सुरकृत दशचार करों बखान, सब जीवमित्रता भाव जान कंटक विन दर्पणवत सुभूम, सब धान वृच्छ फल रहै झूम षटरितु के फूल फले निहार, दिशि निर्मल जिय आनन्द धार जंह शीतल मंद सुगंध वाय, पद पंकज तल पंकज रचाय
मलरहित गगन सुर जय उचार, वरषा गन्धोदक होत सार वर धर्मचक्र आगे चलाय, वसु मंगलजुत यह सुर रचाय सिंहासन छत्र चमर सुहात, भामंडल छवि वरनी न जात तरु उच्च अशोक रु सुमनवृष्टि, धुनि दिव्य और दुन्दुभि सुमिष्ट
दृग ज्ञान चर्ण वीरज अनन्त, गुण छियालीस इम तुम लहन्त इन आदि अनन्ते सुगुनधार, वरनत गनपति नहिं लहत पार तब समवशरणमँह इन्द्र आय, पद पूजन बसुविधि दरब लाय अति भगति सहित नाटक रचाय, ताथेई थेई थेई धुनि रही छाय
पुनि वन्दि इन्द्र सुनुति करन्त, तुम हो जगमें जयवन्त सन्त फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग निरोध्यो परम इष्ट सम्मेदथकी तिय मुकति थान, जय सिद्धशिरोमन गुननिधान 'वृन्दावन' वन्दत बारबार, भवसागरतें मोहि तार तार (धत्ता) जय अजित कृपाला गुणमणिमाला, संजमशाला बोधपति वर सुजस उजाला हीरहिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जो जन अजित जिनेश जजें हैं, मनवचकाई ताकों होय अनन्द ज्ञान सम्पति सुखदाई ॥ पुत्र मित्र धनधान्य, सुजस त्रिभुवनमहँ छावे सकल शत्रु छय जाय अनुक्रमसों शिव पावे (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)