श्री अरहंत सिद्ध, आचार्योपाध्याय, मुनि साधु महान । जिनवाणी, जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्मदेव नव जान ॥ ये नवदेव परम हितकारी रत्नत्रय के दाता हैं । विध्न विनाशक संकटहर्ता तीन लोक विख्याता हैं ॥ जल फलादि वसु द्रव्य सजाकर हे प्रभु नित्य करूँ पूजन । मंगलोत्तम शरण प्राप्त कर मैं पाऊँ सम्यक्दर्शन ॥ आत्मतत्व का अवलम्बन ले पूर्ण अतीन्द्रिय सुख पाऊँ । नवदेवों की पूजन करके फिर न लौट भव में आऊँ ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
परम भाव जल की धारा से जन्म मरण का नाश करूँ । मिथ्यातम का गर्व चूर कर रवि सम्यक्त्व प्रकाश करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजन्म-जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
परमभाव चंदन के बल से भव आतप का नाश करूँ । अन्धकार अज्ञान मिटाऊँ सम्यक्ज्ञान प्रकाश करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योसंसार-ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव अक्षत के द्वारा अक्षय पद को प्राप्त करूँ । मोह-क्षोभ से रहित बनूँ मैं सम्यक्चारित प्राप्त करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव पुष्पों से दुर्धर काम-भाव को नाश करूँ । तप-संयम की महाशक्ति से निर्मल आत्म प्रकाश करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योकाम-बाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव नैवेद्य प्राप्तकर क्षुधा व्याधि का हास करूँ । पंचाचार आचरण करके परम तृप्त शिववास करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योक्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेध्यं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव मय दिव्य ज्योति से पूर्ण मोह का नाश करूँ । पाप-पुण्य आस्रव विनाशकर केवलज्ञान प्रकाश करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोह-अन्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव मय शुक्लध्यान से अष्टकर्म का नाश करूँ । नित्य-निरंजन शिवपदपाऊँ सिद्धस्वरूप विकास करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअष्ट-कर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव संपत्ति प्राप्त कर मोक्ष भवन में वास करूँ । रत्नत्रय की मुक्ति शिला पर सादि अनंत निवास करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योमहा-मोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव के अर्ध्य चढ़ाऊँ उर अनर्घ पद व्याप्त करूँ । भेदज्ञान रवि हृदय जगाकर शाश्वत जीवन प्राप्त करूँ ॥ पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म । नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअनर्घ पद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) नवदेवों को नमन कर, करूँ आत्म कल्याण । शाश्वत सुख की प्राप्ति हित, करूँ भेद विज्ञान ॥
जय जय पंच परम परमेष्ठी, जिनवाणी जिन धर्म महान । जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, नवदेवों को, नित वन्दूं धर ध्यान ॥
श्री अरहंत देव मंगलमय, मोक्ष मार्ग के नेता हैं । सकल ज्ञेय के ज्ञाता दृष्टा कर्म शिखर के भेत्ता हैं ॥
हैं लोकाग्र शिखर पर सुस्थित सिद्धशिला पर सिद्धअनंत । अष्टकर्म रज से विहीन प्रभु सकल सिद्धदाता भगवंत ॥
हैं छत्तीस गुणों से शोभित श्री आचार्य देव भगवान । चार संघ के नायक ऋषिवर करते सबको शान्ति प्रदान ॥
ग्यारह अंग पूर्व चौदह के ज्ञाता उपाध्याय गुणवन्त । जिन आगम का पठन और पाठन करते हैं महिमावन्त ॥
अठ्ठाईस मूलगूण पालक, ऋषिमुनि साधु परम गुणवान । मोक्षमार्ग के पथिक श्रमण, करते जीवों को करुणादान ॥
स्याद्वादमय द्वादशांग, जिनवाणी है जग कल्याणी । जो भी शरण प्राप्त करता है, हो जाता केवलज्ञानी ॥
जिनमंदिर जिन समवशरणसम, इसकी महिमा अपरम्पार । गंध कुटी में नाथ विराजे, हैं अरहंत देव साकार ॥
जिन प्रतिमा अरहंतों की, नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी । जिन दर्शन से निज दर्शन, हो जाता तत्क्षण ज्ञानमयी ॥
श्री जिनधर्म महा मंगलमय, जीव मात्र को सुख दाता । इसकी छाया में जो आता, हो जाता दृष्टा ज्ञाता ॥
ये नवदेव परम उपकारी, वीतरागता के सागर । सम्यक्दर्शन ज्ञान चरित से, भर देते सबकी गागर ॥
मुझको भी रत्नत्रयनिधि दो, मैं कर्मों का भार हरूं । क्षीणमोह जितराग जितेन्द्रिय, हो भव सागर पार करूँ ॥
सदा-सदा नवदेव शरण पा, मैं अपना कल्याण करूँ । जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ, हे प्रभु पूजन ध्यान करूँ ॥ ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
मंगलोत्तम शरण हैं नव देवता महान । भाव-पूर्ण जिन भक्ति से होता दुख अवसान ॥ (इत्याशिर्वाद ॥पुष्पांजलि क्षिपेत॥)