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बाहुबली-भगवान
पवैयाजी कृत
जयति बाहुबलि स्वामी, जय जय करूँ वंदना बारम्बार
निज स्वरूप का आश्रय लेकर, आप हुए भवसागर पार ॥
हे त्रैलोक्यनाथ त्रिभुवन में, छाई महिमा अपरम्पार
सिद्धस्वपद की प्राप्ति हो गई, हुआ जगत में जय-जयकार ॥
पूजन करने मैं आया हूँ, अष्ट द्रव्य का ले आधार
यही विनय है चारों गति के, दु:ख से मेरा हो उद्धार ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

उज्ज्वल निर्मल जल प्रभु पद-पंकज में आज चढ़ाता हूँ
जन्म-मरण का नाश करूँ, आनन्दकन्द गुण गाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

शीतल मलय सुगन्धित पावन, चन्दन भेंट चढ़ाता हूँ
भव आताप नाश हो मेरा, ध्यान आपका ध्याता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

उत्तम शुभ्र अखण्डित तन्दुल, हर्षित चरण चढ़ाता हूँ
अक्षयपद की सहज प्राप्ति हो, यही भावना भाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

काम शत्रु के कारण अपना, शील स्वभाव न पाता हूँ
काम भाव का नाश करूँ मैं, सुन्दर पुष्प चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

तृष्णा की भीषण ज्वाला में, प्रतिपल जलता जाता हूँ
क्षुधा-रोग से रहित बनूँ मैं, शुभ नैवेद्य चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोह ममत्व आदि के कारण, सम्यक् मार्ग न पाता हूँ
यह मिथ्यात्व तिमिर मिट जाये, प्रभुवर दीप चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

है अनादि से कर्म बन्ध दु:खमय, न पृथक् कर पाता हूँ
अष्टकर्म विध्वंस करूँ, अत एव सु-धूप चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

सहज भाव सम्पदा युक्त होकर, भी भव दु:ख पाता हूँ
परम मोक्षफल शीघ्र मिले, उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

पुण्य भाव से स्वर्गादिक पद, बार-बार पा जाता हूँ
निज अनर्घ्य पद मिला न अब तक, इससे अर्घ्य चढ़ाता हूँ ॥
श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर चरणों में शीश झुकाता हूँ
अविनश्वर शिव सुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(जयमाला)
आदिनाथ सुत बाहुबलि प्रभु, मात सुनन्दा के नन्दन
चरम शरीरी कामदेव तुम, पोदनपुर पति अभिनन्दन ॥
छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर, भरत चढ़े वृषभाचल पर
अगणित चक्री हुए नाम लिखने को मिला न थल तिल भर ॥

मैं ही चक्री हुआ, अहं का मान धूल हो गया तभी
एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी, लिखी प्रशस्ति स्व हस्त जभी ॥
चले अयोध्या किन्तु नगर में, चक्र प्रवेश न कर पाया
ज्ञात हुआ लघु भ्रात बाहुबलि सेवा में न अभी आया ॥

भरत चक्रवर्ती ने चाहा, बाहुबलि आधीन रहे
ठुकराया आदेश भरत का, तुम स्वतंत्र स्वाधीन रहे ॥
भीषण युद्ध छिड़ा दोनों भाई के मन संताप हुए
दृष्टि-मल्ल-जल युद्ध भरत से करके विजयी आप हुए ॥

क्रोधित होकर भरत चक्रवर्ती, ने चक्र चलाया है
तीन प्रदक्षिणा देकर कर में, चक्र आपके आया है ॥
विजय चक्रवर्ती पर पाकर, उर वैराग्य जगा तत्क्षण
राज्यपाट तज ऋषभदेव के, समवशरण को किया गमन ॥

धिक्-धिक् यह संसार और, इसकी असारता को धिक्कार
तृष्णा की अनन्त ज्वाला में, जलता आया है संसार ॥
जग की नश्वरता का तुमने, किया चिंतवन बारम्बार
देह भोग संसार आदि से, हुई विरक्ति पूर्ण साकार ॥

आदिनाथ प्रभु से दीक्षा ले, व्रत संयम को किया ग्रहण
चले तपस्या करने वन में, रत्नत्रय को कर धारण ॥
एक वर्ष तक किया कठिन तप, कायोत्सर्ग मौन पावन
किन्तु शल्य थी एक हृदय में, भरत-भूमि पर है आसन ॥

केवलज्ञान नहीं हो पाया, एक शल्य ही के कारण
परिषह शीत ग्रीष्म वर्षादिक, जय करके भी अटका मन ॥
भरत चक्रवर्ती ने आकर, श्री चरणों में किया नमन
कहा कि वसुधा नहीं किसी की, मान त्याग दो हे भगवन् ॥

तत्क्षण शल्य विलीन हुई, तुम शुक्ल ध्यान में लीन हुए
फिर अन्तर्मुहूर्त में स्वामी, मोह क्षीण स्वाधीन हुए ॥
चार घातिया कर्म नष्ट कर, आप हुए केवलज्ञानी
जय जयकार विश्व में गूँजा, सारी जगती मुसकानी ॥

झलका लोकालोक ज्ञान में, सर्व द्रव्य गुण पर्यायें
एक समय में भूत भविष्यत्, वर्तमान सब दर्शायें ॥
फिर अघातिया कर्म विनाशे, सिद्ध लोक में गमन किया
अष्टापद से मुक्ति हुई, तीनों लोकों ने नमन किया ॥

महा मोक्ष फल पाया तुमने, ले स्वभाव का अवलंबन
हे भगवान बाहुबलि स्वामी, कोटि-कोटि शत-शत वंदन ॥
आज आपका दर्शन करने, चरण-शरण में आया हूँ
शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको, यही भाव भर लाया हूँ ॥

भाव शुभाशुभ भव निर्माता, शुद्ध भाव का दो प्रभु दान
निज परिणति में रमण करूँ प्रभु, हो जाऊँ मैं आप समान ॥
समकित दीप जले अन्तर में, तो अनादि मिथ्यात्व गले
राग-द्वेष परिणति हट जाये, पुण्य पाप सन्ताप टले ॥

त्रैकालिक ज्ञायक स्वभाव का, आश्रय लेकर बढ़ जाऊँ
शुद्धात्मानुभूति के द्वारा, मुक्ति शिखर पर चढ़ जाऊँ ॥
मोक्ष-लक्ष्मी को पाकर भी, निजानन्द रस लीन रहूँ
सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊँ, सदा सुखी स्वाधीन रहूँ ॥

आज आपका रूप निरख कर, निज स्वरूप का भान हुआ
तुम-सम बने भविष्यत् मेरा, यह दृढ़ निश्चय ज्ञान हुआ
हर्ष विभोर भक्ति से पुलकित, होकर की है यह पूजन
प्रभु पूजन का सम्यक् फल हो, कटें हमारे भव बंधन ॥

चक्रवर्ति इन्द्रादिक पद की नहीं कामना है स्वामी
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम पद पायें हे! अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

घर-घर मंगल छाये जग में वस्तु स्वभाव धर्म जानें
वीतराग विज्ञान ज्ञान से, शुद्धातम को पहिचानें ॥
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)