(१. प्रतिक्रमण कर्म) काल अनंत भ्रम्यो जग में सहिये दुःख भारी, जन्म मरण नित किये पाप को ह्वै अधिकारी, कोटि भवांतर मांहि मिलन दुर्लभ सामायिक, धन्य आज मैं भयो जोग मिलियो सुखदायक ॥ हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब, ते सब मन वच काय योग की गुप्ति बिना लभ, आप समीप हजूर मांहि मैं खडो खडो सब, दोष कहुं सो सुनो करो नठ दुःख देहि जब ॥ क्रोध मान मद लोभ मोह मायावश प्रानी, दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहि आनी, बिना प्रयोजन एक इन्द्रि बि ति चउ पंचेंद्रिय, आप प्रसादहि मिटे दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥ आपस में इक ठौर थापि करी जे दुःख दीने, पेलि दिये पगतलें दाबि करी प्राण हरीने, आप जगत के जीव जिते तिन सब के नायक, अरज करुं मैं सुनो, दोष मेटो दुःखदायक ॥ अंजन आदिक चोर महा घनघोर पापमय, तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय, मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि, यह पडिकोणो कियो आदि षटकर्ममांहि विधि ॥
(२. प्रत्याख्यान कर्म) जो प्रमाद वश होय विराधे जीव घनेरे, तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे, सो सब झूठो होहु जगतपति के परसादै, जा प्रसादतैं मिले सर्व सुख, दु:ख न लाधैं ॥ मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ, किये पाप अति घोर पापमति होय चित्त दुठ, निंदू हूं मैं बारबार निज जिय को गरहूं, सब विधि धर्म उपाय पाय फिरि पापहि करहूं ॥ दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी, सत्संगति संयोग धर्म जिन श्रद्धा धारी, जिन वचनामृत धार समावर्तै जिनवानी, तो हू जीव संहारे धिक् धिक् धिक् हम जानी ॥ इन्द्रियलंपट होय खोय निज ज्ञानजमा सब, अज्ञानी जिम करै तिसी विधि हिंसक ह्वै अब, गमनागमन करंतो जीव विराधे भोले, ते सब दोष किये निंदूं अब मन-वच तोले ॥ आलोचन विधि थकी दोष लागे जु घनेरे, ते सब दोष विनाश होउ तुमतैं जिन मेरे, बारबार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता, ईर्षादिकतैं भये निंदिये जे भयभीता ॥
(३. सामायिक कर्म) सब जीवन में मेरे समता भाव जग्यो है, सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है, आर्त्त रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूं सामायिक, संयम मो कब शुद्ध होय यह भाव बधायिक ॥ पृथिवी जल अर अग्नि वायु चउकाय वनस्पति, पंचहि थावरमांहिं तथा त्रसजीव बसैं जित, बे इन्द्रिय तिय चउ पंचेन्द्रिय मांहिं जीव सब, तिनसैं क्षमा कराऊं मुझ पर क्षमा करो अब ॥ इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण, महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहु सम गण, जन्म मरन समान जान हम समता कीनी, सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ॥ मेरो है इक आतम तामैं ममत जु कीनो, और सबै मम भिन्न जानि समता रस भीनो, मात पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि सबै यह, मोतैं न्यारे जानि यथारथ रूप कर्यो गह ॥ मैं अनादि जगजाल मांहि फँसि रूप न जाण्यो, एकेंन्द्रिय दे आदि जंतु को प्राण हराण्यो, ते अब जीवसमूह सुनो मेरी यह अरजी, भवभव को अपराध क्षमा कीज्यो करी मरजी ॥
(६. कायोत्सर्ग कर्म) कायोत्सर्ग विधान करुं अंतिम सुखदाई, काय त्यजनमय होय काय सबको दुखदाई, पूरव दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तर मैं, जिनगृह वंदन करुं हरुं भव पापतिमिर मैं ॥ शिरोनती मैं करूँ नमूं मस्तक कर धरिकैं, आवतार्दिक क्रिया करुं मनवच मद हरिकैं, तीनलोक जिनभवन मांहिं जिन हैं जु अकृत्रिम, कृत्रिम हैं द्वयअर्द्धद्वीप मांहिं वंदौं जिम ॥ आठकोडिपरि छप्पन लाख जु सहस सत्याणुं, च्यारि शतक परि असी एक जिनमंदिर जाणुं, व्यंतर ज्योतिष मांहि संख्यरहिते जिनमंदिर, जिनगृह वंदन करूं हरहु मम पाप संघकर ॥ सामायिक सम नाहि और कोउ वैर मिटायक, सामायिक सम नाहि और कोउ मैत्रीदायक, श्रावक अणुव्रत आदि अंत सप्तम गुणथानक, यह आवश्यक किये होय निश्चय दुःखहानक ॥ जे भवि आतम काजकरण उद्यम के धारी, ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी, राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब, बुध 'महाचंद्र' बिलाय जाय तातैं कीज्यो अब ॥