(पंचकल्याणक अर्घ्यावली) सुसावन की दशमी कलि जान, तज्यो सरवारथसिद्ध विमान भयो गरभागम मंगल सार, जजें हम श्री पद अष्ट प्रकार ॥ ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा महा बैशाख सु एकम शुद्ध, भयो तब जनम तिज्ञान समृद्ध कियो हरि मंगल मंदिर शीस, जजें हम अत्र तुम्हें नुतशीश ॥ ॐ ह्रीं वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा तज्यो षटखंड विभौ जिनचंद, विमोहित चित्त चितार सुछंद धरे तप एकम शुद्ध विशाख, सुमग्न भये निज आनंद चाख ॥ ॐ ह्रीं वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा सुदी तिय चैत सु चेतन शक्त, चहूं अरि छयकरि तादिन व्यक्त भई समवसृत भाखि सुधर्म, जजौं पद ज्यों पद पाइय पर्म ॥ ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा सुदी वैशाख सु एकम नाम, लियो तिहि द्यौस अभय शिवधाम जजे हरि हर्षित मंगल गाय, समर्चतु हौं तुहि मन-वच-काय ॥ ॐ ह्रीं वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) षट खंडन के शत्रु राजपद में हने, धरि दीक्षा षटखंडन पाप तिन्हें दने ॥ त्यागि सुदरशन चक्र धरम चक्री भये, करमचक्र चकचूर सिद्ध दिढ़ गढ़ लये ॥ ऐसे कुंथु जिनेश तने पद पद्म को, गुन अनंत भंडार महा सुख सद्म को ॥ पूजूं अरघ चढ़ाय पूरणानंद हो, चिदानंद अभिनंद इन्द्रगन-वंद हो ॥
जय जय जय जय श्रीकुंथुदेव, तुम ही ब्रह्मा हरि त्रिंबुकेव जय बुद्धि विदाँवर विष्णु ईश, जय रमाकांत शिवलोक शीश ॥ जय दया धुरंधर सृष्टिपाल, जय जय जगबंधु सुगुनमाल सरवारथसिद्धि विमान छार, उपजे गजपुर में गुन अपार ॥
सुरराज कियो गिर न्हौन जाय, आंनद-सहित जुत-भगति भाय पुनि पिता सौंपि कर मुदितअंग, हरि तांडव-निरत कियो अभंग ॥ पुनि स्वर्ग गयो तुम इत दयाल, वय पाय मनोहर प्रजापाल षटखंड विभौ भोग्यो समस्त, फिर त्याग जोग धार्यो निरस्त ॥
तब घाति घात केवल उपाय, उपदेश दियो सब हित जिनाय जा के जानत भ्रम-तम विलाय, सम्यक् दर्शन निर्मल लहाय ॥ तुम धन्य देव किरपा-निधान, अज्ञान-क्षमा-तमहरन भान जय स्वच्छ गुनाकर शुक्त सुक्त, जयस्वच्छ सुखामृत भुक्तिमुक्त ॥
जय भौभयभंजन कृत्यकृत्य, मैं तुमरो हौं निज भृत्य भृत्य प्रभु असरन शरन अधार धार, मम विघ्न-तूलगिरि जारजार ॥ जय कुनय यामिनी सूर सूर, जय मन वाँछित सुख पूर पूर मम करमबंध दिढ़ चूर चूर, निजसम आनंद दे भूर भूर ॥
अथवा जब लों शिव लहौं नाहिं, तब लों ये तो नित ही लहाहिं भव भव श्रावक-कुल जनमसार, भवभव सतमति सतसंग धार ॥ भव भव निजआतम-तत्त्वज्ञान, भव-भव तपसंयमशील दान भव-भव अनुभव नित चिदानंद, भव-भव तुमआगम हे जिनंद ॥
भव-भव समाधिजुत मरन सार, भव-भव व्रत चाहौं अनागार यह मो कों हे करुणा निधान, सब जोग मिले आगम प्रमान ॥ जब लों शिव सम्पति लहौं नाहिं, तबलों मैं इनको नित लहाँहि यह अरज हिये अवधारि नाथ, भवसंकट हरि कीजे सनाथ ॥ (धत्ता) जय दीनदयाला, वरगुनमाला, विरदविशाला सुख आला मैं पूजौं ध्यावौं शीश नमावौं, देहु अचल पद की चाला ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
कुंथु जिनेसुर पाद पदम जो प्रानी ध्यावें अलिसम कर अनुराग, सहज सो निज निधि पावें ॥ जो बांचे सरधहें, करें अनुमोदन पूजा 'वृन्दावन' तिंह पुरुष सदृश, सुखिया नहिं दूजा ॥ (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)