देव-शास्त्र-गुरुवर अहो! मम स्वरूप दर्शाय । किया परम उपकार मैं, नमन करूँ हर्षाय ॥ जब मैं आता आप ढिंग, निज स्मरण सु आय । निज प्रभुता मुझमें प्रभो! प्रत्यक्ष देय दिखाय ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
(शंभू छन्द) जब से स्व-सन्मुख दृष्टि हुई, अविनाशी ज्ञायक रूप लखा । शाश्वत अस्तित्व स्वयं का लखकर, जन्म-मरणभय दूर हुआ ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
निज परमतत्त्व जब से देखा, अद्भुत शीतलता पाई है । आकुलतामय संतप्त परिणति, सहज नहीं उपजाई है ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
निज अक्षयप्रभु के दर्शन से ही, अक्षयसुख विकसाया है । क्षत् भावों में एकत्वपने का, सर्व विमोह पलाया है ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
निष्काम परम ज्ञायक प्रभुवर, जब से दृष्टि में आया है । विभु ब्रह्मचर्य रस प्रकट हुआ, दुर्दान्त काम विनशाया है ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
मैं हुआ निमग्न तृप्ति सागर में, तृष्णा ज्वाल बुझाई है । क्षुधा आदि सब दोष नशें, वह सहज तृप्ति उपजाई है ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
ज्ञान-भानु का उदय हुआ, आलोक सहज ही छाया है । चिरमोह महातम हे स्वामी, इस क्षण ही सहज विलाया है ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
द्रव्य-भाव-नोकर्म शून्य, चैतन्य प्रभु जब से देखा । शुद्ध परिणति प्रकट हुई, मिटती परभावों की रेखा ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
अहो पूर्ण निज वैभव लख, नहीं कामना शेष रही । हो गया सहज मैं निर्वांछक, निज में ही अब मुक्ति दिखी ॥ श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
निज से उत्तम दिखे न कुछ भी, पाई निज अनर्घ्य माया । निज में ही अब हुआ समर्पण, ज्ञानानन्द प्रकट पाया ॥ श्री देव- शास्त्र -गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला)
(दोहा) ज्ञान मात्र परमात्मा, परम प्रसिद्ध कराय । धन्य आज मैं हो गया, निज स्वरूप को पाय ॥
(हरिगीता छन्द) चैतन्य में ही मग्न हो, चैतन्य दरशाते अहो । निर्दोष श्री सर्वज्ञ प्रभुवर, जगत्साक्षी हो विभो ॥
सच्चे प्रणेता धर्म के, शिवमार्ग प्रकटाया प्रभो । कल्याण वाँछक भविजनों, के आप ही आदर्श हो ॥
शिवमार्ग पाया आप से, भवि पा रहे अरु पायेंगे । स्वाराधना से आप सम ही, हुए, हो रहे, होयेंगे ॥
तव दिव्यध्वनि में दिव्य-आत्मिक, भाव उद्घोषित हुए । गणधर गुरु आम्नाय में, शुभ शास्त्र तब निर्मित हुए ॥
निर्ग्रंथ गुरु के ग्रन्थ ये, नित प्रेरणाएं दे रहे । निजभाव अरु परभाव का, शुभ भेदज्ञान जगा रहे ॥
इस दुषम भीषण काल में, जिनदेव का जब हो विरह । तब मात सम उपकार करते, शास्त्र ही आधार हैं ॥
जग से उदास रहें स्वयं में, वास जो नित ही करें । स्वानुभव मय सहज जीवन, मूल गुण परिपूर्ण हैं ॥
नाम लेते ही जिन्हों का, हर्षमय रोमाँच हो । संसार-भोगों की व्यथा, मिटती परम आनन्द हो ॥
परभाव सब निस्सार दिखते, मात्र दर्शन ही किए । निजभाव की महिमा जगे, जिनके सहज उपदेश से ॥
उन देव-शास्त्र-गुरु प्रति, आता सहज बहुमान है । आराध्य यद्यपि एक, ज्ञायकभाव निश्चय ज्ञान है ॥
अर्चना के काल में भी, भावना ये ही रहे । धन्य होगी वह घड़ी, जब परिणति निज में रहे ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(दोहा) अहो कहाँ तक मैं कहूँ, महिमा अपरम्पार । निज महिमा में मगन हो, पाऊं पद अविकार ॥ ॥पुष्पाजलिं क्षिपामि॥