सोम] चद्रमा के समान [सित] सफ़ेद शालीवन के [अनियारे] साबुत [तंदुल] चावलों के मनोहर पुंज लेकर आपके [पदतर] पूजनीय चरणों में अक्षय पद की प्राप्ति के लिए रख रहा हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

सुर द्रुम के सुमन सुरंग, गंधित अलि आवे
ता सों पद पूजत चंग, कामविधा जावे
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मैं [सुर] देवताओं के [द्रुम] वृक्षों अर्थात कल्पवृक्ष से [सुरंग] अच्छे रंगो के सुगन्धित, [अलि] भंवरो से मंडराते [सुमन] फूलों को [तासों] आपके चरणों में [चंग] उत्साहपूर्वक [काम बिथा] कामवासना को नष्ट करने के लिए रखता हूं ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नेवज नाना परकार, इंद्रिय बलकारी
सो ले पद पूजौं सार, आकुलता-हारी
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : विभिन्न प्रकार के इंद्रियों को [बलकारी] शक्ति प्रदान करने वाले नेवज से अपनी [आकुलता हारी] क्षुधा की वेदना को नष्ट करने के लिए आपके [सार] श्रेष्ठ चरणों की पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

तम भंजन दीप संवार, तुम ढिग धारतु हौं
मम तिमिरमोह निरवार, यह गुण याचतु हौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मोह रूपी [तम] अन्धकार को [भंजन] नष्ट करने के लिए, [दीप संवार] दीप को प्रज्ज्वलित करके, आपके [ढिग] समक्ष, रखता हूँ क्योकि आपमें यह गुण है इसलिए मेरा [तिमिरमोह] मोह-अन्धकार दूर कर दीजिये ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

दसगंध हुतासन माहिं, हे प्रभु खेवतु हौं
मम करम दुष्ट जरि जाहिं, या तें सेवतु हौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मैं [दशगंध] दस प्रकार के सुगन्धित पदार्थो से धूप बना कर, दुष्ट कर्म को [जरि] जलाने के लिए, [हुताशन] अग्नि में [खेवतु] खेकर आप की प्रभु सेवा/पूजा कर रहा हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

अति उत्तम फल सु मंगाय, तुम गुण गावतु हौं
पूजौं तनमन हरषाय, विघन नशावतु हौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मै सर्वोत्तम फलों को मंगाकर आपके गुणो को गाता हूँ, तन मन से हर्षित होकर आपकी मैं पूजा करता हूँ क्योकि आप विघ्नो को नष्ट करने वाले हैं ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं
पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : आठों [पुनीत] पवित्र द्रव्यों को [सजी] सजाकर, [आठों अंग नमों] आठों अंगो को झुक कर नमस्कार करता हुआ । आठवें हितकारी जिनेन्द्र भगवान चन्द्रप्रभू की बारम्बार, [अष्टम अवनी] आठवी पृथ्वी - सिद्धशिला, पर [गमों] जाने के लिए पूजा करता हूँ ।

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
कलि पंचम चैत सुहात अली, गरभागम मंगल मोद भली
हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्मसिता ॥
अन्वयार्थ : चैत्र की [कलि] वदी पंचमी [अलि] बहुत [सुहात] अच्छी लगती है क्योकि इस दिन आप [गरभागम] गर्भ में पधारे थे और आपने जीवों को मंगल एवं [मोद भरी] प्रसन्नता प्रदान करी थी [हरि] इंद्र ने हर्षित होकर माता पिता की पूजा करी थी । हम आपका ध्यान करके [शर्मसिता] पवित्र सुख को प्राप्त करते है ।

ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा पंचम्यांगर्भमंगलंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कलि पौष एकादशि जन्म लयो, तब लोकविषै सुख थोक भयो
सुरईश जजैं गिरिशीश तबै, हम पूजत हैं नुत शीश अबै ॥
अन्वयार्थ : भगवान् आपने पौष [कलि] वदी एकादशी को जन्म लिया था उस समय समस्त लोक [सुखथोक] पूर्णतया सुखी हो गया था । [सुर ईश] तब इंद्र ने आपकी [गिरशीश] समेरू पर्वत पर ले जाकर [जजें] पूजा करी थी । हम यहाँ [अबै] अब आपकी मस्तक झुका कर नित्य पूजा करते हैं ।

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

तप दुद्धर श्रीधर आप धरा, कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा
निज ध्यान विषै लवलीन भये, धनि सो दिन पूजत विघ्न गये ॥
अन्वयार्थ : आपने पौष [कलि] कृष्ण एकादशी [पर्व वरा] श्रेष्ठ पर्व के दिन अत्यंत [दुद्धर] दुर्लभ और महान तप को धारण किया (आपका तप कल्याणक हुआ), आप अपनी आत्मा के ध्यान में लवलीन हो गए जो धन्य जीव इस दिन कि पूजा करते है उनके विघ्न नष्ट हो जाते है ।

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

वर केवल भानु उद्योत कियो, तिहुंलोकतणों भ्रम मेट दियो
कलि फाल्गुन सप्तमि इंद्र जजें, हम पूजहिं सर्व कलंक भजें ॥
अन्वयार्थ : हे [वर] भगवन् [तणों] आपने केवलज्ञान रुपी [भानु] सूर्य को [उद्योत] प्रकट किया था । [तिहुँ] तीनों लोक के जीवों का [भ्रम] मिथ्यात्व मेट दिया था फाल्गुन [कलि] कृष्ण सप्तमि के दिन इंद्र ने आपकी पूजा करी थी । हम भी आपकी पूजा करते है जिससे सभी कर्म कलंक नष्ट हो जाए ।

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

सित फाल्गुन सप्तमि मुक्ति गये, गुणवंत अनंत अबाध भये
हरि आय जजे तित मोद धरे, हम पूजत ही सब पाप हरे ॥
अन्वयार्थ : भगवन आप फाल्गुन [सित] शुक्ल सप्तमि को मोक्ष पधारे, आप [गुणवंत अनंत] अनंतगुणों सहित, [अबाध] बाधा रहित हो गए । [हरि] इंद्र ने आकर अत्यंत [मोद] प्रसन्नता पूर्वक [तित] आपकी [जजें] पूजा करी थी । हम भी समस्त पापों को [हरे] हरने हेतु आपकी पूजा करते है ।

ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
दोहा
हे मृगांक अंकित चरण, तुम गुण अगम अपार ।
गणधर से नहिं पार लहिं, तौ को वरनत सार ॥
अन्वयार्थ : हे चन्द्रप्रभ भगवान् ! आपके चरणों में [मृगांक] चंद्रमा का चिन्ह अंकित है आपके अनन्तगुण [अगम] अवर्णीय [अपार] अथाह है, गणधर देव भी उनकी [पार] थाह नहीं प्राप्त कर सकते [तौ] तो [को] कौन उनकी [सार] श्रेष्ठता का [वरनत] वर्णन कर सकता है ।

पै तुम भगति मम हिये, प्रेरे अति उमगाय ।
तातैं गाऊं सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥
अन्वयार्थ : [पै] फिर भी मेरे [हिये] हृदय में आपकी भक्ति मुझे [प्रेरे] प्रेरित करके अत्यंत [उमगाय] उत्साहित कर रही है इसलिए आपके गुणों का गान करता हूँ, इसमें आप ही मेरी सहायता कीजिये ।

छंद पद्धरी
जय चंद्र जिनेंद्र दयानिधान, भवकानन हानन दव प्रमान ।
जय गरभ जनम मंगल दिनंद, भवि-जीव विकाशन शर्म कन्द ॥१॥
अन्वयार्थ : हे चंद्रप्रभ भगवान् आपकी जय हो । आप दया के [निधान] भण्डार है, संसार रुपी [कानन] जंगल को नष्ट करने के लिए दावानल के समान है, आपका गर्भ और जन्म कल्याणक हुआ था, आपकी जय हो, [भवि] भव्यजीव रुपी कमलों के हृदय को [विकाशन] विकसित करने के लिए आप सूर्य के समान है और [शर्मकन्द] सुख को उत्पन्न करने वाले हो ।

दशलक्ष पूर्व की आयु पाय, मनवांछित सुख भोगे जिनाय ।
लखि कारण ह्वै जगतैं उदास, चिंत्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास ॥२॥
अन्वयार्थ : भगवन आपने दस लाख पूर्व की आयु प्राप्त करी जिस के गृहस्थ अवस्था में मन वांछित सुखों को भोगो था । कुछ कारणवश आप संसार से उदासीन होकर, सुख के स्थानों, बारह भावनाओं का चिंतवन करने लगे ।

तित लोकांतिक बोध्यो नियोग, हरि शिविका सजि धरियो अभोग ।
तापै तुम चढ़ि जिनचंदराय, ताछिन की शोभा को कहाय ॥३॥
अन्वयार्थ : लौकान्तिक देव अपने नियोगानुसार उनके [बोध्यो नियोग] वैराग्य की अनुमोदना के लिए [तित] वहां आये । इंद्र ने [शिविका] पालकी सजा कर रखी । चन्द्रप्रभ भगवान् ! [तापै] उस पर चढ़ कर आप, तप धारण करने के लिए जंगल की ओर बढ़े, [ताछिन] उस समय की शोभा का वर्णन करने में कौन समर्थ है ।

जिन अंग सेत सित चमर ढार, सित छत्र शीस गल गुलक हार ।
सित रतन जड़ित भूषण विचित्र, सित चन्द्र चरण चरचें पवित्र ॥४॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र भगवान् का [अंग सेत] शरीर [सित] श्वेत चंद्रमा के समान था, उन के ऊपर सफ़ेद चॅवर ढोरे जा रहे थे, सिर के ऊपर भी सफ़ेद छत्र थे, गले में [गुलक] सुंदर, श्वेत रत्नों से जड़ित हार था, भिन्न-भिन्न आभूषण भी पहने हुए थे ऐसे श्वेत पवित्र चरणों वाले चन्द्रप्रभ भगवान् की हम अर्चना / पूजा करते है ।

सित तनद्युति नाकाधीश आप, सित शिविका कांधे धरि सुचाप ।
सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चित्त में चिंतत जात पर्व ॥५॥
अन्वयार्थ : आपके शरीर की कांति सफ़ेद है आप [नाकाधीश] देवताओं के स्वामी है, आपकी श्वेत [सुचाप] धनुषाकार [शिविका] पालकी को इंद्र और देव कंधे पर रख कर ले जाते है । उस जलूस में सभी सुरेश नरेश आपके यश (गुणों )का चिंतवन करते हुए जाते है ।

सित चंद्र नगर तें निकसि नाथ, सित वन में पहुचे सकल साथ ।
सित शिला शिरोमणि स्वच्छ छाँह, सित तप तित धार्यो तुम जिनाह ॥६॥
अन्वयार्थ : भगवन आप चन्द्रनगर से निकलकर वन में [सकल] सब के साथ पहुंचे । वहाँ श्वेत, स्वच्छ और [शिरोमणि] श्रेष्ठ शिला पर आप ने तप धारण किया अर्थात सारे वस्त्र, आभूषण त्याग कर आपने निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा धारण करी ।

सित पय को पारण परम सार, सित चंद्रदत्त दीनों उदार ।
सित कर में सो पय धार देत, मानो बांधत भवसिंधु सेत ॥७॥
अन्वयार्थ : आपकी [सित पय] श्वेत दूध की श्रेष्टम रसीली [पारण] पारणा उदार सेठ चन्द्रदत्त द्वारा हुई । आपके श्वेत हाथों में वे दूध की धार देते थे, ऐसा लग रहा था जैसे संसार सागर पर [सेत] पुल ही बांध रहे हो ।

मानो सुपुण्य धारा प्रतच्छ, तित अचरज पन सुर किय ततच्छ ।
फिर जाय गहन सित तप करंत, सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त ॥८॥
अन्वयार्थ : आपके हाथ में दूध की धारा प्रत्यक्ष पुण्य की धारा बहती हुई लग रही थी । वहाँ पर देवताओं ने [ततच्छ] उसी क्षण [अचरज] पञ्चाशचर्य (रत्नवर्षा, पुष्पवर्षा, मंदसुगंध, बयार, भिन्न-भिन्न बाजे बजना, अबोध आनंद का उच्चारण) किए । फिर आप गहन तप करने के लिए चले गए जिसके द्वारा आपने अनंत केवलज्ञान रुपी ज्योति को [जग्यो] प्राप्त किया ।

लहि समवसरन रचना महान, जा के दरसन सब पाप हान ।
जहँ तरु अशोक शोभै उतंग, सब शोक तनो चूरै प्रसंग ॥९॥
अन्वयार्थ : केवलज्ञान प्राप्त करते ही आपने समवशरण विभूति प्राप्त करी अर्थात इंद्र ने कुबेर को भेजकर महान समवशरण की रचना करवाई । जिसको देखते ही सब पाप नष्ट हो जाते है । वहाँ [उतंग] ऊँचा अशोक [तरु] वृक्ष शोभित हो रहा था जो कि समस्त शोक के प्रसंगो को [चूरै] नष्ट कर रहा था ।

सुर सुमन वृष्टि नभ तें सुहात, मनु मन्मथ तजि हथियार जात ।
बानी जिनमुख सों खिरत सार, मनु तत्त्व प्रकाशन मुकुर धार ॥१०॥
अन्वयार्थ : वहाँ, देवता [नभ] आकाश से सुगन्धित सुहावने पुष्पों की [वर्षा] वृष्टि करते है, ऐसा लगता है मानो [मन्मथ] कामदेव अपने हथियारों को छोड़ कर भाग रहा हो । भगवन के मुख से वहाँ श्रेष्ठ वाणी, दिव्यध्वनि, खिरती है जो कि मानो तत्वों के प्रकाशन के लिए साक्षत [मुकुर धार] दर्पणमय है ।

जहँ चौंसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजस मेघ झरि लगिय तंत ।
सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, मनु शिव सरवर को कमल शुक्ल ॥११॥
अन्वयार्थ : जहाँ चौसठ चँवर [अमर] देव निरंतर ढोरते है, ऐसा लगता है मानो आपके यश की [झरि] वर्षा मेघों द्वारा हो रही हो, गंध-कुटी के ऊपर सिंहासन है, जिस पर कमल है । यह कमल, मोक्षरूपी सरोवर का ही श्वेतकमल लग रहा है ।

दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करमजीत को है नगार ।
शिर छत्र फिरै त्रय श्वेत वर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण ॥१२॥
अन्वयार्थ : [जित] जहाँ मधुर सुरों में दुंदभि बज रही है, ऐसा लगा मानो कर्मों पर विजय का नगाड़ा बज रहा हो । आपके सिर के ऊपर तीन छत्र, श्वेत वर्ण के फिर रहे हैं, मानो ये तीन रत्नो (रत्नत्रय) के देने वाले और तीन प्रकार के ताप अर्थात जन्म जरा मृत्यु को हरने वाले हों ।

तन प्रभा तनो मंडल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात ।
मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सु आय ॥१३॥
अन्वयार्थ : आपके शरीर की प्रभा का जो सुहावना मंडल है उसमे भव्य जीव अपने-अपने सात-सात (तीन भूत, तीन भविष्य के और १ वर्तमान) भव देखते हैं । जैसे वे दर्पण में अपना मुख स्पष्ट देख कर आते है ।

इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान ।
ता को वरणत नहिं लहत पार, तो अंतरंग को कहै सार ॥१४॥
अन्वयार्थ : इन अनेक विभूतियों को देखकर आपकी बाह्य महिमा का वर्णन करना कठिन है फिर अंतरंग महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ।

अनअंत गुणनिजुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार ।
फिर जोग निरोध अघातिहान, सम्मेदथकी लिय मुकतिथान ॥१५॥
अन्वयार्थ : भगवान् आपने अपने अनंतगुणों सहित विहार किया है और भव्य जीवों को संसार से पार लगने का उपदेश दिया । फिर योग-निरोध अर्थात मन-वचन-काय तीनों योगो का निरोध करके, चार अघातिया कर्मों को नष्ट करके सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त कर लिया ।

'वृन्दावन' वंदत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय ।
ता तें का कहौं सु बार बार, मनवांछित कारज सार सार ॥१६॥
अन्वयार्थ : वृंदावन कवि शीश नवकार बारम्बार प्रभु की वंदना करते है - प्रभू ! आप सब जानते हो कि मेरे हृदय में क्या है, उसे मैं बार बार क्या कहूं, मेरे मन की इच्छा, [सार सार] श्रेष्ठ मोक्ष की प्राप्ति [कारज] करवा दीजिये ।

धत्ता
जय चंद जिनंदा, आनंदकंदा, भवभयभंजन राजैं हैं ।
रागादिक द्वंदा, हरि सब फंदा, मुकति मांहि थिति साजैं हैं ॥१७॥
अन्वयार्थ : अर्थ - जिनेन्द्र चन्द्र प्रभ आपकी जय हो । आप आनंद के समूह हैं, संसार के भय को नष्ट करने वाले हैं, रागादि द्वंदों के फंदो को हरने वाले हैं, आप मोक्ष में भली प्रकार विराजमान हैं ।

छन्द चौबोला
आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचंद जजें ।
ता के भव-भव के अघ भाजें, मुक्तिसार सुख ताहि सजें ॥
जम के त्रास मिटें सब ताके, सकल अमंगल दूर भजें ।
'वृन्दावन' ऐसो लखि पूजत, जा तें शिवपुरि राज रजें ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥
अन्वयार्थ : अर्थ - जो भव्य जीव आठों द्रव्यों को लेकर चन्द्र प्रभ भगवान् की पूजा करते है उनके भव-भव के [अघ] पाप नष्ट हो जाते हैं और मुक्ति-सुख की प्राप्ति होती है । जन्म के [त्रास] दुःख मिट जाते है, समस्त अमंगल दूर हो जाते हैं । वृंदावन कवि ये देखकर, पूजा करते है जिस से मोक्ष सुख की प्राप्ति हो सके ।




श्रीपुष्पदन्त-पूजन🏠
छन्द
पुष्पदन्त भगवन्त सन्त सु जपंत तंत गुन
महिमावन्त महन्त कन्त शिवतिय रमन्त मुन ॥
काकन्दीपुर जन्म पिता सुग्रीव रमा सुत
श्वेत वरन मनहरन तुम्हैं थापौं त्रिवार नुत ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

चालः- होली, तालः- जत्त
हिमवन गिरिगत गंगाजल भर, कंचन भृंग भराय
करम कलंक निवारनकारन, जजौं, तुम्हारे पाय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

बावन चन्दन कदलीनंदन, कुंकुम संग घसाय
चरचौं चरन हरन मिथ्यातम, वीतराग गुण गाय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

शालि अखंडित सौरभमंडित, शशिसम द्युति दमकाय
ता को पुञ्ज धरौं चरननढिग, देहु अखय पद राय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

सुमन सुमनसम परिमलमंडित, गुंजत अलिगन आय
ब्रह्म-पुत्र मद भंजन कारन, जजौं तुम्हारे पाय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

घेवर बावर फेनी गोंजा, मोदन मोदक लाय
छुधा वेदनि रोग हरन कों, भेंट धरौं गुण गाय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

वाति कपूर दीप कंचनमय, उज्ज्वल ज्योति जगाय
तिमिर मोह नाशक तुमको लखि, धरौं निकट उमगाय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

दशवर गंध धनंजय के संग, खेवत हौं गुन गाय
अष्टकर्म ये दुष्ट जरें सो, धूम सु धूम उड़ाय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल मातुलिंग शुचि चिरभट, दाड़िम आम मंगाय
ता सों तुम पद पद्म जजत हौं, विघन सघन मिट जाय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल फल सकल मिलाय मनोहर, मनवचतन हुलसाय
तुम पद पूजौं प्रीति लाय के, जय जय त्रिभुवनराय ॥
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
नवमी तिथि कारी फागुन धारी, गरभ मांहिं थिति देवा जी
तजि आरण थानं कृपानिधानं, करत शची तित सेवा जी ॥
रतनन की धारा परम उदारा, परी व्योम तें सारा जी
मैं पूजौं ध्यावौं भगति बढ़ावौं, करो मोहि भव पारा जी ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णानवम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
मंगसिर सितपच्छं परिवा स्वच्छं, जनमे तीरथनाथा जी
तब ही चवभेवा निरजर येवा, आय नये निज माथा जी ॥
सुरगिर नहवाये, मंगल गाये, पूजे प्रीति लगाई जी
मैं पूजौं ध्यावौं भगत बढ़ावौं, निजनिधि हेतु सहाई जी ॥
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला प्रतिपदायां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सित मंगसिर मासा तिथि सुखरासा, एकम के दिन धारा जी
तप आतमज्ञानी आकुलहानी, मौन सहित अविकारा जी ॥
सुरमित्र सुदानी के घर आनी, गो-पय पारन कीना जी
तिन को मैं वन्दौं पाप निकंदौं, जो समता रस भीना जी ॥
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला प्रतिपदायां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सित कार्तिक गाये दोइज घाये, घातिकरम परचंडा जी
केवल परकाशे भ्रम तम नाशे, सकल सार सुख मंडा जी ॥
गनराज अठासी आनंदभासी, समवसरण वृषदाता जी
हरि पूजन आयो शीश नमायो, हम पूजें जगत्राता जी ॥
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वितीयायां ज्ञानमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
भादव सित सारा आठैं धारा, गिरिसमेद निरवाना जी
गुन अष्ट प्रकारा अनुपम धारा, जय जय कृपा निधाना जी ॥
तित इन्द्र सु आयौ, पूज रचायौ,चिह्न तहां करि दीना जी
मैं पूजत हौं गुन ध्यान मणी सों, तुमरे रस में भीना जी ॥
ॐ ह्रीं भाद्रपद शुक्लाऽष्टम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
लच्छन मगर सुश्वेत तन तुड्गं धनुष शत एक
सुरनर वंदित मुकतिपति, नमौं तुम्हें शिर टेक ॥
पुहुपदन्त गुनवदन है, सागर तोय समान
क्यों करि कर-अंजुलिनि कर, करिये तासु प्रमान ॥
छन्द तामरस, नमन मालिनी तथा चण्डी - 16 मात्रा
पुष्पदन्त जयवन्त नमस्ते, पुण्य तीर्थंकर सन्त नमस्ते ।
ज्ञान ध्यान अमलान नमस्ते, चिद्विलास सुख ज्ञान नमस्ते ॥
भवभयभंजन देव नमस्ते, मुनिगणकृत पद-सेव नमस्ते ।
मिथ्या-निशि दिन-इन्द्र नमस्ते, ज्ञानपयोदधि चन्द्र नमस्ते ॥

भवदुःख तरु निःकन्द नमस्ते, राग दोष मद हनन नमस्ते ।
विश्वेश्वर गुनभूर नमस्ते, धर्म सुधारस पूर नमस्ते ॥
केवल ब्रह्म प्रकाश नमस्ते, सकल चराचरभास नमस्ते ।
विघ्नमहीधर विज्जु नमस्ते, जय ऊरधगति रिज्जु नमस्ते ॥

जय मकराकृत पाद नमस्ते, मकरध्वज-मदवाद नमस्ते ।
कर्मभर्म परिहार नमस्ते, जय जय अधम-उद्धार नमस्ते ॥
दयाधुरंधर धीर नमस्ते, जय जय गुन गम्भीर नमस्ते ।
मुक्ति रमनि पति वीर नमस्ते, हर्ता भवभय पीर नमस्ते ॥

व्यय उत्पति थितिधार नमस्ते, निजअधार अविकार नमस्ते ।
भव्य भवोदधितार नमस्ते, 'वृन्दावन' निस्तार नमस्ते ॥
धत्ता
जय जय जिनदेवं हरिकृतसेवं, परम धरमधन धारी जी ।
मैं पूजौं ध्यावौं गुनगन गावौं, मेटो विथा हमारी जी ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पुहुपदंत पद सन्त, जजें जो मनवचकाई
नाचें गावें भगति करें, शुभ परनति लाई ॥
सो पावें सुख सर्व, इन्द्र अहिमिंद तनों वर
अनुक्रम तें निरवान, लहें निहचै प्रमोद धर ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीशीतलनाथ-पूजन🏠
शीतलनाथ नमौं धरि हाथ, सु माथ जिन्हों भव गाथ मिटाये
अच्युत तें च्युत मात सुनन्द के, नन्द भये पुर बद्दल आये ॥
वंश इक्ष्वाकु कियो जिन भूषित, भव्यन को भव पार लगाये
ऐसे कृपानिधि के पद पंकज, थापतु हौं हिय हर्ष बढ़ाये ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

देवापगा सु वर वारि विशुद्ध लायो,
भृंगार हेम भरि भक्ति हिये बढ़ायो
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीखंड सार वर कुंकुम गारि लीनों,
कं संग स्वच्छ घिसि भक्ति हिये धरीनों ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

मुक्ता-समान सित तंदुल सार राजे,
धारंत पुंज कलिकंज समस्त भाजें ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

श्री केतकी प्रमुख पुष्प अदोष लायो,
नौरंग जंग करि भृंग सु रंग पायो ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नैवेद्य सार चरु चारु संवारि लायो,
जांबूनद-प्रभृति भाजन शीश नायो ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

स्नेह प्रपूरित सुदीपक जोति राजे,
स्नेह प्रपूरित हिये जजतेऽघ भाजे ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

कृष्णागरू प्रमुख गंध हुताश माहीं,
खेवौं तवाग्र वसुकर्म जरंत जाही ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

निम्बाम्र कर्कटि सु दाड़िम आदि धारा,
सौवर्ण-गंध फल सार सुपक्व प्यारा ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ श्री-फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे,
नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे ॥
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली

छंद इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा
आठैं वदी चैत सुगर्भ मांही, आये प्रभू मंगलरुप थाहीं
सेवै शची मातु अनेक भेवा, चर्चौं सदा शीतलनाथ देवा ॥
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाऽष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
श्री माघ की द्वादशि श्याम जायो, भूलोक में मंगल सार आयो
शैलेन्द्र पै इन्द्र फनिन्द्र जज्जे, मैं ध्यान धारौं भवदुःख भज्जे ॥
ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
श्री माघ की द्वादशि श्याम जानो, वैराग्य पायो भवभाव हानो
ध्यायो चिदानन्द निवार मोहा, चर्चौं सदा चर्न निवारि कोहा ॥
ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चतुर्दशी पौष वदी सुहायो, ताही दिना केवल लब्धि पायो
शोभै समोसृत्य बखानि धर्मं, चर्चों सदा शीतल पर्म शर्मं ॥
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां केवल ज्ञानमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
कुवार की आठैं शुद्ध बुद्धा, भये महा मोक्ष सरुप शुद्धा
सम्मेद तें शीतलनाथ स्वामी, गुनाकरं ता सु पदं नमामी ॥
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाऽष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
आप अनंत गुनाकर राजे, वस्तुविकाशन भानु समाजे
मैं यह जानि गही शरना है, मोह महारिपु को हरना है
दोहा
हेम वरन तन तुंग धनु-नव्वै अति अभिराम
सुर तरु अंक निहारि पद, पुनि पुनि करौं प्रणाम
जय शीतलनाथ जिनन्द वरं, भव दाह दवानल मेघझरं
दुख-भुभृत-भंजन वज्र समं, भव सागर नागर-पोत-पमं ॥

कुह-मान-मयागद-लोभ हरं, अरि विघ्न गयंद मृगिंद वरं
वृष-वारिधवृष्टन सृष्टिहितू, परदृष्टि विनाशन सुष्टु पितू ॥
समवस्रत संजुत राजतु हो, उपमा अभिराम विराजतु हो
वर बारह भेद सभा थित को, तित धर्म बखानि कियो हित को ॥

पहले महि श्री गणराज रजैं, दुतिये महि कल्पसुरी जु सजैं
त्रितिये गणनी गुन भूरि धरैं, चवथे तिय जोतिष जोति भरैं ॥
तिय-विंतरनी पन में गनिये, छह में भुवनेसुर तिय भनिये
भुवनेश दशों थित सत्तम हैं, वसु-विंतर विंतर उत्तम हैं ॥

नव में नभजोतिष पंच भरे, दश में दिविदेव समस्त खरे
नरवृन्द इकादश में निवसें, अरु बारह में पशु सर्व लसें ॥
तजि वैर, प्रमोद धरें सब ही, समता रस मग्न लसें तब ही
धुनि दिव्य सुनें तजि मोहमलं, गनराज असी धरि ज्ञानबलं ॥

सबके हित तत्त्व बखान करें, करुना-मन-रंजित शर्म भरें
वरने षटद्रव्य तनें जितने, वर भेद विराजतु हैं तितने ॥
पुनि ध्यान उभै शिवहेत मुना, इक धर्म दुती सुकलं अधुना
तित धर्म सुध्यान तणों गुनियो, दशभेद लखे भ्रम को हनियो ॥

पहलोरि नाश अपाय सही, दुतियो जिन बैन उपाया गही
त्रिति जीवविषैं निजध्यावन है, चवथो सु अजीव रमावन है ॥
पनमों सु उदै बलटारन है, छहमों अरि-राग-निवारन है
भव त्यागन चिंतन सप्तम है, वसुमों जितलोभ न आतम है ॥

नवमों जिन की धुनि सीस धरे, दशमों जिनभाषित हेत करे
इमि धर्म तणों दश भेद भन्यो, पुनि शुक्लतणो चदु येम गन्यो ॥
सुपृथक्त-वितर्क-विचार सही, सुइकत्व-वितर्क-विचार गही
पुनि सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपात कही, विपरीत-क्रिया-निरवृत्त लही ॥

इन आदिक सर्व प्रकाश कियो, भवि जीवनको शिव स्वर्ग दियो
पुनि मोक्षविहार कियो जिनजी, सुखसागर मग्न चिरं गुनजी ॥
अब मैं शरना पकरी तुमरी, सुधि लेहु दयानिधि जी हमरी
भव व्याधि निवार करो अब ही, मति ढील करो सुख द्यो सब ही
धत्ता
शीतल जिन ध्याऊं भगति बढ़ाऊं, ज्यों रतनत्रय निधि पाऊं
भवदंद नशाऊं शिवथल जाऊं, फेर न भव-वन में आऊं
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

दिढ़रथ सुत श्रीमान् पंचकल्याणक धारी,
तिन पद जुगपद्म जो जजै भक्तिधारी
सहजसुख धन धान्य, दीर्घ सौभाग्य पावे,
अनुक्रम अरि दाहै, मोक्ष को सो सिधावै ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीश्रेयांसनाथ-पूजन🏠
छंद रूपमाला तथा गीता
विमल नृप विमला सुअन, श्रेयांसनाथ जिनन्द
सिंहपुर जन्मे सकल हरि, पूजि धरि आनन्द ॥
भव बंध ध्वंसनिहेत लखि मैं शरन आयो येव
थापौं चरन जुग उरकमल में, जजनकारन देव
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

कलधौत वरन उतंग हिमगिरि पदम द्रह तें आवई
सुरसरित प्रासुक उदक सों भरि भृंग धार चढ़ावई ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

गोशीर वर करपूर कुंकुम नीर संग घसौं सही
भवताप भंजन हेत भवदधि सेत चरन जजौं सही ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

सित शालि शशि दुति शुक्ति सुन्दर मुक्तकी उनहार हैं
भरि थार पुंज धरंत पदतर अखयपद करतार हैं ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

सद सुमन सु मन समान पावन, मलय तें मधु झंकरें
पद कमलतर धरतैं तुरित सो मदन को मद खंकरें ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

यह परम मोदक आदि सरस सँवारि सुन्दर चरु लियो
तुव वेदनी मदहरन लखि, चरचौं चरन शुचिकर हियो ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

संशय विमोह विभरम तम भंजन दिनन्द समान हो
तातैं चरनढिग दीप जोऊँ देहु अविचल ज्ञान हो ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

वर अगर तगर कपूर चूर सुगन्ध भूर बनाइया
दहि अमर जिह्नाविषैं चरनढिग करम भरम जराइया ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

सुरलोक अरु नरलोक के फल पक्व मधुर सुहावने
ले भगति सहित जजौं चरन शिव परम पावन पावने ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जलमलय तंदुल सुमनचरु अरु दीप धूप फलावली
करि अरघ चरचौं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ॥
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं
दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
छंद आर्या
पुष्पोत्तर तजि आये, विमलाउर जेठकृष्ण छट्टम को
सुरनर मंगल गाये, पूजौं मैं नासि कर्म काठनि को ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यंनिर्वपामीति स्वाहा
जनमे फागुनकारी, एकादशि तीन ग्यान दृगधारी
इक्ष्वाकु वंशतारी, मैं पूजौं घोर विघ्न दुख टारी ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यंनिर्वपामीति स्वाहा
भव तन भोग असारा, लख त्याग्यो धीर शुद्ध तप धारा
फागुन वदि इग्यारा, मैं पूजौं पाद अष्ट परकारा ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यंनिर्वपामीति स्वाहा
केवलज्ञान सुजानन, माघ बदी पूर्णतित्थ को देवा
चतुरानन भवभानन, वंदौं ध्यावौं करौं सुपद सेवा ॥
ॐ ह्रीं माघकृष्णामावस्यायां केवलज्ञानमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यंनिर्वपामीति स्वाहा
गिरि समेद तें पायो, शिवथल तिथि पूर्णमासि सावन को
कुलिशायुध गुनगायो, मैं पूजौं आप निकट आवन को ॥
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लापूर्णिमायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यंनिर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
शोभित तुंग शरीर सुजानो, चाप असी शुभ लक्षण मानो
कंचन वर्ण अनूपम सोहे, देखत रुप सुरासुर मोहे

पद्धरी छंद -- 15 मात्रा
जय जय श्रेयांस जिन गुणगरिष्ठ, तुम पदजुग दायक इष्टमिष्ट
जय शिष्ट शिरोमणि जगतपाल, जय भव सरोजगन प्रातःकाल
जय पंच महाव्रत गज सवार, लै त्याग भाव दलबल सु लार
जय धीरज को दलपति बनाय, सत्ता छितिमहँ रन को मचाय

धरि रतन तीन तिहुँशक्ति हाथ, दश धरम कवच तपटोप माथ
जय शुकलध्यान कर खड़ग धार, ललकारे आठों अरि प्रचार
ता में सबको पति मोह चण्ड, ता को तत छिन करि सहस खण्ड
फिर ज्ञान दरस प्रत्यूह हान, निजगुन गढ़ लीनों अचल थान

शुचि ज्ञान दरस सुख वीर्य सार, हुई समवशरण रचना अपार
तित भाषे तत्त्व अनेक धार, जा को सुनि भव्य हिये विचार
निजरुप लह्यो आनन्दकार, भ्रम दूर करन को अति उदार
पुनि नयप्रमान निच्छेप सार, दरसायो करि संशय प्रहार

ता में प्रमान जुगभेद एव, परतच्छ परोछ रजै स्वमेव
ता में पतच्छ के भेद दोय, पहिलो है संविवहार सोय
ता के जुग भेद विराजमान, मति श्रुति सोहें सुन्दर महान
है परमारथ दुतियो प्रतच्छ, हैं भेद जुगम ता माहिं दच्छ

इक एकदेश इक सर्वदेश, इकदेश उभैविधि सहित वेश
वर अवधि सु मनपरजय विचार, है सकलदेश केवल अपार
चर अचर लखत जुगपत प्रतच्छ, निरद्वन्द रहित परपंच पच्छ
पुनि है परोच्छमहँ पंच भेद, समिरति अरु प्रतिभिज्ञान वेद

पुनि तरक और अनुमान मान, आगमजुत पन अब नय बखान
नैगम संग्रह व्यौहार गूढ़, ऋजुसूत्र शब्द अरु समभिरुढ़
पुनि एवंभूत सु सप्त एम, नय कहे जिनेसुर गुन जु तेम
पुनि दरव क्षेत्र अर काल भाव, निच्छेप चार विधि इमि जनाव

इनको समस्त भाष्यौ विशेष, जा समुझत भ्रम नहिं रहत लेश
निज ज्ञानहेत ये मूलमन्त्र, तुम भाषे श्री जिनवर सु तन्त्र
इत्यादि तत्त्व उपदेश देय, हनि शेषकरम निरवान लेय
गिरवान जजत वसु दरब ईस, 'वृन्दावन' नितप्रति नमत शीश
धत्ता
श्रेयांस महेशा सुगुन जिनेशा, वज्रधरेशा ध्यावतु हैं
हम निशदिन वन्दें पापनिकंदें, ज्यों सहजानंद पावतु हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जो पूजें मन लाय श्रेयनाथ पद पद्म को
पावें इष्ट अघाय, अनुक्रम सों शिवतिय वरैं ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीवासुपूज्य-पूजन🏠
जय श्री वासुपूज्य तीर्थंकर सुर नर मुनि पूजित जिनदेव ।
ध्रुव स्वभाव निज का अवलंबन लेकर सिद्ध हुए स्वयमेव ॥
घाति अघाति कर्म सब नाशे तीर्थंकर द्वादशम्‌ सुदेव ।
पूजन करता हूँ अनादि की मेटो प्रभु मिथ्यात्व कुटेव ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

जल से तन बार-बार धोया पर शुचिता कभी नहीं आई ।
इस हाड़-मांस मय चर्म-देह का जन्म मरण अति दुखदाई ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

गुण शीतलता पाने को मैं चन्दन चर्चित करता आया ।
भव चक्र एक भी घटा नहीं संताप न कुछ कम हो पाया ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

मुक्ता सम उज्ज्वल तंदुल से नित देह पुष्ट करता आया ।
तन की जर्जरता रुकी नहीं भव-कष्ट व्यर्थ भरता आया ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पुष्पों की सुरभि सुहाई प्रभु पर निज की सुरभि नहीं भाई ।
कंदर्प दर्प की चिरपीड़ा अबतक न शमन प्रभु हो पाई ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

घट रस मय विविध विविध व्यंजन जी भर-भर कर मैंने खाये ।
पर भूख तृप्त न हो पाई दुख क्षुधा-रोग के नित पाये ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीपक निज ही प्रज्ज्वलित किये अन्तरतम अब तक मिटा नहीं ।
मोहान्धकार भी गया नहीं अज्ञान तिमिर भी हटा नहीं ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ अशुभ कर्म बन्धन भाया संवर का तत्त्व कभी न मिला ।
निर्जरित कर्म कैसे हो जब दुखमय आस्रव का द्वार खुला ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

भौतिक-सुख की इच्छाओं का मैनें अब तक सम्मान किया ।
निर्वाण मुक्ति फलपाने को मैंने न कभी निज-ध्यान किया ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जब तक अनर्घ पद मिले नहीं तब तक मैं अर्घ चढ़ाऊँगा ।
निजपद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नहीं मैं आऊँगा ॥
त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो ।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
त्यागा महा शुक्र का वैभव, माँ विजया उर में आये ।
शुभ अषाढ़ कृष्ण षष्ठी को देवों ने मंगल गाये ॥
चम्पापुर नगरी की कर रचना, नव बारह योजन विस्तृत ।
वासुपूज्य के गर्भोत्सव पर हुए नगरवासी हर्षित ॥
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

फागुन कृष्णा चतुर्दशी को नाथ आपने जन्म लिया ।
नृप वसुपूज्य पिता हर्षाये भरतक्षेत्र को धन्य किया ॥
गिरि सुमेरु पर पाण्डुक वन में हुआ जन्म कल्याण महान ।
वासुपूज्य का क्षीरोदधि से हुआ दिव्य अभिषेक प्रधान ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

फागुन कृष्णा चतुर्दशी को वन की ओर प्रयाण किया ।
लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने आकर तप कल्याण किया ॥
तब नम: सिद्धेभ्य: कहकर प्रभु ने इच्छाओं का दमन किया ।
वासुपूज्य ने ध्यान लीन हो इच्छाओं का दमन किया ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्या तपोमंगल प्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

माघ शुक्ल की दोज मनोरम प्रभु को केवलज्ञान हुआ ।
समवसरण में खिरी दिव्यध्वनि जीवों का कल्याण हुआ ॥
नाश किये घन घाति-कर्म सब केवलज्ञान प्रकाश हुआ ।
भव्यजनों के हृदय कमल का प्रभु से पूर्ण विकाश हुआ ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वितीयायां केवलज्ञान मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

अंतिम शुक्ल ध्यानधर प्रभु ने कर्म अधाति किये चकचूर ।
मुक्ति वधु के कंत हो गये योग मात्र कर निज से दूर ॥
भादव शुक्ला चतुर्दशी के दिन चम्पापुर से निर्वाण हुआ ।
मोक्ष लक्ष्मी वासुपूज्य ने पाई जय जय गान हुआ ॥
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
वासुपूज्य विद्या निधि विध्न विनाशक वागीश्वर विश्वेश ।
विश्वविजेता विश्वज्योति विज्ञानी विश्वदेव विविधेश ॥
चम्पापुर के महाराज वसुपूज्य पिता विजया माता ।
तुमको पाकर धन्य हुए है वासुपूज्य मंगल दाता ॥

अष्ट वर्ष की अल्प आयु में तुमने अणुव्रत धार लिया ।
यौवन वय में ब्रह्मचर्य आजीवन अंगीकार किया ॥
पंच मुष्टि कचलोंच किया सब वस्त्राभूषण त्याग दिये ।
विमल भावना द्वादश भाई पंच महाव्रत ग्रहण किये ॥

स्वयं बुद्ध हो नमः सिद्ध कह पावन संयम अपनाया ।
मति, श्रुति, अवधि जन्म से था अब ज्ञान मनः पर्यय पाया ॥
एक वर्ष छद्मस्थ मौन रह आत्म साधना की तुमने ।
उग्र तपश्या के द्वारा ही कर्म निर्जरा की तुमने ॥

श्रेणीक्षपक चढ़े तुम स्वामी मोहनीय का नाश किया ।
पूर्ण अनन्त चतुष्टय पाया पद अरहंत महान लिया ॥
विचरण करके देश-देश में मोक्ष-मार्ग उपदेश दिया ।
जो स्वभाव का साधन साधे, सिद्ध बने, संदेश दिया ॥

प्रभु के छ्यासठ गणधर जिनमें प्रमुख श्रीमंदिर ऋषिवर ।
मुख्य आर्यिका वरसेना थीं नृपति स्वयंभू श्रोतावर ॥
प्रायश्चित व्युत्सर्ग विनय, वैयावृत स्वाध्याय अरुध्यान ।
अन्तरंग तप छह प्रकार का तुमने बतलाया भगवान ॥

कहा बाह्म तप छह प्रकार उनोदर कायक्लेश अनशन ।
रस परित्याग-सुव्रत परिसंख्या, विविक्त शैय्यासन पावन ॥
ये द्वादश तप जिन मुनियों को पालन करना बतलाया ।
अणुव्रत शिक्षाव्रत गुणव्रत द्वादशव्रत श्रावक का गाया ॥

चम्पापुर में हुए पंचकल्याण आपके मंगलमय ।
गर्भ, जन्य, तप ज्ञान, मोक्ष, कल्याण भव्यजन को सुखमय ।
परमपूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत्‌-शत् वन्दन ।
वर्तमान चौबीसी के द्वादशम् जिनेश्वर नित्य नमन ॥

मैं अनादि से दुखी, मुझे भी निज-बल दो भववास हरूँ ।
निज-स्वरूप का अवलम्बन ले अष्टकर्म अरि नाश करूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

महिष चिंह शोभित चरण, वासुपूज्य उर धार ।
मन-वच-तन जो पूजते वे होते भव पार॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीवासुपूज्य-पूजन🏠
श्रीमत् वासुपूज्य जिनवर पद, पूजन हेत हिये उमगाय
थापौं मन वच तन शुचि करके, जिनकी पाटलदेव्या माय ॥
महिष चिह्न पद लसे मनोहर, लाल वरन तन समतादाय
सो करुनानिधि कृपादृष्टि करि, तिष्ठहु सुपरितिष्ठ इहं आय ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

गंगाजल भरि कनक कुंभ में, प्रासुक गंध मिलाई
करम कलंक विनाशन कारन, धार देत हरषाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

कृष्णागरु मलयागिर चंदन, केशरसंग घिसाई
भवआताप विनाशन-कारन, पूजौं पद चित लाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

देवजीर सुखदास शुद्ध वर सुवरन थार भराई
पुंज धरत तुम चरनन आगे, तुरित अखय पद पाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पारिजात संतान कल्पतरु-जनित सुमन बहु लाई
मीन केतु मद भंजनकारन, तुम पदपद्म चढ़ाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नव्य-गव्य आदिक रसपूरित, नेवज तुरत उपाई
छुधारोग निरवारन कारन, तुम्हें जजौं शिरनाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीपक जोत उदोत होत वर, दश-दिश में छवि छाई
मोह तिमिर नाशक तुमको लखि, जजौं चरन हरषाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

दशविध गंध मनोहर लेकर, वात होत्र में डाई
अष्ट करम ये दुष्ट जरतु हैं, धूप सु धूम उड़ाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

सुरस सुपक्क सुपावन फल ले कंचन थार भराई
मोक्ष महाफलदायक लखि प्रभु, भेंट धरौं गुन गाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल फल दरव मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई
शिवपदराज हेत हे श्रीपति ! निकट धरौं यह लाई ॥
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
कलि छट्ट आसाढ़ सुहायो, गरभागम मंगल पायो
दशमें दिवि तें इत आये, शतइन्द्र जजें सिर नाये॥
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
कलि चौदस फगुन जानो, जनमो जगदीश महानो
हरि मेरु जजे तब जाई, हम पूजत हैं चित लाई ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
तिथि चौदस फागुन श्यामा, धरियो तप श्री अभिरामा
नृप सुन्दर के पय पायो, हम पूजत अति सुख थायो ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्या तपोमंगल प्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सुदि माघ दोइज सोहे, लहि केवल आतम जोहे
अनअंत गुनाकर स्वामी, नित वंदौ त्रिभुवन नामी ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वितीयायां केवलज्ञान मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सित भादव चौदस लीनो, निरवान सुथान प्रवीनो
पुर चंपा थानक सेती, हम पूजत निज हित हेती ॥
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
चंपापुर में पंच वर-कल्याणक तुम पाय
सत्तर धनु तन शोभनो, जै जै जै जिनराय

महासुखसागर आगर ज्ञान, अनंत सुखामृत मुक्त महान
महाबलमंडित खंडितकाम, रमाशिवसंग सदा विसराम
सुरिंद फनिंद खगिंद नरिंद, मुनिंद जजें नित पादारविंद
प्रभू तुम अंतरभाव विराग, सु बालहि तें व्रतशील सों राग

कियो नहिं राज उदास सरुप, सु भावन भावत आतम रुप
'अनित्य' शरीर प्रपंच समस्त, चिदातम नित्य सुखाश्रित वस्त
'अशर्न' नहीं कोउ शर्न सहाय, जहां जिय भोगत कर्म विपाय
निजातम को परमेसुर शर्न, नहीं इनके बिन आपद हर्न

'जगत्त' जथा जल बुदबुद येव, सदा जिय एक लहै फलमेव
अनेक प्रकार धरी यह देह, भ्रमे भवकानन आन न गेह
'अपावन' सात कुधात भरीय, चिदातम शुद्ध सुभाव धरीय
धरे तन सों जब नेह तबेव, सु 'आवत कर्म' तबै वसुभेव

जबै तन-भोग-जगत्त-उदास, धरे तब 'संवर' 'निर्जर' आस
करे जब कर्मकलंक विनाश, लहे तब 'मोक्ष' महासुखराश
तथा यह 'लोक' नराकृत नित्त, विलोकियते षट्द्रव्य विचित्त
सु आतमजानन 'बोध' विहिन, धरे किन तत्त्व प्रतीत प्रवीन

'जिनागम ज्ञानरु' संजम भाव, सबै निजज्ञान विना विरसाव
सुदुर्लभ द्रव्य सुक्षेत्र सुकाल, सुभाव सबै जिस तें शिव हाल
लयो सब जोग सु पुन्य वशाय, कहो किमि दीजिय ताहि गँवाय
विचारत यों लौकान्तिक आय, नमे पदपंकज पुष्प चढ़ाय

कह्यो प्रभु धन्य कियो सुविचार, प्रबोधि सुयेम कियो जु विहार
तबै सौधर्मतनों हरि आय, रच्यो शिविका चढ़िआय जिनाय
धरे तप पाय सु केवलबोध, दियो उपदेश सुभव्य संबोध
लियो फिर मोक्ष महासुखराश, नमें नित भक्त सोई सुख आश
धत्ता
नित वासव वंदत, पापनिकंदत, वासुपूज्य व्रत ब्रह्मपती
भवसंकलखंडित, आनंदमंडित, जै जै जै जैवंत जती
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

वासुपूजपद सार, जजौं दरबविधि भाव सों
सो पावै सुखसार, भुक्ति मुक्ति को जो परम ॥
इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥



श्रीविमलनाथ-पूजन🏠
सहस्रार दिवि त्यागि, नगर कम्पिला जनम लिय
कृतधर्मानृपनन्द, मातु जयसेना धर्मप्रिय ॥
तीन लोक वर नन्द, विमल जिन विमल विमलकर
थापौं चरन सरोज, जजन के हेतु भाव धर ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

कंचन झारी धारि, पदमद्रह को नीर ले
तृषा रोग निरवारि, विमल विमलगुन पूजिये ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

मलयागर करपूर देववल्लभा संग घसि
हरि मिथ्यातमभूर, विमल विमलगुन जजतु हौं ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

वासमती सुखदास, स्वेत निशपति को हँसै
पूरे वाँछित आस, विमल विमलगुन जजत ही ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पारिजात मंदार, संतानक सुरतरु जनित
जजौं सुमन भरि थार, विमल विमलगुन मदनहर ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नव्य गव्य रसपूर, सुवरण थाल भरायके
छुधावेदनी चूर, जजौं विमल विमलगुन ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

माणिक दीप अखण्ड, गो छाई वर गो दशों
हरो मोहतम चंड, विमल विमलमति के धनी ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगरु तगर घनसार, देवदारु कर चूर वर
खेवौं वसु अरि जार, विमल विमल पद पद्म ढिग ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल सेव अनार, मधुर रसीले पावने
जजौं विमलपद सार, विघ्न हरें शिवफल करें ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

आठों दरब संवार, मनसुखदायक पावने
जजौं अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमण ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
गरभ जेठ बदी दशमी भनो, परम पावन सो दिन शोभनो
करत सेव सची जननीतणी, हम जजें पदपद्म शिरौमणी ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णादशम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
शुकलमाघ तुरी तिथि जानिये, जनम मंगल तादिन मानिये
हरि तबै गिरिराज विषै जजे, हम समर्चत आनन्द को सजे ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्लाचतुर्थ्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
तप धरे सित माघ तुरी भली, निज सुधातम ध्यावत हैं रली
हरि फनेश नरेश जजें तहां, हम जजें नित आनन्द सों इहां ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्लाचतुर्थ्यां तपोमंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
विमल माघरसी हनि घातिया, विमलबोध लयो सब भासिया
विमल अर्घ चढ़ाय जजौं अबै, विमल आनन्द देहु हमें सबै ॥
ॐ ह्रीं माघशुक्लाषष्ठयां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
भ्रमरसाढ़ छटी अति पावनो विमल सिद्ध भये मन भावनो
गिरसमेद हरी तित पूजिया, हम जजैं इत हर्ष धरैं हिया ॥
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठयां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला
गहन चहत उड़गन गगन, छिति तिथि के छहँ जेम
तुम गुन-वरनन वरननि, माँहि होय तब केम
साठ धुनष तन तुंग है, हेम वरन अभिराम
वर वराह पद अंक लखि, पुनि पुनि करौं प्रनाम

जय केवलब्रह्म अनन्तगुनी, तुम ध्यावत शेष महेश मुनी
परमातम पूरन पाप हनी, चितचिंततदायक इष्ट धनी
भव आतपध्वंसन इन्दुकरं, वर सार रसायन शर्मभरं
सब जन्म जरा मृतु दाहहरं, शरनागत पालन नाथ वरं

नित सन्त तुम्हें इन नामनि तें, चित चिन्तन हैं गुनगाम नितैं
अमलं अचलं अटलं अतुलं, अरलं अछलं अथलं अकुलं
अजरं अमरं अहरं अडरं, अपरं अभरं अशरं अनरं
अमलीन अछीन अरीन हने, अमतं अगतं अरतं अघने

अछुधा अतृषा अभयातम हो, अमदा अगदा अवदातम हो
अविरुद्ध अक्रुद्ध अमानधुना, अतलं असलं अनअन्त गुना
अरसं सरसं अकलं सकलं, अवचं सवचं अमचं सबलं
इन आदि अनेक प्रकार सही, तुमको जिन सन्त जपें नित ही

अब मैं तुमरी शरना पकरी, दुख दूर करो प्रभुजी हमरी
हम कष्ट सहे भवकानन में, कुनिगोद तथा थल आनन में
तित जामन मर्न सहे जितने, कहि केम सकें तुम सों तितने
सुमुहूरत अन