दोहा परिणामों की स्वच्छता, के निमित्त जिनबिम्ब इसीलिए मैं निरखता, इनमें निज-प्रतिबिम्ब ॥ पंच-प्रभू के चरण में, वंदन करूँ त्रिकाल निर्मल-जल से कर रहा, प्रतिमा का प्रक्षाल ॥
छप्पय तीन लोक के कृत्रिम औ अकृत्रिम सारे जिनबिम्बों को नित प्रति अगणित नमन हमारे ॥ श्रीजिनवर की अन्तर्मुख छवि उर में धारूँ जिन में निज का, निज में जिन-प्रतिबिम्ब निहारूँ ॥
मैं करूँ आज संकल्प शुभ, जिन-प्रतिमा प्रक्षाल का यह भाव-सुमन अर्पण करूँ, फल चाहूँ गुणमाल का ॥ ॐ ह्रीं प्रक्षाल-प्रतिज्ञायै पुष्पांजलिं क्षिपामि
प्रक्षाल की प्रतिज्ञा हेतु पुष्प क्षेपण करें
रोला अंतरंग बहिरंग सुलक्ष्मी से जो शोभित जिनकी मंगलवाणी पर है त्रिभुवन मोहित ॥ श्रीजिनवर सेवा से क्षय मोहादि-विपत्ति हे जिन! 'श्री' लिख, पाऊँगा निज-गुण सम्पत्ति ॥
अभिषेक-थाल की चौकी पर केशर से 'श्री' लिखें
दोहा अंतर्मुख मुद्रा सहित, शोभित श्री जिनराज प्रतिमा प्रक्षालन करूँ, धरूँ पीठ यह आज ॥ ॐ ह्रीं श्री स्नपन-पीठ स्थापनं करोमि
प्रक्षाल हेतु थाल स्थापित करें
रोला भक्ति-रत्न से जड़ित आज मंगल सिंहासन भेद-ज्ञान जल से क्षालित भावों का आसन ॥ स्वागत है जिनराज तुम्हारा सिंहासन पर हे जिनदेव! पधारो श्रद्धा के आसन पर ॥ ॐ ह्रीं श्री धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन्निह सिंहासने तिष्ठ! तिष्ठ!
प्रदक्षिणा देकर अभिषेक-थाल में जिनबिम्ब विराजमान करें
क्षीरोदधि के जल से भरे कलश ले आया दृग-सुख वीरज ज्ञान स्वरूपी आतम पाया ॥ मंगल-कलश विराजित करता हूँ जिनराजा परिणामों के प्रक्षालन से सुधरें काजा ॥ ॐ ह्रीं अर्हं कलश-स्थापनं करोमि
चारों कोनों में निर्मल जल से भरे कलश स्थापित करें, व स्नपन-पीठ स्थित जिन-प्रतिमा को अर्घ्य चढ़ायें
जल-फल आठों द्रव्य मिलाकर अर्घ्य बनाया अष्ट-अंग-युत मानो सम्यग्दर्शन पाया ॥ श्रीजिनवर के चरणों में यह अर्घ्य समर्पित करूँ आज रागादि विकारी-भाव विसर्जित ॥ ॐ ह्रीं श्री स्नपनपीठस्थिताय जिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चारों कोनों के इंद्र विनय सहित दोनों हाथों में जल कलश ले प्रतिमाजी के शिर पर धारा करते हुए गावें
मैं रागादि विभावों से कलुषित हे जिनवर और आप परिपूर्ण वीतरागी हो प्रभुवर ॥ कैसे हो प्रक्षाल जगत के अघ-क्षालक का क्या दरिद्र होगा पालक! त्रिभुवन-पालक का ॥ भक्ति-भाव के निर्मल जल से अघ-मल धोता है किसका अभिषेक! भ्रान्त-चित खाता गोता ॥ नाथ! भक्तिवश जिन-बिम्बों का करूँ न्हवन मैं आज करूँ साक्षात् जिनेश्वर का पृच्छन मैं ॥
दोहा क्षीरोदधि-सम नीर से करूँ बिम्ब प्रक्षाल श्री जिनवर की भक्ति से जानूँ निज-पर चाल ॥ तीर्थंकर का न्हवन शुभ सुरपति करें महान् पंचमेरु भी हो गए महातीर्थ सुखदान ॥ करता हूँ शुभ-भाव से प्रतिमा का अभिषेक बचूँ शुभाशुभ भाव से यही कामना एक ॥
चारों कलशों से अभिषेक करें, वादित्र-नाद करावें एवं जय-जय शब्दोच्चारण करें
दोहा जिन-संस्पर्शित नीर यह, गन्धोदक गुणखान मस्तक पर धारूँ सदा, बनूँ स्वयं भगवान् ॥
गंधोदक केवल मस्तक पर लगायें, अन्य किसी अंग में लगाना आस्रव का कारण होने से वर्जित है
जल-फलादि वसु द्रव्य ले, मैं पूजूँ जिनराज हुआ बिम्ब-अभिषेक अब, पाऊँ निज-पद-राज ॥ ॐ ह्रीं श्री अभिषेकांन्ते वृषभादिवीरान्तेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
श्री जिनवर का धवल-यश, त्रिभुवन में है व्याप्त शांति करें मम चित्त में, हे! परमेश्वर आप्त ॥
पुष्पांजलि क्षेपण करें
रोला जिन-प्रतिमा पर अमृत सम जल-कण अतिशोभित आत्म-गगन में गुण अनंत तारे भवि मोहित ॥ हो अभेद का लक्ष्य भेद का करता वर्जन शुद्ध वस्त्र से जल कण का करता परिमार्जन ॥
प्रतिमा को शुद्ध-वस्त्र से पोंछें
दोहा श्रीजिनवर की भक्ति से, दूर होय भव-भार उर-सिंहासन थापिये, प्रिय चैतन्य-कुमार ॥
वेदिका-स्थित सिंहासन पर नया स्वस्तिक बना प्रतिमाजी को विराजित करें व निम्न पद गाकर अर्घ्य चढ़ायें
जल गन्धादिक द्रव्य से, पूजूँ श्री जिनराज पूर्ण अर्घ्य अर्पित करूँ, पाऊँ चेतनराज ॥ ॐ ह्रीं श्री वेदिका-पीठस्थितजिनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा