पं हुक्मचन्दजी कृत भव-समुद्र सीमित कियो, सीमन्धर भगवान । कर सीमित निजज्ञान को, प्रगट्यो पूरण ज्ञान ॥ प्रकट्यो पूरण ज्ञान-वीर्य-दर्शन सुखधारी, समयसार अविकार विमल चैतन्य-विहारी । अंतर्बल से किया प्रबल रिपु-मोह पराभव, अरे भवान्तक ! करो अभय हर लो मेरा भव ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ: ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
प्रभुवर ! तुम जल-से शीतल हो, जल-से निर्मल अविकारी हो । मिथ्यामल धोने को जिनवर, तुम ही तो मल-परिहारी हो ॥ तुम सम्यग्ज्ञान जलोदधि हो, जलधर अमृत बरसाते हो । भविजन-मन-मीन प्राणदायक, भविजन मन-जलज खिलाते हो ॥ हे ज्ञानपयोनिधि सीमन्धर ! यह ज्ञान प्रतीक समर्पित है । हो शान्त ज्ञेयनिष्ठा मेरी, जल से चरणाम्बुज चर्चित है ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
चंदन-सम चन्द्रवदन जिनवर, तुम चन्द्रकिरण से सुखकर हो । भव-ताप निकंदन हे प्रभुवर ! सचमुच तुम ही भव-दुख-हर हो ॥ जल रहा हमारा अन्तःस्तल, प्रभु इच्छाओं की ज्वाला से । यह शान्त न होगा हे जिनवर रे ! विषयों की मधुशाला से ॥ चिर-अंतर्दाह मिटाने को, तुम ही मलयागिरि चन्दन हो । चंदन से चरचूँ चरणांबुज, भव-तप-हर ! शत-शत वन्दन हो ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
प्रभु ! अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी हूँ । क्षत-विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी हूँ ॥ अक्षत का अक्षत-संबल ले, अक्षत-साम्राज्य लिया तुमने । अक्षत-विज्ञान दिया जग को, अक्षत-ब्रह्माण्ड किया तुमने ॥ मैं केवल अक्षत-अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया । निर्वाण-शिला के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
तुम सुरभित ज्ञान-सुमन हो प्रभु, नहिं राग-द्वेष दुर्गन्ध कहीं । सर्वांग सुकोमल चिन्मय तन, जग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं ॥ निज अंतर्वास सुवासित हो, शून्यान्तर पर की माया से । चैतन्य-विपिन के चितरंजन, हो दूर जगत की छाया से ॥ सुमनों से मन को राह मिली, प्रभु कल्पबेलि से यह लाया । इनको पा चहक उठा मन-खग, भर चोंच चरण में ले आया ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
आनंद-रसामृत के द्रह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं । तुम मुक्त-क्षुधा के वेदन से, षट्-रस का नाम-निशान नहीं ॥ विध-विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शान्त हुई मेरी । आनंद-सुधारस-निर्झर तुम, अतएव शरण ली प्रभु तेरी ॥ चिर-तृप्ति-प्रदायी व्यंजन से, हो दूर क्षुधा के अंजन ये । क्षुत्पीड़ा कैसे रह लेगी ? जब पाये नाथ निरंजन ये ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
चिन्मय-विज्ञान-भवन अधिपति, तुम लोकालोक-प्रकाशक हो । कैवल्य किरण से ज्योतित प्रभु ! तुम महामोहतम नाशक हो ॥ तुम हो प्रकाश के पुंज नाथ ! आवरणों की परछाँह नहीं । प्रतिबिंबित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को आँच नहीं ॥ ले आया दीपक चरणों में, रे ! अन्तर आलोकित कर दो । प्रभु तेरे मेरे अन्तर को, अविलंब निरन्तर से भर दो ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
धू-धू जलती दु:ख की ज्वाला, प्रभु त्रस्त निखिल जगतीतल है । बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है ॥ यह धूम घूमरी खा-खाकर, उड़ रहा गगन की गलियों में । अज्ञान-तमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंग-रलियों में ॥ सन्देश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुए ऊर्ध्वगामी जग से । प्रकटे दशांग प्रभुवर ! तुम को, अन्तःदशांग की सौरभ से ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
शुभ-अशुभ वृत्ति एकान्त दुःख अत्यन्त मलिन संयोगी है । अज्ञान विधाता है इसका, निश्चित चैतन्य विरोधी है ॥ काँटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य-सदन के आँगन में । चंचल छाया की माया-सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में ॥ तेरी फल-पूजा का फल प्रभु ! हों शान्त शुभाशुभ ज्वालायें । मधुकल्प फलों-सी जीवन में, प्रभु ! शान्ति-लतायें छा जायें ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए । भव-ताप उतरने लगा तभी, चन्दन-सी उठी हिलोर हिये ॥ अभिराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने । क्षुत् तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने ॥ मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए । फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) वैदही हो देह में, अतः विदेही नाथ । सीमन्धर निज सीम में, शाश्वत करो निवास ॥ श्री जिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरहन्त । वीतराग सर्वज्ञ श्री, सीमन्धर भगवन्त ॥ हे ज्ञानस्वभावी सीमन्धर ! तुम हो असीम आनन्दरूप । अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप ॥ मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अति प्रचण्ड । हो स्वयं अखंडित कर्म शत्रु को, किया आपने खंड-खंड ॥ गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान । आतमस्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान ॥ तुम दर्शन ज्ञान दिवाकर हो, वीरज मंडित आनन्दकन्द । तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्णचन्द ॥ पूरब विदेह में हे जिनवर ! हो आप आज भी विद्यमान । हो रहा दिव्य उपदेश, भव्य पा रहे नित्य अध्यात्म ज्ञान ॥ श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव को, मिला आपसे दिव्य ज्ञान । आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान ॥ पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार । समझाया उनने समयसार, हो गये स्वयं वे समयसार ॥ दे गये हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार । है समयसार बस एक सार, है समयसार बिन सब असार ॥ मैं हूँ स्वभाव से समयसार, परिणति हो जाये समयसार । है यही चाह, है यही राह, जीवन हो जाये समयसार ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा समयसार है सार, और सार कुछ है नहीं । महिमा अपरम्पार, समयसारमय आपकी ॥ (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)