जय शुद्ध चिदातम देव एव, निरदोष सुगुन यह सहज टेव जय भ्रमतम भंजन मारतंड, भवि भवदधि तारन को तरंड ॥ जय गरभ जनम मंडित जिनेश, जय छायक समकित बुद्धभेस चौथे किय सातों प्रकृतिछीन, चौ अनंतानु मिथ्यात तीन ॥
सातंय किय तीनों आयु नास, फिर नवें अंश नवमें विलास तिन माहिं प्रकृति छत्तीस चूर, या भाँति कियो तुम ज्ञानपूर ॥ पहिले महं सोलह कहँ प्रजाल, निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचाल हनि थानगृद्धि को सकल कुब्ब, नर तिर्यग्गति गत्यानुपुब्ब ॥
इक बे ते चौ इन्द्रीय जात, थावर आतप उद्योत घात ॥ सूच्छम साधारन एक चूर, पुनि दुतिय अंश वसु कर्यो दूर चौ प्रत्याप्रत्याख्यान चार, तीजे सु नपुंसक वेद टार ॥ चौथे तियवेद विनाशकीन, पांचें हास्यादिक छहों छीन
नर वेद छठें छय नियत धीर, सातयें संज्ज्वलन क्रोध चीर ॥ आठवें संज्ज्वलन मान भान, नवमें माया संज्ज्वलन हान इमि घात नवें दशमें पधार, संज्ज्वलन लोभ तित हू विदार ॥ पुनि द्वादशके द्वय अंश माहिं, सोलह चकचूर कियो जिनाहिं
निद्रा प्रचला इक भाग माहिं, दुति अंश चतुर्दश नाश जाहिं ॥ ज्ञानावरनी पन दरश चार, अरि अंतराय पांचो प्रहार ॥ इमि छय त्रेशठ केवल उपाय, धरमोपदेश दीन्हों जिनाय नव केवललब्धि विराजमान, जय तेरमगुन तिथि गुनअमान ॥
गत चौदहमें द्वै भाग तत्र, क्षय कीन बहत्तर तेरहत्र वेदनी असाता को विनाश, औदारि विक्रियाहार नाश ॥ तैजस्य कारमानों मिलाय, तन पंच पंच बंधन विलाय संघात पंच घाते महंत, त्रय अंगोपांग सहित भनंत ॥
अन आदर और अजस्य कित्त, निरमान नीचे गोतौ विचित्त ये प्रथम बहत्तर दिय खपाय, तब दूजे में तेरह नशाय ॥ पहले सातावेदनी जाय, नर आयु मनुषगति को नशाय मानुष गत्यानु सु पूरवीय, पंचेंद्रिय जात प्रकृति विधिय ॥
त्रसवादर पर्जापति सुभाग, आदरजुत उत्तम गोत पाग जसकीरती तीरथप्रकृति जुक्त, ए तेरह छयकरि भये मुक्त ॥ जय गुनअनंत अविकार धार, वरनत गनधर नहिं लहत पार ताकों मैं वंदौं बार बार, मेरी आपत उद्धार धार ॥
सम्मेदशैल सुरपति नमंत, तब मुकतथान अनुपम लसंत 'वृन्दावन' वंदत प्रीति-लाय, मम उर में तिष्ठहु हे जिनाय ॥ (धत्ता) जय जय जिनस्वामी, त्रिभुवननामी, मल्लि विमल कल्यानकरा भवदंदविदारन आनंद कारन, भविकुमोद निशिईश वरा ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जजें हैं जो प्रानी दरब अरु भावादि विधि सों, करैं नाना भाँति भगति थुति औ नौति सुधि सों लहै शक्री चक्री सकल सुख सौभाग्य तिनको, तथा मोक्ष जावे जजत जन जो मल्लिजिन को ॥ (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)