शांति जिनेश्वर हे परमेश्वर परमशान्त मुद्रा अभिराम । पंचम चक्री शान्ति सिन्धु सोलहवें तीर्थंकर सुखधाम ॥ निजानन्द में लीन शांति नायक जग गुरु निश्चल निष्काम । श्री जिन दर्शन पूजन अर्चन वंदन नित प्रति करुं प्रणाम ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
जल स्वभाव शीतल मलहारी आत्म स्वभाव शुद्ध निर्मल । जन्म मरण मिट जाये प्रभु जब जागे निजस्वभाव का बल ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
शीतल चंदन गुण सुगन्धमय निज स्वभाव हो अति ही शीतल । पर विभाव का ताप मिटाता निज स्वरूप का अंतर्बल ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
भव अटवी से निकल न पाया पर पदार्थ में अटका मन । यह संसार पार करने का निज स्वभाव ही है साधन ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
कोमल पृष्प मनोरम जिनमें राग आग की दाह प्रबल । निज स्वरूप की महाशक्ति से काम व्यथा होती निर्बल ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
उर की क्षुधा मिटाने वाला यह चरु तो दुखदायक है । इच्छाओं की भूख मिटाता निज स्वभाव सुखदायक है ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्धकार में भ्रमते-भ्रमते भव-भव में दुख पाया है । निजस्वरूप के ज्ञानभानु का उदय न अब तक आया है ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
इष्ट-अनिष्ट संयोगों में ही अब तक सुख-दुख माना है । पूर्णत्रिकाली ध्रुवस्वभाव का बल न कभी पहचाना है ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
शुद्धभाव पीयूष त्यागकर पर को अपना मान लिया । पुण्य फलों में रूचि करके अब तक मैनें विषपान किया ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अविनश्वर अनुपम अनर्घपद सिद्ध स्वरूप महा सुखकार । मोक्ष भवन निर्माता निज चैतन्य राग नाशक अघहार ॥ परम शांति सुखदायक शांतिविधायक शांतिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(पंचकल्याणक अर्घ्यावली) भादव कृष्ण सप्तमी के दिन तज सर्वार्थ सिद्धि आये । माता ऐरा धन्य हो गयी विश्वसेन नृप हरषाये ॥ छप्पन दिक्कुमारियों ने नित नवल गीत मंगल गाये । शांतिनाथ के गर्भोत्सव पर रत्न इन्द्र ने बरसाये ॥ ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णा सप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
नगर हस्तिनापुर में जन्में त्रिभुवन में आनन्द हुआ । ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को सुरगिरि पर अभिषेक हुआ ॥ मंगल वाद्य नृत्य गीतों से गूंज उठा था पाण्डुक वन । हुआ जन्म कल्याण महोत्सव शांतिनाथ प्रभु का शुभ दिन ॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
मेघ विलय लख इस जग की अनित्यता का प्रभुभान लिया । लौकांतिक देवों ने आकर धन्य-धन्य जयगान किया ॥ कृष्ण चतुर्दशी ज्येष्ठ मास की अतुलित वैभव त्याग दिया । शांतिनाथ ने मुनिव्रत धारा शुद्धातम अनुराग किया ॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
पौष शुक्ल दशमी को चारों घातिकर्म चकचूर किये । पाया केवलज्ञान जगत के सारे संकट दूर किये ॥ समवशरण रचकर देवों ने किया ज्ञान कल्याण महान । शांतिनाथ प्रभु की महिमा का गूंजा जग में जय-जयगान ॥ ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को प्राप्त किया सिद्धत्व महान । कूट कुन्दप्रभु गिरि सम्मेद शिखर से पाया पद निर्वाण ॥ सादि अनन्त सिद्ध पद को प्रगटाया प्रभु ने धर निज-ध्यान । जय-जयशांतिनाथ जगदीश्वर अनुपम हुआ मोक्ष-कल्याण ॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) शान्तिनाथ शिवनायक शांति विधायक शुचिमय शुद्धात्मा । शुभ्र-मूर्ति शरणागत वत्सल शील स्वभावी शांतात्मा ॥ नगर हस्तिनापुर के अधिपति विश्वसेन नृप के नन्दन । माँ ऐरा के राज दुलारे सुर नर मुनि करते वन्दन ॥
कामदेव बारहवें पंचम चक्री तीन ज्ञान धारी । बचपन में अणुव्रत धर यौवन में पाया वैभव भारी ॥ भरतक्षेत्र के षट-खण्डों को जयकर हुए चक्रवर्ती । नव निधि चौदह रत्न प्राप्त कर शासक हुए न्यायवर्ती ॥
इस जग के उत्कृष्ट भोग भोगते बहुत जीवन बीता । एक दिवस नभ में घन का परिवर्तन लख निज मन रीता ॥ यह संसार असार जानकर तप धारण का किया विचार । लौकांतिक देवर्षि सुरों ने किया हर्ष से जय जयकार ॥
वन में जाकर दीक्षा धारी पंच-मुष्टि कचलोंच किया । चक्रवर्ती की अतुल सम्पदा क्षण में त्याग विराग लिया ॥ मन्दिरपुर के नृप सुमित्र ने भक्ति-पूर्वक दान दिया । प्रभुकर में पय धारा दे भव सिंधु सेतु निर्माण किया ॥
उग्र तपश्या से तुमने कर्मों की कर निर्जरा महान । सोलह वर्ष मौन तप करके ध्याया शुद्धातम का ध्यान ॥ श्रेणी क्षपक चढ़े स्वामी केवलज्ञानी सर्वज्ञ हुए । दिव्यध्वनि से जीवों को उपदेश दिया विश्वज्ञ हुए ॥
गणधर थे छत्तीस आपके चक्रायुद्ध पहले गणधर । मुख्य आर्यिका हरिषेणा थी श्रोता पशु नर सुर मुनिवर ॥ कर विहार जग में जगती के जीवों का कल्याण किया । उपादेय है शुद्ध आत्मा यह सन्देश महान दिया ॥
पाप-पुण्य शुभ-अशुभ आम्रव जग में भ्रमण कराते हैं । जो संवर धारण करते हैं परम मोक्ष-पद पाते हैं ॥ सात-तत्त्व की श्रद्धा करके जो भी समकित धरते हैं । रत्नत्रय का अवलम्बन ले मुक्तिवधु को वरते हैं ॥
सम्मेदाचल के पावन पर्वत पर आप हुए आसीन । कूट कुन्दप्रभ से अधातिया कर्मों से भी हुए विहीन ॥ महामोक्ष निर्वाण प्राप्तकर गुण अनन्त से युक्त हुए । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध सिद्ध॒पद पाया भव से मुक्त हुए ॥
हे प्रभु शांतिनाथ मंगलमय मुझको भी ऐसा वर दो । शुद्ध आत्मा की प्रतीति मेरे उर में जाग्रत कर दो ॥ पाप ताप संताप नष्ट हो जाये सिद्ध स्वपद पाऊँ । पूर्ण शांतिमय शिव-सुख पाकर फिर न लौट भव में आऊँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चरणों में मृग चिन्ह सुशोभित शांति जिनेश्वर का पूजन । भक्ति भाव से जो करते हैं वे पाते हैं मुक्ति गगन ॥ (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)