ब्र.श्री रविन्द्र जी 'आत्मन्' कृत हे बाहुबली! अद्भुत अलौकिक, ज्ञान मुद्रा राजती । प्रत्यक्ष दिखता आत्मप्रभुता, शील महिमा जागती ॥ तुम भक्तिवश वाचाल हो गुणगान प्रभुवर मैं करूँ । निरपेक्ष हो पर से सहज पूजूँ स्वपद दृष्टि धरूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
स्वयंसिद्ध सुख निधान आत्मदृष्टि लायके, जन्म-मरण नाशि हों मोह को नशायिके । बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
कल्पना, अनिष्ट-इष्ट की तजूँ अज्ञानमय, परिणति प्रवाहरूप होय शान्त ज्ञानमय ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
पराभिमान त्याग के, सु भेदज्ञान भायके, लहूँ विभव सु अक्षयं, निजात्म में रमाय के ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा
छोड़ भोग रोग सम सु ब्रह्मरूप ध्याऊँगा, काम हो समूल नष्ट सुख-अनंत पाऊँगा ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
तोषसुधा पान करूँ आशा तृष्णा त्याग के, मग्न स्वयं में ही रहूँ चित्स्वरूप भाय के ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
चेतना प्रकाश में चित् स्वरूप अनुभवूँ, पाऊँगा कैवल्यज्योति कर्म घातिया दलूँ ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
आत्म ध्यान अग्नि में विभाव सर्व जारीहों, देव आपके समान सिद्ध रूप धारि हों ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
इन्द्र चक्रवर्ति के भी पद अपद नहीं चहूँ, त्रिकाल मुक्त पद अराध मुक्तपद लहूँ लहूँ ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अनर्घ्य प्रभुता आपकी सु आप में निहारिके, नाथ भाव माँहिं में, अनर्घ्य अर्घ्य धारिके ॥ बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूँ सु अर्चना, तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जोगीरासा) अहो बाहुबलि स्वामी पाऊँ, सहज आत्मबल ऐसा । निर्मम होकर साधूँ निजपद, नाथ आप ही जैसा ॥ धन्य सुनन्दा के नन्दन प्रभु, स्वाभिमान उर धारा । चक्री को नहिं शीस झुकाया, यद्यपि अग्रज प्यारा ॥
कर्मोदय की अद्भुत लीला, युद्ध प्रसंग पसारा । युद्ध क्षेत्र में ही विरक्त हो, तुम वैराग्य विचारा ॥ कामदेव होकर भी प्रभु, निष्काम तत्त्व आराधा । प्रचुर विभव, रमणीय भोग भी, कर न सके कुछ बाधा ॥
विस्मय से सब रहे देखते, क्षमा भाव उर धारे । जिनदीक्षा ले शिवपद पाने, वन में आप पधारे ॥ वस्त्राभूषण त्यागे लख निस्सार, हुए अविकारी । केशलौंच कर आत्म -मग्न हो, सहज साधुव्रत धारी ॥
हुए आत्म-योगीश्वर अद्भुत, आसन अचल लगाया । नहिं आहार-विहार सम्बन्धी, कुछ विकल्प उपजाया ॥ चरणों में बन गई वाँमि, चढ़ गई सु तन पर बेलें । तदपि मुनीश्वर आनन्दित हो, मुक्तिमार्ग में खेलें ॥
नित्यमुक्त निर्ग्रन्थ ज्ञान-आनन्दमयी शुद्धात्म । अखिल विश्व में ध्येय एक ही, निज शाश्वत परमातम ॥ निजानन्द ही भोग नित्य, अविनाशी वैभव अपना । सारभूत है, व्यर्थ ही मोही, देखे झूठा सपना ॥
यों ही चिंतन चले हृदय में, आप वर्तते ज्ञाता । क्षण-क्षण बढ़ती भाव-विशुद्धि, उपशमरस छलकाता ॥ एक वर्ष छद्मस्थ रहे प्रभु, हुआ न श्रेणी रोहण । चक्री शीश नवाया तत्क्षण, हुआ सहज आरोहण ॥
नष्ट हुआ अवशेष राग भी, केवल-लक्ष्मी पाई । अहो अलौकिक प्रभुता निज की, सब जग को दरशाई ॥ हुए अयोगी अल्प समय में, शेष कर्म विनशाए । ऋषभदेव से पहले ही प्रभु, सिद्ध शिला तिष्ठाए ॥
आप समान आत्मदृष्टि धर, हम अपना पद पावें । भाव नमन कर प्रभु चरणों में, आवागमन मिटावें ॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णांर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(सोरठा) बाहुबली भगवान, दर्शाया जग स्वार्थमय । जागे आत्मज्ञान, शिवानन्द मैं भी लहूँ ॥ (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)