ढाई द्वीप के भूतकाल में हुए अनंतों तीर्थंकर । वर्तमान में भी होते हैं ढाई द्वीप में तीर्थंकर ॥ अरु भविष्य में भी अनंत तीर्थंकर होंगे मंगलकर । इन सबको वन्दन करता हूँ विनयभाव उर में धर कर ॥ भक्तिभाव से अनन्त तीर्थंकर की करता हूँ पूजन । सकल तीर्थंकर वन्दन कर पाऊँ प्रभु सम्यक् दर्शन ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
(अष्टक -- वीरछंद) रत्नत्रय रूपी सम्यक् जल की धारा उर लाऊँ आज । जन्म जरा मरणादि रोग हर मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी सम्यक् चंदन का तिलक लगाऊँ आज । भवातापज्वर पूर्ण नाश कर मैं भी पाऊँ निज-पद राज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी सम्यक् अक्षत् प्रभु चरण चढ़ाऊँ आज । अक्षयपद की प्राप्ति करूँ प्रभु मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी गुण पुष्पों से निज हृदय सजाऊँ आज । कामबाण की व्यथा विनाशू मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त। विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी अनुभव रसमय चरू चरण चढ़ाऊँ आज । अनाहार सुख प्राप्त करूँ प्रभु मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी दीपक की जग मग ज्योति जगाऊँ आज । मोह तिमिर मिथ्यात्व नष्ट कर मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी स्वध्यानमय धूप हृदय में लाऊँ आज । अष्टकर्म सम्पूर्ण नष्ट कर मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी तरु के फल ज्ञान शक्ति से लाऊँ आज । पूर्ण मोक्षफल प्राप्त करूँ प्रभु मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा
रत्नत्रय रूपी गुण अर्ध्य बनाऊँ प्रभु निज हित के काज । पद अनर्ध्य प्रगटाऊँ शाश्वत मैं भी पाऊँ निज पदराज ॥ भूत विद्य भावी कालों के तीर्थंकर भगवन्त अनन्त । विनय भक्ति से वन्दन करता दुखदायी भव का हो अन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(महाअर्ध्य) (वीरछंद) तीन लोक में मध्य लोक है मध्य लोक में जम्बू द्वीप । द्वितीय धातकीखंड द्वीप है जो भव्यों के सदा समीप ॥ तीजे पुष्कर का है आधा पुष्करार्ध नाम विख्यात । ये ही ढ़ाई द्वीप कहाते पंचमेरू इनमें प्रख्यात ॥
मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदर, विधुन्माली क्रमक्रम । इनके दक्षिण भरत तथा उत्तर में ऐरावत अनुपम ॥ इन पाँचों के पूरब पश्चिम नाम विदेह क्षेत्र विख्यात । इन सबमें तीर्थंकर होते कर्म भूमि हैं ये प्रख्यात ॥
इन सब में पाँचों कल्याणक वाले तीर्थंकर होते । गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष कल्याण ये पाँचों होते ॥ पर विदेह में तीन कल्याणक वाले भी प्रभु होते हैं । तप अरु ज्ञान, मोक्ष कल्याणक वाले जिनवर होते हैं ॥
दो कल्याणक वाले तीर्थंकर भी इनमें होते हैं । ज्ञान और मोक्ष कल्याणक पवित्र इनके होते हैं ॥ अरु भविष्य में भी अनंत तीर्थंकर होंगे इसी प्रकार । स्वयं तिरेंगे अन्यों को भी तारेंगे ले जा भव पार ॥
त्रिकालवर्ती अनंत तीर्थंकर प्र्भुओं को है विनय प्रणाम । नाम अनंतानंत आपके कैसे जपूँ आपके नाम ॥ तीन लोक के सकल तीर्थंकर पूजन का जागा भाव । पूजन का फ़ल यही चाहता मैं भी दुख का करूँ अभाव ॥ (दोहा) महा अर्घ्य अर्पण करूँ तीर्थंकर जिनराज । नमूँ अनंतानंत प्रभु॒ त्रिकालवर्ती आज ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) (छंद-दिग्वधू) रागों की हवेली में रहते आये हो तुम । अतएव अनंते दुख सहते आये हो तुम ॥
मिथ्या भ्रम मद पीकर चहुँगति में भ्रमण किया । भव-पीड़ा हरने को निज ज्ञान न हृदय लिया ॥ भवदुख धारा में ही बहते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
सुख पाना चाहो तो सत्पथ पर आ जाओ । तत्त्वाभ्यास करके निज निर्णय उर लाओ ॥ भव-ज्वाला के भीतर जलते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
पहिले समकित धन लो उर भेद ज्ञान करके । मिथ्यात्व मोह नाशो अज्ञान सर्व हर के ॥ शुभ अशुभ जाल में ही जलते आए हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
फिर अविरति जय करके अणुव्रत धारण करना । फिर तीन चौकडी हर संयम निज उर धरना ॥ बिन व्रत खोटी गति में जाते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
अब दुष्ट प्रमाद नहीं आयेगा जीवन भर । मिल जायेगा तुमको अनुभव रस का सागर ॥ निज अनुभव बिन जग में थमते आए हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
झट धर्म-ध्यान उर धर आगे बढ़ते जाना । उर शुक्ल-ध्यान लेकर श्रेणी पर चढ़ जाना ॥ कर भाव मरण प्रतिपल मरते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
फिर यथाख्यात लेकर घातिया नाश करना । कैवल्य ज्ञान रवि पा सर्वज्ञ स्वपद वरना ॥ निज ज्ञान बिना सुध-बुध खोते आए हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
फिर अघातिया क्षय हित योगों को विनशाना । कर शेष कर्म सब क्षय सिद्धत्व स्वगुण पाना ॥ ध्रुवध्यान बिना भव में भ्रमते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
इस विधि से ही चेतन निज शिव सुख पाओगे । शिव पथ खुलते ही झट शिवपुर में जाओगे ॥ पर घर में रह बहुदुख पाते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
निज मुक्ति-वधु के संग परिणय होगा पावन । पाओगे सौख्य अतुल तुम मोक्ष मध्य प्रतिक्षण ॥ शिवसुख भी भव जल में धोते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ।
लौटोगे फ़िर न कभी ध्रुव सिद्ध-शिला पाकर । ध्रुवधाम राज्य पाकर हो जाओगे शिवकर ॥ अपने अनंत गुण बिन रोते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
आनन्द अतीन्द्रिय की धारा है महामनोज्ञ । सिद्धों समान सब ही प्राणी हैं पूरे योग्य ॥ अपना स्वरूप भूले क्यों बौराये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
निजज्ञान क्रिया से ही मिलता है सिद्ध स्वपद । तब ही त्रिकालवर्ती जिन तजते सकल अपद ॥ निज पद तज पर पद ही भजते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
जितने तीर्थेश हुए सबने पर पद त्यागे । अपने स्वभाव में ही प्रतिपल प्रतिक्षण लागे ॥ अब तक आस्रव को ही ध्याते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
अवसर अपूर्व पाया निज का चिन्तन करलो । तीर्थंकर दर्शन कर सारे बन्धन हरलो ॥ जब भी अवसर आया खोते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
मैं बार-बार क्न्दूँ तीर्षेश अनंतानंत । चहुँगति दुख हर पाऊँ पंचमगति सुख भगवंत । पर के ही गीत सदा गाते आये हो तुम । रागें की हवेली में रहते आये हो तुम ॥
सद्गुरु की सीख सुनो फिर कभी न उलझोगे । बोलो कब चेतोगे कब तक तुम सुलझोगे ॥ कब से कल कल कल कल कहते आये हो तुम । रागों की हवेली में रहते आये हो तुम ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती अनन्त तीर्थंकर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(आशीर्वाद -- वीरछन्द) ढाईद्वीप के मध्य हुए हो रहे तथा होंगे जिनराज । भूत विद्य भावी अनंत तीर्थंकर मैंने पूजे आज ॥ तीर्थंकर प्रभु के चरणों में प्रभु पाऊँ सम्यक् दर्शन । रत्नत्रय को धारण करके नाश करूँ भव के बंधन ॥ (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)