(छंद इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा) आठैं वदी चैत सुगर्भ मांही, आये प्रभू मंगलरुप थाहीं सेवै शची मातु अनेक भेवा, चर्चौं सदा शीतलनाथ देवा ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाऽष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा श्री माघ की द्वादशि श्याम जायो, भूलोक में मंगल सार आयो शैलेन्द्र पै इन्द्र फनिन्द्र जज्जे, मैं ध्यान धारौं भवदुःख भज्जे ॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा श्री माघ की द्वादशि श्याम जानो, वैराग्य पायो भवभाव हानो ध्यायो चिदानन्द निवार मोहा, चर्चौं सदा चर्न निवारि कोहा ॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा चतुर्दशी पौष वदी सुहायो, ताही दिना केवल लब्धि पायो शोभै समोसृत्य बखानि धर्मं, चर्चों सदा शीतल पर्म शर्मं ॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां केवल ज्ञानमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा कुवार की आठैं शुद्ध बुद्धा, भये महा मोक्ष सरुप शुद्धा सम्मेद तें शीतलनाथ स्वामी, गुनाकरं ता सु पदं नमामी ॥ ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाऽष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) आप अनंत गुनाकर राजे, वस्तुविकाशन भानु समाजे मैं यह जानि गही शरना है, मोह महारिपु को हरना है (दोहा) हेम वरन तन तुंग धनु-नव्वै अति अभिराम सुर तरु अंक निहारि पद, पुनि पुनि करौं प्रणाम जय शीतलनाथ जिनन्द वरं, भव दाह दवानल मेघझरं दुख-भुभृत-भंजन वज्र समं, भव सागर नागर-पोत-पमं ॥
कुह-मान-मयागद-लोभ हरं, अरि विघ्न गयंद मृगिंद वरं वृष-वारिधवृष्टन सृष्टिहितू, परदृष्टि विनाशन सुष्टु पितू ॥ समवस्रत संजुत राजतु हो, उपमा अभिराम विराजतु हो वर बारह भेद सभा थित को, तित धर्म बखानि कियो हित को ॥
पहले महि श्री गणराज रजैं, दुतिये महि कल्पसुरी जु सजैं त्रितिये गणनी गुन भूरि धरैं, चवथे तिय जोतिष जोति भरैं ॥ तिय-विंतरनी पन में गनिये, छह में भुवनेसुर तिय भनिये भुवनेश दशों थित सत्तम हैं, वसु-विंतर विंतर उत्तम हैं ॥
नव में नभजोतिष पंच भरे, दश में दिविदेव समस्त खरे नरवृन्द इकादश में निवसें, अरु बारह में पशु सर्व लसें ॥ तजि वैर, प्रमोद धरें सब ही, समता रस मग्न लसें तब ही धुनि दिव्य सुनें तजि मोहमलं, गनराज असी धरि ज्ञानबलं ॥
सबके हित तत्त्व बखान करें, करुना-मन-रंजित शर्म भरें वरने षटद्रव्य तनें जितने, वर भेद विराजतु हैं तितने ॥ पुनि ध्यान उभै शिवहेत मुना, इक धर्म दुती सुकलं अधुना तित धर्म सुध्यान तणों गुनियो, दशभेद लखे भ्रम को हनियो ॥
पहलोरि नाश अपाय सही, दुतियो जिन बैन उपाया गही त्रिति जीवविषैं निजध्यावन है, चवथो सु अजीव रमावन है ॥ पनमों सु उदै बलटारन है, छहमों अरि-राग-निवारन है भव त्यागन चिंतन सप्तम है, वसुमों जितलोभ न आतम है ॥