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श्री
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छहढाला

मंगलाचरण
कविवर बुधजन कृत

सर्व द्रव्य में सार, आतम को हितकार हैं
नमो ताहि चितधार, नित्य निरंजन जानके ॥
अन्वयार्थ : जो समस्त द्रव्यों में सार है एवं आत्मा को हितकार है, ऐसे नित्य-निरंजन स्वरूप को जानकर उसे चित्त मे धारण करके मैं नमस्कार करता हूँ ।
ढाल-1

अथिर-भावना
आयु घटे तेरी दिन-रात, हो निश्चिंत रहो क्यों भ्रात
यौवन तन धन किंकर नारि, हैं सब जल बुदबुद उनहारि ॥१॥
अन्वयार्थ : हे भाई! तेरी आयु दिन-रात घटती ही जा रही है फिर भी तू निश्चिंत कैसे हो रहा है ? यह यौवन, शरीर, लक्ष्मी, सेवक, स्त्री आदि सभी पानी के बुलबुले समान क्षण-भंगुर हैं ।

अशरण-भावना
पूरण आयु बढे छिन नाहिं, दिये कोटि धन तीरथ मांहि
इन्द्र चक्रपति हू क्या करैं, आयु अन्त पर वे हू मरैं ॥२॥
अन्वयार्थ : आयु समाप्त होने पर एक क्षण भी बढती नहीं, भले करोडों रुपया-धनादि तीर्थों पर दान करो । इन्द्र चक्रवर्ती भी क्या करे ? आयु पूर्ण होने पर वे भी मरते हैं ।

संसार-भावना
यों संसार असार महान, सार आप में आपा जान
सुख से दुख, दुख से सुख होय, समता चारों गति नहिं कोय ॥३॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार यह संसार अत्यन्त असार है, उसमें अपना आत्मा ही मात्र सार है । संसार में सुख के पश्चात दुःख एवं दुःख के पश्चात सुखरूप आकुलता होती ही रहती है । चारों गतियों में कहीं भी लेशमात्र सुख शान्ति नहीं है ।

एकत्व-भावना
अनंतकाल गति-गति दुख लह्यो, बाकी काल अनंतो कह्यो
सदा अकेला चेतन एक, तो माहीं गुण वसत अनेक ॥४॥
अन्वयार्थ : इस जीव ने अनादिकाल से चारों ही गतियों मे दुख ही पाया और बाकी अनन्तकाल पर्यन्त चारों-गतियां रहने वाली है। चारों-गति मे जीव अकेला ही रहता है। तू चेतन एक है तो भी उसमें अनन्त गुण बसते हैं - सदाकाल विद्यमान रहते हैं ।

अन्यत्व-भावना
तू न किसी का तेरा न कोय, तेरा सुख दुख तोकों होय
याते तोकों तू उर धार, पर द्रव्यनतें ममत निवार ॥५॥
अन्वयार्थ : तू अन्य किसी का नहीं और अन्य भी तेरा कोई नहीं है । तेरा सुख-दुख तुझको ही होता है, इसलिये पर-द्रव्य पर-भावों से भिन्न अपने स्वरूप को तू अन्तर मे धारण कर एवं समस्त पर-द्रव्य, पर-भावों से मोह छोड ।

अशुचि-भावना
हाड़ मांस तन लिपटी चाम, रुधिर मूत्र- मल पूरित धाम
सो भी थिर न रहे क्षय होय, याको तजे मिले शिव लोय ॥६॥
अन्वयार्थ : हाड-मांस से भरा हुआ यह शरीर ऊपर से चमड़ी से मढा हुआ है, अन्दर तो रुधिर मल-मूत्रादि से भरा हुआ धाम है । ऐसा होने पर भी वह स्थिर तो रहता ही नहीं, निश्चयकर क्षय को प्राप्त हो जाता है । देह से एकत्व-ममत्व हटते ही जीव को मोक्षमार्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।

आस्रव-भावना
हित अनहित तन कुलजन मांहि, खोटी बानि हरो क्यों नाहिं
याते पुद्गल-करमन जोग, प्रणवे दायक सुख-दुख रोग ॥७॥
अन्वयार्थ : शरीर, कुटुम्बी-जन इत्यादि मे हित-अनहितरूप मिथ्या प्रवृत्ति को तू क्यों नही छोडता? इस मिथ्या प्रवृत्ति से तो पुद्गल कर्मों का आस्रव-बन्ध होता है, जो कि साता-असतारूप सुखदुख रोग को देने वाला होकर परिणमता है ।

संवर-भावना
पांचों इन्द्रिन के तज फ़ैल, चित्त निरोध लाग शिव- गैल
तुझमे तेरी तू करि सैल, रहो कहा हो कोल्हू बैल ॥८-संवर॥
अन्वयार्थ : तू पाँचो-इन्द्रियो के विषयों को रोककर, चित्त निरोध करके (संकल्प-विकल्प रूप मिथ्याभावों का परिहार करके) मोक्षमार्ग मे लग जाना । तू अपने को जड-पत्थर सदृश कर अपने पुरुषार्थ मे देरी क्यो कर रहा है ? व्यर्थ ही कोल्हू के बैल की भान्ति क्यो भटक रहा है ।

निर्जरा-भावना
तज कषाय मन की चल चाल, ध्यावो अपनो रूप रसाल
झड़े कर्म-बंधन दुखदान, बहुरि प्रकाशै केवलज्ञान ॥९॥
अन्वयार्थ : तू कषाय एवं मन की चंचल वृत्ति को छोडकर, आनन्द-रस से भरे हुये अपने निज-स्वरूप को ध्याओ, जिससे कि दुखदायी कर्म झड जावे और केवल-ज्ञान प्रकाश प्रगट हो ।

लोक-भावना
तेरो जन्म हुओ नहिं जहां, ऐसा खेतर नाहीं कहाँ
याही जन्म-भूमिका रचो, चलो निकसि तो विधि से बचो ॥१०॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण लोक मे ऐसा कोई क्षेत्र बाकी नही जहाँ तेरा जन्म न हुआ हो । तू इसी जन्मभूमि मे मोहित होकर क्यो मगन हो रहा है ? तू सम्यक् पुरुषार्थी बनकर इस लोक से निकल अर्थात् अशरीरी जो सिद्धपद उसमे स्थिर हो । तभी तू सकल कर्म-बन्धन से छूट सकेगा ।

बोधि-भावना
सब व्यवहार क्रिया को ज्ञान, भयो अनंती बार प्रधान
निपट कठिन 'अपनी' पहिचान, ताको पावत होत कल्याण ॥११॥
अन्वयार्थ : सर्व व्यवहार-क्रियाओं का ज्ञान तो तुझे अनन्ती बार हुआ, परन्तु जिसकी प्राप्ति से कल्याण होता है ऐसे निज-चिदानन्द घनस्वरुप की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है । अत: उसही की पहचान करना योग्य है, ऐसा तू जान ।

धर्म-भावना
धर्म स्वभाव आप सरधान, धर्म न शील न न्हौंन न दान
'बुधजन' गुरु की सीख विचार, गहो धाम आतम सुखकार ॥१२॥
अन्वयार्थ : निज-स्वभाव का श्रद्धान करना ही धर्म है । धर्म न तो बाह्य शीलादि पालने मे है,न स्नान करने में है और न दानादि देने मे है । हे बुधजन ! तुम श्रीगुरु के इस उपदेश पर विचार करो और निज-स्वरुप का निर्णय करके आत्मधर्म को ग्रहण करो ।
ढाल-2
सुन रे जीव कहत हूँ तोकों, तेरे हित के काजै
हो निश्चल मन जो तू धारे, तब कछु-इक तोहि लाजे ॥
जिस दुख से थावर तन पायो, वरन सको सो नाहीं
अठदश बार मरो अरु जीयो, एक स्वास के माहीं ॥१॥
अन्वयार्थ : हे जीव! ध्यान पूर्वक सुन, तेरे हित के लिये तुझको कहता हूँ । जो यह हित की बात स्थिर-चित्त होकर तू अब धारण करेगा तो तुझे कुछ तो लज्जा आवेगी कि अरे! अभी तक यह मैंने क्या किया? अज्ञान से मैं कितना दुखी हुआ। एकेन्द्रिय स्थावर शरीर धारण कर जो अत्यन्त दुख भोगे, उसे शब्दों मे वर्णन किया जा सके - ऐसा नहीं है ।
काल अनतानंत रह्यो यों, पुनि विकलत्रय हूवो
बहुरि असैनी निपट अज्ञानी, छिनछिन जीओ मूवो ॥
ऐसे जन्म गयो करमन-वश, तेरो जोर न चाल्यो
पुन्य उदय सैनी पशु हूवो, बहुत ज्ञान नहिं भाल्यो ॥२॥
अन्वयार्थ : हे जीव ! इसप्रकार तू अनन्तानन्त काल पर्यन्त एकेन्द्रिय पर्याय मे रहा, पश्चात कभी दो इन्द्रियादि विकलत्रय पर्याय वाला हुआ, कदाचित् पंचेन्द्रिय-पर्याय भी पाई तो असंज्ञी महा-अज्ञानी रहा और क्षण-क्षण मे जन्म-मरण किया । इस प्रकार अज्ञान से कर्मोदय वश होकर तूने अनन्त जन्म धारण किये, वहाँ तेरा कुछ पुरुषार्थ नहीं हो सका, पश्चात पुण्योदय से कदाचित् संज्ञी-पशु भी हुआ तो भी वहां तू भेदज्ञान प्राप्त नहीं कर सका ।
जबर मिलो तब तोहि सतायो, निबल मिलो ते खायो
मात त्रिया-सम भोगी पापी, तातें नरक सिधायो ॥
कोटिन बिच्छू काटत जैसे, ऐसी भूमि तहाँ है
रुधिर-राध जल छार बहे जहां, दुर्गन्ध निपट तहाँ है ॥३॥
अन्वयार्थ : तुझ से बलवान पशुओं ने तुझे सताया और निर्बल मिला तो तूने उसे मारकर खाया । पशु दशा मे तूने माता को स्त्री समान भोगा, इसलिये तू पापी होकर नरकों मे जा पडा । जहाँ की भूमि ऐसी कठोर है कि उसका स्पर्श होते ही मानों करोडों बिच्छू काटते हो - ऐसा दुख होता है और जहाँ अत्यन्त दुर्गन्ध-युक्त सड़े लहू से भरी खारे-जल जैसी वैतरणी नदी बहती है ।
घाव करै असिपत्र अंग में, शीत ऊष्ण तन गाले
कोई काटे करवत कर गह, कोई पावक जालें ॥
यथायोग सागर-थिति भुगते, दुख को अंत न आवे
कर्म-विपाक इसो ही होवे, मानुष गति तब पावै ॥४॥
अन्वयार्थ : नरक मे असिपत्र अंग पर पडते ही घाव कर देते हैं । अत्यधिक शीत एवं प्रचन्ड गर्मी देह को गला देती है । कोई नारकी दूसरे नारकी को पकडकर करोंत से काट डालते हैं और अग्नि मे जला देते हैं । आयु बन्धन वश सागरोपम की स्थिति पर्यन्त इस प्रकार के महादु:खों को भोगते पार नही आता - वहाँ कर्म का विपाक ऐसा ही होता है । उसे पूर्णकर कदाचित मन्द-कषाय अनुसार शुभ-कर्म का विपाक होने पर कोई नारकी नरक मे से निकलकर मनुष्यगति प्राप्त करता है ।
मात उदर मे रहो गेंद ह्वै, निकसत ही बिललावे
डंभा दांत गला विष फोटक, डाकिन से बच जावे ॥
तो यौवन में भामिनि के संग, निशि-दिन भोग रचावे
अंधा ह्वै धंधे दिन खोवै, बूढा नाड़ हिलावे ॥५॥
अन्वयार्थ : मनुष्यगति मे भी माता के गर्भ में संकुचित होकर गेन्द की तरह नव-मास तक रहता है और पीछे जन्मते समय त्रास से बिल्लाता है । बालकपन मे अनेक प्रकार के रोग जहरीले फोडे, चेचक, दाँत-गले आदि के रोग आदि से कदाचित बच जावे तो जवानी में निशदिन पत्नी के साथ भोग-विलास मे ही मग्न रहता है, नये-नये भोग रुचाता है और व्यापार धन्धों में अन्धा होकर जिन्दगी व्यतीत कर देता है । जब वृद्ध हो जाता है तब मस्तक आदि अंग कांपने लग जाते हैं -- इस प्रकार मूढ मोही जीव, आत्मा के हित का उपाय किये बिना मनुष्य-भव व्यर्थ ही गंवा देता है ।
जम पकडे तब जोर न चाले, सैनहि सैन बतावै
मंद कषाय होय तो भाई, भवनत्रिक पद पावै ॥
पर की संपति लखि अति झूरे, कै रति काल गमावै
आयु अंत माला मुरझावै, तब लखि लखि पछतावे ॥६॥
अन्वयार्थ : जब मरण काल आ उपस्थित हो तब इस जीव का कुछ भी जोर नही चलता, बोल भी नहीं सकता, अत: मन की बात इशारा कर-करके बतलाता है । इस प्रकार कुमरण भाव से मरकर जो मन्द-कषाय रुप भाव हो तो भवनवासी-व्यन्तर या ज्योतिषी - इन हल्की जाति के देवों मे उत्पन्न होता है । वहाँ अन्य दूसरे बडे वैभववान देवों की सम्पदा देखकर खूब कुढ़ता है । अथवा विषय-क्रीडा रुप रति मे ही काल गंवाता है । आयु का अन्त आने पर उस देव की मन्दार-माला मुरझाने लगती है, उसे देखकर वह जीव बहुत ही पछताता है ।
तह तैं चयकर थावर होता, रुलता काल अनन्ता
या विध पंच परावृत पूरत, दुख को नाहीं अन्ता ॥
काललब्धि जिन गुरु-कृपा से, आप आप को जानो
तबही 'बुधजन' भवदधि तिरके, पहुँच जाय शिव-थाने ॥७॥
अन्वयार्थ : और वह देव आर्तध्यान पूर्वक देवलोक से चयकर स्थावर हो जाता है । इसप्रकार अज्ञान से संसार मे भ्रमते-भ्रमते जीव ने अनन्त काल पर्यन्त पंच-परावर्तन किया और अनन्त दुख पाया । निज काल-लब्धि रूप सुसमय आने पर जिन गुरु की कृपा से जब आत्मा स्वयं अपना स्वरूप जानले, मानले और अनुभव करले तव वह जीव भव-समुद्र से तिर कर निवार्ण रुप सिद्धपद मे पहुँच जाता है, जहाँ पाश्वत सुखी रहता है ।
ढाल-3
(पद्धरि छंद)
इस विधि भववन के मांहि जीव, वश मोह गहल सोता सदीव
उपदेश तथा सहजै प्रबोध, तबही जागै ज्यों उठत जोध ॥१॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार संसाररूपी वन मे मोह-वश पडा जीव बेसुध होकर सदा गहरी निद्रा मे सोया हुआ है । परन्तु जब आत्मज्ञानी गुरु के उपदेश से अथवा पूर्व-संस्कार के बल से वह मोह-निद्रा से जागा / जिस प्रकार रण मे मूर्छित हुआ योद्धा फिर से जाग गया हो, उसी प्रकार यह संसारी-जीव मोह-निद्रा दूर करके जाग गया ।
जब चिंतवत अपने माहिं आप, हूँ चिदानन्द नहिं पुन्य-पाप
मेरो नाहीं है राग भाव, यह तो विधिवश उपजै विभाव ॥२॥
अन्वयार्थ : आत्मभान करके जब यह संसारी मोही-जीव जाग गया तब ही अपने अन्तरंग मे अपने स्वरूप का ऐसा चिन्तवन करने लगा कि 'मैं चिदानन्द हूँ, पुण्य-पाप मैं नही हूँ, रागभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है, वह तो कर्मवश उत्पन्न हुआ विभाव भाव है' ।
हूँ नित्य निरंजन सिद्ध समान, ज्ञानावरणी आच्छाद ज्ञान
निश्चय सुध इक व्यवहार भेव, गुण-गुणी अंग-अंगी अछेव ॥३॥
अन्वयार्थ : मैं सिद्ध-समान नित्य अविनाशी जीव-तत्त्व है, द्रव्य-कर्म, नोकर्म और भावकर्म से रहित हूँ । ज्ञानावरणी कर्म के उदय से मेरा ज्ञान अप्रगट है । निश्चय से मैं अतीन्द्रिय महापदार्थ हूँ, गुण-गुणी भेद अथवा अंश-अंशी भेद आदि सर्व-भेद कल्पना तो व्यवहार से है । मैं तो अभेद हूँ ।
मानुष सुर नारक पशुपर्याय, शिशु युवा वृद्ध बहुरूप काय
धनवान दरिद्री दास राय, ये तो विडम्ब मुझको न भाय ॥४॥
अन्वयार्थ : तथा मनुष्य-देव नारकी व पशु पर्याय अथवा बालक, जवान, वृद्ध इत्यादि अनेक रूप शरीर की ही अवस्थाये हैं तथा धनवानपना, दासपना, राजापना ये सभी औपाधिक भाव विडम्बना है - उपाधि है, वे कुछ भी मुझे प्रिय नहीं है, मेरे शुद्ध ज्ञायक स्वरूप में ये कुछ भी शोभता नहीं ।
रस फरस गंध वरनादि नाम, मेरे नाहीं मैं ज्ञानधाम
मैं एकरूप नहिं होत और, मुझमें प्रतिबिम्बत सकल ठौर ॥५॥
अन्वयार्थ : स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण आदि अथवा व्यवहार नाम आदि मेरे नहीं, ये सभी तो पुद्गल द्रव्य के हैं, मैं तो ज्ञानधाम हूँ । मैं तो सदाकाल एकरूप रहने वाला परमात्मा हूँ, अन्यरूप कभी भी नहीं होता । मेरे ज्ञान-दर्पण में तो समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं ।
तन पुलकित उर हरषित सदीव, ज्यों भई रंकगृह निधि अतीव
जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय, तब चित परिणति ऐसी उपाय ॥६॥
अन्वयार्थ : ऐसा भेदविज्ञान पूर्वक सम्यक श्रद्धान होने पर जीव सदा ही अतिशय प्रसन्न होता है, आनन्दित होता है । हृदय में निरन्तर हर्ष वर्तने से शरीर भी पुलकित हो जाता है । जिस प्रकार दरिद्री के घर मे अत्यधिक धन-निधि के प्रगट होने पर वह प्रसन्न होता है, उसी प्रकार यह सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर मे निजानन्द मूर्ति भगवान आत्मा को देखकर प्रसन्न होता है । ऐसा सम्यकदर्शन हो जाने पर जब तक अप्रत्याख्यान कषाय की प्रबलता रूप उदय रहता है तब तक उस सम्यग्दृष्टि की चित्त परिणति कैसी होती है - उसे अब यहां पर कहते हैं ।
सो सुनो भव्य चित धार कान, वरणत हूँ ताकी विधि विधान
सब करै काज घर मांहि वास, ज्यों भिन्न कमल जल में निवास ॥७॥
अन्वयार्थ : हे भव्य जीवों ! तुम चित्त लगाकर उस भेद-विज्ञानी की परिणति को सुनो । उस अविरत सम्यक्दृष्टि के विधि-विधान का मैं वर्णन करता हूँ । स्वानुभव बोध का जिसे लाभ हुआ है, ऐसा वह जीव घर-कुटुम्ब के बीच में रहता है तथा सभी गृहकार्य, व्यापार आदि भी करता दिखाई देता है, परन्तु जैसे जल में कमल का वास होने पर भी वह जल से भिन्न अलिप्त रहता है । उसी प्रकार गृहवास में रहता होने पर भी धर्मी जीव उस घर, कुटम्ब, व्यापार आदि से भिन्न-अलिप्त एवं उदास रहता है ।
ज्यों सती अंग माहीं सिंगार, अति करत प्यार ज्यों नगर नारि
ज्यों धाय चखावत आन बाल, त्यों भोग करत नाहीं खुशाल ॥८॥
अन्वयार्थ : जैसे शीलवान स्त्री के शरीर का श्रंगार पर-पुरुष के प्रति राग के लिए नही होता, जैसे वेश्या अतिशय-प्रेम दिखाती है परन्तु वह अन्तरंग का प्रेम नही होता और जैसे धाय-माता अन्य दूसरे के बालक को दूध पिलाती है, परन्तु अन्तरंग में वह धाय उस बालक को पराया ही जानती है; ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव संसार के भोगों को भोगता हुआ दिखता है, तथापि उसे उन भोगों में खुशी नहीं, उनमें वह सुख नहीं मानता, उनसे तो वह अन्तरंग श्रद्धान में विरक्त ही है ।
जब उदय मोह चारित्र भाव, नहिं होत रंच हू त्याग भाव
तहाँ करै मंद खोटी कषाय, घर में उदास हो अथिर थाय ॥९॥
अन्वयार्थ : जबतक उसे चारित्र-मोह रूप कर्म प्रकृति का तीव्र उदय रहता है तबतक वह जीव रंचमात्र भी त्याग भावरूप व्रत-धारण नही कर सकता है । परन्तु वह अशुभ रूप कषायों को शुभभाव रूप करता है और वह अस्थिरपने वश उदास चित्त वाला होकर घर मे रहता हुआ दिखता है ।
सबकी रक्षा युत न्याय नीति, जिनशासन गुरु की दृढ़ प्रतीति
बहु रुले अर्द्ध-पुद्गल प्रमान, अंतरमुहूर्त ले परम थान ॥१०॥
अन्वयार्थ : और वह सम्यग्दृष्टि जीव सभी जीवों की रक्षा-सहित न्याय-नीति से प्रवर्त्तता है, सर्वज्ञ भगवान के उपदेश को एवं सच्चे-गुरु की द्रढ़-प्रतीति करता है । यदि सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जावे तो यह अधिक से अधिक अर्द्ध पुदगल-परावर्तन प्रमाण काल तक संसार में रह सकता है और यदि उग्र पुरुषार्थ साधे तो शीघ्र ही अन्तरमुहूर्त मात्र काल में परमधाम रूप निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेता है ।
वे धन्य जीव धन भाग सोय, जाके ऐसी परतीत होय
ताकी महिमा ह्वै स्वर्ग लोय, बुधजन भाषे मोतैं न होय ॥११॥
अन्वयार्थ : जिसे सम्यग्दर्शन हुआ है, वे जीव धन्य हैं, वही धन्य भाग्य हैं । स्वर्गलोक मे भी उनकी प्रशंसा होती है, ज्ञानी-जन भी उनकी प्रशंसा करते हैं । परन्तु बुधजन कवि कहते हैं कि मुझसे तो ऐसे आत्मज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव का वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता है ।
ढाल-4
(सोरठा)
ऊग्यो आतम सूर, दूर भयो मिथ्यात-तम
अब प्रगटे गुणभूर, तिनमें कछु इक कहत हूँ ॥१॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व होते ही आत्मारूपी सूर्य उदित हो गया और मिथ्यात्व रूपी अन्धकार दूर हुआ, वहीं पर अनन्त गुणों का समूह भगवान-आत्मा भी प्रगट हो गया, उनमें से कुछ एक गुणों को यहाँ पर कहता हूँ ।
शंका मन में नाहिं, तत्वारथ सरधान में
निरवांछा चित मांहि, परमारथ में रत रहै ॥२॥
नेक न करत गिलान, बाह्य मलिन मुनि तन लखे
नाहीं होत अजान, तत्त्व कुतत्त्व विचार में ॥३॥
उर में दया विशेष, गुण प्रकटैं औगुण ढंके
शिथिल धर्म मे देख, जैसे - तैसे दृढ़ करै ॥४॥
साधर्मी पहिचान, करैं प्रीति गौ वत्स सम
महिमा होत महान्, धर्म काज ऐसे करै ॥५॥
अन्वयार्थ : ऐसे आत्मज्ञानी जीव के मन में कभी भी इत्यादि प्रमाण सहित सम्यक्त्व होने पर नि:शंकितादि आठ गुण तत्काल प्रगट हो जाते हैं ।
मद नहिं जो नृप तात, मद नहिं भूपति माम को
मद नहिं विभव लहात, मद नहिं सुन्दर रूप को ॥६॥
मद नहिं जो विद्वान, मद नहिं तन में जोर को
मद नहिं जो परधान, मद नहिं संपति कोष को ॥७॥
हूवो आतम ज्ञान, तज रागादि विभाव पर
ताको ह्वै क्यों मान, जात्यादिक वसु अथिर को ॥८॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दृष्टि जीव का
  1. पिता राजा होय तो उसका भी कुलमद नहीं होता है।
  2. मामा राजा होय तो उसका भी जातिमद नही होता है।
  3. वैभव धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति होने का भी मद नही होता है।
  4. सुन्दर रुप लावण्य का भी मद नहीं होता है।
  5. ज्ञान का भी मद नही होता है।
  6. शरीर में विशेष ताकत बल होय उसका भी मद नही होता है।
  7. लोक में कोई मुखिया प्रधान पद वगैरह अधिकार का भी मद नही होता है।
  8. धन-सम्पति कोष का भी मद नही होता है।
जिससे रागादि विभाव भावों को छोडकर उनसे भिन्न आत्मा का ज्ञान प्रगट किया है उसको जाति आदि आठ प्रकार को अस्थिर नाशवान वस्तुओं का मद कैसे हो सकता है ? कभी भी नही हो सकता है। इस तरह से सम्यग्दृष्टि जीव को आठ प्रकार के मदों का अभाव वर्तता है ।
बन्दत हैं अरिहंत, जिन-मुनि जिन-सिद्धान्त को
नमें न देख महन्त, कुगुरु कुदेव कुधर्म को ॥९॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दृष्टि जीव अरिहन्त जिनदेव, जिन मुद्राघारी मुनि मौर जिन सिद्धान्त को ही वन्दन करता है, परन्तु कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को चाहे वे लोक मे कितने ही महान दिखाई देते हो तो भी उन्हें वन्दन नहीं करता है - इस प्रकार ज्ञानी जीव को तीन मूढताओं का अभाव होता ही है ।
कुत्सित आगम देव, कुत्सित गुरु पुनि सेवकी
परशंसा षट भेव, करै न सम्यकवान हैं ॥१०॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दृष्टि जीव कुगरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरु सेवक, कुदेव सेवक तथा कुधर्म सेवक - यह छह अनायतन दोष कहलाते हैं, उनकी भक्ति-विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नही करता, क्योकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व मे दोष लगता है । इस प्रकार शंकादि आठ दोष, आठ मद, तीन मूढता और छह अनायतन - ये पच्चीस दोष जिसमे नहीं पाये जाते, वह जीव सम्यग्दृष्टि है ।
प्रगटो ऐसो भाव, कियो अभाव मिथ्यात्व को
बन्दत ताके पाँय, 'बुधजन' मन-वच-कायतैं ॥११॥
अन्वयार्थ : जिस जीव ने ऐसा निर्मल भाव प्रगटाया है और मिथ्यात्व का अभाव किया है, उस ज्ञानी के चरणों की मैं (बुधजन) मन-वचन-काया से वन्दना करता हूँ ।
ढाल-5
(चाल छंद)
तिर्यंच मनुज दोउ गति में, व्रत धारक श्रद्धा चित में
सो अगलित नीर न पीवै, निशि भोजन तजत सदीवै ॥१॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दर्शन सहित व्रत धारण करने वाले संयमी-जीव तिर्यंच और मनुष्य इन दो गति मे ही होते हैं। वे अणुव्रत धारी श्रावक बिना छना हुआ पानी नहीं पीते और रात्रि-भोजन भी सदा के लिये छोड देते हैं ।
मुख वस्तु अभक्ष न लावै, जिन भक्ति त्रिकाल रचावै
मन वच तन कपट निवारै, कृत कारित मोद संवारै ॥२॥
अन्वयार्थ : मुख मे कभी भी अभक्ष वस्तु नही लाते, सदैव जिनेन्द्र देव की भक्ति में अपने को लीन रखते है, मन-वचन-काया से मायाचारी छोड़ देते है और पाप-कार्यों को न स्वयं करता है, न कराता और न उनकी अनुमोदना करता है ।
जैसी उपशमत कषाया, तैसा तिन त्याग कराया
कोई सात व्यसन को त्यागै, कोई अणुव्रत में मन पागै ॥३॥
अन्वयार्थ : उस आत्मज्ञानी सम्यग्दृष्टि को जितनी-जितनी कषायें उपशमती जाती हैं, उतने-उतने प्रमाण मे उसको हिंसादि पापों का त्याग होता जाता है । कोई-कोई तो सात व्यसन का सर्वथा त्याग कर देते हैं और कोई-कोई अणुव्रत धारण करके शुभाशुभ भावों से रहित तप मे लग जाते हैं ।
त्रस जीव कभी नहिं मारै, विरथा थावर न संहारै
परहित बिन झूठ न बोले, मुख सांच बिना नहिं खोले ॥४॥
अन्वयार्थ : ऐसे श्रावक त्रस जीवों को कभी नही मारते और स्थावर जीवों का भी निष्प्रयोजन कभी भी संहार नहीं करते । पर-हित सिवाय कभी झूठ नहीं बोलते (अर्थात कदाचित् किसी धर्मात्मा से कोई दोष हो गया होय उसे बचाने के लिए अथवा कोई निरपराधी फंस रहा होय उसे निकालने के लिये इन प्रसंगों के सिवाय वह कभी झूठ नहीं बोलते) और सत्य सिवाय कभी भी मुख नहीं खोलते ।
जल मृतिका बिन धन सबहू, बिन दिये न लेवे कबहू
ब्याही वनिता बिन नारी, लघु बहिन बड़ी महतारी ॥५॥
अन्वयार्थ : जिनकी मनाई नही - ऐसा पानी व मिट्टी के सिवाय दूसरी कोई भी वस्तु जो उसे दी नहीं गई हो कभी भी लेता नहीं है। अपनी विवाहिता नारी के अलावा अन्य दूसरी लधुवय स्त्रियों को बहिन समान एवं अपने से बडी स्त्रियों को माता समान समझता है ।
तृष्णा का जोर संकोचै, ज्यादा परिग्रह को मोचै
दिश की मर्यादा लावै, बाहर नहि पाँव हिलावै ॥६॥
अन्वयार्थ : वह श्रावक विषय-पदार्थों के प्रति उत्पन्न होने वाली जो तष्णा, उसके जोर को संकोचता है, ममता को घटाकर अधिक-परिग्रह को छोड देता है, परिग्रह का प्रमाण कर लेता है । दिशाओं में गमन करने की अथवा किसी को बुलाने, लेन-देन आदि करने की मर्यादा कर लेता है और मर्यादा से बाहर पग भी नहीं निकालता है ।
ताहू में गिरि पुर सरिता, नित राखत अघ तें डरता
सब अनरथ दंड न करता, छिन-छिन निज धर्म सुमरता ॥७॥
अन्वयार्थ : पाप से डरने वाला श्रावक दिग्व्रत मे निश्चित की हुई मर्यादा में भी पर्वत, नगर, नदी आदि तक गमनादि-व्यापारादि करने की मर्यादा कर लेता है तथा किसी भी प्रकार का अनर्थ दंड (खोटा पाप निष्प्रयोजन हिंसादि) नहीं करता एवं प्रतिक्षण जिन-धर्म का स्मरण करता रहता है ।
द्रव्य क्षेत्र काल सुध भावै, समता सामायिक ध्यावै
सो वह एकाकी हो है, निष्किंचन मुनि ज्यों सोहै ॥८॥
अन्वयार्थ : वह श्रावक द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की शुद्धि-पूर्वक समतारुप सामायिक को ध्याता है । अष्टमी, चतुर्दशी प्रोषध उपवास के दिन एकान्त मे रहता है और निष्परिग्रही मुनि समान शोभता है ।
परिग्रह परिमाण विचारै, नित नेम भोग को धारै
मुनि आवन बेला जावै, तब जोग अशन मुख लावै ॥९॥
अन्वयार्थ : वह श्रावक परिग्रह की मर्यादा का विचार करता है और भोग-उपभोग की मर्यादा का भी हमेशा नियम करता है । मुनिवरों को प्रतिदिन आहार-दान देने की भावना भाता है और जब मुनिवरों के आहार का समय बीत जावे तब ही स्वयं योग्य शुद्ध भोजन करता है ।
यों उत्तम किरिया करता, नित रहत पाप से डरता
जब निकट मृत्यु निज जाने, तब ही सब ममता भाने ॥१०॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार धर्मी श्रावक सदा ही उत्तम कार्य करता है और पाप से सदा ही डरता रहता है । तथा जब मरण का काल समीप आया जानता है, तब तत्काल समस्त परिग्रह की ममता को छोड देता है ।
ऐसे पुरुषोत्तम केरा, 'बुधजन' चरणों का चेरा
वे निश्चय सुरपद पावैं, थोरे दिन में शिव जावैं ॥११॥
अन्वयार्थ : बुधजन कहते हैं कि हम तो ऐसे उत्तम पुरुषों के चरणों के दास हैं । वे धर्मात्मा श्रावक तो नियम से देव होकर अल्पकाल मे ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ।
ढाल-6
(षटपद छंद)
अथिर ध्याय पर्याय, भोग ते होय उदासी
नित्य निरंजन जोति, आत्मा घट में भासी ॥
सुत दारादि बुलाय, सबनितैं मोह निवारा
त्यागि शहर धन धाम, वास वन-बीच विचारा ॥१॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दृष्टि जीव को नित्य निरन्जन चैतन्य ज्योति स्वरूप आत्मा अपने अन्तरंग मे प्रगट भाषित हुआ है, वह देह (पर्याय) को अस्थिर नाशवान समझकर संसार-शरीर भोगों से उदासीन हो जाता है । वह स्त्री-पुत्रादि को धर्म सम्बोधन करके समस्त चेतन अचेतन परिग्रह के प्रति मोह ममत्व छोड देता है और नगर-धन-मकानादि सब परिग्रह छोडकर वन के बीच एकान्त निर्जन वन मे वास करने का विचार दृढ कर लेता है ।
भूषण वसन उतार, नगन ह्वै आतम चीना
गुरु ढिंग दीक्षा धार, सीस कचलोच जु कीना ॥
त्रस थावर का घात, त्याग मन-वच-तन लीना
झूठ वचन परिहार, गहैं नहिं जल बिन दीना ॥२॥
अन्वयार्थ : पश्चात वह विरागी श्रावक श्री निर्ग्रन्थ गुरु के पास जाकर समस्त आभूषण एवं वस्त्र उतारकर नग्न दिगम्बर वेष धारण कर दीक्षा लेकर केशलोच करके आत्म-ध्यान मे मग्न हो जाता है । समस्त त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा का मन-वच-काया से त्याग कर देता है, मिथ्या वचनादि बोलने का भी त्यागकर देता है तथा बिना दिया हुआ पानी भी नही लेता है ।
चेतन जड़ तिय भोग, तजो भव-भव दुखकारा
अहि-कंचुकि ज्यों जान, चित तें परिग्रह डारा ॥
गुप्ति पालने काज, कपट मन-वच-तन नाहीं
पांचों समिति संवार, परिषह सहि है आहीं ॥३॥
अन्वयार्थ : तथा सर्वप्रकार की चेतन व अचेतन स्त्रियों के उपभोग को भव-भव मे दुखकारी जानकर छोड़ दिया है । तथा चित्त मे निर्ममत्व होकर सर्प की कांचली के समान सर्वप्रकार के परिग्रह को भी भिन्न जानकर छोड दिया है । त्रिगुप्ति के पालने के लिए मन-वचन-काया से कपट भाव छोड दिया है । ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन -- इन पांच समिति के पालने मे सावधान हो वर्तन करते हैं और बाईस प्रकार के परिषह को सहन करने लगे ।
छोड़ सकल जंजाल, आप कर आप आप में
अपने हित को आप, करो ह्वै शुद्ध जाप में ॥
ऐसी निश्चल काय, ध्यान में मुनि जन केरी
मानो पत्थर रची, किधों चित्राम उकेरी ॥४॥
अन्वयार्थ : और कैसे हैं वे मुनिराज ? सकल जगजाल को छोडकर उन्होने अपने द्वारा अपने को अपने मे ही एकाग्र किया है । अपने स्वयं हित के लिए अपने स्वयं का ध्यान स्वयं ने शुद्ध किया है अर्थात् शुद्धात्मा का ध्यान करके निज स्वरूप मे ही लीन हुए हैं । अहा ! शुद्धोपयोग ध्यान में लीन मुनिराज का शरीर भी ऐसा स्थिर हुआ है कि मानो पत्थर की मूर्ति अथवा चित्र ही हो । इस प्रकार अडौलपने द्वारा आत्म-ध्यान मे एकाग्र हैं ।
चार घातिया नाश, ज्ञान मे लोक निहारा
दे जिनमत उपदेश, भव्य को दुख तें टारा ॥
बहुरि अघाती तोरि, समय में शिव-पद पाया
अलख अखंडित जोति, शुद्ध चेतन ठहराया ॥५॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार शुद्धात्म ध्यान द्वारा चार घाति कर्मों का घात करके केवलज्ञान मे लोकालोक को जान लिया और केवलज्ञान के अनुसार उपदेश देकर भव्य जीवों को दुख से छुडाया अर्थात् मुक्ति का मार्ग प्रकाशित किया । पश्चात चार अघाति कर्मों का भी नाश करके एक समय मात्र मे सिद्धपद प्राप्त किया तथा इन्द्रिय ज्ञान से जो जानने मे नहीं आता ऐसा अलख अतीन्द्रिय अखंड आत्म-ज्योति शुद्ध-चेतना रूप होकर स्थिर हो गई ।
काल अनंतानंत, जैसे के तैसे रहिहैं
अविनाशी अविकार, अचल अनुपम सुख लहिहैं ॥
ऐसी भावन भाय, ऐसे जे कारज करिहैं
ते ऐसे ही होय, दुष्ट करमन को हरिहैं ॥६॥
अन्वयार्थ : ऐसी सिद्ध दशा को प्राप्त करके वह जीव अनन्तानन्त काल पर्यन्त ऐसे के ऐसे रहता है तथा अविनाशी, अविकार, अचल, अनुपम सुख का निरन्तर अनुभव किया करता है। जो कोई भव्यजीव ऐसी आत्म-भावना भाकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र का कार्य करते हैं, वे भी इस अनुपम अविनाशी सिद्ध पद को प्राप्त करते है और दुष्ट कर्मों को नाश कर देते हैं ।
जिनके उर विश्वास, वचन जिन-शासन नाहीं
ते भोगातुर होय, सहैं दुख नरकन माही ॥
सुख दुख पूर्व विपाक, अरे मत कल्पै जीया
कठिन कठिन ते मित्र, जन्म मानुष का लीया ॥७॥
अन्वयार्थ : जिन के मन मे जिनशासन के वचनों का (सर्वज्ञ भगवान के उपदेश का) विश्वास नहीं है, वह जीव विषय-भोगों मे मग्न पश्चात नरकों मे दुख भोगते हैं । संसार में सुख-दुख तो पूर्व कर्मों के उदय अनुसार होता है । अत: हे जीव ! इससे तू डर मत (अन्यथा कल्पना मत कर) उदय में जो कर्म आया हो उसे सहन कर । हे मित्र ! बहुत ही अधिक कठिनता से यह मनुष्य जन्म तुझे मिला है ।
सो बिरथा मत खोय, जोय आपा पर भाई
गई न लावैं फेरि, उदधि में डूबी राई ॥
भला नरक का वास, सहित समकित जो पाता
बुरे बने जे देव, नृपति मिथ्यामत माता ॥८॥
अन्वयार्थ : इसलिये इसे तू व्यर्थ यों ही विषयों में मत गवां । हे भाई ! इस नर-भव में तू स्व-पर के विवेकरुप भेद-विज्ञान प्रगट कर, क्योंकि जिस प्रकार समुद्र मे डूबा हुआ राई का दाना पुन मिलना अत्यन्त कठिन है, उसीप्रकार इस दुर्लभ मनुष्य-जन्म बीत जाने के बाद पुन: प्राप्त करना कठिन है । सम्यक्त्व की प्राप्ति सहित तो नरकवास भी भला है परन्तु सम्यक्त्व रहित मिथ्यात्व भाव से भरा हुआ जीव देव अथवा राजा भी हो जाय तो भी वह बुरा ही है ।
नहीं खरच धन होय, नहीं काहू से लरना
नहीं दीनता होय, नहीं घर का परिहरना ॥
समकित सहज स्वभाव, आप का अनुभव करना
या बिन जप तप वृथा, कष्ट के माहीं परना ॥९॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व वह तो आत्मा का सहज स्वभाव है, उसमें न तो कुछ धन खर्च होता है और न ही किसी से लडना पड़ता है । न तो किसी के पास दीनता करनी पड़ती है और न ही घरबार छोडना पडता है । अपना एक रूप त्रिकाली सहज स्वभाव - ऐसे आत्मा का अनुभव करना वही सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के बिना जप-तप आदि व्यवहार क्रियारुप आचरण निरर्थक है, कष्ट मे पडना है ।
कोटि बात की बात अरे, 'बुधजन' उर धरना
मन-वच-तन सुधि होय, गहो जिन-मत का शरना ॥
ठारा सौ पच्चास, अधिक नव संवत जानों
तीज शुक्ल वैशाख, ढाल षट शुभ उपजानों ॥१०॥
अन्वयार्थ : ग्रन्थ की पूर्णता करते हुए पण्डित बुधजन अन्तिम पद मे कहते हैं कि अरे भव्य आत्माओं - बुधजनों ! करोडों बात की सार रुप यह बात तुम अन्तरंग मे धारण करो, मन-वचन-काया की पवित्रता पूर्वक जिन-धर्म की शरण ग्रहण करो । 'ढाल' - इस नाम की शुभ उपमा वाला यह छह पदों की रचना 'छहढाला' सम्वत 1856 की बैशाख शुदि तीज को समाप्त हुई ।
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