देव-शास्त्र-गुरु
द्यानतरायजी कृत
प्रथम देव अरहंत, सुश्रुत सिद्धांत जू
गुरु निर्ग्रन्थ महन्त, मुकतिपुर पन्थ जू ॥
तीन रतन जग मांहि सो ये भवि ध्याइये
तिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाइये ॥
पूजौं पद अरहंत के, पूजौं गुरुपद सार
पूजौं देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
अन्वयार्थ : प्रथम देव अरिहंत भगवान्, जिनवाणी माता, और महान निस्पृही गुरु-साधु, मोक्ष-मार्ग है । संसार के भव्य जीव जो इन तीन रत्नों को ध्याते हैं उन्हें इनकी भक्ति के प्रसाद से परम पद मिलता है ।
मैं अष्ट विधि से नित्य अरिहंत भगवन् के चरणों की पूजा करता हूँ, फिर सार-भूत गुरुओं के चरणों की पूजा करता हूँ और फिर जिनवाणी माता को पूजता हूँ ।
सुरपति उरग नरनाथ तिनकर, वन्दनीक सुपद-प्रभा ।
अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा ॥
वर नीर क्षीरसमुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धांत, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभाव मल छीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! इंद्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती आपके चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं इसलिए आपके चरण निर्मल स्वर्ण के समान शोभायमान प्रतीत होते हैं, इनकी छवि देखकर समवशरण की सभाएं मोहित हो जाती है । क्षीर सागर के पवित्र जल का कलश भरकर आपके समक्ष नृत्य कर जल अर्पित करते है । मैं इस प्रकार अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरुओं की नित्य पूजा करता हूँ ।
जल का स्वभाव सभी मलिन पदार्थों के मल को नष्ट करने का है; इसलिए देव, शास्त्र, गुरु के श्रेष्ठ पदों की पूजा के लिए जल अर्पित करता हूँ ।
जे त्रिजग उदर मंझार प्राणी तपत अति दुद्धर खरे
तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ॥
तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घिसि सचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
चंदन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! तीनों लोक के प्राणी दुखों के ताप से अत्यंत दुखी हैं, आपके प्रवचन इन दुखी प्राणियों के दुखों को हर कर शीतलता / शांति प्रदान करते हैं । इसलिए अत्यंत सुगन्धित चन्दन को घिस कर लाया हूँ, जिस की पवित्र सुगंध सूंघ कर भंवरे लोभित हो रहे है । उस चंदन से अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और गुरु की पूजा करता हूँ ।
चन्दन तप्ती हुई वस्तु को शीतलता प्रदान करने में सामर्थ्यवान है; इसलिए देव, शास्त्र और गुरु की चन्दन से पूजा करता हूँ ।
यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई
अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही
उज्ज्वल अखंडित शालि तंदुल पुंज धरि त्रय गुण जचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
तंदुल शालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! यह संसार रुपी समुद्र अपार है; इसको पार करने के लिए आपकी अत्यंत दृढ़, परम-पवित्र और सच्ची भक्ति रुपी नाव ही सामर्थ्यवान है । इसलिए मैं ताज़े और स्वच्छ चमकते हुए अखंडित शालि-वन के चावलों के पुंजो को अर्पित कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों गुणों की याचना करता हूँ । इस प्रकार अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और गुरु की की नित्य पूजा करता हूँ ।
मैं शालीधान के अत्यंत सुगन्धित, अखण्डित, श्रेष्ठ चावलों को एक-एक बीन कर, देव शास्त्र गुरु तीन परम पदों की पूजा करता हूँ ।
जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज प्रकाशन भान हैं
जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं ॥
लहि कुंद कमलादिक पुहुप, भव भव कुवेदनसों बचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
विविध भांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र देव ! आप भक्ति कर रहे भव्य जीवों के हृदय रूपी कमलों को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के सामान है, जो प्रधानता से चारित्र का उपदेश देते है, वे तीनो लोकों में सर्व श्रेष्ठ हैं, इसलिए मैं कुंद, कमल आदि पुष्पों को लेकर अनेक जन्मों के खोटे वेदों काम विकार के कष्टों से बचने के लिए मैं अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रथ गुरु की नित्य पूजा करता हूँ ।
मेरे पास भिन्न भिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्प से जिनकी सुगंध वश भवरे हो जाते है, मैं तीनो परम पदों; देव, शास्त्र और गुरु की पूजा करता हूँ ।
अति सबल मद-कंदर्प जाको क्षुधा-उरग अमान है
दुस्सह भयानक तासु नाशन को सु गरुड़ समान है ॥
उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अत्यंत बलवान मद के वेग को धारण करने वाला महान क्षुधारूपी सर्प का विष असहनीय और भयंकर है । उस का नाश करने के लिए आप गरूड़ के सामान हैं, इसलिए मैं उत्तम छ: रसों युक्त, घी में पकाये नैवद्य से अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु तीनों की नित्य पूजा करता हूँ ।
मैं नाना प्रकार के विभिन्न रसों से युक्त, ताज़े नैवैद्य से देव, शास्त्र और गुरु, की पूजा करता हूँ ।
जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, मोहतिमिर महाबली
तिंहि कर्मघाती ज्ञानदीप प्रकाश ज्योति प्रभावली ॥
इह भांति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजन में खचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! तीनों लोक के जीवों के पुरुषार्थ को नष्ट करने वाला मोह रूपी अन्धकार अत्यंत बलवान है । उस मोहनीय कर्म को नाश करने के लिए आपके ज्ञान रुपी दीपक की ज्योति / प्रकाश सामर्थ्यवान है । इस प्रकार में दीपक को प्रज्जवलित कर सोने के पात्र में सजाकर ,अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु की नित्य पूजा करता हूँ ।
इस ज्ञान रुपी दीपक से मैं देव शास्त्र और गुरु तीनों परम पदों की पूजा करता हूँ, जिस की ज्योति अन्धकार रहित, स्व और पर पदार्थों की प्रकाशक है ।
जे कर्म-ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै
वर धूप तासु सुगन्धता करि, सकल परिमलता हंसै ॥
इह भांति धूप चढ़ाय नित भव ज्वलनमाहिं नहीं पचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
अग्निमांहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! कर्मरुपी ईंधन को जलाने के लिए आप अग्नि के सामान प्रकाशित है । अच्छी धुप की सुगंध से सभी सुगंधिया मंद हो जाती है । इसी तरह देव ! प्रतिदिन धुप अर्पित करता हूँ जिससे मै संसार रुपी अग्नि से दूर रह सकूँ; इस प्रकार नित्य तीनों, देव, जिनवाणी और अपरिग्रही गुरु की पूजा करता हूँ ।
चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों सहित धुप को अग्नि में जला कर देव, शास्त्र और गुरु ,तीनों परम पदों की पूजा करता हूँ ।
लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं
मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं ॥
सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
जे प्रधान फल फलविषैं, पंचकरण-रस लीन ।
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : भगवन मैं, नेत्रों, जीव्हा, नासिका और मन को उत्साहित करने वाले अनुपम और समस्त श्रेष्ठ गुणों वाले फलों को अर्पित कर हर्षित होता हुआ श्रेष्ठ मोक्ष-रस को प्राप्त करने की भावना से नित्य अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु की पूजा करता हूँ ।
जो फलों में प्रधान है, जिन के रस में पाँचों इन्द्रिय लीन हो रही है, ऐसे फलों से तीनों परम पद, देव शास्त्र और गुरु की पूजा करता हूँ ।
जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरुं
वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनम के पातक हरुं ॥
इहि भांति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूं
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : भगवन ! मैंने श्रेष्ठ उज्जवल जल, चन्दन से सुगन्धित जल, अक्षत, पुष्प, नैवद्य, दीपक, श्रेष्ट धुप और विविध प्रकार के निर्मल फलों को मिलाकर, अनेक जन्मों के पापों को नष्ट करने के लिए अर्घ बना कर लाया हूँ । इस प्रकार नित्य अर्घ्य अर्पित कर मैं मोक्ष की पंक्ति में लगता हूँ । मै तीनों अरिहंत भगवान्, जिनवाणी और अपरिग्रही गुरु की नित्य पूजा करता हूँ ।
आठ प्रकार के अर्घ्य से, मन से अत्यंत उत्साहपूर्वक तीनों परम-पद देव शास्त्र और गुरु कि पूजा करता हूँ ।
जयमाला
देव शास्त्र गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार
भिन्न भिन्न कहुं आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥१॥
अन्वयार्थ : सच्चे देव से सम्यक्त्व को, सच्चे शास्त्र सम्यग्ज्ञान को, और सच्चे निर्ग्रन्थ गुरु से सम्यक चारित्र को देने वाले हैं । मैं अल्प बुद्धि वाला हूँ किन्तु संक्षेप में उनकी बहुत गुण वाली आरती कहता हूँ ।
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर ॥२॥
अन्वयार्थ : जिन्होंने कर्मों की ६३ प्रकृतियों का क्षय कर लिया है, अठारह दोषों के समूह को जीत लिया है । जो अनंत श्रेष्ठ गुणों को धारण करते है, यद्यपि कहने में छयालीस गुण आते हैं ।
शुभ समवशरण शोभा अपार, शत इंद्र नमत कर सीस धार
देवाधिदेव अरहंत देव, वंदौं मन-वच-तन करि सुसेव ॥३॥
अन्वयार्थ : आपके शुभ समवशरण की शोभा अपरम्पार है । सौ इंद्र अपने मस्तक पर हाथ रख कर आपको नमस्कार करते हैं ।
जिनकी ध्वनि ह्वै ओंकाररुप, निर-अक्षर मय महिमा अनूप
दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥४॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र भगवान् की ओंकार रूप, अक्षर रहित, अनुपम महिमा वाली दिव्यध्वनि, जो १८ महा-भाषा और ७०० लघु भाषा सहित है ।
सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअंग
रवि शशि न हरें सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय ॥५॥
अन्वयार्थ : जिनवाणी स्याद्वादमयी और सप्त भंगी है । इसको गणधर देवों ने १२ अंगों में गूंथा है । सूर्य और चन्द्र भी जिस अन्धकार को नहीं हर सकते किन्तु ये सच्चे शास्त्र हर लेते है, इसीलिए मै उन सच्चे शास्त्रों को बड़ी प्रीती / भक्ति भाव से नमस्कार करता हूँ ।
गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रय-निधि अगाध
संसारदेह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिवपद निहार ॥६॥
अन्वयार्थ : सच्चे गुरु -- आचार्य ,उपाध्याय और साधु नग्न होते हैं, किन्तु रत्नत्रय रुपी खज़ाना भरा हुआ होता है । संसार और शरीर से वैराग्य धारण करके वांच्छा रहित होकर मोक्ष पद की ओर लक्ष्य रखते हुए तप तपते हैं ।
गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भवतारन तरन जिहाज ईस
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरु-नाम जपौं मन-वचन-काय ॥७॥
अन्वयार्थ : आचार्य परमेष्ठी के ३६, उपाध्याय परमेष्ठी के २५, और साधू परमेष्ठी के २८ मूल गुण होते हैं । ये तीनो संसार से स्वयं तथा अन्यों को पार लगाने के लिए जहाज के समान हैं । सच्चे गुरु की महिम का वर्णन नहीं किया जा सकता, मैं उन सच्चे गुरुओं के नाम को मन-वचन-काय से जपता हूँ ।
कीजै शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरे
द्यानत सरधावान, अजर अमरपद भोगवे ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : शक्ति के अनुसार व्रत धारण करना चाहिए और शक्ति नहीं होने पर श्रद्धा ही रखनी चाहिए क्योंकि ध्यायनतराय जी कहते है कि श्रद्धावान भी बुढ़ापे, मरण रहित पद को भोगने वाले होते है ।
श्रीजिन के परसाद तें, सुखी रहें सब जीव
या तें तन मन वचन तें, सेवो भव्य सदीव ॥