पवैयाजी कृत जयति बाहुबलि स्वामी, जय जय करूँ वंदना बारम्बार निज स्वरूप का आश्रय लेकर, आप हुए भवसागर पार ॥ हे त्रैलोक्यनाथ त्रिभुवन में, छाई महिमा अपरम्पार सिद्धस्वपद की प्राप्ति हो गई, हुआ जगत में जय-जयकार ॥ पूजन करने मैं आया हूँ, अष्ट द्रव्य का ले आधार यही विनय है चारों गति के, दु:ख से मेरा हो उद्धार ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
उज्ज्वल निर्मल जल प्रभु पद-पंकज में आज चढ़ाता हूँ जन्म-मरण का नाश करूँ, आनन्दकन्द गुण गाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
शीतल मलय सुगन्धित पावन, चन्दन भेंट चढ़ाता हूँ भव आताप नाश हो मेरा, ध्यान आपका ध्याता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
उत्तम शुभ्र अखण्डित तन्दुल, हर्षित चरण चढ़ाता हूँ अक्षयपद की सहज प्राप्ति हो, यही भावना भाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
काम शत्रु के कारण अपना, शील स्वभाव न पाता हूँ काम भाव का नाश करूँ मैं, सुन्दर पुष्प चढ़ाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
तृष्णा की भीषण ज्वाला में, प्रतिपल जलता जाता हूँ क्षुधा-रोग से रहित बनूँ मैं, शुभ नैवेद्य चढ़ाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
मोह ममत्व आदि के कारण, सम्यक् मार्ग न पाता हूँ यह मिथ्यात्व तिमिर मिट जाये, प्रभुवर दीप चढ़ाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
है अनादि से कर्म बन्ध दु:खमय, न पृथक् कर पाता हूँ अष्टकर्म विध्वंस करूँ, अत एव सु-धूप चढ़ाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
सहज भाव सम्पदा युक्त होकर, भी भव दु:ख पाता हूँ परम मोक्षफल शीघ्र मिले, उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
पुण्य भाव से स्वर्गादिक पद, बार-बार पा जाता हूँ निज अनर्घ्य पद मिला न अब तक, इससे अर्घ्य चढ़ाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिव सुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) आदिनाथ सुत बाहुबलि प्रभु, मात सुनन्दा के नन्दन चरम शरीरी कामदेव तुम, पोदनपुर पति अभिनन्दन ॥ छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर, भरत चढ़े वृषभाचल पर अगणित चक्री हुए नाम लिखने को मिला न थल तिल भर ॥
मैं ही चक्री हुआ, अहं का मान धूल हो गया तभी एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी, लिखी प्रशस्ति स्व हस्त जभी ॥ चले अयोध्या किन्तु नगर में, चक्र प्रवेश न कर पाया ज्ञात हुआ लघु भ्रात बाहुबलि सेवा में न अभी आया ॥
भरत चक्रवर्ती ने चाहा, बाहुबलि आधीन रहे ठुकराया आदेश भरत का, तुम स्वतंत्र स्वाधीन रहे ॥ भीषण युद्ध छिड़ा दोनों भाई के मन संताप हुए दृष्टि-मल्ल-जल युद्ध भरत से करके विजयी आप हुए ॥
क्रोधित होकर भरत चक्रवर्ती, ने चक्र चलाया है तीन प्रदक्षिणा देकर कर में, चक्र आपके आया है ॥ विजय चक्रवर्ती पर पाकर, उर वैराग्य जगा तत्क्षण राज्यपाट तज ऋषभदेव के, समवशरण को किया गमन ॥
धिक्-धिक् यह संसार और, इसकी असारता को धिक्कार तृष्णा की अनन्त ज्वाला में, जलता आया है संसार ॥ जग की नश्वरता का तुमने, किया चिंतवन बारम्बार देह भोग संसार आदि से, हुई विरक्ति पूर्ण साकार ॥
आदिनाथ प्रभु से दीक्षा ले, व्रत संयम को किया ग्रहण चले तपस्या करने वन में, रत्नत्रय को कर धारण ॥ एक वर्ष तक किया कठिन तप, कायोत्सर्ग मौन पावन किन्तु शल्य थी एक हृदय में, भरत-भूमि पर है आसन ॥
केवलज्ञान नहीं हो पाया, एक शल्य ही के कारण परिषह शीत ग्रीष्म वर्षादिक, जय करके भी अटका मन ॥ भरत चक्रवर्ती ने आकर, श्री चरणों में किया नमन कहा कि वसुधा नहीं किसी की, मान त्याग दो हे भगवन् ॥
तत्क्षण शल्य विलीन हुई, तुम शुक्ल ध्यान में लीन हुए फिर अन्तर्मुहूर्त में स्वामी, मोह क्षीण स्वाधीन हुए ॥ चार घातिया कर्म नष्ट कर, आप हुए केवलज्ञानी जय जयकार विश्व में गूँजा, सारी जगती मुसकानी ॥
झलका लोकालोक ज्ञान में, सर्व द्रव्य गुण पर्यायें एक समय में भूत भविष्यत्, वर्तमान सब दर्शायें ॥ फिर अघातिया कर्म विनाशे, सिद्ध लोक में गमन किया अष्टापद से मुक्ति हुई, तीनों लोकों ने नमन किया ॥
महा मोक्ष फल पाया तुमने, ले स्वभाव का अवलंबन हे भगवान बाहुबलि स्वामी, कोटि-कोटि शत-शत वंदन ॥ आज आपका दर्शन करने, चरण-शरण में आया हूँ शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको, यही भाव भर लाया हूँ ॥
भाव शुभाशुभ भव निर्माता, शुद्ध भाव का दो प्रभु दान निज परिणति में रमण करूँ प्रभु, हो जाऊँ मैं आप समान ॥ समकित दीप जले अन्तर में, तो अनादि मिथ्यात्व गले राग-द्वेष परिणति हट जाये, पुण्य पाप सन्ताप टले ॥
त्रैकालिक ज्ञायक स्वभाव का, आश्रय लेकर बढ़ जाऊँ शुद्धात्मानुभूति के द्वारा, मुक्ति शिखर पर चढ़ जाऊँ ॥ मोक्ष-लक्ष्मी को पाकर भी, निजानन्द रस लीन रहूँ सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊँ, सदा सुखी स्वाधीन रहूँ ॥
आज आपका रूप निरख कर, निज स्वरूप का भान हुआ तुम-सम बने भविष्यत् मेरा, यह दृढ़ निश्चय ज्ञान हुआ हर्ष विभोर भक्ति से पुलकित, होकर की है यह पूजन प्रभु पूजन का सम्यक् फल हो, कटें हमारे भव बंधन ॥
चक्रवर्ति इन्द्रादिक पद की नहीं कामना है स्वामी शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम पद पायें हे! अन्तर्यामी ॥ ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
घर-घर मंगल छाये जग में वस्तु स्वभाव धर्म जानें वीतराग विज्ञान ज्ञान से, शुद्धातम को पहिचानें ॥ (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)