(पंचकल्याणक अर्घ्यावली) असित दोज आषाढ़ सुहावनो, गरभ मंगल को दिन पावनो हरि सची पितुमातहिं सेवही, जजत हैं हम श्री जिनदेव ही ॥ ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णा द्वितीयादिने गर्भमगंलप्राप्ताय श्री वृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा असित चैत सु नौमि सुहाइयो, जनम मंगल ता दिन पाइयो हरि महागिरिपे जजियो तबै, हम जजें पद पंकज को अबै ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने जन्ममगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा असित नौमि सु चैत धरे सही, तप विशुद्ध सबै समता गही निज सुधारस सों भर लाइके, हम जजें पद अर्घ चढ़ाइके ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने दीक्षामगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा असित फागुन ग्यारसि सोहनों, परम केवलज्ञान जग्यो भनौं हरि समूह जजें तहँ आइके, हम जजें इत मंगल गाइके ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा असित चौदसि माघ विराजई, परम मोक्ष सुमंगल साजई हरि समूह जजें कैलाशजी, हम जजें अति धार हुलास जी ॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णा चतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा (जयमाला) (धत्ता) जय जय जिनचन्दा आदि जिनन्दा, हनि भवफन्दा कन्दा जू वासव शतवंदा धरि आनन्दा, ज्ञान अमंदा नन्दा जू
त्रिलोक हितंकर पूरन पर्म, प्रजापति विष्णु चिदातम धर्म जतीसुर ब्रह्मविदांबर बुद्ध, वृषंक अशंक क्रियाम्बुधि शुद्ध जबै गर्भागम मंगल जान, तबै हरि हर्ष हिये अति आन पिता जननी पद सेव करेय, अनेक प्रकार उमंग भरेय ॥
जन्मे जब ही तब ही हरि आय, गिरेन्द्र विषैं किय न्हौन सुजाय नियोग समस्त किये तित सार, सु लाय प्रभू पुनि राज अगार पिता कर सौंपि कियो तित नाट, अमंद अनंद समेत विराट सुथान पयान कियो फिर इंद, इहां सुर सेव करें जिनचन्द
कियौ चिरकाल सुखाश्रित राज, प्रजा सब आनँद को तित साज सुलिप्त सुभोगिनि में लखि जोग, कियो हरि ने यह उत्तम योग निलंजन नाच रच्यो तुम पास, नवों रस पूरित भाव विलास बजै मिरदंग दृम दृम जोर, चले पग झारि झनांझन जोर
प्रबोध प्रभू सु गये निज धाम, तबे हरि आय रची शिवकाम कियो कचलौंच प्रयाग अरण्य, चतुर्थम ज्ञान लह्यो जग धन्य धर्यो तब योग छमास प्रमान, दियो श्रेयांस तिन्हें इखु दान भयो जब केवलज्ञान जिनेंद्र, समोसृत ठाठ रच्यो सु धनेंद्र
तहां वृष तत्त्व प्रकाशि अशेष, कियो फिर निर्भय थान प्रवेश अनन्त गुनातम श्री सुखराश, तुम्हें नित भव्य नमें शिव आश (धत्ता) यह अरज हमारी सुन त्रिपुरारी, जन्म जरा मृतु दूर करो शिवसंपति दीजे ढील न कीजे, निज लख लीजे कृपा धरो ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जो ऋषभेश्वर पूजे, मनवचतन भाव शुद्ध कर प्रानी सो पावै निश्चै सों, भुक्ति औ मुक्ति सार सुख थानी (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)