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देव-शास्त्र-गुरु
पण्डित हुकमचन्द भारिल्ल कृत
(दोहा)
शुद्ध ब्रह्म परमात्मा, शब्दब्रह्म जिनवाणी ।
शुद्धातम साधक दशा, नमो जोड़ जुग पाणि ।
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

आशा की प्यास बुझाने को, अब तक मृग तृष्णा में भटका ।
जल समझ विषय-विष भोगों को, उनकी ममता में था अटका ॥
लख सौम्यदृष्टि तेरी प्रभुवर, समता रस पीने आया हूँ ।
इस जल ने प्यास बुझाई ना, इस को लौटाने लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

क्रोधानल से जब जला हृदय, चन्दन ने कोई न काम किया ।
तन को तो शान्त किया इसने, मन को न मगर आराम दिया ।
संसार ताप से तप्त हृदय, संताप मिटाने आया हूँ ।
चरणों में चन्दन अर्पण कर, शीतलता पाने आया हूँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा

अभिमान किया अब तक जड़ पर, अक्षय निधि को ना पहचाना ।
'मैं जड़ का हूँ' 'जड़ मेरा है' यह, सोच बना था मस्ताना॥
क्षत में विश्वास किया अब तक, अक्षत को प्रभुवर ना जाना ।
अभिमान की आन मिटाने को, अक्षय निधि तुमको पहचाना॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

दिन-रात वासना में रहकर, मेरे मन ने प्रभु सुख माना ।
पुरुषत्व गंवाया पर प्रभुवर, उसके छल को ना पहचाना॥
माया ने डाला जाल प्रथम, कामुकता ने फिर बाँध लिया ।
उसका प्रमाण यह पुष्प-बाण, लाकर के प्रभुवर भेंट किया॥
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यो: काम-बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

पर पुद्गल का भक्षण करके, यह भूख मिटाना चाही थी ।
इस नागिन से बचने को प्रभु, हर चीज बनाकर खाई थी॥
मिष्टान्न अनेक बनाये थे, दिन-रात भखे न मिटी प्रभुवर ।
अब संयम-भाव जगाने को, लाया हूँ ये सब थाली भर॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो: क्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा

पहिले अज्ञान मिटाने को, दीपक था जग में उजियाला ।
उससे न हुआ कुछ तो युग ने, बिजली का बल्ब जला डाला॥
प्रभु भेद-ज्ञान की आंख न थी, क्या कर सकती थी यह ज्वाला?
यह ज्ञान है कि अज्ञान कहो, तुमको भी दीप दिखा डाला॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ-कर्म कमाऊँ सुख होगा, अब तक मैंने यह माना था ।
पाप-कर्म को त्याग पुण्य को, चाह रहा अपनाना था॥
किन्तु समझकर शत्रु कर्म को, आज जलाने आया हूँ ।
लेकर दशांग यह धूप, कर्म की धूम उड़ाने आया हूँ ।
ॐ ह्रीं श्री देव–शास्त्र-गुरुभ्यः अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

भोगों को अमृत फल जाना, विषयों में निश-दिन मस्त रहा ।
उनके संग्रह में हे प्रभुवर ! मैं व्यस्त-त्रस्त-अभ्यस्त रहा॥
शुद्धात्म प्रभा जो अनुपम फल, मैं उसे खोजने आया हूँ ।
प्रभु सरस सुवासित ये जड़ फल, मैं तुम्हें चढ़ाने लाया हूँ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः मोक्ष-फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता ।
अरे पूर्णता पाने में, इसकी क्या है आवश्यकता ?
मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ्य मेरी माया ।
बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ्य लिये, अर्पण के हेतु चला आया॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्योऽनर्घ्य पदप्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा

(जयमाला)
(दोहा)
समयसार जिनदेव हैं, जिन-प्रवचन जिनवाणी ।
नियमसार निर्ग्रन्थ गुरु, करें कर्म की हानि ।

(वीरछन्द)
हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अब तक पहिचाना ।
अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर, चौरासी के चक्कर खाना ॥
करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा ।
भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खड़ा रहा ॥
तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना ।
तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहचाना ॥
प्रभु वीतराग की वाणी में, जैसा जो तत्व दिखाया है ।
जो होना है वह निश्चित है, केवलज्ञानी ने गाया है ॥
उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया ।
बनकर पर का कर्ता अब तक, सत् का न प्रभो सम्मान किया॥
भगवान तुम्हारी वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है ।
स्याद्वाद-नय, अनेकान्त-मय, समयसार समझाया है ॥
उस पर तो ध्यान दिया न प्रभो, विकथा में समय गंवाया है ।
शुद्धात्म रुचि न हुई मन में, ना मन को उधर लगाया है ॥
मैं समझ न पाया था अब तक, जिनवाणी किसको कहते हैं ।
प्रभु वीतराग की वाणी में, कैसे क्या तत्व निकलते हैं ॥
राग धर्ममय धर्म रागमय, अब तक ऐसा जाना था ।
शुभ-कर्म कमाते सुख होगा, बस अब तक ऐसा माना था ॥
पर आज समझ में आया है, कि वीतरागता धर्म अहा ।
राग-भाव में धर्म मानना, जिनमत में मिथ्यात्व कहा ॥
वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है ।
यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हमको जो दिखलाती है॥
उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओं ने पहिचाना है ।
उन गुरुवर्यों के चरणों में, मस्तक बस हमें झुकाना है ॥
दिन-रात आत्मा का चिन्तन, मृदु-सम्भाषण में वही कथन ।
निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रगट हो रहा अन्तर्मन ॥
निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो ।
ज्ञानी ध्यानी समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो ॥
चलते फिरते सिद्धों से गुरु, चरणों में शीश झुकाते हैं ।
हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं ॥
हो नमस्कार शुद्धातम को, हो नमस्कार जिनवर वाणी ।
हो नमस्कार उन गुरुओं को, जिनकी चर्या समरससानी ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला महाअर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा

(दोहा)
दर्शन दाता देव हैं, आगम सम्यग्ज्ञान ।
गुरु चारित्र की खानि हैं, मैं वंदों धरि ध्यान ॥
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि)