आशा की प्यास बुझाने को, अब तक मृग तृष्णा में भटका । जल समझ विषय-विष भोगों को, उनकी ममता में था अटका ॥ लख सौम्यदृष्टि तेरी प्रभुवर, समता रस पीने आया हूँ । इस जल ने प्यास बुझाई ना, इस को लौटाने लाया हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
क्रोधानल से जब जला हृदय, चन्दन ने कोई न काम किया । तन को तो शान्त किया इसने, मन को न मगर आराम दिया । संसार ताप से तप्त हृदय, संताप मिटाने आया हूँ । चरणों में चन्दन अर्पण कर, शीतलता पाने आया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा
अभिमान किया अब तक जड़ पर, अक्षय निधि को ना पहचाना । 'मैं जड़ का हूँ' 'जड़ मेरा है' यह, सोच बना था मस्ताना॥ क्षत में विश्वास किया अब तक, अक्षत को प्रभुवर ना जाना । अभिमान की आन मिटाने को, अक्षय निधि तुमको पहचाना॥ ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा
दिन-रात वासना में रहकर, मेरे मन ने प्रभु सुख माना । पुरुषत्व गंवाया पर प्रभुवर, उसके छल को ना पहचाना॥ माया ने डाला जाल प्रथम, कामुकता ने फिर बाँध लिया । उसका प्रमाण यह पुष्प-बाण, लाकर के प्रभुवर भेंट किया॥ ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यो: काम-बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
पर पुद्गल का भक्षण करके, यह भूख मिटाना चाही थी । इस नागिन से बचने को प्रभु, हर चीज बनाकर खाई थी॥ मिष्टान्न अनेक बनाये थे, दिन-रात भखे न मिटी प्रभुवर । अब संयम-भाव जगाने को, लाया हूँ ये सब थाली भर॥ ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो: क्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा
पहिले अज्ञान मिटाने को, दीपक था जग में उजियाला । उससे न हुआ कुछ तो युग ने, बिजली का बल्ब जला डाला॥ प्रभु भेद-ज्ञान की आंख न थी, क्या कर सकती थी यह ज्वाला? यह ज्ञान है कि अज्ञान कहो, तुमको भी दीप दिखा डाला॥ ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
शुभ-कर्म कमाऊँ सुख होगा, अब तक मैंने यह माना था । पाप-कर्म को त्याग पुण्य को, चाह रहा अपनाना था॥ किन्तु समझकर शत्रु कर्म को, आज जलाने आया हूँ । लेकर दशांग यह धूप, कर्म की धूम उड़ाने आया हूँ । ॐ ह्रीं श्री देव–शास्त्र-गुरुभ्यः अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
भोगों को अमृत फल जाना, विषयों में निश-दिन मस्त रहा । उनके संग्रह में हे प्रभुवर ! मैं व्यस्त-त्रस्त-अभ्यस्त रहा॥ शुद्धात्म प्रभा जो अनुपम फल, मैं उसे खोजने आया हूँ । प्रभु सरस सुवासित ये जड़ फल, मैं तुम्हें चढ़ाने लाया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः मोक्ष-फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता । अरे पूर्णता पाने में, इसकी क्या है आवश्यकता ? मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ्य मेरी माया । बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ्य लिये, अर्पण के हेतु चला आया॥ ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्योऽनर्घ्य पदप्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) (दोहा) समयसार जिनदेव हैं, जिन-प्रवचन जिनवाणी । नियमसार निर्ग्रन्थ गुरु, करें कर्म की हानि ।
(वीरछन्द) हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अब तक पहिचाना । अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर, चौरासी के चक्कर खाना ॥ करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा । भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खड़ा रहा ॥ तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना । तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहचाना ॥ प्रभु वीतराग की वाणी में, जैसा जो तत्व दिखाया है । जो होना है वह निश्चित है, केवलज्ञानी ने गाया है ॥ उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया । बनकर पर का कर्ता अब तक, सत् का न प्रभो सम्मान किया॥ भगवान तुम्हारी वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है । स्याद्वाद-नय, अनेकान्त-मय, समयसार समझाया है ॥ उस पर तो ध्यान दिया न प्रभो, विकथा में समय गंवाया है । शुद्धात्म रुचि न हुई मन में, ना मन को उधर लगाया है ॥ मैं समझ न पाया था अब तक, जिनवाणी किसको कहते हैं । प्रभु वीतराग की वाणी में, कैसे क्या तत्व निकलते हैं ॥ राग धर्ममय धर्म रागमय, अब तक ऐसा जाना था । शुभ-कर्म कमाते सुख होगा, बस अब तक ऐसा माना था ॥ पर आज समझ में आया है, कि वीतरागता धर्म अहा । राग-भाव में धर्म मानना, जिनमत में मिथ्यात्व कहा ॥ वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है । यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हमको जो दिखलाती है॥ उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओं ने पहिचाना है । उन गुरुवर्यों के चरणों में, मस्तक बस हमें झुकाना है ॥ दिन-रात आत्मा का चिन्तन, मृदु-सम्भाषण में वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रगट हो रहा अन्तर्मन ॥ निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो । ज्ञानी ध्यानी समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो ॥ चलते फिरते सिद्धों से गुरु, चरणों में शीश झुकाते हैं । हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं ॥ हो नमस्कार शुद्धातम को, हो नमस्कार जिनवर वाणी । हो नमस्कार उन गुरुओं को, जिनकी चर्या समरससानी ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला महाअर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा
(दोहा) दर्शन दाता देव हैं, आगम सम्यग्ज्ञान । गुरु चारित्र की खानि हैं, मैं वंदों धरि ध्यान ॥ (पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि)