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श्रीशांतिनाथ-पूजन
(श्री वृन्दावनदासजी कृत)
छन्द मत्तगयन्द
या भव कानन में चतुरानन, पाप पनानन घेरी हमेरी
आतम जानन मानन ठानन, बान न होन दई सठ मेरी ॥
तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आनन टेरी
आन गही शरनागत को, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी ॥
अन्वयार्थ : हे [चतुरानन] चार मुख भगवन ! इस संसार रुपी जंगल में [पनानान] पाँच मुख वाले पाप रुपी सिंह ने हमे घेर लिया है इसलिए [जानन] मैं आत्मा को नहीं जान (सम्यग्ज्ञान) पाया, [मानन] नहीं मान (सम्यग्दर्शन) पाया और [ठानन] नहीं उसमे (सम्यक चारित्र) स्थित हो पाया (पांच पापों के कारण रत्नत्रय धारण नहीं कर सका) । इस दुष्ट ने मेरी कोई भी बात होने नहीं दी; उसके घमंड को नष्ट करने वाले मात्र आप ही है, यह मैंने भली प्रकार जान लिया कि अन्य कोई है नहीं इसलिए मैं आपकी शरण में आकर पुकार लगा रहा हूँ । मैंने आपकी शरण प्राप्त कर ली है, हे भगवान् अब मेरी लाज रखना ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

(छन्द त्रिभंगी)
हिमगिरि गतगंगा, धार अभंगा, प्रासुक संगा, भरि भृंगा
जर-जनम-मृतंगा, नाशि अघंगा, पूजि पदंगा मृदु हिंगा ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : हिमवन् पर्वत से निकली हुई गंगा नदी की निरंतर धारा के बीच से जल लेकर, वस्त्र से छान कर, प्रासुक कर झारी में भरकर; बुढ़ापे, जन्म और मृत्यु और पापों को नष्ट करने के लिए आपके कोमल चरणो की पूजा करता हूँ । हे शांतिनाथ भगवान ! आप तीर्थंकर जिनेन्द्र हैं, [नक्रेश] इन्द्रों द्वारा [नुत] वंदित हैं, धर्म चक्र के स्वामी हैं, [चक्रेश] चक्रवर्ती हैं, अष्टकर्म शत्रुओं के समूह को आपने नष्ट कर लिया है, [गुणधेश] गुणों के स्वामी है, [दया ऽमृतेशं] दया रुपी अमृत के स्वामी, [मक्रेश] कामदेव हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

वर बावन चन्दन, कदली नन्दन, घन आनन्दन सहित घसौं
भवताप निकन्दन, ऐरानन्दन, वंदि अमंदन, चरन बसौं ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : श्रेष्ठ उत्कृष्ट चंदन और कपूर को अत्यंत आनद पूर्वक संसार के ताप (दुखों) को नष्ट करने के लिए घिसा है, हे ऐरा माता के पुत्र ! मैं तीव्र भक्तिपूर्वक आपके चरणों में ठहरा (बसूँ) रहूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत अच्छत जज्जत, भरि थारी
दुखदारिद गज्जत, सदपद सज्जत, भवभय भज्जत, अतिभारी ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : आपकी पूजा के लिए भगवान् मैं चन्द्रमा को लज्जित करने वाले चंदन से सुगंधित अक्षत से थाली भरकर, दुःख और दरिद्रता को नाश करने के लिए लाया हूँ । आप श्रेष्ठपद को सुशोभित करने वाले, संसार के भय को नष्ट करने वाले सर्व श्रेष्ठ हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

मंदार, सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं
भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : मंदार, कमल और केले के फूलों के पुंजों को चन्दन से भरकर सोने की थाली में, काम को नष्ट करने वाले, अत्यंत धीरज धारक, आपके समक्ष चढ़ाता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

पकवान नवीने, पावन कीने षटरस भीने, सुखदाई
मनमोदन हारे, छुधा विदारे, आगे धारे गुनगाई ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : ताज़े पकवान, पवित्रता से बनाये हुए, षटरस से डूबे हुए सुखदायक, मनमोदन- चित्त को प्रसन्न करने वाले, भूख का नाश करने वाले (विदारे) है, इनको आपके आगे आपके गुणों को गाते हुए रख रहा हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रमतम नाशे, ज्ञेय विकासे सुखरासे
दीपक उजियारा, यातें धारा, मोह निवारा, निज भासे ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : भगवान् ! आप ज्ञान प्रकाशक, (भ्रमतम) मिथ्यात्व रुपी अन्धकार नाशक, ज्ञेय पदार्थों के विकासक, सुख के समूह हैं । मैंने उजियारे दीपक को यहाँ मोहकर्म के नाश और (निज) अपनी आत्मा के (भासे) दर्शन के लिए रखा है ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

चन्दन करपूरं करि वर चूरं, पावक भूरं माहि जुरं
तसु धूम उड़ावे, नाचत जावे, अलि गुंजावे मधुर सुरं ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : चंदन और कपूर का चूर्ण बनाकर बहुत सारी (पावक) अग्नि में (माहिं) मैं (जुरं) जलाता हूँ । उसका धुँआ उड़ रहा है ऐसा लग रहा है जैसे नृत्य कर रहा हो और इसकी खुशबु से भंवर गुंजनकर मधुर स्वर कर रहे हो, ऐसे धूप से आपकी मैं पूजा करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

बादाम खजूरं, दाड़िम पूरं, निंबुक भूरं ले आयो
ता सों पद जज्जौं,शिवफल सज्जौं, निजरस रज्जौं उमगायो ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : बादाम, खजूर, अनार और नींबू भरे हुए लाया हूँ; उनसे आपके चरणों की पूजा के लिए उत्साहपूर्वक मोक्षफल और आत्म सुख की प्राप्ति के लिए करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

वसु द्रव्य सँवारी, तुम ढिग धारी, आनन्दकारी, दृग-प्यारी
तुम हो भव तारी, करुनाधारी, या तें थारी शरनारी ॥
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ॥
अन्वयार्थ : आनंदकारी और नेत्रों को अच्छे लगने वाले, आठों द्रव्यों को संवार कर आपके समक्ष अर्पित करता हूँ । आप संसार से पार कराने वाले है, करुणाधारक हो, इसलिए आपकी शरण में आया हूँ । हे शांतिनाथ भगवान ! आप तीर्थंकर जिनेन्द्र हैं, [नक्रेश] इन्द्रों द्वारा [नुत] वंदित हैं, धर्म चक्र के स्वामी हैं, [चक्रेश] चक्रवर्ती हैं, अष्टकर्म शत्रुओं के समूह को आपने नष्ट कर लिया है, [गुणधेश] गुणों के स्वामी है, [दया ऽमृतेशं] दया रुपी अमृत के स्वामी, [मक्रेश] कामदेव हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(पंचकल्याणक अर्घ्यावली)
असित सातँय भादव जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये
सचि कियो जननी पद चर्चनं, हम करें इत ये पद अर्चनं ॥
अन्वयार्थ : भादो (असित) वदी सप्तमी को भगवान् गर्भ में पधारे थे, आपका गर्भ कल्याणक मनाया था । (शचि) इंद्राणी ने माता के चरणों की पूजा करी थी, हम आपके चरणों की यहाँ पर पूजा करते हैं ।
ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णा सप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है, सकल इन्द्र सु आगत धाम है
गजपुरै गज-साजि सबै तबै, गिरि जजे इत मैं जजिहों अबै ॥
अन्वयार्थ : आपका जन्म जेठ कृष्ण चतुर्दशी को हुआ था । सभी इंद्र आपके घर पर आये थे । हस्तिनापुर (गजपुर) में ऐरावत हाथी को सजा कर तब सभी ने आपको (समेरु) पर्वत के पांडुकवन में ले जा कर आपकी पूजा करी थी; मैं यहाँ आपकी पूजा करता हूँ ।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
भव शरीर सुभोग असार हैं, इमि विचार तबै तप धार हैं
भ्रमर चौदशि जेठ सुहावनी, धरम हेत जजौं गुन पावनी ॥
अन्वयार्थ : संसार, शरीर और भोग असार हैं ऐसा विचारकर आपने (भ्रमर) कृष्ण जेठ चतुर्दशी को तप धारण किया था । (धर्म) उस रत्नत्रय गुणों की प्राप्ति के लिए मैं आपकी पूजा करता हूँ ।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
शुकलपौष दशैं सुखरास है, परम-केवल-ज्ञान प्रकाश है
भवसमुद्र उधारन देव की, हम करें नित मंगल सेवकी ॥
अन्वयार्थ : पौष शुक्ल दशमी सुखदायक है क्योकि इस दिन आपको केवलज्ञान का श्रेष्ठ प्रकाश प्राप्त हुआ था । संसार पार करने वाले आप देव की हम नित्य मंगल सेवा करते हैं ।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
असित चौदशि जेठ हने अरी, गिरि समेदथकी शिव-तिय वरी
सकल इन्द्र जजैं तित आय के, हम जजैं इत मस्तक नाय के ॥
अन्वयार्थ : जेठ वदी चतुर्दशी को आपने शेष अघातिया कर्मों को नष्ट कर सम्मेद शिखर जी पर मोक्ष लक्ष्मी का वरन किया था । सब इन्द्रों ने वहाँ आकर आपकी पूजा करी थी । हम मस्तक नवा कर आपकी यहाँ पूजा करते हैं ।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(जयमाला)
(छन्द-रथोद्धता, चंद्रवत्स तथा चंद्रवर्त्म)
शान्ति शान्तिगुन मंडिते सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा
मैं तिन्हें भगत मंडिते सदा, पूजिहौं कलुष हंडिते सदा ॥
मोच्छ हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन रत्न माल हो
मैं अबै सुगुन-दाम ही धरौं, ध्यावते तुरत मुक्ति-तिय वरौं ॥
अन्वयार्थ : शांति नाथ भगवान् ! आप शांति देने वाले गुण से मंडित हैं, आपको बड़े-बड़े पंडित निरंतर ध्याते हैं । मैं उन शांतिनाथ भगवान् को सदा भक्ति पूर्वक पूजता हूँ, जो कि सदा पापों का नाश करने वाले हैं । मोक्ष के कारण में आप ही दयालु है, (आपकी कृपा से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है) । हे जिनेन्द्र भगवान् ! आप गुण रुपी रत्नों की माला हैं; मैं अब आपके अच्छे गुणों की माला को कहता हूँ जिनके ध्याने से ही तुरंत मोक्ष रुपी स्त्री प्राप्त होती है ।
(पद्धरि)
जय शान्तिनाथ चिद्रूपराज, भवसागर में अद्भुत जहाज
तुम तजि सरवारथसिद्धि थान, सरवारथजुत गजपुर महान ॥
तित जनम लियो आनन्द धार, हरि ततछिन आयो राजद्वार
इन्द्रानी जाय प्रसूति थान, तुम को कर में ले हरष मान ॥

हरि गोद देय सो मोदधार, सिर चमर अमर ढारत अपार
गिरिराज जाय तित शिला पांडु, ता पे थाप्यो अभिषेक माँड ॥
तित पंचम उदधि तनों सुवार, सुर कर कर करि ल्याये उदार
तब इन्द्र सहसकर करि अनन्द, तुम सिर धारा ढारयो समुन्द ॥

अघघघ घघघघ धुनि होत घोर, भभभभ भभ धध धध कलश शोर
दृमदृम दृमदृम बाजत मृदंग, झन नन नन नन नन नूपुरंग ॥
तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घंटा करत ध्वान
ताथेई थेई थेई थेई थेई सुचाल, जुत नाचत नावत तुमहिं भाल ॥

चट चट चट अटपट नटत नाट, झट झट झट हट नट थट विराट
इमि नाचत राचत भगति रंग, सुर लेत जहाँ आनन्द संग ॥
इत्यादि अतुल मंगल सु ठाठ, तित बन्यो जहाँ सुर गिरि विराट
पुनि करि नियोग पितुसदन आय, हरि सौप्यो तुम तित वृद्ध थाय ॥

पुनि राजमाहिं लहि चक्ररत्न, भोग्यो छहखण्ड करि धरम जत्न
पुनि तप धरि केवल रिद्धि पाय, भवि जीवनि को शिवमग बताय ॥
शिवपुर पहुंचे तुम हे जिनेश, गुण-मंडित अतुल अनन्त भेष
मैं ध्यावतु हौं नित शीश नाय, हमरी भवबाधा हर जिनाय ॥

सेवक अपनो निज जान जान, करुणा करि भौभय भान भान
यह विघन मूल तरु खंड खंड, चितचिन्तित आनन्द मंड मंड ॥
अन्वयार्थ : शांति नाथ भगवान् ! आपने आत्मा के चिद्रुप (सिद्ध स्वरुप) को प्राप्त कर लिया है आप की जय हो । आप संसार को पार करने वाले अद्भुत जहाज हैं । आप सर्वार्थसिद्धि को छोड़कर, जहां सारे कार्यों की सिद्धि होती है, ऐसे महान हस्तिनापुर में आप पधारे / जन्म हुआ था ।

वहाँ आपने आनंद पूर्वक जन्म लिया था उसी क्षण इंद्र आपके राज्य के द्वार पर आये थे । इंद्राणी प्रसूति स्थान पर गई थी और उसने आपको अपने हाथों में हर्ष पूर्वक उठाया था ।

उसने आपको इंद्र की गोद में दिया; वह आपके सिर पर चंवर ढारने लगे । उन्होंने आपको समेरुपर्वत पर पांडुकशिला पर लेजाकर विराजमान किया और अभिषेक सम्पन्न किया ।

वहाँ पंचम समुद्र, क्षीरसागर तक देवो ने पंक्ति लगाकर, वहाँ से हाथों में जल लाये, इंद्र ने अपने एक हज़ार हाथ बनाकर आपके सिर पर क्षीर सागर के जल की धारा दे कर आनंद मनाया ।

वहाँ पंचम समुद्र (क्षीरसागर) तक देवो ने पंक्ति लगाकर, वहाँ से हाथों में जल लाये, इंद्र ने अपने एक हज़ार हाथ बनाकर आपके सिर पर क्षीर सागर के जल की धारा दे कर आनंद मनाया ।

कलशों को ढ़ोते हुए सभी इंद्र / देवों के नृत्य करने से अघ घघ की ध्वनि से घोर शोर हो रहा था, कलशों को उठाने रखने से भभभभ भभ धध धध का शोर हो रहा था । मृदंग (ढोल) के बजने से दृमदृम दृमदृम और नुपुर के बजने से झन नन नन नन नन की आवाज़ आ रही थी । अर्थात् सारा वातावरण मंगलमय हो रहा था ।

कोई तानपुरा बजा रहा था उससे तन नन नन नन नन और कोई घंटा बजा रहा था उससे घन नन नन आवाज़ आ रही थी । कोई तबले की थाप पर ताथेई थेई थेई थेई आवाज़ कर रहे थे । सभी नृत्य करते हुए अपना मस्तक आपके समक्ष झुका रहे थे ।

जो नांच रहे थे उनकी तरह तरह की आवाज़ चट चट चट अटपट, झट झट झट हट नट थट आ रही थी सभी सुन्दर देवी देवता इधर उधर भागने दौड़ने, भक्ति रंग में रचे नृत्य आदि करने में लगे हुए थे और देवता लोग आप के अभिषेक स्थल, (समेरुपर्वत के पांडुकवन में) खूब आनंद ले रहे थे ।

इत्यादि मंगल अतुल्य ठाठ के साथ आप वहाँ देवताओं से भी अधिक सुन्दर, पर्वत के समान विराट हुए । फिर आपके पिता के घर आकर, नियोग कर इंद्र आपको उनके सुपर्द कर अपने घर चले गये ।

फिर आपने राज्य में लीन रहते हुए चक्ररत्न की प्राप्ति कर छह खण्डों के सुख भोगते हुए भी धर्म का यत्न किया फिर तप धारण कर के आपने केवलज्ञान ऋद्धि प्राप्त कर भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताया ।

आप जिनेन्द्र देव, अनंत गुणों से मंडित और अतुल्य अनंतस्वरुप सहित मोक्ष पधारे । मैं आपको नित्य शीश झुका कर ध्याता हूँ; हे जिनेन्द्र भगवान् ! हमारी भव बाधा को दूर कीजिये ।

हे भगवन् ! मुझे अपना सेवक जानकार, करुणा कर, संसार के भय को दूर कर दीजिये । विघ्नों का इस वृक्ष को खंडित कर दीजिये ! भगवान् मैं आपको हृदय में आनंदपूर्वक धारण करता हूँ और आप से प्रार्थना करता हूँ ।
(धत्ता)
श्रीशान्ति महंता, शिवतियकंता, सुगुन अनंता, भगवंता
भव भ्रमन हनन्ता, सौख्य अनन्ता, दातारं, तारनवन्ता ॥
अन्वयार्थ : हे श्री शांतिनाथ !आप महान, मोक्षरुपी स्त्री के पति, अनंत सुगुणों युक्त, भगवान्, [भव भ्रमन] संसार के भ्रमण को [हनन्ता] नष्ट कर, [सौख्य अनन्ता] अनंतसुख धारक है और संसार से [तारनवन्ता] पार करने वाली शक्ति को [दातारं] प्रदान करने वाले हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

शान्तिनाथ जिन के पदपंकज, जो भवि पूजें मन वच काय
जनम जनम के पातक ता के, ततछिन तजि के जायं पलाय ॥
मनवांछित सुख पावे सो नर, बांचे भगतिभाव अति लाय
ता तें 'वृन्दावन' नित वंदे, जा तें शिवपुरराज कराय ॥
(इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)
अन्वयार्थ : शांतिनाथ जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों की जो भव्य जीव मन-वचन-काय से पूजा करते हैं, उनके जन्म-जन्म के पाप उसी क्षण छोड़ कर भाग जाते हैं; वे मनुष्य मन वांच्छित सुख पाते हैं जो भक्ति भाव से इस पूजा को पढ़ते हैं । वृंदावन कवि कहते है कि यदि मोक्ष लक्ष्मी पर राज करना है तब भगवान् शांतिनाथ जी की नित्य वंदना करनी चाहिए ।