ब्र. श्री रवीन्द्रजी 'आत्मन' कृत (दोहा) शुद्धातम में मगन हो, परमातम पद पाय । भविजन को शुद्धात्मा, उपादेय दरशाय ॥ जाय बसे शिवलोक में, अहो अहो जिनराज । वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, आयो पूजन काज ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री ववीतराग देव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री ववीतराग देव! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
ज्ञानानुभूति ही परमामृत है, ज्ञानमयी मेरी काया । है परम पारिणामिक निष्क्रिय, जिसमें कुछ स्वांग न दिखलाया ॥ मैं देख स्वयं के वैभव को, प्रभुवर अति ही हर्षाया हूँ । अपनी स्वाभाविक निर्मलता, अपने अन्तर में पाया हूँ ॥ थिर रह न सका उपयोग प्रभो, बहुमान आपका आया है । समतामय निर्मल जल ही प्रभु, पूजन के योग्य सुहाया है ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
है सहज अकर्ता ज्ञायक प्रभु, ध्रुव रूप सदा ही रहता है । सागर की लहरों सम जिसमें, परिणमन निरन्तर होता है ॥ हे शान्ति सिन्धु ! अवबोधमयी, अदृभुत तृप्ति उपजाई है । अब चाह दाह प्रभु शमित हुई, शीतलता निज में पाई है ॥ विभु अशरण जग में शरण मिले, बहुमान आपका आया है । चैतन्य सुरभिमय चन्दन ही, पूजन के योग्य सुहाया है ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
अब भान हुआ अक्षय पद का, क्षत् का अभिमान पलाया है । प्रभु निष्कलंक निर्मल ज्ञायक, अविचल अखण्ड दिखलाया है ॥ जहाँ क्षायिक भाव भी भिन्न दिखे, फिर अन्यभाव की कौन कथा । अक्षुण्ण आनन्द निज में विलसे, निःशेष हुई अब सर्व व्यथा ॥ अक्षय स्वरूप दातार नाथ, बहुमान आपका आया है । निरपेक्ष भावमय अक्षत ही, पूजन के योग्य सुहाया है ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
चैतन्य ब्रह्म की अनुभूतिमय, ब्रह्मचर्य रस प्रगटाया । भोगों की अब मिटी वासना, दुर्विकल्प भी नहीं आया ॥ भोगों के तो नाम मात्र से भी, कम्पित मन हो जाता । मानों आयुध से लगते हैं, तब त्राण स्वयं में ही पाता ॥ हे कामजयी निज में रम जाऊँ, यही भावना मन आनी। श्रद्धा सुमन समर्पित जिनवर, कामबुद्धि सब विसरानी ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
निज आत्म अतीन्द्रियरस पीकर, तुम तृप्त हुए त्रिभुवनस्वामी । निज में ही सम्यक दृष्टि की, विधि तुम से सीखी ज़गनामी ॥ अब कर्ता भोक्ता बुद्धि छोड, ज्ञाता रह निज रस पान करूँ । इन्द्रिय विषयों की चाह मिटी, सर्वांग सहज आनन्दित हूँ ॥ निज में ही ज्ञानानन्द मिला, बहुमान आपका आया है । परम तृप्तिमय अकृतबोध ही, पूजन के योग्य सुहाया है ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
मोहान्धकार में भटका था, सम्यक प्रकाश निज में पाया । प्रतिभासित होता हुआ स्वज्ञायक, सहज स्वानुभव में आया ॥ इन्द्रिय बिन सहज निरालम्बी प्रभु, सम्यकज्ञान ज्योति प्रगटी । चिरमोह अंधेरी हे जिनवर, अब तुम समीप क्षण में विघटी ॥ अस्थिर परिणति में हे भगवन ! बहुमान आपका आया है । अविनाशी केवलज्ञान जगे, प्रभु ज्ञानप्रदीप जलाया है ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
निष्क्रिय निष्कर्ष परम ज्ञायक, ध्रुव ध्येय स्वरूप अहो पाया । तब ध्यान अग्नि प्रज्जवलित हुई, विघटी परपरिणति की माया ॥ जागी प्रतीति अब स्वयं सिद्ध, भव भ्रमण भ्रान्ति सब दूर हुई । असंयुक्त निर्बन्ध सुनिर्मल, धर्म परिणति प्रकट हुई ॥ अस्थिरताजन्य विकार मिटे, मैं शरण आपकी हूँ आया । बहुमानभावमय धूप धरूँ, निष्कर्म तत्त्व मैने पाया ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
है परिपूर्ण सहज ही आतम, कमी नहीं कुछ दिखलावे । गुण अनन्त संपन्न प्रभु, जिसकी दृष्टि में आ जावे ॥ होय अयाची लक्ष्मीपति, फिर वांछा ही नहीं उपजावे । स्वात्मोपलब्धिमय मुक्तिदशा का, सत्पुरषार्थ सु प्रगटावै ॥ अफलदृष्टि प्रगटी प्रभुवर, बहुमान आपका आया है । निष्काम भावमय पूजन का, विभु परमभाव फल पाया है ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
निज अविचल अनर्घ्य पद पाया, सहज प्रमोद हुआ भारी । ले भावर्घ्य अर्चना करता, निज अनर्घ्य वैभव धारी । चक्री इंद्रादिक के पद भी, नहीं आकर्षित कर सकते । अखिल विश्व के रम्य भोग भी, मोह नहीं उपजा सकते ॥ निजानन्द में तृप्तिमय ही , होवे काल अनन्त प्रभो! । ध्रुव अनुपम शिव पदवी प्रगटे, निश्चय ही भगवंत अहो ! ॥ ॐ ह्रीं वीतराग देव! अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला --छन्द-चामर) प्रभो आपने एक ज्ञायक बताया, तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥
यही रूप मेरा मुझे आज भाया, महानंद मैंने स्वयं में ही पाया ॥ भव-भव भटकते बहुत काल बीता, रहा आज तक मोह-मदिरा ही पीता ॥ फिरा ढूँढता सुख विषयों के माहीं, मिली किन्तु उनमें असह्य वेदना ही ॥ महाभाग्य से आपको देव पाया, तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥
कहाँ तक कहूँनाथ महिमा तुम्हारी, निधि आत्मा की सु दिखलाई भारी ॥ निधि प्राप्ति की प्रभु सहज विधि बताई, अनादि की पामरता बुद्धि पलाई ॥ परमभाव मुझको सहज ही दिखाया, तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥
विस्मय से प्रभुवर भी तुमको निरखता, महामूढ दुखिया स्वयं को समझता ॥ स्वयं ही प्रभु हूँ दिखे आज मुझको, महा हर्ष मानों मिला मोक्ष ही हो ॥ मैं चिन्मात्र ज्ञायक हूँ अनुभव में आया, तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥
अस्थिरता जन्य प्रभो दोष भारी, खटकती है रागादि परिणति विकारी ॥ विश्वास है शीघ्र ये भी मिटेगी, स्वभाव के सन्मुख यह कैसे टिकेगी ॥ नित्य-निरंजन का अवलम्ब पाया, तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥
दृष्टि हुई आप सम ही प्रभो जब, परिणति भी होगी तुम्हारे ही सम तब ॥ नहीं मुझको चिंता मैं निर्दोष ज्ञायक, नहीं पर से सम्बन्ध मैं ही ज्ञेय ज्ञायक ॥ हुआ दुर्विकल्पों का जिनवर सफाया, तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥
सर्वांग सुखमय स्वयं सिद्ध निर्मल, शक्ति अनन्तमयी एक अविचल ॥ बिन्मूर्ति चिन्मूर्ति भगवान आत्मा, तिहूँजग में नमनीय शाश्वत चिदात्मा ॥ हो अद्वैत वन्दन प्रभो हर्ष छाया, तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा (दोहा) आपही ज्ञायक देव हैं, आप आपका ज्ञेय । अखिल विश्व में आपही, ध्येय ज्ञेय श्रद्धेय ॥ (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् )