वास्तविक हेतु का अभाव होने पर या किसी अवास्तविक असद् हेतु के वर्तमान रहने पर भी वास्तविक हेतु का आभास मिलता या अस्तित्व दिखाई देता है और उसके फल-स्वरूप भ्रम होता या हो सकता हो
पर्वत में आग है, चूकि वह जलमय है - यहॉ साध्य अग्नि की सिद्धि के लिए हेतु जल का सहारा लिया गया है । साध्य अग्नि और हेतु जल ऐसे हैं जो एक ही अधिकरण में रह ही नहीं सकते ।
अन्योन्याश्रय - परस्परमें धारावाही रूपसे एक-दूसरेकी अपेक्षा लागू रहना अन्योन्याश्रय है" (जिसे खटकेके तालेकी चाबी तो आलमारीमें रह गयी और बाहरसे ताला बन्द हो गया। तब चाबी निकले तो ताला खुले और ताला खुले तो चाबी निकले, ऐसी परस्परकी अपेक्षा लागू होती है।)
अनुपसंहारी - व्यतिरेक नहीं पाया जाकर जिसका केवल अन्वय ही वर्तता है
अकिंचित्कर (सिद्धसाधन) - जो साध्य स्वयं सिद्ध (सिद्धसाधन) हो अथवा प्रत्यक्षादि से बाधित हो (बाधितविषय) उस साध्य की सिद्धि के लिए यदि हेतु का प्रयोग किया जाना ।
शब्द कान से सुना जाता है क्योंकि वह शब्द है । यहाँ पर शब्द में श्रावणत्व स्वयं सिद्ध है इसलिए शब्द में श्रावणत्व की सिद्धि के लिए प्रयुक्त शब्दत्व हेतु कुछ नहीं करता ।
अज्ञात - ’शब्द परिणामी है, क्योंकि यह किया हुआ है' यहाँ सांख्यके प्रति कृतकत्व (अनित्यत्व) हेतु अज्ञात है। क्योंकि सांख्य मतमें पदार्थोंका आविर्भाव तिरोभाव माना गया है, उत्पाद और व्यय नहीं। इसलिए वे कृतकताको नहीं जानते।
व्याप्यासिद्ध या एकदेशासिद्ध - `चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि, वह ढंके हुए पदार्थ को नहीं देखती, जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि चक्षु, काँच, अभ्रक, स्फटिक आदि से आवृत पदार्थों को बराबर देखता है, अतः पक्षमें ही अव्यापक होने से उक्त हेतु असिद्ध है, जैसे कि वनस्पति में चैतन्य सिद्ध करनेके लिए दिया जाने वाला `सोना' हेतु। क्योंकि किन्हीं वनस्पतियों में संकोच आदि चिह्नों से चैतन्य स्पष्ट जाना जाता है, किन्हीं में नहीं।
नय
गुण - दो गुणों के एक साथ रहने में कोई दोष नहीं है - अन्वयी, तिर्यक-प्रचय
पर्याय - एक गुण की दो पर्यायों के एक साथ नहीं होती - व्यतिरेकी, उर्ध्व-प्रचय
वस्तु ३ तरह से जानी जा सकती है
-
अर्थ : वस्तु में जाकर
-
ज्ञान : प्रमाण ज्ञान से
-
शब्द : प्रमाण ज्ञान के द्वारा वस्तु के एकदेश कथन से
अर्थात्मक वस्तु [सामान्य और विशेष अंशों का रसात्मक अखंड पिंड]
सामान्य : अनेक अर्थों में रहने वाली एकता जैसे - नित्य, एक, सत, तत
तिर्यक सामान्य :
सादृश्य प्रत्यय : एक कालवर्ती व अनेक क्षेत्रवर्ती अनेक पदार्थों में रहने वाली एकता (जाति)
खडी-बैठी अनेक गायों में गोत्व सामान्य
तद्भाव प्रत्यय : एक कालवर्ती व एक क्षेत्रवर्ती अनेक पदार्थों में रहने वाली एकता
एक द्र्व्य के - अनेक सहभावी गुणों में / अनेक प्रदेशों में - रहने वाली एकता
उर्ध्वता सामान्य :
एकत्व प्रत्यय : अनेक कालवर्ती व एक क्षेत्रवर्ती अनेकों क्रमवर्ती अवस्थाओं में अनुस्यूत एक द्रव्य
बालक, युवा, वृद्धावस्था में अनुस्यूत एक मनुष्यत्व
विशेष : एक अर्थ में रहने वाली अनेकता जैसे - अनित्य, अनेक, असत, अतत
तिर्यक विशेष :
व्यतिरेकी प्रत्यय :
एक कालवर्ती व अनेक क्षेत्रवर्ती अनेक पदार्थों में रहने वाली व्यक्तिगत प्रथकता
अनेक गायों में रहने वाली अनेकता
एक कालवर्ती व एक क्षेत्रवर्ती अनेक पदार्थों में रहने वाली प्रथकता
एक दृव्य के अनेक गुणों में रहने वाली प्रथकता
उर्ध्वता विशेष :
विसदृष्य प्रत्यय : अनेक कालवर्ती व एक क्षेत्रवर्ती अनेकों क्रमवर्ती अवस्थाओं में प्रथकता
एक व्यति में आगे पीछे होने वाला हर्ष-विषाद
नय : वस्तु के कोई भी अंश को जिस दृष्टि में ग्रहण किया जाय वह द्रष्टि विशेष
द्रव्यार्थिक : परिवर्तन करती हुई वस्तु में भी ’यह वही है’ ऐसी उर्ध्व सामान्य का ग्रहण, नित्य ग्राहक । सत्ता सामान्य की मुख्यता, विशेषांश गौण
शुद्ध / अभेद ग्राहक : एक रस रूप, निर्विकल्प, अखण्ड भाव का ग्रहण । गुण-पर्याय विशेष गौण
’मनुष्य’ कहने पर बालक-युवा आदि विकल्पों से रहित सामान्य मनुष्य का ग्रहण
स्वचतुष्टय-ग्राहक : स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव की अपेक्षा द्रव्य को ’अस्ति’ रूप से ग्रहण
भेद-निरपेक्ष [द्रव्य/क्षेत्र] : भेद कल्पना की अपेक्षा से रहित - ’एक’
अग्नि में उष्णता और प्रकाश का भी भेद नहीं / जीव में ज्ञान-दर्शन आदि भेद नहीं
उत्पाद-व्यय निरपेक्ष सत्ता ग्राहक [काल] : ”नित्य’ - शुद्ध संग्रह नय (शास्त्रीय नय) - द्रव्य नित्य है
परम भाव ग्राहक [भाव] : अशुद्धता / शुद्धता के उपचार से रहित स्वभाव का ग्रहण - (शुद्ध संग्रह, महासत्ता ग्राहक)
कर्म के उदय / क्षय से जीव का कोइ संबंध नहीं है
जीव कर्तत्व, भोक्त्रत्व, बंध, मोक्ष के कारणभूत परिणामों से शून्य है
जीव ज्ञान स्वरूपी है, स्वर्ण के स्वर्णत्व में शुद्धता-अशुद्धी कैसी?
अशुद्ध / भेद ग्राहक : द्रव्य में गुण-पर्याय का भेद उत्पन्न करके उनके समूह रूप में देखना
परचतुष्टय-ग्राहक : परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा द्रव्य का ’नास्ति’ रूप से ग्रहण
भेद-सापेक्ष : भेद कल्पना की अपेक्षा सहित द्रव्य - ’एक-अनेक’ - जैसे आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि गुण है ।
उत्पाद व्यय सापेक्ष सत्ता ग्राहक: ’नित्य-अनित्य’ - व्यवहार नय (शास्त्रीय-नय) - उत्पाद-व्यय कीं अपेक्षा सहित द्रव्य - जैसे एक ही समय में उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक द्रव्य है ।
विषय :
द्रव्य : दो द्रव्यों के बीच एक क्षेत्रावगाह / निमित्त-नैमित्तिक संबंध देखना
क्षेत्र : एक से अधिक प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखना । जैसे - द्रव्य अनेक प्रदेशी है
काल : ’मनुष्य’ कहने पर बालक-युवा आदि अवस्थाओं का युगपत ग्रहण
भाव : एक से अधिक भाव की परस्पर में एकता देखना । जैसे - ज्ञान-दर्शन आदि गुणों का समूह जीव है ।
पर्यायार्थिक : आगे-पीछे की विभिन्न पर्यायों में प्रथकता देखते हुए ’यह वह नहीं है जो पहले था’ ऐसा उर्ध्व विशेष का ग्रहण, अनित्य ग्राहक । काल-कृत भेद की मुख्यता, सत्ता सामान्य गौण । अर्थ या व्यंजन पर्याय को मूल द्रव्य से अलग करके एक स्वतंत्र द्रव्य के रूप में देखना । इस द्रष्टि में इस पर्याय का मूल द्रव्य से कोई संबंध दिखाता नहीं । पर्याय ही द्रव्य है ।
विषय :
द्रव्य : एक व्यक्तिगत द्रव्य की ही स्वतंत्र सत्ता देखना । इस द्रष्टि में संयोग / संश्लेष संबंध संभव नहीं है ।
क्षेत्र : एक प्रदेश की प्रथक सत्ता देखना । जैसे - द्रव्य एक प्रदेशी हि हो सकता है, इससे बडा नहीं ।
काल : मनुष्य मनुष्य ही है, तिर्यंच तिर्यंच ही है । इसमें अनुस्यूत रूप से रहने वाला जीव द्रव्य कौन है यह जानने में नहीं आता । मनुष्य की अखंड सत्ता है और बालक आदि पर्यायों से निर्पेक्ष है ।
भाव : कोई एक भाव रूप ही द्रव्य को देखना । एक द्रव्य में अनेक गुण नहीं हो सकते । किसी एक गुण में भी शक्ति की हानि-वृद्धी नहीं हो सकती ।
नय (आगम पद्धति)
ज्ञान
नैगम : सत/असत दोनों का ग्रहण । ज्ञान में सब सत है । वस्तु में एक समय में एक द्रव्य पर्याय, प्रमाण ज्ञान में एक समय में त्रिकाली पर्यायें । प्रमाण ज्ञान वस्तु से भी विस्त्रत होता है । यह नय प्रमाण ज्ञान का लघु भ्राता है । किसी भी पर्याय को वर्तमान वत देखता है ।
भूत
वर्तमान
चावल पकने वाले हों तो ’खाना तैयार है’ ऐसा कह्ना (निश्चितता, निकट भविष्य)
भावी
भावी पर्याय को वर्तमान-वत कहने में अति प्रसंग दोष इसलिये नहीं आता क्योंकि प्रत्यासत्ति (समीपवर्ती, कुछ निश्चितता लिये हुए) से दोष नहीं आता । इसलिये अभव्य जीव में अंतरात्मापना शक्ति रूप में स्वीकार किया जा सकता है पर व्यक्ति रूप से इस नय से भी स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
चावल पकने में कुछ समय हो तो ’अभी पक जाते है’ ऐसा कहना (यहां वर्तमान काल का उपयोग होते हुए भी अनिश्चितता व कुछ देरी की सूचना है)
अर्थ (सत का ही ग्रहण)
नैगम
संग्रह (अभेद, सामान्य) + व्यवहार (भेद, विशेष) का एक साथ ग्रहण [मुख्य गौण करके, ’यह सामन्य है, यह विशेष है’]
जो संसारी और मुक्त के भेद से कहा जा रहा है वह वास्तव में एक जीव द्रव्य है [संग्रह मुख्य, व्यवहार गौण]
जीव द्रव्य संसारी और मुक्त हे भेद से २ प्रकार का है [संग्रह गौण, व्यवहार मुख्य]
कारण व कार्य भिन्न-भिन्न स्वतंत्र विषय हैं
वैशेशिक व नैयायिक मत का आधार
भेद
द्रव्य नैगम - दो धार्मियों में एकता - लक्ष्य और लक्षण दोनों द्रव्य - अद्वैत को द्वैत करना
द्रव्य पर से द्रव्य का संकल्प [द्रव्यार्थिक नय के विषय से द्रव्यार्थिक नय के विषय का संकल्प]
गाय एक पशु है । वह दो प्रकार की - ब्राजील जाति और मार्तीय जाति की ।
शुद्ध द्रव्य नैगम - लक्षण और लक्ष्य दोनों शुद्ध द्रव्यार्थिक
सत द्रव्य है
अशुद्ध द्रव्य नैगम - लक्षण अशुद्ध द्रव्यार्थिक और लक्ष्य शुद्ध द्रव्यार्थिक
गुण पर्याय वाला द्रव्य है
पर्याय नैगम - दो धर्मों में एकता - द्वैत को अद्वैत करना
पर्याय पर से पर्याय का संकल्प [पर्यायार्थिक नय के विषय से पर्यायार्थिक नय के विषय का संकल्प]
अर्थ पर्याय नैगम
लक्ष्य और लक्षण दोनों अर्थ (गुण) पर्याय
क्रोध क्षणध्वंसी है - क्रोध चारित्र गुण की पर्याय और क्षणध्वंसी ’सत’ गुण की पर्याय
व्यंजन पर्याय नैगम
लक्ष्य और लक्षण दोनों स्थायी (व्यंजन) पर्याय
जीव में ज्ञान सत है अथवा संसारी जीव में मति ज्ञान सत है - सत की नित्यता से ज्ञान गुण या पर्याय कि नित्यता का संकल्प
अर्थ-व्यंजन पर्याय नैगम
लक्ष्य व्यंजन पर्याय और लक्षण अर्थ पर्याय, अर्थ पर्याय से व्यंजन पर्याय का संकल्प
धर्मात्मा का जीवन सुख और शान्त होता है
द्रव्य पर्याय नैगम - धर्मी और धर्म में एकता
शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय नैगम
वर्तमान का क्षणवर्ती ज्ञान (अर्थ पर्याय, शुद्ध), ज्ञान ही तो है
शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय नैगम
चैतन्यपना / आनन्दपना (व्यंजन पर्याय, शुद्ध) सब सत रूप ही है
अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय नैगम
इन्द्रिय सुख (अर्थ पर्याय, औदयिक) को प्रत्यक्ष करने वाला ही जीव (अशुद्ध जीव) है
अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय नैगम
दस प्राणों (व्यंजन पर्याय, औदयिक) से जीने वाला ही जीव है
संग्रह (शुद्ध द्रव्यार्थिक)
अभेद, सामन्य, एक रूप (जाति) से ग्रहण (विशेष गौण)
वृक्ष / जीव एक पदार्थ है
अद्वैत देखना
जाति या व्यक्ति रूप से दिखनेवाला द्रव्यात्मक द्वैत
गुण पर्याय आदि रूप से दिखने वाला भावात्मक द्वैत
काल की अपेक्षा से अनित्यात्मक द्वैत
क्षेत्र की अपेक्षा अलग अलग क्षेत्र में व्याप्त द्वैत
शुद्ध : महासत्ता ग्राहक
कारण - विश्व में स्थित संपूर्ण पदार्थ का अस्तित्व (सामान्य) रूप प्रत्यक्ष
प्रयोजन - वस्तु के सामान्य (अद्वैत) स्वभाव को दर्शाना
अशुद्ध : अवान्तर सत्ता ग्राहक
जीव द्रव्य सामान्य एक ही है
कारण - भिन्न द्रव्यों में जाति की अपेक्षा समानता दिखाई देती है
प्रयोजन - व्यक्तिगत भेदों के होते हुए भी जातियता के आधार पर एक जातियता उत्पन्न करके वचन व्यवहार को सम्भव बनाना
व्यवहार (अशुद्ध द्रव्यार्थिक)
संग्रह नय के विषय में विशेषता (भेद) देखना
वृक्ष कई प्रकार का (नींबू, इमली, नीम), जीव दो प्रकार का (संसारी और मुक्त)
अनेक पदार्थ, तीनों काल, अनेक क्षेत्र, अनेक भावों का ग्रहण
शुद्दार्थ भेदक
शुद्ध संग्रह नय के विषय (महासत्ता) में भेद डालना
सत जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार का है
अशुद्दार्थ भेदक
अशुद्ध संग्रह नय के विषय (अवांतर सत्ता) में भेद डालना
जीव मुक्त और संसारी के भेद से दो प्रकार का है
ऋजुसूत्र (पर्यायार्थिक)
सर्वथा विशेष ग्राही, पर्याय को ही सत देखता है
भिन्न लिंग, संख्या के शब्दों को एकार्थवाची मानता है
वर्तमान पदार्थ, अविभागी क्षेत्र, अविभागी भाग
लक्षण
सरल (एकत्व) ग्राही । द्रव्य में द्रव्य-गुण-पर्याय देखना वक्र द्रष्टि है । कोई एक को जो है वही स्वीकारना सरल द्रष्टि है ।
विशेषों में अनुगत सामान्य नाम की कोइ वस्तु नहीं होती
द्रव्य की व्यक्ती ही सत्ताभूत है । दो द्रव्यों में किसी भी प्रकार से समानाअ नहीं होती । जाती नाम की कोइ चीज नहीं होती । संयोग संबंध असम्भव है ।
निमित्त (पर पदार्थ) - नैमित्तिक (विवक्षित पदार्थ के कार्य या पर्याय) / उपादान (त्रिकाली द्रव्य, क्षणवर्ती-पूर्व-पर्याय) - उपादेय (द्रव्य की पर्याय) / आधार (प्रदेशात्मक द्रव्य) - आधेय (आश्रित गुणों और पर्यायें) संबंध असंभव है । कार्य नाम की कोइ चीज नहीं है ।
द्रव्य-पर्याय / द्रव्य-भाव / गुण-गुणी / पर्याय-पर्यायी / अंग-अंगी / अंश-अंशी / गौण-मुख्य को कोइ स्थान नहीं
जब पूर्व-भावी पर्यायों से कोई संबंध नहीं तो वस्तु का नाम भी उस समय अनुसार ही होना चहिये
शब्द (पर्यायार्थिक, विषय को ग्रहण न करके शब्द में ही तर्क-वितर्क करना)
शब्द
लिंग, संख्या, काल, कारक आदि के व्यभिचार को दूर करता है । वस्तु के समान लिंग, संख्या वाले शब्दों का एकार्थवाची ग्रहण ।
दार आदि ५ (पुर्लिंग), भार्या आदि ५ (स्त्रीलिंग), कलत्र आदि ५ (नपुंसकलिंग) में भेद देखना
व्यभिचार (अभेद देखना)
लिंग - स्वाति (पुर्लिंग) नक्षत्र तारका (स्त्रिलिंग) है । ज्ञान (पुर्लिंग) विध्या (स्त्रिलिंग) है । पट (पुर्लिंग) वस्त्र (नपुंसकलिंग) है ।
संख्या - पुनर्वसु (द्विवचन) नक्षत्र (एकवचन) है । आमों (बहुवचन) के वृक्ष वन (एकवचन) है ।
काल - जिसने समस्त विश्व को देख लिया है (भूत) ऎसा इसके पुत्र होगा (भविष्य) । होने वाला (भविष्य) कार्य हो चुका (भूत) । रावण राजा हुआ था (भूत) और शंख चक्रवर्ती होगा (भविष्य)
कारक/साधन - देवदत्त (कर्ता) चटाई (कर्म) बनाता है । वह महलों में शयन करता है - सप्तमी की जगह द्वितिया विभक्ति
पुरुष - तुम (मध्यम) मन में मान रहे होंगे कि मैं (उत्तम) मेले में जाऊंगा, किंतु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था
उपग्रह/प्रत्यय - रमते के स्थान पर विरमति
समभिरूढ
एकार्थवाची शब्द नहीं होते । पद भेद है तो भेद अवश्य है ।
उपर १५ शब्दों के १५ अर्थ होते हैं
पदार्थ कुछ भी कार्य कर रहा हो, कैसी भी अवस्था हो रही हो - यथा योग्य शब्द का सर्वथा ग्रहण
पूजा, राज्य, युद्ध करता हुआ ’इंद्र’ इंद्र ही है
आठ उपवास करके मुक्त हो जाने पर भी, तपोधन को रूढी की प्रधानता से उस जीव को अश्टोपवासी कहना
एवंभूत
एक पदार्थ के लिये, भिन्न-भिन्न समय में भिन्न शब्द का प्रयोग । पदार्थे में अवस्था भेद से शब्द भेद का ग्रहण ।
पूजा करते समय पुजारी ही, आज्ञा चलाते समय इंद्र ही, युद्ध करते समय शक्र ही
ज्ञानक्रिया/दर्श्नक्रिया/उष्णपर्याय में परिणत आत्मा ज्ञान/दर्शन/अग्नि ही है
पदों का समास नहीं बन सकता, वर्णों का भी नहीं - ’घट’ = घ+अ+ट+अ (अलग अलग अर्थ के वाचक हैं)
नय (अध्यात्म पद्धति)
निश्चय
त्रिकाली द्रव्य के अतिरिक्त द्रव्य पर्यायों को भी द्रव्य के स्थान पर ग्रहण किया जाता है, एवंभूत, अभेद ग्राही (गुण-गुणी में), स्वाश्रित
केवलज्ञान ही जीव है
कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग में अभेद - जीव अपने ही शुद्ध या अशुद्ध भावों का कर्ता या भोक्ता है
प्रयोजन
पर्यायों पर द्रष्टि रहने पर विकल्पों की चंचलता बनी रहती है । चंचल ज्ञेय के आधार पर ज्ञान भी चंचल रहेगा । ज्ञान की स्थिरता के लिये आधार भी स्थिर रहना चाहिये ।
अपूर्ण ज्ञेय के अधार से ज्ञान में संशय बना रहता है । ज्ञान की स्थिरता के लिये आधार भी स्थिर होना चाहिये ।
भेद
परम शुद्ध निश्चय नय - पारिणामिक भाव
त्रिकाली पारिणामिक भाव में रागादि नहीं है इसलिये राग का कर्ता कर्म को मानना पडेगा
सांसारिक सुख दुख कर्म जनित हैं जीव जनित नहीं
प्रयोजन
सब जीवों को समान मानना (साम्यता / मैत्री-भावना)
व्यवहारिक विकल्पों से द्रष्टि हटाकर एकत्व और एकत्व से भी द्रष्टि हटाकर निज अखण्ड चैतन्य स्वभाव में स्थित करना
शुद्ध निश्चय नय - क्षायिक भाव
केवलज्ञानादिक शुद्ध (क्षायिक) भाव ही जीव है
जीव का लक्षण केवलज्ञान-दर्शन
सच्चे ज्ञान-श्रद्धान-चारित्र द्वारा उत्पन्न ध्रुव आनन्द को ही जीव भोगता है
प्रयोजन
स्वभाव से सब जीवों को सिद्ध समान मानना (मैं सिद्ध समान हूं तो राग आदि के विकल्प क्यों आते हैं?)
एकदेश शुद्ध निश्चय नय - क्षायोपशमिक भाव
साधक की आंशिक शुद्धता को द्रष्टि में लेता है (आंशिक अशुद्धता को नहीं देखता)
यह नय साधक के क्षायोपशमिक भाव को क्षायिक वत पूर्ण शुद्ध मानता है (मोक्ष)
सांसारिक सुख दुख कर्म जनित हैं जीव जनित नहीं
छ्दमस्त अवस्था में ही जीव भावना रूप से अनंत ज्ञान सुखादि शुद्ध भावों का कर्ता है (शुद्धनय से मुक्तावस्था में)
मोक्षमार्ग इसी नय का विषय हो सकता है
प्रयोजन
साधक दशा में मोक्ष का आनन्द लेने लगता है और आगे जाकर साक्षात रूप से उसे प्राप्त कर लेता है
अशुद्ध निश्चय नय - औदयिक भाव
सांसारिक सुख दुख जीव जनित हैं कर्म जनित नहीं
रागादि ही जीव है (स्वभाव, अशुद्ध भावों का उपादान कारण)
स्फ़टिक मणी लाल-हरी इस नय से दिखती है (शुद्ध द्रष्टि में अब भी वह उज्जवल है)
जीव मोह राग द्वेष का कर्ता-भोक्ता है
भाव कर्मों का दहन भी इसी नय से संभव है । परिहार अस्तित्व की अपेक्षा रखता है ।
जीव = क्षायोपशमिक व औदयिक भाव प्राणों से जीता है
चेतयिता = कर्म व कर्म फ़ल चेतना युक्त
उपयोग लक्षण = मति ज्ञानादि अशुद्धोपयोग से युक्त
प्रभू = संसार के कारण अशुद्ध परिणाम रूप परिणमन करने के कारण
कर्ता = रागादिक भाव कर्म का करने वाला
भोक्ता = इन्द्रियजनित सुख दुख को भोगनेवाला
प्रयोजन
अशुद्ध भावों का परिहार कराके शुद्ध भावों में स्थिरता कराना
स्वच्छंदता का परिहार, अपराध का स्वीकार
व्यवहार
शुद्ध (अनुपचरित) सद्भूत : केवलज्ञान जीव का गुण है
अशुद्ध (उपचरित) सद्भूत : जीव मति-ज्ञान वाला होता है
अनुपचरित असद्भूत : (संश्लेष संबंध) जीव का ज्ञान ज्ञानावरण कर्म से ढक जाता है । मेरा हाथ ।
उपचरित असद्भूत : (संयोग संबंध) मेरा बेटा, घर
द्रव्य - गुण व पर्याय
अभिन्न : द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव स्वचतुष्टय की अपेक्षा
भिन्न : संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा
संज्ञा : गुण की संज्ञा (नाम) कुछ और है, द्रव्य का कुछ और
संख्या : एक द्रव्य में रहने वाले गुण अनेक हैं द्रव्य एक
लक्षण : गुण-पर्याय का लक्षण कुछ और है द्रव्य का कुछ और
प्रयोजन : द्रव्य त्रिकाली सत्ता, गुण खंडित सत्ता, पर्याय क्षणिक सत्ता
गुण - त्रिकाली सामान्य भाव (शुद्धता और अशुद्धता से निरपेक्ष - शुद्ध) - जैसे - ज्ञान गुण सामन्य
पर्याय -
शुद्ध -
सामान्य : प्रति क्षणवर्ती षट गुण हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म अर्थ पर्याय
विषेश : क्षायिक भाव जैसे केवलज्ञान
संश्लेष संबंध : प्रदेशों से एकमेक संबंध (दूध-पानी, जीव-शरीर), सूक्ष्म, अनुपचरित असदभूत व्यवहार
सद्भाव
शरीर को जीव कहना
आत्मा देह में स्थित है (अरिहंत भगवान परमौदारिक शरीर में स्थित हैं)
द्रव्य-कर्म और नोकर्मों का जीव कर्ता है
द्रव्य-कर्म का दहन कहना
अभाव
आत्मा देह से भिन्न है
जीव द्रव्य-नो-कर्मों से रहित हैं
संयोग संबंध : प्रदेश भेद वाला संबंध (शरीर-वस्त्र, दंड-दंडी), स्थूल, उपचरित असदभूत व्यवहार
उपचार का उपचार, जैसे - वस्त्र का संबंध शरीर से (उपचार), शरीर का संबंध जीव से (उपचार) । वस्त्र का संबंध जीव से करना ।
स्वजाति : पुत्रादि बंधु-वर्ग तो मैं हूं और यही मेरी संपदा है ।
विजाति :
वस्त्र, गहने मेरे हैं ।
घट-पट-रथ आदि का कर्ता जीव है ।
पंचेन्द्रिय-विषय जनित सुख-दुख को जीव भोगता है ।
सिद्ध भगवान मोक्षशिला में विराजते हैं ।
पंचेन्द्रिय-विषयों का त्याग ।
उभयार्थ :
मेरा देश
काठ के आसन पर बैठे देवदत्त / समोसरण में विराजमान भगवान को किसी नगर में स्थित कहना
त्रिकाली भाव = १) गुण २) शक्ति (स्वभाव / धर्म)
गुण : कोई न कोई कार्य करता रहता है
ईंधन में रंग / स्पर्श, जीव में ज्ञान
शक्ति : लब्धि रूप में रहती है
जल जाने की शक्ति, जीव में मोह-राग-द्वेष, जीव की क्रियावती शक्ति, भव्यत्व, पुद्गल में स्कंध
गुण को शक्ति कह सकते है, शक्ति गुण नहीं है
धर्म : गुण पर्याय का युगपत ग्रहण । अकेला गुण और अकेली पर्याय भी वस्तु का धर्म है
निर्विकल्प
अद्वैत
विकल्प गौण
चरम सीमा पर ब्रह्माद्वैतवादी
एकत्व
विकल्प नहीं
चरम सीमा पर बौद्ध
सत्ता
महासत्ता : सर्व पदार्थों में अनुगताकार, सन्मात्र (अस्तित्व), निर्विषेश भाव
कोई वस्तुभूत (अर्थक्रियाकारी) स्वतंत्र पदार्थ नहीं है
द्रव्य, गुण, पर्याय. ध्रुवता के भाव नहीं
विश्व को देखना - ’है’ या ’नहीं है’ इतना मात्र विचार
अद्वैत : सदब्रह्म
द्रव्य : अनेक पदार्थों में अनुगत होने के कारण बिखर नहीं गया (अखंडित)
क्षेत्र : तीन लोक में व्याप्त होने पर (कहा जाता है) भी तीन भागों में विभाजित नहीं हुआ है (सर्वव्यापि)
काल : एक के बाद एक कालक्रम (सतयुग / कलयुग) विभाजित नहीं हुआ (नित्य)
भाव : भिन्न भिन्न गुण दिखाई देने पर भी अनेक गुण रूप नहीं हो गया (’सत’ चेतन / अचेतन रूप नहीं हुआ) वह तो जैसा है वैसा (एक्यरूप)
द्वैत : ’निर्विषेश सामान्य खरविषाण वत होता है’ इस न्याय से अवान्तर भेदों के अभाव में सामान्य भी नष्ट हो जएगा । नींबू आदि विषेशों के अभाव में वृक्ष सामान्य की कोइ सत्ता नहीं ।
अवांतर सत्ता : जिन प्रथक प्रथक पदार्थों में महसत्ता अनुगत है वह
वस्तुभूत
द्रव्य, गुण, पर्याय. ध्रुवता के भाव पाए जाते हैं
आगम-नय और अध्यात्म नय में भेद (शुद्धता / अशुद्धता
आगम
वस्तु की त्रिकाली एकता / अनेकता
ज्ञान की शुद्धता / अशुद्धता
अखंड (निर्विकल्प) ज्ञान = शुद्ध / खंड (विकल्पात्मक) ज्ञान = अशुद्ध
भेद = शुद्ध द्रव्यार्थिक व अशुद्ध द्रव्यार्थिक
नय वस्तुभूत हैं, कोई भी नय सत्यार्थ या असत्यार्थ नहीं
व्यवहारनय के द्वैत का आधार वह वस्तु स्वयं
अध्यात्म
शुद्ध / अशुद्ध पर्याय
पर्यायों की शुद्धता / अशुद्धता
क्षायिक भाव = शुद्ध / औदयिक भाव = अशुद्ध
निश्चय व व्यवहार
निश्चय नय सत्यार्थ, व्यवहारनय असत्यार्थ
व्यवहारनय के द्वैत का आधार वस्तु के अंग के अतिरिक्त पर संयोग भी
निश्चय नय उपादेय क्यों, व्यवहारनय क्यों नहीं?
ज्ञान की अपेक्षा (वस्तुस्वरूप) दोनों समान रूप से उपादेय हैं
वस्तु के भेद और अभेद, निमित्त उपादान दोनों अंग जानने योग्य है
नय तो ज्ञानरूप होने से उपादेय ही हैं, उनके विषय हेय-उपादेय है
चारित्र की अपेक्षा (मोक्षमार्ग) अभी अंग एक समान उपयोगी नहीं हैं
निर्विकल्पता के ग्रहण से ज्ञान निर्विकल्प और विकल्पों के ग्रहण से ज्ञान विकल्पात्मक हो जाता है
जीव को भयमुक्त करता है
निमित्त आदि पर के आश्रय का निषेध, सब गुण-दोष जीव का ।
सप्तभंगी
सिद्धांत कल्पना नहीं मनोविज्ञान
लौकिक या अलौकिक किसी भी विषय का ज्ञान करते या कराते हुए ये सात भंग अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं
जिस प्रकार वस्तु में अनेक धर्मों की सत्ता युगपत है उसी प्रकार युगपत वाचकता वचन में नहीं
जिस प्रकार उन्ही धर्मों की वचनों में क्रमिकता है उस प्रकार उनकी क्रमिक सत्ता वस्तु में नहीं पाई जाती
प्रत्येक विज्ञान के २ अंग हैं - सिद्धांतिक (Theoretical) [वक्तव्य] और अनुसन्धानिक (Practical) [अवक्तव्य]
वक्तव्य अस्ति (स्व चतुष्टय) और नास्ति (पर चतुष्टय) से २ प्रकार का है - यह कपडा लाल है, काला नहीं
चतुष्टय
गुण व पर्यायों का आधार ’द्रव्य’
वस्तु का आकार ’क्षेत्र’
वस्तु की पर्यायें ’काल’
वस्तु के गुण ’भाव’
अस्ति (स्व चतुष्टय) नास्ति (पर चतुष्टय) नहीं मानने से ’सर्व संकर’ (अन्य के चतुष्टय को छीन लेना) और ’सर्व शून्य’ (अपने चतुष्टय को पर को दे देना) दोष उत्पन्न हो जाते हैं
मैं अपने चतुष्टय से अस्ति रूप हूं और आपके चतुष्टय से नास्ति रूप हूं - प्रत्येक वस्तु में २ विरोधी धर्म विद्दमान हैं - अस्ति और नास्ति
अस्ति ही काफ़ी था, नास्ति की क्या जरूरत है? घट ’घट है’ यह कह देना ही काफ़ी था, ’पट नहीं’ यह कहने की क्या जरूरत है
’घट’ और ’पट’ में क्षेत्र व भाव की अपेक्षा असमानता है, इसलिये प्रथक-प्रथक विषयों में उसकी कोइ आवश्यकता न पडती हो, पर एक-क्षेत्रावगाही द्रव्यों (स्वर्ण-पीतल) में प्रथकता कैसे भाषित होगी?
दो द्रव्यों में तो भिन्नता दर्शा दी पर एक ही द्रव्य में ’सामान्य’ और ’विशेष’ को लक्ष्य में लेने पर भी प्रथकता दिखाई देती है
’सामान्य द्रव्य’ = अभेद / ’विशेष द्रव्य’ = भेद
’सामान्य क्षेत्र’ = अखंड / ’विशेष क्षेत्र’ = खंडित
’सामान्य काल’ = नित्य / ’विशेष काल’ = अनित्य
’सामान्य भाव’ = एक स्वभावी / ’विशेष भाव’ = अनेक स्वभावी
अवक्तव्य अंग भी "अवक्तव्य है" ऐसा कहने से कथंचित वक्तव्य है
अखंड वस्तु अनेकांतात्मक है, जानी तो जा सकती है पर एक बार में कही नहीं जा सकती
अस्ति-नास्ति धर्म युगपत पाए जाते है लेकिन युगपत कहे नहीं जा सकते
इसलिये कोइ भी शब्द वस्तु स्वरूप को परिपूर्ण रूप से कह सकने में समर्थ नहीं है - अवक्तव्य
अस्ति भंग - किसी धर्म को दर्शाने के लिये "यह ऐसा ही है"
नास्ति भंग - उसी धर्म को द्रढ करने के लिये विरोधी धर्म का निषेध "एसा नहीं ही है"
अस्ति-नास्ति - दोनों को आगे पीछे कहना "यह ऐसा ही है, ऐसा नहीं है"
अवक्तव्य - युगपत दोनों को एक रस रूप से कहने की असमर्थता
अस्ति अवक्तव्य - ’अवक्तव्य’ कहने से वस्तु सर्वथा अवक्तव्य नहीं है
नास्ति अवक्तव्य - ’अवक्तव्य’ कहते हुए भी विरोधी धर्म का निषेध
अस्ति नास्ति अवक्तव्य - यद्दपि युगपत कहा जाना असंभव है पर क्रमश: विधि-निषेध द्वारा कहा अवश्य जा सकता है, सर्वथा अवक्तव्य नहीं है
लौकिक उदाहरण - "यह सोना है, पीतल भी ऐसा ही दिखता है, मगर यह पीतल नहीं है"
अविनाभाव
सहभाव
सदा साथ रहने वाले - [व्याप्य-व्यापक संबंध] का संबंध
जो अधिक देश में रहता है वह व्यापक और जो स्वल्प देश में रहता है वह व्याप्य [व्याप्य-व्यापक संबंध]
वृक्षत्व व्यापक, नीम व्याप्य
क्रमभाव (अन्तरभाव)
कार्य और कारण में अविनाभाव संबंध
अग्नि के बाद धूंम होता है
साध्य = इष्ट (वादी की अपेक्षा) + अबाधित + असिद्ध (प्रतिवादी की अपेक्षा)
विभक्त प्रदेशत्व = पृथक्त्व
अतद्भाव = अन्यत्व
अपूर्वार्थ - जो पदार्थ पूर्वमें किसी भी प्रमाण द्वारा निश्चित न हुआ हो । यदि किसी प्रमाणसे निर्णीत होनेके पश्चात् पुनः उसमें संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय हो जाये तो उसे भी अपूर्वार्थ समझना ।
समानाधिकरण = समान आधार। व्याकरण में वे दो शब्द या पद जो एक ही कारक की विभक्ति से युक्त हों। जैसा—राजा दशरथ के पुत्र राम कोवनवास मिला, यहाँ राजा दशरथ के पुत्र पद राम का समानाधिकरण है क्योंकि को विभक्ति समान रूप से उक्त दोनों पक्षो में लगती है