वीतराग अरिहंत देव के पावन चरणों में वन्दन । द्वादशांग श्रुत श्री जिनवाणी जग कल्याणी का अर्चन ॥ द्रव्य भाव संयममय मुनिवर श्री गुरु को मैं करूँ नमन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
आवरण ज्ञान पर मेरे है, हूँ जन्म-मरण से सदा दुखी । जबतक मिथ्यात्व हृदय में है, यह चेतन होगा नहीं सुखी ॥ ज्ञानावरणी के नाश हेतु चरणों में जल करता अर्पण । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
दर्शन पर जब तक छाया है, संसार ताप तब तक ही है । जब तक तत्वों का ज्ञान नहीं, मिथ्यात्व पाप तब तक ही है ॥ सम्यक्श्रद्धा के चंदन से मिट जायेगा दर्शनावरण । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
निज स्वभाव चैतन्य प्राप्ति हित, जागे उर में अन्तरबल । अव्याबाधित सुख का घाता वेदनीय है कर्म प्रबल ॥ अक्षत चरण चढ़ाकर प्रभुवर वेदनीय का करूं दमन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
मोहनीय के कारण यह चेतन अनादि से भटक रहा । निज स्वभाव तज पर-द्रव्यों की ममता में ही अटक रहा ॥ भेदज्ञान की खड़ग उठाकर मोहनीय का करूँ हनन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
आयु-कर्म के बंध उदय में सदा उलझता आया हूँ । चारों गतियों में डोला हूँ, निज को जान न पाया हूँ ॥ अजर-अमर अविनाशी पदहित आयु कर्म का करूँ शमन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
नाम कर्म के कारण मैंने, जैसा भी शरीर पाया । उस शरीर को अपना समझा, निज चेतन को विसराया ॥ ज्ञानदीप के चिर प्रकाश से, नामकर्म का करूँ दमन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
उच्च-नीच कुल मिला बहुत पर निज कुल जान नहीं पाया । शुद्ध-बुद्ध चैतन्य निरंजन सिद्ध स्वरूप न उर भाया ॥ गोत्र-कर्म का धूम्र उड़ाऊँ निज परिणति में करूँ नमन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
दान-लाभ भोगोपभोग बल मिलने में जो बाधक है । अन्तराय के सर्वनाश का, आत्मज्ञान ही साधक है ॥ दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख, पाऊँ निज आराधक बन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
कर्मोदय में मोह रोष से, करता है शुभ-अशुभ विभाव । पर में इष्ट-अनिष्ट कल्पना, राग-द्वेष विकारी भाव ॥ भाव-कर्म करता जाता है, जीव भूल निज आत्मस्वभाव । द्रव्य-कर्म बंधते हैं तत्क्षण, शाश्वत सुख का करे अभाव ॥ चार-घातिया चउ अघातिया अष्ट-कर्म का करूँ हनन । देव-शास्त्र-गुरु के चरणों का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) हे जगबन्धु जिनेश्वर तुमको अब तक कभी नहीं ध्याया । श्री जिनवाणी बहुत सुनी पर कभी नहीं श्रद्धा लाया ॥
परम वीतरागी सन्तों का भी उपदेश न मन भाया । नरक तिर्यञ्च देव नरगति में भ्रमण किया बहु दुख पाया ॥
पाप-पुण्य में लीन हुआ निज शुद्ध-भाव को बिसराया । इसीलिये प्रभुवर अनादि से, भव अटवी में भरमाया ॥
आज तुम्हारे दर्शन कर, प्रभु मैंने निज दर्शन पाया । परम शुद्ध चैतन्य ज्ञानघन, का बहुमान हृदय आया ॥
दो आशीष मुझे हे जिनवर, जिनवाणी गुरुदेव महान । मोह महातम शीघ्र नष्ट हो, जाये करूँ आत्म कल्याण ॥
स्वपर विवेक जगे अन्तर में, दो सम्यक् श्रद्धा का दान । क्षायक हो उपशम हो हे प्रभु, क्षयोपशम सद्दर्शन ज्ञान ॥
सात तत्व पर श्रद्धा करके देव शास्त्र गुरु को मानूँ । निज-पर भेद जानकर केवल निज में ही प्रतीत ठानूँ ॥
पर-द्रव्यों से मैं ममत्व तज आत्म-द्रव्य को पहिचानूं । आत्म-द्रव्य को इस शरीर से पृथक भिन्न निर्मल जानूँ ॥
समकित रवि की किरणें, मेरे उर अन्तर में करें प्रकाश । सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर स्वामी, पर-भावों का करूँ विनाश ॥
सम्यक्चारित को धारण कर, निज स्वरूप का करूँ विकास । रत्नत्रय के अवलम्बन से, मिले मुक्ति निर्वाण निवास ॥
जय जय जय अरहन्त देव, जय जिनवाणी जग कल्याणी । जय निर्ग्रन्थ महान सुगुरु, जय जय शाश्वत शिवसुखदानी ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(दोहा) देव शास्त्र गुरु के वचन भाव सहित उरधार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥ (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)